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Friday, July 23, 2021

राजनगर–एक भूली बिसरी कहानी

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सीतामढ़ी एक घना बसा हुआ पुराना शहर है। रेलवे स्टेशन के पास से गुजरती दो लेन की सड़क के बीच डिवाइडर बना हुआ है। वैसे यह डिवाइडर काफी पुराना है। दो लेन की सड़क पर डिवाइडर मैंने पहली बार देखा था। रात को होटल में कमरा लेने के बाद मैं शहर की सड़कों पर टहलने निकल पड़ा था और उसी समय इस डिवाइडर के दर्शन हुए। वैसे तो सीतामढ़ी के बारे में मुझे अधिक कुछ पता नहीं लेकिन इतना जरूर पता था कि यह माँ सीता की जन्मस्थली के रूप में विख्यात रहा है। उस स्थान पर जरूर कोई न कोई मंदिर बना होगा। वहाँ जाने की उत्सुकता मेरे मन में बनी हुई थी लेकिन इस समय रात हो चुकी थी और अब कल ही वहाँ जाना संभव था। पड़ोस में बसे रेस्टोरेण्ट में ʺसाधारणʺ खाना खाकर सीतामढ़ी की सड़कों पर पैदल टहलना पता नहीं क्यों, मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। दिन भर की धूप की तपिश में जला शरीर ठण्डक का एहसास कर रहा था। कुछ तो है इस आध्यात्मिक शहर में।

रात भर अच्छी नींद आयी। सुबह उठा तो होटल वाले से जानकी मंदिर का पता पूछा। सीतामढ़ी के प्रसिद्ध जानकी मंदिर और पुनौरा धाम के बारे में पता चला। मैंने बाइक उठायी और चल पड़ा। सीतामढ़ी शहर के पश्चिमी भाग में बना जानकी मंदिर काफी पुराना होगा लेकिन इसका ढाँचा साधारण ही लग रहा था। धार्मिक दृष्टि से यह भले ही बहुत महत्वपूर्ण हो लेकिन पुरातात्विक दृष्टि से यह साधारण ही है। मंदिर के पास ही एक छोटा सा जलाशय भी है लेकिन शहर के बीच स्थित होने के कारण यह अत्यन्त दयनीय स्थिति में है। जानकी मंदिर से निकलकर मैं पुनौरा धाम की ओर चल पड़ा। पुनौरा धाम सीतामढ़ी शहर से 3-4 किलोमीटर की दूरी पर है। पुनौरा धाम परिसर छोटा ही सही लेकिन खूबसूरत है। मंदिर से लेकर जलाशय तक सभी अत्यन्त स्वच्छ एवं सुव्यवस्थित हैं। यह एक नवीन बना मंदिर है जिसमें प्राचीनता कितनी है मुझे नहीं पता। पता नहीं कोरोना के डर से या अन्य किसी वजह से,मंदिर परिसर में दर्शनार्थी बिल्कुल भी नहीं थे। मान्यता है कि मिथिला के राजा जनक ने अपने राज्य में अकाल उत्पन्न होने पर,ऋषि–मुनियों की सलाह पर पुनौरा में ही हल चलाया था। उसी समय भूमि से सीता का जन्म हुआ था। सीता का जन्म होने के कारण इस स्थान का नाम सीतामड़ई पड़ा जो कालान्तर में सीतामढ़ी हो गया है।

पुनौरा धाम से मैं वापस अपने होटल की ओर लौट पड़ा। रास्ते में कई जगह जलेबियाँ छनती दिखीं लेकिन हायǃ अगली दुकान के चक्कर में मैं आगे बढ़ता चला गया और फिर ऐसा हुआ कि दोपहर तक मुझे जलेबियाँ नसीब नहीं हुईं। 8.30 बजे मैं माँ सीता की जन्मस्थली सीतामढ़ी से बाहर की ओर चल पड़ा। एक बिल्कुल ही अनजान स्थल का नाम मन में था। तरह–तरह की आशंकाएँ मन में थीं लेकिन सबको एक किनारे कर मैं मधुबनी की ओर चल पड़ा।
बिहार का मधुबनी जिला अपनी विशिष्ट पेण्टिंग के लिए जाना जाता है। लेकिन मैं मधुबनी न जाकर मधुबनी  से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक कस्बे राजनगर की ओर जा रहा था। सूत्रों से पता चला था कि राजनगर में किसी राजा द्वारा बनवाये गये महलों के खण्डहर विद्यमान हैं। मुझे खण्डहर देखने में रोमांच की अनुभूति होती है। तो मैं बिना कुछ सोचे–बिचारे चल पड़ा।

सुबह का समय था और ठण्डा मौसम,बाइक चलाने में मजा आ रहा था। लेकिन सीतामढ़ी में छनती जलेबियों को छोड़ने की कसक मन में बनी हुई थी।
कभी–कभी लगता है जिन्दगी भी इन जलेबियों की ही तरह बहुत टेढ़ी है। नहीं तो अच्छा खासा लॉकडाउन की छुटि्टयों का समय घर पर बिताने का मौका छोड़कर,बिहार की सड़कों पर धूल फाँकने भला कौन आता हैǃ आखिरकार पुपरी नामक जगह पर एक दुकान में फिर जलेबियाँ दिखीं। मैंने झट से बाइक रोकी और दो पीस जलेबी का आर्डर जारी कर दिया। लेकिन दुकानदार भी अजीब उजबक किस्म का आदमी था। मुझे कोई दूसरी मिठाई खिलाने की जिद कर रहा था। कहाँ तो इधर जलेबियों को सामने देखकर मुँह में पानी की धार प्रवाहित हाे रही थी और यह बेवकूफ ʺकुछ औरʺ खिलाने पर तुला हुआ था। पूरे एक मिनट की बहस के बाद उसने सारा भेद उगलते हुए बताया कि जलेबियाँ बासी हैं। सारा उत्साह ठण्डा पड़ गया। लेकिन उसने मुझे आश्वासन भी दिया कि अगर आप 10 मिनट वेट करेंगे तो ताजी जलेबियाँ निकाल दूँगा। पाँच मिनट तो बहस में खर्च हो ही चुके थे,दस मिनट और सही। मैं सहर्ष राजी हो गया।
थोड़ी देर में राजनगर तक के लिए ईंधन मिल गया। मधुबनी तक तो रास्ता आसानी से मिलता रहा लेकिन उसके बाद राजनगर तक काफी पूछताछ करनी पड़ी। सीतामढ़ी से चलने में ही काफी देर हो चुकी थी इसलिए राजनगर तक की 90 किलोमीटर की दूरी तय करने में 11.30 बज गये। यहाँ पहुँचा तो मेरी समझ में ही नहीं आया कि करना क्या हैǃ देखना क्या है,जाना कहाँ है,कुछ पता नहीं चल रहा था। अचानक सड़क पर से ही कुछ खण्डहर दिखे। रास्ता पूछकर वहाँ पहुँच गया। पास आकर पता चला कि काफी बड़े क्षेत्र में कुछ खण्डहर और कुछ अच्छी इमारतें फैली हुई हैं। मैंने पास की एक दुकान पर कोल्ड ड्रिंक पिया और महल के बारे में पूछताछ करने लगा। पाँच मिनट तक बातें होती रहीं। कई सारी बातें पता चलीं और निष्कर्ष ये निकला कि काम में आने वाली इमारत को काम में ले लिया गया है और खण्डहर को खण्डहर की तरह उसके हाल पर छोड़ दिया गया है। इस स्थान पर पर्यटक भी आ सकते हैं,इस बारे में सोचने की जहमत किसी ने नहीं उठाई है। मन में दुख भी हुआ और पश्चाताप भी। कुछ कुछ पछतावा तो अब इस बात का भी हो रहा था कि मैं क्योंकर यहाँ आ पहुँचाǃ

मेरे सामने इस समय वह इमारत दिखायी पड़ रही थी जिसमें डिग्री कॉलेज संचालित होता है। यह इमारत अभी सुरक्षित है तो इसका उपयोग किया जा रहा है। यह सम्भवतः महल के पीछे का हिस्सा है क्योंकि इसी इमारत से लगे हुए,पूरब की तरफ महल का मुख्य द्वार दिखायी पड़ता है जो खण्डहर में तब्दील हो चुका है। मुख्य प्रवेश द्वार पर दो विशाल हाथियों की मूर्ति दिखायी पड़ती है जिसके आस–पास के खण्डहरों में गंदगी का साम्राज्य बिखरा दिखायी पड़ता है। पास में एक–दो और इमारतें दिखायी पड़ती हैं जिन्हें देखकर मेरी समझ में कुछ नहीं आया कि ये किस उद्देश्य से बनायी गयी होंगी। यदि लॉकडाउन की बजाय और दिन होते तो डिग्री कॉलेज में पढ़ने वाले छात्रों की यहाँ भीड़ लगी होती,दुकानें सजी होतीं और शायद तब मैं भीड़ में खो जाता लेकिन आज बेवकूफों की तरह,दोपहर की धूप में,कॉलेज के पास के मैदान में खड़े होकर,कुछ सौ सालों पहले किसी राजा द्वारा बनवाये गये महलों के खण्डहरों को निहार रहा हूँ। मुझे पता चला कि साल के पहले दिन अर्थात 1 जनवरी को यहाँ विशाल मेला लगता है और तब यहाँ घूमने लायक होता है। बातचीत से मुझे अनुमान हुआ कि ऐसा मेला मैं अपनी पढ़ाई के दौरान बुद्ध की निर्वाणस्थली कुशीनगर में देख चुका हूँ। दरअसल ये मेला कम और पिकनिक अधिक होता है। डीजे की धुन पर डांस और अच्छे–भले दिखते मैदानों और सड़कों पर बिखरता गंदगी का साम्राज्य,यही इस तरह के मेले की प्रमुख विशेषता होती है।

राजनगर में आज खण्डहर के रूप में दिख रही इन इमारतों का निर्माण दरभंगा रियासत के राजा रामेश्वर सिंह ने 19वीं सदी के मध्यकाल के बाद संभवतः 1870 के आस–पास कराया था। राजा ने एक विशाल परिसर में कई राजमहल और मंदिरों का निर्माण कराया। इन इमारतों में नौलखा महल,काली मंदिर,दुर्गा मंदिर,कामाख्या मंदिर,गिरिजा मंदिर,रामेश्वरनाथ मंदिर,हाथी महल,रानी महल,मोती महल इत्यादि पर्यटकों को आकर्षित करने लायक भवन थे। इसी परिसर में दरभंगा राज के कामकाज के लिए सचिवालय भी बनवाया गया था। लेकिन 1934 में आए विनाशकारी भूकम्प ने इन इमारतों को नष्ट कर डाला। इनमें से अधिकांश अब अपना अस्तित्व खोने के कगार पर हैं। इस भूकम्प के बाद बची–खुची अथवा बनवायी गयी इमारतों को 1988 के भूकम्प ने तबाह कर दिया। कहते हैं कि तत्कालीन राजा को तंत्र–मंत्र में विशेष रूचि थी। इसी कारण परिसर के सभी 11 मंदिर दक्षिणामुखी हैं। खण्डहरों की दीवारों पर अवशेष इटालियन और पुर्तगाली शैली की नक्काशी तत्कालीन राजाओं की वास्तुकला में अभिरूचि को प्रदर्शित करती है। इस भव्य राज–परिसर का नक्शा ब्रिटिश आर्किटेक्ट एम. ए. कोरनी ने बनाया था। परिसर में एक–दो तालाब भी बने हुए हैं। वर्तमान में इस परिसर में सशस्त्र सीमा बल की 18वीं वहिनी का मुख्यालय है।

मुझे अनुमान था कि यह परिसर बहुत बड़ा है तो मैं आगे बढ़ा। लेकिन मेरे जैसे आदमी के देखने के लिए सिर्फ खण्डहर ही छोड़े गये हैं। ठीक–ठाक सुरक्षित बची इमारतों पर पुलिस और सीमा सुरक्षा बल का कब्जा है। ले–देकर देखने के लिए या फिर लैला–मजनुओं के छ्पि कर बातें करने के लिए,एक ही जगह मुफीद बचती है और वह है काली मंदिर। इस मंदिर का संभवतः बाद में जीर्णाेद्धार कराया गया होगा तभी यह इतना सुरक्षित है। मैंने भी काली माँ के दर्शन किये,कुछ देर आराम किया,नजरें बचाकर कुछ लैला–मजनुओं की हरकतों पर कुदृष्टि डाली और फिर थोड़ा और आगे बढ़ा। पास ही कामाख्या मंदिर के नाम से एक इमारत दिख रही थी। मैं बाइक समेत मंदिर की ओर बढ़ा कि तभी सुरक्षा बल के दो जवानों की कड़कती आवाज ने मुझे रोक दिया। उन्हें मेरी बाइक से दिक्कत थी।
ʺकहाँ जाना है?ʺ
ʺमंदिर में दर्शन करना है।ʺ
ʺबाइक उधर दूर खड़ी करो और बाहर से ही दर्शन करो।ʺ
मेरी हडि्डयाँ सुलग उठीं। बहुत अधिक बात करने की आवश्यकता नहीं दिखायी पड़ रही थी। मैंने वहीं से जयकारा लगाया,मोबाइल से एक–दो फोटो खींची और बाइक पीछे मुड़ा ली।
मेरी राजनगर यात्रा पूरी हो चुकी थी। न तो मेरी उत्सुकता में कहीं कमी थी,न महाराज दरभंगा के कला–प्रेम में। दोष था तो बस समय के थपेड़ों का,जिन्होंने इतिहास के स्तम्भों के रूप में खड़ी इन इमारतों को जमींदोज कर डाला था। दीवारों और दरवाजों पर की गयी कारीगरी में कहीं कोई कमी नहीं,कमी तो बस उन्हें महसूस करने वालों में थी। आज की तारीख में ये खण्डहर कोई भूली–बिसरी कहानी सुनाते प्रतीत हो रहे हैं और शायद कुछ सालों बाद यहाँ ये कहानी सुनाने वाला भी कोई न बचे।

दोपहर के 12.30 से कुछ अधिक ही बज रहे थे। मेरे चेहरे पर भी 12 बज रहे थे। सूरज सिर के ऊपर चमक रहा था। मन भारी हो चुका था। धूप अलग ही बोझ डाल रही थी। मेरी अगली मंजिल थी भागलपुर,जहाँ पहुँचने के दो रास्ते थे। फोर्बिसगंज होकर 277 किलोमीटर और बेगूसराय होकर 255 किलाेमीटर। मैंने बेगूसराय वाले रास्ते का चुनाव किया क्योंकि इसकी दूरी कम दिखायी पड़ रही थी। शाम तक भागलपुर पहुँचने के लिए यह दूरियाँ बहुत अधिक नहीं थीं लेकिन तेज धूप में बाइक चलानी थी और अंजान जगह पर मैं रात में बाइक चलाना पसंद नहीं करता। दूरियों का तय हो पाना बहुत कुछ रास्तों पर भी निर्भर करता है। बाद में मुझे लगा कि फोर्बिसगंज वाला रास्ता संभवतः अच्छा रहा होता लेकिन तब तक मैं रास्ते का चुनाव कर चुका था। योजना ये थी कि भागलपुर तक पहुँचने की उम्मीद दिखी तो रात होने पर भी कुछ देर तक बाइक चलायी जा सकती है और अगर रास्ते में देर हुई तो बेगूसराय को ही आज रात का ठिकाना बना लेंगे। लेकिन रास्ता मेरी उम्मीद के विपरीत निकला। धूप भी मेरे अनुमानों से काफी तेज निकली। नतीजा ये कि मैं धीमा होता चला गया। दोपहर में एक–डेढ़ घण्टे चलने के बाद ही पंडौल नाम जगह पर मुझे एक बूढ़े दादा की दुकान में आराम करने के लिए रूकना पड़ा। बूढ़े दादा ने स्थानीय ढंग से बना खस्ता खिलाया। मेरी स्वाद कलिकाएं जाग्रत हो उठीं। मैंने एक की बजाय तीन खाये।

तेज धूप ने अपना रंग दिखलाना शुरू कर दिया था। शाम को जब मैं बेगूसराय में दाखिल हुआ तो 5 बज रहे थे। अब यहाँ से भागलपुर की दूरी लगभग 130 किलोमीटर है। बरौनी–पूर्णिया हाइवे दिख तो अच्छा रहा था लेकिन रात में ड्राइव करना पड़ता। तो मैंने आज ही भागलपुर पहुँचने की इच्छा का परित्याग कर दिया। आज की रात बेगूसराय में रूकना तय हो गया। होटलों की खोज होने लगी। बेगूसराय बस स्टेशन के आस–पास कुछ टुटहे–भुतहे होटल दिखायी पड़ रहे थे। अब बेगूसराय कोई प्रसिद्ध पर्यटक स्थल तो है नहीं। यहाँ अच्छे होटलों की क्या जरूरत। मैंने भी परिस्थितियों से समझौता करते हुए 200 में एक कमरा ले लिया। कमरा क्या था,मुर्गियों का दड़बा भी इससे बेहतर होता। बस बाथरूम अटैच्ड मिल गया था,मेरे लिए यही बहुत था। कमरे में लगा सीलिंग फैन इतनी आवाज कर रहा था कि सारी दुनियावी झंझटों के शोर उसमें दब जा रहे थे।
कमरा तो किसी तरह मिला लेकिन भोजन की समस्या भी कम विकट नहीं थी। कारण कि शाकाहारी खाना चाहिए था और यहाँ शुद्ध शाकाहारी के साथ साथ मांसाहारी भोजन धड़ल्ले से बिक रहा था। लेकिन किस्मत ने साथ दिया। पता चला कि बस–स्टेशन परिसर के अन्दर चन्दन होटल है जहाँ आपके लायक खाना मिलेगा। और कसम से 60 रूपये थाली का खाना वास्तव में लाजवाब था। आज दिन भर की यात्रा का मेरा सबसे अच्छा समय यही था।

अगले दिन सुबह सोकर उठा तो सिर भारी था। कल का दिन भागमभाग भरा रहा था। रात का खाना तो अच्छा मिल गया था लेकिन कमरा नहीं। पता नहीं क्यों नींद भी ठीक से नहीं आयी थी। कुल मिलाकर दिन के साथ रात भी खराब गयी थी। फिर भी मैं समय गँवाने की स्थिति में नहीं था। बेगूसराय के बारे में मुझे कुछ बातें पहले से पता थीं– जैसे कि यह गंगा के किनारे बसा हुआ है। वैसे यह गंगा के बिल्कुल किनारे न होकर कुछ दूरी पर है या फिर हो सकता है कि गंगा ही इससे नाराज होकर कुछ दूर चली गयीं हों। दूसरी बात ये कि राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म बेगूसराय में ही हुआ था। तीसरी बात ये कि बेगूसराय का यह नाम ʺबेगम की सरायʺ का बिगड़ा हुआ रूप है। कुल मिलाकर बेगूसराय में अब और रूकने का कोई कारण नहीं था। सुबह के समय मैं भरसक जल्दी निकलने के प्रयास में था और 6.35 पर मैंने बेगूसराय का पिण्ड छोड़ दिया।


जानकी मंदिर,सीतामढ़ी



जानकी मंदिर,पुनौरा धाम


राजनगर की इमारतें


राजनगर पैलेस का अग्र भाग





काली मंदिर


कामाख्या मंदिर


बेगूसराय की थाली


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