Friday, July 16, 2021

अशोक की स्मृतियाँ-2

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अगले दिन सुबह उठने में देर हो गयी। यह देरी बाइक से यात्रा करने के नियम के विरूद्ध है। गर्मी के दिनों में बाइक की यात्रा सुबह जल्दी शुरू हो जानी चाहिए। मुझे होटल से निकलने में 8 बज गये। आज के मेरे गंतव्य पूर्व–निर्धारित थे– लौरिया अरेराज और रामपुरवा का अशोक स्तम्भ एवं केसरिया का स्तूप। अरेराज के अशोक स्तम्भ और केसरिया के स्तूप के बारे में तो मुझे कुछ–कुछ पता था लेकिन रामपुरवा की तो मुझे लोकेशन ही नहीं पता थी कि ये है कहाँ? इसके बारे में कोई बताने वाला भी अब तक नहीं मिला था। पूछताछ करने पर इसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पा रही थी। लेकिन मुझे जाना था,इतना पूरी तरह सुनिश्चित था। मुझे एक संक्षिप्त सी सूचना अवश्य मिली थी। कल जब मैं लौरिया नंदनगढ़ में अशोक स्तम्भ के पास से लाैट रहा तो मुझे नरकटियागंज जाने वाली सड़क पर एक बोर्ड दिखा था जिस पर भितिहरवा स्तम्भ लेख और रामपुरवा का नाम लिखा दिखायी पड़ा था। बस इसी को आधार बना कर,गूगल मैप के सहारे निकल पड़ा। अब मैं फिर वापस बेतिया से लौरिया नंदनगढ़ की ओर जा रहा था,वहाँ से नरकटियागंज और फिर रामपुरवा। बेतिया से कुल दूरी 60 किलोमीटर। लौरिया तक तो बहुत अच्छी सड़क मिली। नरकटियागंज तक भी ठीक–ठाक थी लेकिन उसके बाद सड़क की दशा बदतर होती गयी। अंतिम कुछ किलोमीटर तो बेहद थका देने वाले साबित हुए। अंजान जगह पर बार–बार रास्ता पूछना भी अत्यधिक उबाऊ काम है। रामपुरवा की बजाय भितिहरवा के बारे में पूछना ज्यादा आसान है। सड़क के किनारे भितिहरवा के बारे में रास्ता बताते बोर्ड पुरातत्व विभाग द्वारा लगाये गये हैं लेकिन ये नाकाफी हैं। धूल भरे रास्ते ने बाइक और कपड़ों को सफेद कर दिया था। अंतिम एक किलोमीटर का रास्ता तो बिल्कुल ही भ्रमित करने वाला है। पता ही नहीं चलता कि यहाँ कोई पुरातात्विक स्थल है। यदि मेरे पास बाइक न होती तो यहाँ पहुँचना मुश्किल ही नहीं लगभग असंभव था।


खैर,जब मैं यहाँ पहुँचा और टूटा हुआ स्तम्भ सामने दिखा तो लगा कि अब तक की मेहनत बेकार नहीं गयी। अशोक की स्मृतियाँ तो कल से ही मन में हलचल मचाए हुये थीं। एक छोटे से परिसर में चारदीवारी से घिरे एक टीले के ऊपर,लोहे की जाली से घेरकर,दो चबूतरे बनाकर,टूटे हुए दो स्तम्भों को क्षैतिज अवस्था में सुरक्षित किया गया है। स्तम्भ के बारे में कोई सूचना प्रदान नहीं की गयी है। स्तम्भ पर खुदे अक्षर मेरी बुद्धि के बाहर थे तो मैं स्तम्भ के फोटो ही खींच सकता था।
मौर्य सम्राट अशोक के ये स्तम्भ खण्डित अवस्था में होने के कारण क्षैतिज अवस्था में रखे गये हैं। स्तम्भ की चोटी का व्यास 26.2 इंच है। ठीक यही व्यास लौरिया नंदनगढ़ के स्तम्भ की चोटी का भी है। स्तम्भों की कलगी पर दाना चुगते हंसों की पंक्ति चित्रित है। एक स्तम्भ के शीर्ष पर सिंह की मूर्ति थी जबकि दूसरे के शीर्ष पर बैल की। सिंह वाली मूर्ति कोलकाता के इंडियन म्यूजियम में सुरक्षित रखी गयी है जबकि बैल की मूर्ति राष्ट्रपति भवन में रखी गयी है।

सुबह के 10 बज गये थे। मैं वापस लौट पड़ा। अब मुझे अरेराज और फिर वहाँ से केसरिया स्तूप जाना था। इसके लिए मुझे फिर से लौरिया नंदनगढ़ वाला रास्ता पकड़कर बेतिया आना था लेकिन मैंने नरकटियागंज से दूसरा रास्ता ले लिया जिसकी वजह से उतनी ही दूरी तय करने में अधिक समय लग गया। बेतिया से अरेराज की दूरी 35 किलोमीटर है। अरेराज का स्तम्भ बिल्कुल सड़क के किनारे,बायीं तरफ स्थित है। यह एक चारदीवारी के अन्दर अपेक्षाकृत बड़े परिसर में अवस्थित है। यह स्तम्भ इतने एकान्त में अवस्थित है कि जब मैं यहाँ पहुँचा तो पता ही नहीं चल सका कि यहाँ कोई ऐतिहासिक स्मारक है और 50 मीटर तक बाइक मुड़ाकर पीछे लाना पड़ा। कल से अब तक मैंने जितने भी स्मारक देखे थे,उन सबका गेट इस तरीके से बन्द किया गया था कि एक बार में एक आदमी अन्दर प्रवेश कर सके। यहाँ भी वही स्थिति थी। बाइक को गेट के बाहर तीखी धूप में खड़ी छोड़कर जब मैंने अन्दर प्रवेश किया तो एक भद्र पुरूष पेड़ की छाया में कुर्सी पर विराजमान दिखे। अशोक का स्तम्भ तेज धूप में अपनी सम्पूर्ण कीर्ति के साथ चमचमा रहा था। मैंने पूरे परिसर का सरसरी निगाह से मुआयना किया जो झाड़–झंखाड़ से पटा हुआ था। एक तरफ कुछ खण्डहरों के अवशेष भी दिख रहे थे। मैंने मोबाइल से फोटो खींची। फिर बैग जमीन पर रखकर कैमरा निकाला और शुरू हो गया। मेरे कैमरा निकालते ही कुर्सी पर बैठे उस भद्रपुरूष ने अपने दाहिने हाथ की तर्जनी आसमान की ओर उठाई और उसे नकारात्मक अंदाज में हिलाया। दरअसल वे मुझे कैमरे से फोटो खींचने से मना कर रहे थे। मेरा खून खौल उठा। मैं झगड़ा करने पर उतारू हो गया। लौरिया से लेकर वैशाली तक,सारे उदाहरण दे डाले कि कहीं पर भी कैमरे को मनाही नहीं है। आखिर में उन्हें हार माननी पड़ी।

लौरिया अरेराज के स्तम्भ का निर्माण माैर्य सम्राट अशोक द्वारा 249 ई0पू0 में कराया गया था। अन्य स्तम्भों की तरह यह स्तम्भ भी पॉलिश किये गये एकल प्रस्तर खण्ड का बना हुआ है। इसकी लम्बाई 36.5 फीट है। इसके शीर्ष का व्यास 37.6 इंच है। इसका वजन लगभग 34 टन है लेकिन यह जमीन में कई फीट अन्दर तक है इसलिए इसका वास्तविक वजन इससे भी अधिक संभव है। यह शीर्ष विहीन है अर्थात इसका शिखर खण्डित है। संभवतः इसके शीर्ष पर भी किसी जानवर की मूर्ति अवश्य रही होगी। 

इस स्तम्भ से अरेराज कस्बा थोड़ी ही दूर है। यहाँ तक आते–आते शरीर इतना गर्म हो चुका था कि कोल्ड–ड्रिंक का सहारा लेना पड़ा। आधी बाेतल पीने के बाद आधी केसरिया स्तूप के लिए बैग में सुरक्षित रख ली। अरेराज से केसरिया स्तूप 30 किलोमीटर की दूरी पर है। अरेराज में पाँच मिनट का समय गुजारने के बाद मैंने केसरिया के स्तूप की ओर धावा बोला।
केसरिया स्तूप एक बड़े परिसर में स्थित है और सबसे बड़ी बात ये कि यहाँ कुछ कर्मचारी भी तैनात हैं जो इसकी देखरेख करते हैं। स्तूप के चारों ओर की जमीन काफी नीची है जिसमें बरसात के मौसम में पानी भर जाता होगा। स्तूप की चारदीवारी के बाहर,गेट के पास कुछ दुकानें भी हैं। मेरी इस बिहार यात्रा में यह पहला स्मारक था जिसे देखने के लिए 10-20 लोगों की भीड़ आयी हुई थी। मैंने भी केसरिया स्तूप की परिक्रमा की,कुछ फोटो खींचे और बाहर निकल पड़ा। यहाँ बाइक की सुरक्षा करने के लिए किसी को तैनात नहीं किया था इसलिए मन में कुछ डर भी लग रहा था क्योंकि बैग भी बाइक पर ही बँधा था। फिर भी स्तूप देखने आये पर्यटकों की कम से कम इतनी भीड़ तो थी ही कि कोई उनका सामान चुराने की हिम्मत न करे।

केसरिया का यह स्तूप स्थानीय स्तर पर राजा बेन के गढ़ या देउरा के नाम से जाना जाता रहा है। वैसे वास्तविकता में यह एक बौद्ध स्तूप का भग्नावशेष है जो 23.81 एकड़ क्षेत्रफल में फैला हुआ है। बौद्ध मान्यता के अनुसार यह स्तूप उस स्थान पर बना है जहाँ पर भगवान बुद्ध ने अपना दानपात्र उन अनुयायी भिक्षुओं को प्रदान कर दिया जो वैशाली में उनके द्वारा दिये गये अन्तिम प्रवचन में आसन्न निर्वाण की घोषणा सुनकर उनका अनुगमन कर रहे थे। इस स्तूप का निर्माण दो काल–खण्डों में हुआ। मूलतः शुंग–कुषाण काल में निर्मित स्तूप को गुप्त काल (5वीं–6ठीं शताब्दी) में संवर्द्धित किया गया था।
पूर्व में मैकेन्जी (1814 ई0) तथा अलेक्जेण्डर कनिंघम (1861 ई0) द्वारा में खोजे गये स्तूप का उत्खनन 1998 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पटना अंचल द्वारा प्रारम्भ किया गया जिसे बाद में पुरातत्व उत्खनन शाखा– III द्वारा 2018 में आगे बढ़ाया गया।

यह एक छः स्तीय संरचना वाला वृत्ताकार बौद्ध स्तूप है जो ईंटों एवं मिट्टी के गारे से निर्मित है। इसके शीर्ष में लगभग 10 मीटर ऊँचा तथा 22 मीटर व्यास वाला बेलनाकार विशाल अंड भाग स्थित है। स्तूप की कुल ऊँचाई 31.5 मीटर तथा व्यास 123 मीटर है। अद्यतन उत्खनन में एक अतिरिक्त स्तर के संकेत मिले हैं जिससे स्तूप की ऊँचाई और व्यास में बढ़ोत्तरी हो सकती है और तब यह भारत का वृहत्तर स्तूप हो जाएगा। निचले तीन स्तरों पर चार मुख्य दिशाओं और उनके कोणों में तीन पूजाकोष्ठों का समूह विद्यमान है। चौथे स्तर पर पार्श्व कोष्ठ छोटे हैं जबकि पाँचवें स्तर पर केवल एक कोष्ठ स्थित है। ऐसा इन स्तरों पर छोटी परिधि और जगह की सीमित उपलब्धता के कारण हुआ है। छठें शीर्ष स्तर पर बेलनाकार अण्ड भाग विद्यमान है। पूजा कोष्ठों के समूह के बीच बहुभुजीय संरचना का अलंकरण है जो पश्चिमी चम्पारण के लौरिया नंदनगढ़ के स्तूप से तुलनीय है। प्रत्येक स्तर एक–दूसरे से सीढ़ियों द्वारा जुड़ा हुआ है जो अलग–अलग स्थानों पर बनी हुई हैं। इस स्तूप के अण्ड भाग के संरक्षण का कार्य स्पूनर द्वारा 1911-12 में किये जाने के साक्ष्‍य मौजूद हैं।
संभवतः सभी कक्षों में बुद्ध की मूर्ति प्रतिस्थापित थी जो अब केवल कुछ ही कक्षों में टूटी हुई स्थिति में परिरक्षित हैं। ये मूर्तियाँ कक्षों की पिछली दीवारों से सटे चबूतरे पर बनी हैं। कुछ कक्षों की पार्श्व दीवारों पर भी बुद्ध की मूर्तियाँ मिली हैं जो अत्यन्त जीर्ण–शीर्ण अवस्था में हैं। ये मूर्तियाँ मिट्टी,चूना और ईंटों के चूर्ण से बनी हुई हैं जिन पर गच प्लास्टर किया गया है। कहीं–कहीं लाल रंग का लेप भी चढ़ाया गया है। अब मूर्तियों के केवल निम्न भाग (कमर,पैर व हाथ के अग्रभाग) ही बचे हैं जो इंगित करते हैं कि बुद्ध पद्मासन एवं भूमि स्पर्श मुद्रा में हैं। इन मूर्तियों की तुलना नालंदा और विक्रमशिला महाविहारों की मूर्तियों से की जा सकती है। जिससे यह प्रतीत होता है कि गचकारी कला की परम्परा इस क्षेत्र में 5वीं सदी से लेकर 10वीं सदी तक विद्यमान थी। 

स्तूप से निकलकर मैं केसरिया कस्बे की ओर चल पड़ा। लौरिया,अरेराज,वैशाली,विक्रमशिला या फिर केसरिया पुरातात्विक दृष्टि से राष्ट्रीय महत्व के स्थल हैं लेकिन यहाँ ठहरने की कोई व्यवस्था नहीं है। हाँ पेट भरने की कामचलाऊ व्यवस्था हो सकती है। या तो ये गाँव हैं या एक छोटे कस्बे के रूप में हैं। और तो और इनमें से कुछ का उत्खनन भी काफी बाद में हुआ है और भारत के पर्यटन मानचित्र में भी इन्होंने बहुत देर से जगह बनायी है।  तो फिर ठहरने के लिए कहीं और निकलना ही पड़ेगा। योजना के अनुसार यहाँ से अब मुझे बिना रूके,शिवहर होते हुए सीतामढ़ी जाना था। यहाँ से सीतामढ़ी की दूरी 60 किलोमीटर है। अपराह्न के 3 बज रहे थे और अंजान जगहों पर मैं रात में बाइक चलाना पसंद नहीं करता। साथ ही अँधेरा हो जाने पर होटल खोजने में भी दिक्कतें पेश आती हैं। तो मैं तेजी से भागता रहा। सड़क की दशा बहुत अच्छी नहीं थी। और शिवहर से सीतामढ़ी तक की सड़क तो अधिकांशतः निर्माण की अवस्था में है और इस वजह से समय काफी लग रहा था,थकान भी हो रही थी। गूगल मैप के सहारे जब मैंने सीतामढ़ी शहर में प्रवेश किया तो मुझे यही समझ में नहीं आ रहा था कि जाऊँ कहाँ? दिक्कत ये थी कि मैं सीतामढ़ी से पूरी तरह से अंजान था और जिस छोर से मैंने शहर में प्रवेश किया था उधर से रेलवे स्टेशन काफी दूर था।

शाम के 6 बजे जब मैं सीतामढ़ी पहुँचा तो काफी थक गया था। अन्दाजा नहीं लग पा रहा था कि होटल किधर मिलेंगे। मैंने एक चायवाले का सहारा लिया। 6 रूपये वाली चाय मुझे बहुत अच्छी लगी तो मैंने दूसरी के लिए भी आर्डर कर दिया। चायवाला भी बहुत दिलेर निकला और बिना पूछे बड़ी वाली गिलास में डबल चाय परोस दी। कुल मिलाकर मेरी चाय डबल के बजाय ट्रिपल हो चुकी थी। मैंने उसी से होटल या कमरे के बारे में पूछताछ की। उसने मुझे बाईपास के रास्ते रेलवे स्टेशन जाने की सलाह दी और बताया कि रास्ते में ही होटल मिल जाएंगे। यह बाई पास सीतामढ़ी शहर शुरू होने से पहले मुख्य मार्ग छोड़कर रेलवे स्टेशन की तरफ निकलता है। लेकिन बाईपास के 2 किलोमीटर के रास्ते ने मेरी कमर ही तोड़ डाली। वैसे बाईपास के रास्ते का जैसे ही परित्याग कर मैं शहर की सड़क पर उतरा,मुझे 300 रूपये में बहुत बढ़िया कमरा मिल गया और उसी के बगल में एक साधारण लेकिन शाकाहारी रेस्टोरेण्ट।

होटल की औपचारिकताएं पूरी करने के बाद मेरी बाइक होटल की गैलरी में प्रवेश कर गयी। पिछले एक–दो दिनों में उसने यह ढंग बड़ी आसानी से सीख लिया था। सीतामढ़ी में भी मेरा स्वागत अच्छे से हुआ। होटल वाले ने काफी सम्मान दिया। मेरी बाइक का बैक व्यू मिरर ढीला हो गया था जिसे होटल वाले ने मिस्त्री बुलाकर ठीक कराया। साथ ही मेरे बिना कहे,कमरे में क्वायल लाकर जलाया। उसकी इस सहृदयता पर मुझे राजगीर का वह होटल याद आ गया जिसमें मैं दो साल पहले,दो रात ठहरा था। पहली रात पंखा धीमा चलने के कारण मैं रात भर मच्छरों से जूझता रहा और पूरी रात पंखा तेज चलवाने और क्वायल जलवाने की जद्दोजहद में सीढ़ियों से ऊपर–नीचे चढ़ता–उतरता रहा। तो इस बार की बिहार यात्रा में मैं होटल वालों की आवभगत के रस से पूरी तरह सराबोर था।



रामपुरवा के अशोक स्तम्भ



लौरिया अरेराज का अशोक स्तम्भ


अरेराज स्तम्भ परिसर में स्थित एक खण्डहर के अवशेष




केसरिया का स्तूप






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