आर्यन कल्प की शैलें
इस समूह में ऊपरी कार्बोनिफेरस काल से लेकर प्लीस्टोसीन काल की शैलों को सम्मिलित किया जाता है। इस काल में भारत के भूगर्भिक स्वरूप में भारी उथल–पुथल हुई। भारत के उत्तर में हिमालय पर्वत श्रेणी और उत्तर के विशाल मैदान का निर्माण इसी अवधि में हुआ। इस समूह की चट्टानों को चार प्रमुख भागों में बाँटा जाता है–
1. गोण्डवाना समूह की शैलें
2. क्रीटैशियस समूह की शैलें या दकन ट्रैप्स
3. टर्शियरी समूह की शैलें
गोण्डवाना समूह की शैलें– गोण्डवाना शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1872 में किया गया। इस शब्द की उत्पत्ति मध्य प्रदेश के "गाेण्ड" आदिवासी क्षेत्र से हुई है,जहाँ सर्वप्रथम इस प्रकार की शैलों की खोज हुई। बाद में इस नाम का उपयोग उन सभी शैलों के लिए होने लगा जिनकी विशेषता बिल्कुल गोण्डवाना शैलों के समान थी।
इन शैलों की उत्पत्ति ऊपरी कार्बाेनिफेरस काल से लेकर जुरैसिक काल के बीच हुई। विन्ध्यन समूह की शैलों के निर्माण के पश्चात प्रायद्वीपीय भारत के भूगर्भ में लम्बे समय तक शान्ति बनी रही। ऊपरी कार्बोनिफेरस काल में भूगर्भ में तीव्र हलचल हुई जिसे हर्सीनियन हलचल का नाम दिया जाता है। इसका असर समस्त पृथ्वी पर पड़ा। हर्सीनियन हलचल से महाद्वीपों और महासागरों की स्थिति में परिवर्तन हो गया। समस्त स्थलभाग दो समूहों में विभक्त हो गया। उत्तर के भाग को अंगारालैण्ड और दक्षिण के भाग को गोण्डवानालैण्ड कहा जाता है। अंगारालैण्ड के अन्तर्गत उ0 अमेरिका,यूरोप और एशिया महाद्वीपों के भाग सम्मिलित थे जबकि गोण्डवानालैण्ड के अन्तर्गत द0 अमेरिका,अफ्रीका,भारत और आस्ट्रेलिया तथा अण्टार्कटिका महाद्वीपों के भाग सम्मिलित थे। इन दोनों भूखण्डों के मध्य में टेथिस सागर का विस्तार था। इस समय हुई हर्सीनियन हलचल की वजह से काराकोरम,क्युनलुन और मध्य एशिया की कई पर्वत श्रेणियों का निर्माण हुआ।
इसी काल में हिम युग का आरम्भ हुआ और हिमनदों के प्रवाह के कारण उच्च पर्वतीय भागों का अपरदन होने लगा। अपरदन से प्राप्त पदार्थाें के नदी घाटियों और छिछले जल क्षेत्रों में एकत्र होने से ये क्षेत्र काफी उपजाऊ बन गए। फलतः इन क्षेत्राें में घने वन उत्पन्न हुए और कालान्तर में गिरकर उथले जल में दबने लगे। कालान्तर में भूगर्भिक क्रियाओं के कारण ये कोयला क्षेत्रों के रूप में परिवर्तित हो गए। वर्तमान में ऐसे ही क्षेत्रों से कोयला की चट्टानें प्राप्त होती हैं। इन कोयला क्षेत्रों में समुद्री जीवों और कुछ सरीसृपों के अवशेष भी मिलते हैं। नदियों की घाटियों में निर्मित होने के कारण इन शैलों की परतें अब भी पूर्व की भाँति सुरक्षित हैं।
गाेेण्डवाना समूह की शैलें प्रायद्वीपीय भारत के दोनों उत्तरी सिरों पर सँकरी घाटियों में मिलती हैं। यहाँ इनका विस्तार मुख्य रूप से झारखण्ड,मध्य प्रदेश,छत्तीसगढ़,आन्ध्र प्रदेश,तेलंगाना और महाराष्ट्र राज्यों में है।
भारत में गाेण्डवाना समूह की कुछ प्रमुख श्रेणियाँ पाई जाती हैं–
(i) तालचेर श्रेणी– इस श्रेणी का नामकरण ओडिशा के ढेंकानाल जिले के तालचेर नामक स्थान से हुआ है। इस श्रेणी में,महानदी घाटी में उच्च गुणवत्ता का कोयला मिलता है।
(ii) दमुदा श्रेणी– दमुदा श्रेणी मध्य गोण्डवाना काल की है जिसमें कोयले की परतें प्रचुरता से पाई जाती हैं। इन परतों की मोटाई और फैलाव पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ता जाता है। इस श्रेणी का कोयला काफी विस्तृत क्षेत्र में पाया जाता है जो झारखण्ड के दामोदर बेसिन में रानीगंज,झरिया,करनपुरा और बोकारो,मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के सिंगरौली,कोरबा और पेंच घाटी और मध्य प्रदेश के सतपुड़ा बेसिन में फैला हुआ है। इसी श्रेणी में झिंगुर्दा कोयला परत पाई जाती है जो 131 मीटर मोटी है। इसी श्रेणी में भारत की सबसे मोटी कोयला परत मिलती है।
(iii) पंचेत श्रेणी– यह गोण्डवाना समूह की सबसे नवीन श्रेणी है जिसका नामकरण रानीगंज के दक्षिण में स्थित पंचेत पहाड़ी के नाम पर हुआ है। इस श्रेणी में हरे रंग वाला बलुआ पत्थर और शैल (स्लेटी पत्थर) की प्रचुरता है। इस श्रेणी में कोयले की परतें नहीं मिलतीं।
उपर्युक्त के अतिरिक्त प्रायद्वीपीय भाग में गोण्डवाना शैलें गोदावरी और उसकी सहायक वैनगंगा और वर्धा नदियों की घाटियों में नागपुर तक पाई जाती हैं। कुछ अन्य क्षेत्रों जैसे पश्चिमी राजस्थान,चेन्नई,गुन्टूर,कटक,राजमहेन्द्री,तिरूचिरापल्ली,रामनाथपुरम,कच्छ और काठियावाड़ में भी गोण्डवाना शैलें मिलती हैं।
इसके अतिरिक्त पूर्वी तट के ऊपरी भागों में भी गोण्डवाना शैलें मिलती हैं। प्रायद्वीप के बाहर ये शैलें असम,प0 बंगला,सिक्किम और कश्मीर में भी पाई जाती हैं। भारत का लगभग 90 प्रतिशत कोयला गोण्डवाना शैलों से प्राप्त होता है।
क्रीटैशियस समूह की शैलें या दक्कन ट्रैप्स– क्रीटैशियस शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के क्रेटा शब्द से हुई है जिसका अर्थ है खड़िया या चाक। क्रीटैशियस काल के अन्त में प्रायद्वीपीय भारत के पश्चिमी भाग में,दरारी उद्भेदन के रूप में व्यापक ज्वालामुखी क्रिया हुई। दरारों से बेसाल्टिक लावा का उच्च उद्गार हुआ जो परतों के रूप में फैल गया और दक्षिण के पठारी भाग का निर्माण हुआ। ऐसा माना जाता है कि लावा का बहाव अत्यन्त उच्च ताप के साथ,भूपटल की कई दरारों से तेज विस्फोट के साथ बाहर निकला। यह लावा अत्यन्त तरल होने के कारण बहुत ही विशाल क्षेत्र में अनुप्रस्थ परतों के रूप में फैल गया। इन परतों की मोटाई 1 मीटर से लेकर 35 मीटर तक है। इस लावा का विस्तार गुजरात के कच्छ और काठियावाड़,महाराष्ट्र,मध्य प्रदेश के मालवा,छत्तीसगढ़,झारखण्ड,तेलंगाना,आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक में पाया जाता है। प्रायद्वीप के पश्चिम की तरफ इसकी अधिकतम ऊँचाई 2134 मीटर तक है जबकि पूर्व की ओर इसकी मोटाई कम है। इस लावा परत की मोटाई कच्छ में 800 मीटर,अमरकंटक में 150 मीटर तथा कर्नाटक के बेलगाम में 60 मीटर है। भारत के प्रायद्वीपीय भाग में यह लावा पठार लगभग 5 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ है। लावा की परतों का जमाव एक के एक ऊपर सीढ़ीनुमा रूप में हुआ है। इसी कारण इसे दक्कन ट्रैप भी कहा जाता है। बेसाल्ट से निर्मित होने के कारण इसे बेसाल्ट पठार भी कहा जाता है।
दक्कन ट्रेप मुख्य रूप से बेसाल्ट और डोलोराइट से बना है। ये शैलें अत्यधिक कठाेर हैं। एक दीर्घ कालक्रम में इन शैलों के अपरदन और निक्षेपण द्वारा काली मिट्टी का निर्माण हुआ है। इसे रेगड़ मिट्टी भी कहते हैं। इस मिट्टी में नमी धारण करने की अत्यधिक क्षमता होती है। यह मिट्टी कपास के लिए उपयुक्त होती है। यह मिट्टी गीली होने पर फूल जाती है लेकिन सूखने पर इसमें इतनी दरारें पड़ जाती हैं जिन्हें देखकर जुताई का भ्रम होने लगता है। इसी कारण से स्वयं जुताई वाली मिट्टी भी कहते हैं। दक्कन ट्रेप से ही लेटराइट मिट्टी का निर्माण होता है जिसमें एल्युमिना,लोहा और मैंग्नीज का अंश पाया जाता है। इस मिट्टी का रंग गहरा भूरा,गहरा हरा,भूरा और जामुनी होता है।
दक्कन ट्रैप के बेसाल्ट का उपयोग सड़क एवं भवन निर्माण में किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसमें क्वार्ट्ज,बॉक्साइट,मैग्नेटाइट,अगेट तथा अर्द्ध बहुमूल्य पत्थर भी मिलते हैं। यह मैग्नेशियम,कार्बोनेट,पोटाश और फास्फेट के मामले में भी धनी है।
टर्शियरी समूह की शैलें– क्रीटैशियस काल के बाद आने वाले इयाेसीन,मायोसीन,ओलिगोसीन तथा प्लायाेसीन कालों में टर्शियरी समूह की शैलों का निर्माण हुआ। गोण्डवानालैण्ड,जो इस काल से पूर्व ही विखण्डित होना शुरू हो गया था,ने इसी समय वर्तमान रूप प्राप्त किया। गोण्डवाना भूखण्ड के विखण्डन के पश्चात भारत का वर्तमान स्वरूप भी इसी काल में सुनिश्चित हुआ। हिमालय की उत्पत्ति भी इसी काल में हुई। इसी कालखण्ड में प्रायद्वीपीय पठार एवं हिमालय के परस्पर भिन्न भूखण्ड स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में आए। इस अवधि में शैलों और वनस्पतियों में व्यापक परिवर्तन हुए।
टर्शियरी समूह की शैलें मुख्यतः हिमालयी क्षेत्र में पायी जाती हैं। ये बलूचिस्तान (पाकिस्तान) के मकरान से लेकर सुलेमान–किरथर श्रेणी,हिमालय श्रेणी होती हई बर्मा के आराकानयोमा श्रेणी तक विस्तृत हैं। प्रायद्वीपीय भारत में ये कुछ तटीय क्षेत्रों में सीमित रूप में पायी जाती हैं। टर्शियरी युगीन शैलाें को तीन भागों में बाँटा जा सकता है–
(i) इयोसीन क्रम की शैलें– ये शैलें पाकिस्तान में रानीकोट,लाकी और किरथर श्रेणियों में पायी जाती हैं। भारत में इनका विस्तार जम्मू–कश्मीर,हिमाचल प्रदेश,असम,राजस्थान व गुजरात में मिलता है। रियासी और जम्मू में पाइराइट व कार्बनयुक्त शैलें मिलती हैं। इनकी परतों में कोयला और ग्रेफाइट भी मिलता है। ऊपरी असम में ये शैलें हाफलौंग–दिसांग भ्रंश के दोनों ओर बारैल श्रेणी के नाम से मिलती हैं। इसके ऊपरी भाग में,उत्तरी–पूर्वी असम में स्थित घनसिरी घाटी के पूर्व में टर्शियरी कोयले की परतें पायी जाती हैं। यहाँ नाजिरा,माकूम,लीडो,नामडाँग और टिक्काक में कोयले के जमाव पाए जाते हैं। शैलों के मध्यवर्ती भाग में पेट्रोल के जमाव भी मिलते हैं। जैन्तिया श्रेणियों में इनमें नुमुलिटिक चूना पत्थर और शेल पाए जाते हैं। राजस्थान में नुमुलाइट शैलें मिलती हैं। यहाँ बीकानेर जिले में पालना में लिगनाइट और मुल्तानी मिट्टी के जमाव मिलते हैं। कच्छ तथा गुजरात में सूरत व भड़ौंच तथा पाण्डिचेरी में भी इयोसीन युगीन शैलें मिलती हैं।
(ii) ओलिगोसीन व मायोसीन क्रम की शैलें– इयोसीन काल में ही टेथिस सागर का तल ऊपर उठा और उसमें मोड़ पड़े। ओलिगोसीन काल में भी टेथिस सागर की तली में निक्षेपण होते रहे। पाकिस्तान में नारी,गज और मुर्री क्रम की शैलों का निर्माण इसी समय हुआ। शिमला में डगसाई व कसौली श्रेणी और असम की सुरमा श्रेणी इसी काल की है। कच्छ व सौराष्ट्र में भी नारी व गज श्रेणी के स्तर मिलते हैं। छिट–पुट रूप में उड़ीसा के मयूरभंज में वारिपदा श्रेणी,पश्चिमी बंगाल में दुर्गापुर श्रेणी और केरल में क्विलोन स्तर भी इसी समय की शैलें हैं।
(iii) मायोसीन–प्लायोसीन क्रम की शैलें– इस काल में हिमालय का तृतीय उत्थान हुआ और शिवालिक श्रेणियों का निर्माण हुआ। शिवालिक और उससे सम्बन्धित शैलें हिमालय के पाद–प्रदेश में मिलती हैं। असम में ये दिहिंग क्रम की शैलों के नाम से जानी जाती हैं। इन शैलों में मोटे कण व रेत अधिक मिलते हैं जिससे यह पता चलता है कि ये नदियों द्वारा छिछले जल में किये गए निक्षेपण से बने हैं। इनमें जीवावशेष भी मिलते हैं जिनमें पौधों,मछलियों और स्तनपायी जीवों के अवशेष सम्मिलित हैं। कुड्डालौर और राजमहेन्द्री की शैलें इसी काल की निर्मित हैं। केरल में कोल्लम के निकट समुद्र तट पर भी इसी क्रम की शैलें मिलती हैं। इनमें मोलस्क जीवों के अवशेष पाए जाते हैं। इन शैलों से प्राप्त होने वाला लाल व पीला गेरू,चीका व बलुआ पत्थर इमारतों के निर्माण में उपयोग में लाए जाते हैं। आन्ध्र प्रदेश के नेल्लौर और गोदावरी जिलों में भी ये शैलें पायी जाती हैं।
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