दि्वतीय विश्व युद्ध से पूर्व चीन को "एशिया का रोगी" (The sickman of Asia) कहा जाता था। ब्रिटेन,फ्रांस,अमेरिका और जापान जैसी शक्तियों ने उसका खूब राजनीतिक और आर्थिक शोषण किया था। वे उसे पूरब का तरबूज (Chinese Melon) समझते थे। किन्तु 1949 में साम्यवादी क्रान्ति के बाद चीन का एक महाशक्ति के रूप में उदय हुआ। 1 अक्टूबर 1949 को माओत्से तुंग के नेतृत्व में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना हुई। आज की तारीख में भारत को आँखें दिखाना वाला चीन,भारत की स्वतंत्रता के समय गृहयुद्ध में उलझा हुआ था।
वस्तुतः वह संक्रमण काल था। दि्वतीय विश्व युद्ध को समाप्त हुए अधिक समय नहीं गुजरा था। पश्चिमी देश आर्थिक मोर्चे पर कमजोर हो चुके थे। भारत जैसा बड़ा देश ब्रिटिश साम्राज्य के हाथ से निकल चुका था। नवीन स्थापित राष्ट्रों की अपनी समस्याएं थीं। उस समय चीन में साम्राज्यवाद के विरूद्ध संघर्ष चल रहा था। भारत की तत्कालीन कांग्रेस पार्टी के अन्दर भी चीन के इस संघर्ष के प्रति,सहानुभूति थी। तीस के दशक में ही कांग्रेस पार्टी ने,सहायतार्थ,एक मेडिकल मिशन चीन भेजा था। 1931 में जब जापान ने चीन के मंचूरिया पर आक्रमण किया तो भारत के राष्ट्रवादियों ने जापान के इस कदम के जवाब में जापानी वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान किया। साथ ही चीन दिवस भी मनाया गया।
वस्तुतः वह संक्रमण काल था। दि्वतीय विश्व युद्ध को समाप्त हुए अधिक समय नहीं गुजरा था। पश्चिमी देश आर्थिक मोर्चे पर कमजोर हो चुके थे। भारत जैसा बड़ा देश ब्रिटिश साम्राज्य के हाथ से निकल चुका था। नवीन स्थापित राष्ट्रों की अपनी समस्याएं थीं। उस समय चीन में साम्राज्यवाद के विरूद्ध संघर्ष चल रहा था। भारत की तत्कालीन कांग्रेस पार्टी के अन्दर भी चीन के इस संघर्ष के प्रति,सहानुभूति थी। तीस के दशक में ही कांग्रेस पार्टी ने,सहायतार्थ,एक मेडिकल मिशन चीन भेजा था। 1931 में जब जापान ने चीन के मंचूरिया पर आक्रमण किया तो भारत के राष्ट्रवादियों ने जापान के इस कदम के जवाब में जापानी वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान किया। साथ ही चीन दिवस भी मनाया गया।
चीन में जनवादी सरकार की स्थापना के बाद 1 जनवरी 1950 को उसे मान्यता प्रदान करने वाला भारत पहला देश बना। विश्व युद्ध के बाद बनी सुरक्षा परिषद में चीन को शामिल कराने के लिए प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने हरसंभव प्रयास किया। यहाँ तक कि जब 1950 में चीन ने तिब्बत पर अवैध ढंग से कब्जा किया ताे भारत ने कोई विरोध नहीं किया। भारत को यदि आपत्ति थी तो सिर्फ इस बात पर कि तिब्बत पर अधिकार करने से पहले भारत को विश्वास में नहीं लिया गया था। 1954 में भारत और चीन ने एक संधि पर हस्ताक्षर किए जिसमें पंचशील नाम आचार संहिता भी शामिल थी। इस संधि के अनुसार भारत और चीन एक–दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। साथ ही इस संधि की एक बड़ी बात यह थी कि तिब्बत भी चीन का भाग था। इस तरह भारत ने तिब्बत पर चीन के अधिकार को स्वीकार कर लिया। इस बीच चीनी सेना तिब्बत में अपने अत्याचार शुरू कर चुकी थी। 1958 में पूर्वी तिब्बत के खाम्पाओं ने चीनियों के विरूद्ध सशस्त्र विद्रोह शुरू कर दिया।
सन 1957 में गर्मी के मौसम में लद्दाख के लामा और सांसद कुशक बाकुला ने तिब्बत का दौरा किया। इस दौरे में उन्हें पता चला कि चीन सीक्यांग में बड़े पैमाने पर सड़क निर्माण कर रहा है। दरअसल चीन अक्साई चिन के इलाके से एक सड़क का निर्माण कर रहा था। पुनश्च 1958 के जुलाई महीने में,बीजिंग की एक सरकारी पत्रिका चाइना पिक्टोरल ने एक नक्शा प्रकाशित किया,जिसमें नेफा और लद्दाख के एक बड़े हिस्से को चीन का हिस्सा बताया गया। इसमें नेफा का लगभग 36000 वर्ग मील का क्षेत्र तथा अक्साई चिन का 12000 वर्ग मील का क्षेत्र सम्मिलित था। उपर्युक्त दोनों बातों के विरोध में भारत की ओर से अधिकारी स्तर से लेकर उच्च स्तर तक पत्र लिखे गए लेकिन अंततः कुछ भी हासिल न हो सका। 23 जनवरी 1959 को चाऊ एन लाई ने पहली बार पत्र लिखकर हजारों वर्गमील भारतीय भूमि पर दावा किया। उनके अनुसार भारत और चीन के बीच आधिकारिक रूप रूप से कभी सीमा निर्धारण हुआ ही नहीं। मैकमोहन रेखा पश्चिमी साम्राज्यवाद की देन थी। भारतीय प्रधानमंत्री श्री नेहरू इस दावे पर हतप्रभ रह गए।
मार्च–अप्रैल 1959 में दलाई लामा चीनी सैनिकों के अत्याचारों से तंग आकर तिब्बत से पलायन कर भारत चले आए। भारत की जनता ने,दलाई लामा के पक्ष में जबरदस्त समर्थन व्यक्त किया। भारत ने दलाई लामा को शरण लेने की अनुमति तो दी लेकिन तिब्बत की "प्रवासी सरकार" बनाने की अनुमति नहीं दी। जुलाई 1959 में अक्साई चिन में भारत की एक टुकड़ी को लद्दाख के खुर्नक जिले में चीनी सेना ने बंदी बना लिया। अगस्त 1959 के आखिर में पूर्वी सीमा क्षेत्र में मैकमोहन रेखा के पास लोंगजू में भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच झड़प हुई। यहाँ चीनियों ने भारी गोलाबारी करने के बाद इस चौकी को कब्जे में कर लिया। सितम्बर 1959 के पहले सप्ताह में भारत सरकार द्वारा पिछले पाँच सालों में चीन के साथ हुए पत्र व्यवहारों पर एक श्वेत पत्र जारी किया गया। इसमें चीन द्वारा किए जा रहे दावों और सशस्त्र सेनाओं के बीच होने वाले संघर्ष पर लिखा गया था। इस श्वेतपत्र की वजह से भारत–चीन सीमा विवाद पूरे देश सार्वजनिक हो गया और जनता में शासन की नीतियों के प्रति नाराजगी बढ़ने लगी। इस श्वेत पत्र के साथ ही भारत के रक्षा मंत्री वी. के. कृष्ण मेनन,जो नेहरू के विश्वासपात्र थे और सेनाध्यक्ष जनरल के. एस. थिम्मैया के बीच विवाद शुरू हो गया। जनरल थिम्मैया एक तेज–तर्रार और अनुभवी सैनिक थे और उनका सैनिक रिकार्ड जबरदस्त था। रक्षा मंत्री के बेवजह के हस्तक्षेप की वजह से तंग आकर जनरल थिम्मैया ने इस्तीफा दे दिया लेकिन नेहरू जी ने उन्हें इस्तीफा वापस लेने के लिए मना लिया। अक्टूबर 1959 में लद्दाख के कोंगका दर्रे में भारतीय गश्ती दल पर चीनी अर्द्धसैनिक टुकड़ियों ने हमला कर दिया जिसमें 9 भारतीय शहीद हो गए और कई पकड़ लिए गए। यह घटना भारतीय सीमा के लगभग 50 किलोमीटर अन्दर की ओर घटित हुई। भारत की ओर से विरोध दर्ज कराया गया लेकिन चीन की प्रतिक्रिया काफी नकारात्मक रही।
इन झड़पों के बाद से भारत को अपनी सीमा नीति की समीक्षा करनी पड़ी। लोंगजू और कोंगका जैसी घटनाओं के बाद पंजाब में भारत–पाकिस्तान सीमा पर तैनात चौथी डिवीजन को हटाकर नेफा सीमा पर तैनात कर दिया गया। यह एक महत्वपूर्ण परिवर्तन था क्योंकि यह डिवीजन पंजाब के मैदानों में तोप की लड़ाई के लिए प्रशिक्षित की गयी थी और इसे पहाड़ी युद्ध का अनुभव नहीं था। अब तक भारत–चीन सीमा की जिम्मेदारी सेना के हाथ में न होकर खुफिया एजेंसी के ऊपर थी। सीमा चौकियों पर अर्द्धसैनिक बलों की टुकड़ियाँ तैनात थीं। दरअसल चीन की तरफ से भारत को किसी खतरे का आभास ही नहीं था,फलतः सारी फौजें पाकिस्तान सीमा पर ही तैनात थीं। रक्षा मंत्री मेनन और प्रधानमंत्री नेहरू का मानना था कि युद्ध की भविष्य में संभावना अगर है तो पाकिस्तान से,चीन से तो बिल्कुल नहीं। चीन के प्रधानमंत्री ने 8 सितम्बर 1959 को औपचारिक रूप से भारत के लगभग 50000 वर्गमील क्षेत्र पर अपना दावा प्रस्तुत कर दिया। कटुता बढ़ती ही जा रही थी। ऐसी ही परिस्थितियों में 1960 में दोनों ही प्रधानमंत्रियों के बीच दिल्ली में शिखर वार्ता हुई। एक सप्ताह तक दोनों के बीच वार्ता चलती रही। आरोप–प्रत्यारोप का दौर चलता रहा। और अन्त में इस शिखर वार्ता का कोई परिणाम नहीं निकल सका। इसके पश्चात दोनों देशों के अधिकारियों के बीच बीजिंग,नई दिल्ली और रंगून में कई वार्ताएं हुईं लेकिन इनका कोई परिणाम नहीं निकला।
सारे तथ्य जनता तक पहुँच जाने के बाद अब सरकार के लिए पीछे हटना संभव नहीं रह गया था। जन भावनाओं का आदर करते हुए नेहरू सरकार ने अग्रगामी नीति के तहत सीमा पर चौकियाँ स्थापित करने का निर्णय किया। यह योजना रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन और उनके करीबी लेफ्टिनेण्ट जनरल बी.एम. कौल की थी। 1961 के अंत तक भारत ने सीमा पर 50 चौकियाँ स्थापित कर ली। चीन में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। इस बीच 1962 में सर्दियों की समाप्ति के बाद सीमा पर झड़पें होती रहीं। मई 1962 में चीन ने पाकिस्तान के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किया। इस तरह दो भारत विरोधी एक–दूसरे के साथ आ गए। 12 जुलाई 1962 में लद्दाख की गलवान घाटी में दोनों देशों के सैनिकों के बीच झड़पें हुईं। इसमें चीन ने एक चौकी पर कब्जा कर लिया और सैनिकों को बंदी बना लिया। सितंबर में तवांग से 60 मील पश्चिम ढोला और थागला पहाड़ियों के ऊपर नामका छू घाटी में भी झड़पें हुईं। यह वो स्थान है जहाँ भारत,भूटान और तिब्बत की सीमाएं मिलती हैं। यहाँ मैकमोहन लाइन की स्थिति कुछ विवादित थी। यहाँ संभवतः यह निश्चित नहीं था कि थागला रिज मैकमोहन लाइन के उत्तर है या दक्षिण। इसी साल जून में असम राइफल्स ने अपनी अग्रगामी नीति (फारवर्ड पाॅलिसी) के तहत ढोला में एक सैनिक चौकी स्थापित की। बदले में चीनियों ने 8 सितंबर को चीनियों ने थागला पहाड़ी पर अपनी चौकी स्थापित कर ली जो ढोला के ऊपर थी और भारतीय सैनिकों को वहाँ से भगा दिया। इस विवाद में भारत और चीन के बीच नाराजगी भरे पत्रों का आदान–प्रदान हुआ। भारतीय कमांडरों में कार्यवाही को लेकर एक राय नहीं थी।
भारतीय नेतृत्व जमीनी परिस्थितियों पर गम्भीर नहीं था। 17 सितम्बर को रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में भाग लेने न्यूयार्क चले गये और 30 सितम्बर को भारत लौटे। प्रधानमंत्री नेहरू भी राष्ट्रमण्डल प्रधानमंत्री सम्मेलन में भाग लेने के लिए 8 सितम्बर को लंदन चले गए और 2 अक्टूबर को देश लौटे। वापस लौटने के बाद 12 अक्टूबर को कोलम्बो रवाना हो गए और फिर 16 अक्टूबर को वापस लौटे। 13 अक्टूबर को श्रीलंका जाते समय चेन्नई में मीडिया को उन्होंने जानकारी दी कि चीनियों को भारत से निकालने के लिए सेना प्रमुख जनरल पी.एन. थापर को आदेश दे दिए गए हैं। उल्लेखनीय है कि जनरल थापर बहुत पहले से सेना की बदहाली के बारे में नेहरू को अवगत करा रहे थे लेकिन उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया गया था। दरअसल अब तक चीन युद्ध के लिए पूरी तरह से तैयार हो चुका था। तिब्बत पर उसने कब्जा कर लिया था। दलाई लामा पलायन कर चुके थे और चीन–पाकिस्तान दोस्ती भी हो चुकी थी। लद्दाख में भारत के एक बड़े भूभाग (अक्साई चिन) पर चीन ने कब्जा कर लिया था। जबकि भारत अभी वास्तविक परिस्थिति से संभवतः अनजान था।
तिब्बत का पुराना मानचित्र |
जम्मू और कश्मीर के विभिन्न प्रशासनिक भाग |
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