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नर देवी मंदिर से जब मैं बाहर निकला तो दिन के डेढ़ बज रहे थे। फिर भी गर्मी कुछ खास नहीं महसूस हो रही थी। दूर–दूर तक जंगल की छाया होने का यह असर था। जोर की भूख लग रही थी। रास्ते में खायी गयी सुबह की जलेबियों का असर समाप्त हो चुका था। लेकिन वाल्मीकि नगर के छोटे से बाजार में भाेजन की कहीं भी संभावना नहीं दिख रही थी। एक दो होटलों के बोर्ड कहीं दिखे लेकिन वे बंद थे। इस कोरोना–पीड़ित कलियुग में कौन यहाँ खाना खाने आएगा। एक दुकान पर समोसे दिखे। तो समोसे और कोल्ड ड्रिंक का लंच हुआ और फिर आगे का रास्ता। कुछ किलोमीटर तक तो दो लेन की अच्छी सड़क का साथ रहा लेकिन उसके बाद सड़क ने अपना रूप बदलना शुरू कर दिया। कहीं एक लेन,कहीं डेढ़ लेन तो कहीं पौने दो लेन की सड़क मिल रही थी। ऐसी मायावी सड़क मैंने पहले नहीं देखी थी। वैसे यह सब इस सड़क को बनाने वाले ठेकेदारों और इंजीनियरों का कमाल होगा। पता नहीं चल रहा था कि यह बनी किस मानक पर है। इसी सड़क से गुजरते हुए रास्ते में एक जगह पुलिस–चेक का भी सामना करना पड़ा। पकड़े गये खुराफाती लोग पुलिस के सामने हाथ पैर जोड़कर घिघिया रहे थे। अपना कागज–पत्तर सब ठीक था तो तुरंत ही मुक्ति मिल गयी।
वाल्मीकि नगर से निकलने के बाद बगहा,जो कि पश्चिमी चम्पारन का जिले का एक बड़ा कस्बा है,में रात में ठहरने का विकल्प मेरे लिए उपलब्ध था लेकिन अभी चलने के लिए पर्याप्त समय था तो ठहरने की बात ही नहीं थी। अब मेरा अगला लक्ष्य था लौरिया नंदनगढ़। यहाँ कुछ ऐतिहासिक स्मारकों के अवशेष हैं। एक तो अशोक का स्तम्भ है और दूसरा एक स्तूप। वाल्मकि नगर से बगहा होकर बेतिया की ओर जाने वाली सड़क पर लौरिया कस्बा पड़ता है। लौरिया से कुछ दूर पहले सड़क के दाहिनी तरफ,एक किलोमीटर अंदर एक बौद्ध स्तूप स्थित है। मुख्य सड़क छोड़कर स्तूप वाले रास्ते पर मुड़ते ही एक तीव्र गंध से सामना होता है। यह तीखी गंध नाक के साथ साथ आत्मा को भी झनझना जाती है। यह गंध पास ही बनी एच पी सी एल की बायोफ्यूल्स की फैक्ट्री से आती है। फिर भी यह गंध स्तूप की ओर जाने से किसी को नहीं रोकती। स्तूप की ओर जाने वाले कुछ ही लोग हैं। सभी आस–पास के ही निवासी हैं। दूर का सिर्फ मैं ही हूूँ। यह स्तूप पूरी तरह उपेक्षित है। कोई माई–बाप नहीं। पास के गाँव वालों ने व्यवस्था सँभाल रखी है– स्तूप के देख–रेख की नहीं वरन गाड़ियों का स्टैण्ड बना कर पैसा कमाने की। अभी गाइड बनकर पैसा कमाने वाला यहाँ कोई पैदा नहीं हुआ है।
मेरे ऊपर भी 10-12 साल के 3-4 बच्चे स्टैण्ड में गाड़ी खड़ी करवाने के लिए झपटे। लेकिन मैं थोड़ा सा आगे बढ़कर स्तूप की चारदीवारी के पास वहाँ रूका जहाँ पहले से ही 3-4 मोटरसाइकिलें खड़ी थीं। एक दुकान वाला बाकायदे टिकट बनाकर उनकी रखवाली कर रहा था। वैसे सच्चाई यह थी कि बाइक और बैग की रखवाली भगवान भरोसे थी क्योंकि दुकान वाला तो अपनी दुकान में ही व्यस्त था। मैंने भी बैग और हेलमेट लदी बाइक उसके हवाले की और स्तूप परिसर में प्रवेश कर गया। यहाँ सबसे पहले सामना हुआ बकरियों से,जो यहाँ पुरातत्व विभाग द्वारा लगाये गये फूल–पत्तियों की बड़ी ही बारीकी से सफाई कर रही थीं। मेरे लिए उन्हें भगाना व्यर्थ था क्योंकि यह उनका रोज का काम था। उनके चरवाहे भी कहीं आस–पास जरूर होेंगे। अगर भारतभूमि पर जन्म लिए मनुष्यों के पास ʺकर्तव्यरहितʺ असीमित अधिकार हैं,गाय को माता का दर्जा प्राप्त है तो बकरियों और भैंसों के साथ भी नाइंसाफी नहीं होनी चाहिए। एक–दो ʺबलशालीʺ पुरूष स्तूप के ऊपर चढ़कर अपनी विजय का उद्घोष कर रहे थे। चारपहिया गाड़ियों से आयीं कुछ ʺअर्द्ध–शहरीʺ महिलाएं इस स्तूप के बारे में गहन रहस्योद्घाटन कर रही थीं। उन महिलाओं के पीछे चलकर ही मु्झे इस ʺगूढ़ तथ्यʺ का पता चला कि पहले के जमाने में लोगों को मर जाने के बाद इसी के नीचे गाड़ दिया जाता था। वैसे दो–तीन ʺगंभीरʺ लोग भी स्तूप देखने के लिए आए हुए थे जो स्तूप की बनावटों को देखकर उसके बारे में ऐतिहासिक तथ्यों पर चर्चा कर रहे थे। मुझे फोटोग्राफर समझ फोटो खींचने की गुजारिश भी की। और हर बार की तरह मुझे बताना पड़ा कि मैं फोटोग्राफर नहीं। मैंने भी कुछ देर तक स्तूप का बारीकी से निरीक्षण करते हुए परिक्रमा की और फिर वापस लौटा।
स्तूप परिसर में लगे पुरातत्व विभाग के सूचना बोर्ड से इस स्तूप के बारे में काफी सूचनाएं प्राप्त होती हैं। इस विशाल टीले की खोज सर एलेक्जेण्डर कनिंघम में 1880 में की। इसके बाद गैरिक ने 1880 में ही इसकी ऊपरी सतह की खुदाई की। खुदाई के दौरान उन्हें तीन मिट्टी के दीप मिले जिन पर अशोककालीन विशेषताओं से मिलते–जुलते अभिलेख उत्कीर्ण थे। कनिंघम के मत में यह टीला एक गढ़ था लेकिन गैरिक के अनुसार एक गढ़ या किले के लिए यह स्थान बहुत छोटा था। स्मिथ के मतानुसार यह एक अस्थि–स्तूप था लेकिन ब्लॉच के मत में यह एक प्राचीन दुर्ग था। सन 1935-36 में एन. जी. मजूमदार ने इसकी खुदाई करवायी जिसे ए. घोष ने 1940-41 तक जारी रखा। इस विशाल टीले की श्रेणीबद्ध खुदाई से ईंट से निर्मित 24.38 मीटर ऊँचे स्तूप के अवशेष प्राप्त हुए। यह स्तूप आकार में बहुकोणीय है तथा पाँच वेदिकाओं,जो एक के ऊपर एक अवस्थित हैं,से मिलकर बना हुआ है। इनमें तीन वेदिकाओं पर परिक्रमा पथ है। दीवारों के सामने वाले भाग पर चारों तरफ क्षैतिज रूप में ईंटों का सुन्दर काम किया गया है। मुख्य स्थान से चारों तरफ 31.69 मीटर लम्बा भाग है जो एक दूसरे से 81.07 मीटर की दूरी पर स्थित है। चारों वृत्तपाद के प्रत्येक दोनों भाग में खाली स्थान 28 छोटे वृत्तपाद से भरा है जो अन्तर्मुखी कोणों और 13 किनारों को दर्शाते हैं। श्री मजूमदार के अनुसार यह संरचना बौद्ध स्तूप के रूप में मान्य है तथा अभिलिखित सिक्कों एवं मुद्रांक के अवशेषों से स्पष्ट होता है कि यह स्मारक पहली शताब्दी ईसा पूर्व का हो सकता है जो दूसरी शताब्दी ईस्वी तक अस्तित्व में कायम रहा।
स्तूप से थोड़ा ही आगे लौरिया कस्बा है। लौरिया से नरकटियागंज जाने वाली सड़क के किनारे,कस्बे के पूरब की ओर बिल्कुल अकेले में,अशोक का स्तम्भ खड़ा है– अदम्य,अपराजित। मैं यहाँ पहुँचा तो एक आदमी इसकी चारदीवारी के अन्दर झाड़ू लगा रहा था। न कोई सूचना,न बोर्ड,न कर्मचारी– बिल्कुल उपेक्षित। हजारों साल पुरानी महागाथा सुनाता प्रस्तर स्तंभ,बस स्वयं के सहारे खड़ा है।
माना जाता है कि जब मौर्य सम्राट अशोक ने पाटलिपुत्र से अपनी तीर्थयात्रा आरम्भ की तो वे चम्पारन जिले के केसरिया गाँव,लौरिया अरेराज,लौरिया नंदनगढ़ होते हुए रामपुरवा तक गये। इन सभी स्थानों पर अशोक ने स्तूप अथवा स्तम्भ (लौर) बनवा दिया। उल्लेखनीय है कि तत्कालीन नेपाल मगध साम्राज्य का ही भाग था और प्रायः सभी राज्य–कर्मचारियों को इसी रास्ते भिखनाटोरी होकर नेपाल जाना होता था। तत्कालीन स्तम्भ या ʺलौरʺ के 100 गज के दायरे में स्थित गाँव को लौरिया कहा जाता था। लौरिया नंदनगढ़ भी संभवतः इसी तरह का कोई स्थान रहा होगा। लौरिया नंदनगढ़ का स्तम्भ 32 फीट 9.5 इंच लम्बा है। इसके आधार का व्यास 35.5 इंच और चोटी का व्यास 26.2 इंच है। इसका कलश 6 फीट 10 इंच लम्बा है। इसकी कलगी पर दाना चुगते राजहंस की पंक्ति चित्रित है जबकि ऊपर सिंह की मूर्ति बनी हुई है। सिंह का मुँह टूटा हुआ है और स्तम्भ दण्ड के ऊपरी भाग में तोप के गोले का निशान है। स्तम्भ पर सन 1660-61 के समय का फारसी में औरंगजेब का नाम खुदा हुआ है। कनिंघम की एक रिपोर्ट के अनुसार यह औरंगजेब के शासन काल का चौथा वर्ष था और संभवतः मीर जुमला की सेना के कुछ उत्साही अनुयायियों द्वारा यह नाम उत्कीर्ण किया गया था। अरेराज के स्तम्भ की तुलना में लौरिया नंदनगढ़ का स्तम्भ कुछ हल्का और पतला है। इसका वजन 18 टन है।
शाम के 4.30 बज रहे थे। मैं चिंतन कर रहा था– आज से हजारों साल पहले और वर्तमान की परिस्थितियों पर। उस महान सम्राट की यादें मन को झिंझोड़ रही थीं। आज के संसाधन संपन्न युग में जब कुछ सौ किलोमीटर चलने के पहले हमें सोचना पड़ता है तब तकनीकी विहीन उस युग में उस सम्राट ने कैसे इन महान संरचनाओं की निर्मिति की होगीǃ कैसे इतनी लम्बी–लम्बी यात्राएं की होंगी।
वैसे अब मुझे रात बिताने की चिंता सवार हो रही थी। पेट की जरूरत तो समोसा–जलेबी के सहारे भी पूरी हो सकती थी लेकिन सोने के लिए तो छत की व्यवस्था करनी ही पड़ेगी। अब मैं यहाँ से बेतिया की ओर भागा। लौरिया नंदनगढ़ से बेतिया लगभग 30 किलोमीटर ही है तो मैं आसानी से एक घण्टे में बेतिया पहुँच गया। मन में जैसा कि मैं डर रहा था,कहीं ठिकाना मिलेगा या नहीं,वैसा कुछ हुआ नहीं। बेतिया में मुख्य सड़क के किनारे ही ढेर सारे होटल और रेस्टोरेण्ट हैं। बाइक का सबसे बड़ा फायदा इन्हें ढूँढ़ने में ही पता चलता है। पैदल होने पर तो अवश्य ही समस्या आती,या फिर रिक्शेवालों के हाथों लुटना पड़ता। केवल 350 रूपये में कमरा मिल गया। कमरा फिक्स करने के बाद मेरा अगला सवाल था– ʺबाइक कहाँ खड़ी होगी?ʺ
तुरंत जवाब मिला– ʺअन्दर।ʺ
होटल के ग्राउण्ड फ्लोर पर रेस्टोरेण्ट और कर्मचारियों के रहने की जगह है। मेरी बाइक का ठिकाना यही जगह बनने वाली थी। कोरोना की कृपादृष्टि से रेस्टोरेण्ट मृतप्राय सा था तो मेरी बाइक को तुरंत इन्ट्री मिल गयी अन्यथा रात होने का इन्तजार करना पड़ता। मुझे वो दिन याद आ गया जब जयपुर में मुझे किराये पर ली गयी बाइक को होटल के सामने,सड़क किनारे ही खड़ा करना पड़ा था,वो भी एक रात नहीं बल्कि तीन रात तक। होटल वाले का कहना था– ʺसारे लोग ऐसे ही बाहर खड़ा करते हैं।ʺ बिहार की मेरी आगे की यात्रा में,कहीं भी बाइक रात में बाहर नहीं खड़ी रही। मेरे कहने से पहले ही होटल वालों ने अन्दर खड़ी करने के लिए कह दिया। वैसे बेतिया के होटल वाले ने जब मेरा पूरा परिचय जाना तो बहुत सम्मान दिया। मैं गदगद हो गया। बिहार में अतिथि का सम्मान न हो,ऐसा कतई नहीं हो सकता।
अब मेरा अगला लक्ष्य था बेतिया की सड़कों पर टहलते हुए भोजन की व्यवस्था करना। जी हाँ,मुझे भोजन की व्यवस्था करनी पड़ती है,विशेष रूप से उन जगहों पर जो चर्चित पर्यटक स्थल नहीं हैं। रेस्टोरेण्ट तो बहुत सारे दिख रहे थे लेकिन शुद्ध शाकाहारी कोई नहीं था। एक–दो जगह गहराई से पूछताछ करने पर पता चला कि सारे रेस्टोरेण्ट इस समय बन्द हैंं और एकमात्र ʺफलांʺ होटल में ही शाकाहारी खाना मिलेगा। मैं कुछ देर पहले ही इस होटल को रिजेक्ट कर चुका था क्योंकि यहाँ जाने पर जेब ढीली होने की आशंका था। फिर भी हार मानकर जाना ही पड़ा। दिन तो समोसे और जलेबी के भरोसे कट ही गया था,रात के लिए कुछ तो चहिए। सहमते हुए मैंने होटल में प्रवेश किया, जिसका डर था वही हुआ। यहाँ थाली वाले भोजन की कोई व्यवस्था नहीं थी। मेन्यू देखकर ही लग रहा था कि 250-300 की बिल बनेगी,तो फिर देर किस बात की थी। आज दावत ही सही,बचत फिर किसी दिन करेंगे। कमरा जो सस्ता मिला था,उसकी कसर खाने ने पूरी कर दी थी।
आर्डर जारी हुआ– ʺकढ़ाई पनीर और तवे की रोटी।ʺ
बड़े प्यार से रोटियाँ और पनीर प्लेट में परोस कर मुझे खिलाया गया। वैसे इस प्यार की कीमत मैं बखूबी समझ रहा था।
अगला भाग ः अशोक की स्मृतियाँ-2
शानदार पोस्ट। सुंदर वर्णन।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद।
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