Friday, October 11, 2019

फूलों की घाटी

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पाँचवां दिन–
कल शाम को हेमकुण्ड साहिब से घांघरिया लौटा तो मेरी किस्मत के सितारे जगमगा रहे थे। मौसम साफ हो चुका था। मैं मौसम साफ होने के लिए वाहे गुरू से अरदास करता रहा। क्योंकि फूलों की घाटी जाने का असली मजा तभी आता जब मौसम साफ हो। शाम तक आसमान अधिकांशतः नीला हो चुका था। छ्टिपुट बादल ही दिखायी पड़ रहे थे। आसमान साफ होने से ठण्ड भी हल्की सी बढ़ गयी थी। घांघरिया के नीले आसमान में चमकते सितारों को देखना काफी रोमांचक था।
देर रात में एक बार नींद खुली तो मैंने बाहर के मौसम का जायजा लेने के लिए खिड़की खोली। लेकिन ये क्याǃ ये तो बूॅंदाबाँदी हो रही थी। मन बहुत दुखी हुआ। फिर भी कुछ किया नहीं जा सकता था। फिर से रजाई में मुँह छ्पिा लिया। सुबह जब सोकर उठा तो सबसे पहले कमरे से बाहर निकलकर आसमान की तरफ देखा। हल्के–फुल्के बादल थे लेकिन कुल मिलाकर मौसम साफ था। धीरे–धीरे आसमान भी साफ होने लगा। रात में मुझे पता चला था कि फूलों की घाटी वाली चेक पोस्ट के कर्मचारी 7.30-8 बजे तक आते हैं। इसका मतलब ये कि सुबह में कुछ देर से निकलना होगा। वैसे ये सूचना पूरी तरह से तो नहीं लेकिन आंशिक रूप से गलत थी। ये लोग और भी पहले आ जाते हैं। मैंने आज सुबह भी नहाने का फैसला स्थगित कर दिया और शाम को ही नहाने का निश्चय किया। शाम को नहाने का फायदा यह कि दिनभर का पसीना साफ हो जाता है।

6.30 बजे मैं कमरे से निकल पड़ा। अगला कार्यक्रम गुरूद्वारे की चाय और टोस्ट पर हाथ साफ करने का था। वैसे आज घांघरिया कुछ खाली–खाली सा लग रहा था। गुरूद्वारे में भी भीड़ नाममात्र की ही थी। किसी घोड़े या कण्डी वाले ने भी मुझसे पूछताछ नहीं की। घोड़े या कण्डी वाले खड़े थे लेकिन उनकी संख्या बहुत कम थी। जो भी थे,चुपचाप खड़े थे। कुछ घोड़े वाले अपने घोड़ों को लेकर खाली हाथ व खाली पैर घांघरिया से नीचे जाने वाले रास्ते की ओर बढ़ रहे थे। पता चला कि अधिकांश यात्री नीचे जा चुके हैं। जो हैं वे नीचे ही जा रहे हैं। इसलिए घोड़े वाले भी नीचे जा रहे हैं। अभी एक या दो दिन घांघरिया खाली ही रहेगा लेकिन उसके बाद,15 अगस्त तक भयंकर बुकिंग है। मुझे कम भीड़ अच्छी लगती है तो मैं खुश हुआ।
7 बजे जब मैं फूलों की घाटी की चेक–पोस्ट पहुँचा तो वहाँ के कर्मचारी हाजिर थे। बल्कि दो–चार पर्यटक मुझसे आगे भी निकल चुके थे। मुझे देर से आने का पछतावा हुआ। 10 मिनट के अन्दर औपचारिकताएं पूरी कर मैं भी आगे बढ़ गया। औपचारिकताओं में केवल एक पहचान पत्र और 150 रूपये की फीस शामिल थी।

घांघरिया से फूलाें की घाटी का शुरूआती बिन्दु लगभग 3.5 किमी है। पूरा ट्रेक घने जंगलों से घिरा हुआ है। चेक–पोस्ट के आगे लगभग 1 किमी का रास्ता कम चढ़ाई वाला है लेकिन पुष्पावती नदी पर बने लोहे के पुल को पार कर लेने के बाद अगले एक या डेढ़ किमी का रास्ता तीखी चढ़ाई वाला है। इस पुल के पास पुष्पावती नदी तेज ढलान से नीचे उतरती है और एक खूबसूरत झरना बनाती है। यहाँ झरने का शोर इतना है कि इस शोर में बाकी सारी आवाजें दब कर रह जाती हैं। ट्रेक का अन्तिम भाग धीमी चढ़ाई वाला है या फिर उतराई वाला है। रास्ता ऐसा है जिस पर बहुत तेज नहीं चला जा सकता। पत्थरों को इकट्ठा कर रास्ता बना दिया गया है। इस कारण पूरा रास्ता ऊबड़–खाबड़ एवं काफी सँकरा है। कहीं–कहीं सीढ़ियाँ भी बनायी गयी हैं। दो–तीन युवा काफी तेज चाल से चलते हुए मुझसे आगे निकल गये। लेकिन जब तीखी चढ़ाई वाला रास्ता मिला तो बिचारे जवाब दे गये। वास्तव में इस ऊँचे–नीचे रास्ते पर चलते हुए हम पुष्पावती की खुली हुई घाटी में प्रवेश कर जाते हैं जहाँ एक लहरदार घाटी के रूप में फूलों की घाटी हमारा स्वागत करती है। अब इस घाटी में फूल कहाँ से आये पता नहीं। लेकिन फूल हों या न हों,यह घाटी वैसे भी कम सुन्दर नहीं।
फूलों की घाटी की असली शुरूआत एक झरने से होती है। यहाँ पत्थरों पर चेक पोस्ट की दूरी लिखी है–3.1 किमी। झरने पर एक छोटा सा पुल बना है जिसके निचले भाग में भोजपत्र के तने लगाये गये हैं। ऊपर भोजपत्र की टहनियों की ही रेलिंग बना दी गयी है। कुल मिलाकर यह पुल निहायत ही सुन्दर है। वैसे इस पुल पर खड़े होने पर डर भी लगता है। मैं कुछ देर के लिए यहाँ रूका। कुछ ही देर में यह पता चल गया कि मुझसे पहले आए दो–चार लोग और मुझसे बाद में आने वाले सभी लाेग स्थायी रूप से इस झरने के पास ही रूकने वाले हैं। ये आगे जायेंगे या नहीं जायेंगे,या फिर जायेंगे तो कब जायेंगे,बिल्कुल भी पता नहीं। क्योंकि सेल्फी लेना भी कम महत्वपूर्ण नहीं।

मुझे यहाँ नहीं रूकना था। रास्ते के दोनों तरफ इक्के–दुक्के फूल दिखायी पड़ रहे थे,जो ये बता रहे थे कि आगे का नजारा कैसा होने वाला है। चुन–चुन करती चिड़िया मुझे आगे बुला रही थी–
ʺआगे आओǃ आगे फूलों का समन्दर है।ʺ मैं भी फूलों के समन्दर में डुबकी लगाने के लिए बेताब था।
झरने के थोड़ा सा आगे एक बड़ा पत्थर इस तरह से खड़ा है कि उसके नीचे गुफा जैसी जगह बन गयी है। बारिश में छ्पिने के लिए यह अच्छी जगह है। ये और बात है कि इसके अन्दर से बदबू भी आ रही थी। ये किस चीज की थी,पता नहीं।
पत्थरों को जमा कर बनायी गयी पगडण्डी खाली–खाली थी। जो भी आ रहा था झरने के पास सेल्फी लेने में ही व्यस्त हो जा रहा था। मैं आगे बढ़ गया। बायीं तरफ हरे–हरे सीधे खड़े पहाड़ दिखायी पड़ रहे थे तो दाहिनी तरफ फूलाें से भरी घाटी। वैसे पहाड़ इतने हरे–भरे दिख रहे थे जैसे प्रकृति ने उन्हें हरे रंग में डुबो कर सराबोर कर दिया हो। इस हरे के नीचे भी कोई रंग होगा जो अदृश्य हो चुका था। बारिश जब बीतेगी तब शायद हरे रंग का असर कुछ कम होगा और प्रकृति का कोई और रंग भी दृश्य होगा। लेकिन अभी तो सिर्फ हरा ही हरा। और हरे में भी इतने तरह के रंग कि जिसकी कल्पना भी मुश्किल होगी। मैं समझने की कोशिश कर रहा था कि यह हरा कितने प्रकार का हो सकता है लेकिन असफल रहा।

फूलों की घाटी के शुरूआती बिन्दु या झरने से ज्यों–ज्यों मैं आगे बढ़ता गया,फूलों की संख्या बढ़ती जा रही थी। दिल इन फूलों के जंगल में कहीं खो गया था। और लगभग 1 किमी चलने के बाद तो मैं शायद फूलों के समन्दर में आ पहुँचा था। मुझे नहीं पता आज के 10 या 50 साल पहले इस घाटी में कितने फूल होते होंगे,कितने तरह के फूल होते होंगे,लेकिन आज जितना भी कुछ दिख रहा था,कम नहीं था। हो सकता है फूलों का क्षेत्रफल बड़ा होता होगा,लेकिन सघनता तो आज भी कम नहीं दिख रही थी। जहाँ तक नजर जा रही थी,फूल ही फूल दिखायी पड़ रहे थे और मैं फूलों के इस समन्दर में डूबता जा रहा था। इस समन्दर के चारों तरफ दिख रहे थे– हरियाली में आकण्ठ डूबे पहाड़,अपने शोर से कानों में झंकार पैदा करते,गीत गाते असंख्य झरने,दूर–दूर तक फैली रहस्यमय घाटी,हरियाली से ढकी ढलानों पर धूप में चमकती सफेद हिमधाराएं,ऊपर पूरी तरह से नीला हो चुका आसमान,आसमान में छ्टिपुट उड़ते रूई जैसे सफेद बादल। पुष्पावती पूरी तरह से ʺपुष्पावतीʺ हो चुकी थी। मैं इस घाटी में होकर भी जैसे यहाँ नहीं था। मुझे लग रहा था कि शायद आज के पहले मैंने कभी वास्तविक सौन्दर्य का अनुभव ही नहीं किया था। मनुष्य की दुनिया से दूर प्रकृति में इतना सौन्दर्य बिखरा पड़ा होगा,इस बारे में मैंने शायद सोचा ही नहीं था। कल की बारिश में घाटी का यह सुन्दर रूप और भी निखर गया था। बचपन में देखा गया कोई सपना आज साकार हो रहा था।

एक मोड़ पर 4 लोगों की एक टीम दिखी। इसमें दो पर्यटक,एक गाइड और एक नेपाली कण्डी वाला था। साथ में एक कुत्ता भी था। ये लोग फोटो खींचने के लिए आये थे क्योंकि इनके पास काफी लम्बे–चौड़े कैमरे दिख रहे थे। पता नहीं इन लोगों को वैसा कुछ अनुभव हो रहा था कि नहीं जैसा मैं अनुभव कर रहा था। क्याेंकि इनके गाइड की भाषणबाजी धाराप्रवाह जारी थी और उस भाषणबाजी को सुनते हुए वे फोटो खींचने में मशगूल थे। गाइड उन्हें एक–एक फूल का नाम बता रहा था। मुझे फूलों के नाम में विशेष रूचि नहीं थी सो मैं इनसे आगे निकल गया। थोड़ा सा ही आगे लकड़ियों की सहायता से एक तीव्रगामी झरने पर बनाया गया एक और पुल मिला। लेकिन यह पुल ऐसा था कि इसे पार करते हुए टाँगें काँप रही थीं। वैसे यह पुल था तो गनीमत थी। क्योंकि इसके बाद तो बिना पुल वाले तीन झरने मिले जिन्हें पार करने में शरीर के साथ साथ आत्मा भी काँप गयी।

मैं फूलों के घने पौधों के बीच बनायी गयी पगडण्डी पर चलता रहा। पौधे मेरे कन्धे तक की लम्बाई तक बढ़े हुए थे और कहीं–कहीं तो ये मेरे सिर तक भी थे। पगडण्डी पर हर कदम बढ़ाने के साथ सैकड़ों कीट–पतंगे उड़कर इधर–उधर भाग रहे थे। ये कीट–पतंगे ही इस फूलों की घाटी को ʺफूलों की घाटीʺ बनाते हैं। क्योंकि यहाँ के फूलों के परागण और उनके बीजों के प्रकीर्णन में ये सर्वाधिक सहायक होते होंगे।
तो फूलों के बीच मंत्रमुग्ध होकर चलते हुए मैंने बिना पुल वाले तीन झरने पार किये। इन झरनों में कम से कम इतना पानी तो था ही कि टखने भीग जाते। लेकिन इन्हें पार करने के लिए पानी के बीच में कुछ पत्थर रखे हुए हैं जिन पर पैर टिकाते हुए इन्हें पार करना है। अगर थोड़ी–बहुत असावधानी हुई तो जूते में पानी घुसने की पूरी सम्भावना है और अधिक असावधानी हुई तो ठण्डे पानी में सम्पूर्ण स्नान भी हो सकता है। तो अधिक तो नहीं लेकिन थोड़ी–बहुत असावधानी मुझसे भी एक जगह हो गयी और जूतों में बर्फ सा ठण्डा पानी घुस गया।

अब तक घाटी कुछ ऊँचाई पर थी और नदी काफी नीचे बह रही थी लेकिन अब चलते–चलते मैं ऐसी जगह पर आ पहुँचा था जहाँ नदी और घाटी का तल लगभग बराबरी पर आ गया था। तो मैं नदी की तरफ बढ़ चला। अब फूल भी लगभग समाप्ति की ओर बढ़ चले थे और इक्का–दुक्का ही दिखायी पड़ रहे थे। घाटी का ढाल कम होने के कारण नदी की गति काफी धीमी लग रही थी। नदी का पाट पूरी तरह से पथरीला है। चारों तरफ घिसकर चिकने हुए गोल–गोल पत्थर बिखरे पड़े थे। बीच–बीच में लिखी दूरियों के हिसाब से मैं अनुमान लगा रहा था कि फूलों की घाटी के शुरूआती बिन्दु से लगभग 4 किमी दूर आ चुका था। अब यहाँ से पुष्पावती का उद्गम या टिपरा खर्क ग्लेशियर लगभग 1 किमी की दूरी पर ही था। तो कुछ देर नदी की कल–कल सुनने के बाद मैं तेजी से आगे बढ़ा और टिपरा खर्क की ओर चल पड़ा। मैं फूलों की घाटी के छोर तक पहुँचना चाहता था। बायीं तरफर सीधे खड़े पहाड़ की ढलान पर,सिर तक की लम्बाई में फैले फूलों के घने पौधों के बीच से भी एक पगडण्डी आगे की ओर जा रही थी। वैसे नदी द्वारा बिछाये गये गोल–गोल पत्थरों पर चलना अधिक आसान लग रहा था तो मैं नदी के किनारे–किनारे टिपरा खर्क ग्लेशियर की ओर चल पड़ा। तीन लड़कों का एक समूह मुझसे आगे निकलने की होड़ लगाये हुए था। इनमें से एक ने तो वहीं सपाटे लगाने भी शुरू कर दिया। वैसे मैं हो़ड़ लगाने की स्थिति में नहीं था। थोडी ही देर में मैं टिपरा खर्क के बिल्कुल नीचे था। घाटी से अलग यहाँ कुछ भी नहीं था। चारों तरफ पहाड़,झरनों का शोर और पहाड़ों के ऊपर बादल। टिपरा खर्क की चोटी पर बर्फ दिख रही थी। आस–पास फूल बिल्कुल भी नहीं थे। जिस रास्ते से मैं आया था वह बिल्कुल पतली सी पगडण्डी थी।

इस बीच पहाड़ों की रूमानी दुनिया से कुछ देर के लिए मैं वास्तविक दुनिया में लौटा तो पता चला कि 12 बज चुके हैं। अर्थात चेक–पोस्ट से मैं 5 घण्टे चल चुका हूँ। अब तक चेक–पोस्ट से मैं लगभग 8 या 9 किमी चल चुका था। मुझे झटका सा लगा। क्योंकि वापस भी जाना था। शाम के 5 बजे तक चेक–पोस्ट पर रिपोर्ट करना था। न पहुँचने पर हो सकता है नेशनल पार्क के लोग अन्दर गये लाेगों को खोजने भी आ सकते हैं। मैं उल्टे पाँव लौटा। नदी के बिल्कुल पास जहाँ मैं जाते समय रूका था वहाँ 5-7 लोग पिकनिक मना रहे थे। ये शायद मेरे आगे बढ़ने के बाद आये थे। इनमें कुछ महिलाएं भी थी। इन्हें देखकर मैं भी निश्चिन्त हो गया। जब ये लोग समय से वापस पहुँच सकते हैं तो मैं क्यों नहींǃ
घाटी के अन्दर एकमात्र पगडण्डी बनी हुई जिस पर चला जा सकता है। लेकिन कुछ देर के लिए आप इस पगडण्डी से इधर–उधर हटकर कुछ दूर अन्दर भी जा सकते हैं और प्रकृति के अनछुए सौन्दर्य का दर्शन कर सकते हैं। हरी–हरी घास पर कुछ पल के लिए लोट सकते हैं,कुलांचे भर सकते हैं,अपनी पूरी आवाज में गाना गा सकते हैं और नाच भी सकते हैं और यह सब करते हुए आप बिल्कुल अकेले हैं। बिल्कुल अकेले। इस बात से आप निश्चिन्त हो सकते हैं कि कोई आपको देख भी रहा है। सिर्फ प्रकृति आपको देख रही है,और कोई नहीं।

फूलों की घाटी से बातें करते हुए अब मैं वापस चल पड़ा। अन्दर जाते समय एक स्थान मुझसे छूट गया था– मिस लेगी की कब्र। लौटते हुए इस स्थान को मैं खोज रहा था। इस जगह के लिए बाकयदा दूरी का संकेतक बनाया गया है लेकिन दिशा के निशान पर मैंने ध्यान नहीं दिया था। इस बार ध्यान दिया तो पता चला कि यह मुख्य पगडण्डी से 700 मीटर नीचे की ओर है। उधर मुड़ा तो एक पेड़ के नीचे बहुत से बंगाली दादाओं की भीड़ जुटी थी। बंगाली दादा भरसक ऐसे ही समूहों में चलते हैं। उन्होंने पूरा रास्ता कब्जा कर रखा था। लेकिन मेरे लिए रास्ता खाली किया गया। मैंने मिस मार्ग्रेट लेगी की कब्र के कुछ फोटो लिए। उनके जज्बे को सलाम किया और वापस लौटा। लेकिन इस बीच एक बंगाली फोटोग्राफर मिल गया। कैनन का बड़ा सा कैमरा लिये हुए। जबरदस्ती मुझे कैमरे की विशेषताओं के बारे में बताने लगा। लेकिन जब मैंने अपने फोटाे दिखाये तो वह मेरे पीछे पड़ गया। मैंने उसे कुछ फंक्शन बताये। लेकिन वह मेरा पीछा छोड़ने को तैयार नहीं था। किसी तरह उससे पिण्ड छुड़ाकर वापस भागा।

पुष्पावती नदी पर बने पुल के पास भीड़ लगी थी। पुष्पावती यहाँ पर ʺपुष्पावतीʺ ही नहीं ʺवेगवतीʺ भी है। इतना कि 100 मीटर दूर से भी पानी के महीन फुहारे उड़ कर शरीर को भिगोते हैं। मैंने भी एक छोटा सा वीडियो बनाया।
और तभी अचानक दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य मेरी आँखों के सामने दिखायी पड़ा। एक नेपाली अपनी कण्डी में अपने से लगभग दुगुने वजन वाली एक महिला को बैठाये,लगभग मेरे बराबर ही चल रहा था। थोड़ी सी चढ़ाई पर जहाँ मेरी साँसें फूल रहीं थीं,पसीने छूट रहे थे,वह नेपाली आराम से चला जा रहा था। मुझे उस नेपाली पर तरस आया। साथ ही उस महिला पर भी जो अपने बोझ सदृश शरीर को,पैसे के बल पर,दूसरे के कन्धों पर लादकर फूलों की घाटी में मस्ती करने आयी है। और हाँ,यह महिला बंगाली थी और 39 की संख्या वाले बड़े से समूह का हिस्सा थी।

जब मैं फूलों की घाटी चेक–पोस्ट पहुँचा तो शाम के 4.30 बज रहे थे। अर्थात मैं निर्धारित समय से आधे घण्टे पहले ही पहुँच गया था। वहाँ सुबह के समय तैनात कर्मचारी अब जा चुके थे। अब एक नया व्यक्ति कागजात लेकर वापस लौटने वालों को चिहि्नत कर रहा था। मेरे पास पर्याप्त समय था तो मैं उनके पास बैठकर कुछ बातें करने लगा। अन्य बातों के अलावा एक नयी बात मालूम हुई और वो ये कि फूलों की घाटी से होकर गुजरने वाली पगडण्डी इस घाटी से आगे नीति गाँव की ओर जाती है। इस ट्रेकिंग में तीन दिन लगते हैं और इसके लिए जोशीमठ से परमिशन लेनी पड़ती है। आधे घण्टे तक गुफ्तगू करने के बाद मैं वापस घांघरिया की ओर चल पड़ा।





































अगला भाग ः घांघरिया से वापसी

सम्बन्धित यात्रा विवरण–

1. सावन की ट्रेन
2. गोविन्दघाट की ओर
3. गोविन्दघाट से घांघरिया
4. घांघरिया से हेमकुण्ड साहिब
5. फूलों की घाटी
6. घांघरिया से वापसी
7. देवप्रयाग–देवताओं का संगम

10 comments:

  1. Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार ब्लॉग पर आने के लिए।

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  2. फोटो लेने वाला फंक्शन हमें भी बता दो भाई कुछ. रही बात पीछे पड़ने की तो, यहाँ तो मेरी मेसेज ही पीछे पड़ सकती है. फोटो तो आपने महा जबरदस्त लिया है. बहुत ही बढ़िया यात्रा वर्णन.

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद अंशुमान भाई। आपके मेसेज तो हमेशा मिलते ही रहते हैं। और फोटो के फंक्शन आपको क्या बताना,आप भी बहुत अच्छी फोटो खींचते हैं।

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  3. वाह!
    लाजवाब यात्रा वृतांत।
    दिल बाग बाग हो गया।

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    1. ढेर सारा धन्यवाद। आगे भी आते रहिए।

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  4. आपकी पोस्ट लिखने का तरीका और आपकी फोटो को खींचने का तरीका बहुत अच्छा लगा धन्यवाद

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    1. बहुत बहुत आभार आपका,प्रोत्साहन के लिए।

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