Friday, October 25, 2019

देवप्रयाग–देवताओं का संगम

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देवप्रयाग भागीरथी और अलकनन्दा के संगम पर बसा पवित्र स्थान है। देवप्रयाग की प्रसिद्धि यहाँ बने रघुनाथ मंदिर के कारण भी है। रघुनाथ मंदिर के अन्दर काले पत्थर की बनी,6 फुट ऊँची रघुनाथ जी की मूर्ति विराजमान है। कहते हैं देवप्रयाग के इस प्राचीन मंदिर का निर्माण शंकराचार्य ने कराया था। बाद में गढ़वाल राजवंश ने इस मंदिर का जीर्णाेद्धार कराया। इस स्थान का नाम देवप्रयाग होने के पीछे भी एक कहानी है। कहते हैं कि देवशर्मा नाम ऋषि ने यहाँ भगवान विष्णु की तपस्या की। तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें दर्शन दिया और तबसे उस ऋषि के नाम पर ही इस स्थान को देवप्रयाग के नाम से जाना जाता है।
तभी से इस स्थान पर भगवान विष्णु भी प्रतिष्ठित हैं। इसके अतिरिक्त रावण वध के पश्चात् भगवान राम को ब्रह्महत्या का पाप लगा और इससे मुक्ति हेतु उन्होंने इसी तीर्थ में तपस्या की। तभी से यहाँ रघुनाथ जी के रूप में भगवान राम की प्रतिष्ठा हुई।
देवप्रयाग की समुद्रतल से ऊँचाई 1650 फीट है। अतः गर्मियों में भी यहाँ का मौसम अत्यधिक गर्म नहीं होता।

दोपहर के 12 बजे जब मैं देवप्रयाग पहुँचा तो सूर्यदेव बिल्कुल ऊपर हो गये थे। बादल बिखर गये थे और बरसात की धूप तीखी लग रही थी। नीचे प्रवाहित होती अलकनंदा और भागीरथी के जल की शीतलता का एहसास दूर से ही हो रहा था। सड़क से उतर कर कई गलियाँ नीचे पवित्र नदी के किनारे तक जाती हैं। वैसे अभी मैं इस फेर में था कि कहीं ठिकाना देखकर,पीठ पर जूँ की तरह चिपके बैग से मुक्ति पायी जाय। देवप्रयाग के स्टैण्ड पर जहाँ मैं गाड़ी से उतरा था,एकमात्र होटल है। अब अकेले है तो जाहिर है इसका मोल तो अनमोल होगा ही। मैंने काफी प्रयास किया लेकिन यह 500 से टस से मस होने को तैयार नहीं था। थक–हार कर एक चाय की दुकान पर चाय पीने बैठ गया। वैसे यह केवल चाय की दुकान न होकर ʺआल इन वन था।ʺ चावल और छोले भी मिल रहे थे। मैंने दुकानदार से होटलों के बारे में पूछा तो उसने भी उसी एकमात्र होटल की ओर इशारा कर दिया। जनरल स्टोर की दुकान चला रहे एक अंकल से मैंने पूछताछ की तो उन्होंने बद्री–केदार मंदिर समिति के ʺयात्री निवासʺ के बारे में बताया। यह स्टैण्ड से कुछ दूरी पर है। मैं अपना बैग घसीटता उधर बढ़ा। यात्री निवास का गेट तो सड़क किनारे ही मिल गया लेकिन यात्री निवास कहीं दिखायी नहीं पड़ रहा था। नीचे जाती सीढ़ियाँ अवश्य दिखायी पड़ रही थीं। तो मैं नीचे उतरता गया और सीढ़ियाँ गिनता गया। 100 सीढ़ियाँ उतरने के पश्चात् मैं यात्री निवास के कार्यालय में पहुँचा। अकेले संचालक महोदय बैठे हुए नदियों की गर्जना का आनन्द ले रहे थे। लगभग सारे कमरे खाली थे। 200 में एक डबल कमरा बुक हो गया। मैंने इस रेट का राज जानने की कोशिश की। पता चला कि अलग–अलग शहरों में इसके रेट अलग–अलग हाे सकते हैं। इसके अतिरिक्त सीजन के हिसाब से भी रेट में अन्तर पड़ता है। भरसक 6 महीने तक यात्रा चलती है। मई–जून में पीक सीजन के कारण रेट 400 रहता है। जुलाई–अगस्त में ऑफ सीजन के कारण 200। सितम्बर–अक्टूबर में मीडियम सीजन में यह 300 हो जाता है।

देवप्रयाग के इस यात्री निवास की अवस्थिति अदि्वतीय है। भागीरथी एवं अलकनंदा के संगम के ठीक ऊपर,खड़ी ढलान पर,यह बहुमंजिली इमारत बनी हुई है। साथ ही नीचे उतरकर नदी के किनारे जाने के लिए भी सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इसके आस–पास थोड़ी दूरी पर कुछ मकान हैं लेकिन नीचे की ओर बिल्कुल एकांत है। केवल पेड़–पौधे और झाड़ियाँ ही हैं। नदी की कलकल के अतिरिक्त कोई आवाज नहीं है। पेड़ों पर बैठे कुछ बन्दर अवश्य ही कभी–कभार शोर मचा देते हैं। वैसे इनके शोर से डरने की बजाय इनकी हरकतों से सावधान रहने की अधिक आवश्यकता है।
मैं सुबह चमोली से नहाकर चला था लेकिन पानी साफ न होने की वजह से संतुष्टि नहीं मिली। तिसपर भी भागीरथी और अलकनंदा का संगम सामने था। फिर नहाने से भला कौन रोक सकता है। बैग कमरे में रखने के बाद मैं यात्री निवास के नीचे प्रवाहित हो रही भागीरथी नदी के किनारे पहुँच गया। यात्री निवास से भागीरथी के किनारे तक पहुँचने के लिए भी काफी सीढ़ियाँ उतरनी पड़ीं। छोटा सा घाट बिल्कुल खाली था। वहाँ सिर्फ मैं ही मैं था। और कोई था तो वो थे पेड़ों के ऊपर बैठे बन्दर। नदी के पानी में तेजी से घट–बढ़ हो रही थी। दस मिनट के भीतर ही नदी का पानी दो सीढ़ी नीचे उतर गया।
मैं चकित था। भागीरथी कहाँ जा रही हैǃ कैसे बदल रही हैǃ एक तो वैसे भी अलकनंदा से मिलने से पहले यह ठहर सी जाती है। रंग भी इसका गंगोत्री के गोरे से बदलकर साँवला हो जाता है। इसके अन्दर प्रौढ़ता आ जाती है। अलकनंदा यहाँ भी पहले जैसी ही है, गोरी–गोरी सी,किसी अल्हड़ किशोरी की भाँति चंचल,उच्छृंखल,मदमस्त। गोरी अलकनंदा,भागीरथी के साँवले रंग को अपने में समा कर भी गोरी बनी रहती है।
नहाकर लौटा तो तन और मन दोनों शीतल और पवित्र हो चुके थे। यात्री निवास से बाहर खाना खाने के लिए बाहर निकला तो फिर से सीढ़ियाँ चढ़ने का कष्ट उठाना पड़ा। देवप्रयाग के बस स्टैण्ड पर कई छोटे–छोटे ढाबे हैं जहाँ 60 या 70 रूपये में थाली का खाना उपलब्ध है। जो उपलब्ध है वही खाना पड़ेगा। अपनी माँग के हिसाब से खाना मिलने की संभावना कम ही है। चावल है तो मिल जायेगा नहीं तो 6 रोटियाँ ही मिलेंगी। यही बात इसके उल्टी भी है। अर्थात् रोटियाँ नहीं हैं तो केवल चावल ही खाना पड़ेगा। वैसे जिस ढाबे में मैंने खाना खाया,उससे पेट तो भर गया लेकिन मन नहीं भरा। भागीरथी के इस किनारे न तो आबादी है,न ही बाजार। दूसरे किनारे अर्थात संगम के भीतर वाले भाग में देवप्रयाग कस्बा बसा है। कस्बे की आवश्यकता के हिसाब से दुकानें भी हैं। वैसे इस समय भीड़–भाड़ नाममात्र की ही दिख रही थी। अभी धूप तेज थी तो कहीं बाहर निकलने का अवसर नहीं था। तो फिर से कमरे चला आया क्योंकि यहाँ भागीरथी और अलकनंदा तो हैं ही,गंगा भी है। यात्री निवास के बरामदे में खड़े होकर इन तीनों को आँखों के बिल्कुल ठीक सामने देखना आत्मा को भी तृप्त कर देता है। ठीक सामने,भागीरथी के उस पार जहाँ दोनों का संगम है और दोनों एक दूसरे का पहला स्पर्श करती हैं,घाट बने हुए हैं,सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। घाटों को जंजीरों से घेरकर सुरक्षित किया गया है। कभी–कभार दो–चार लोग घाट पर स्नान करने या पिण्डदान करने चले आते हैं। सावन का महीना है तो कभी कुछ शिवभक्त भी आ जाते हैं। स्वर तो केवल अलकनंदा का ही है। बाकी सारी आवाजें उसकी आवाज में खो सी जाती हैं।

अपराह्न में मैं देवप्रयाग घूमने निकला। यात्री निवास के संचालक से रास्तों के बारे में पूछताछ की। भागीरथी और अलकनंदा पर झूला पुल बने हुए हैं जबकि गंगा पर पक्का पुल बना हुआ है। इन तीनों पुलों के बीच में संगम होता है। तो मैंने योजना बना ली। यात्री निवास से निकला तो भागीरथी किनारे–किनारे गुजरने वाले रास्ते से होते हुए भागीरथी पर बने झूला पुल पर पहुँच गया। पुल से दोनों तरफ का नजारा काफी सुंदर है। पुल पार करने के बाद संगम अर्थात दोनों नदियाें के बीच वाले भाग में पहुँच गया। यह घना बसा हुआ भाग है। गलियों से गुजरता हुआ संगम नोज तक पहुँच गया। यहाँ से वापस अब मैं अलकनंदा किनारे आ गया था। फिर से गलियों से गुजरता हुआ अलकनंदा पर बने झूला पुल पर। इस पुल पर से दिखने वाला नजारा और भी सुंदर है। नदी के किनारे जमी हुई चट्टानें सुंदर दृश्य उपस्थित करती हैं। पुल पार करने के बाद अलकनंदा के दूसरे किनारे पहुँचा तो रास्ता ही समझ नहीं आ रहा था। एक काँवरियों का दल मिल गया। उनके पीछे लग गया। लेकिन वे बिचारे एक बंद गली में घुस गये। कुछ दूर चलने के बाद वापस लौट कर आना पड़ा। किसी तरह रास्ता मिला। अब मैं गंगा किनारे आ गया था। गंगा किनारे काफी दूर तक चलना पड़ा तब जाकर गंगा पर बना पक्का पुल मिल सका। पुल पार कर फिर से गंगा किनारे चलता हुआ थोड़ी देर में मैं फिर से भागीरथी किनारे पहुँचा और इस प्रकार संगम की परिक्रमा पूर्ण हुई।

संगम की परिक्रमा पूरी कर कमरे पहुँचा तो मन पवित्र हो चुका था। शाम हो रही थी। शाम के धुँधलके में डूबे देवप्रयाग को,अलकनंदा के शोर के साथ देखना अद्भुत अनुभूति देने वाला था। इस बीच संगम नोज पर आरती भी होने लगी। वैसे देवप्रयाग की आरती में हरिद्वार या वाराणसी की तरह भीड़ नहीं थी। 4-6 लोग ही आरती में शामिल थे। फिर भी नदियों की गर्जना में से निकलती शांति दिल को छू जा रही थी। मैं अभी इस भक्ति के अथाह सागर में डूबा हुआ था कि यात्री निवास के लड़के ने मुझे इशारे से कुछ कहा। मैं समझ गया कि यह खाना खाने के लिए कह रहा है। 7 बजने वाले थे। मैं बाहर सड़क पर आया तो लगा कि खाना मिलना भी मुश्किल होगा। सारी दुकानें बन्द हो रही थीं। कुछ ढाबे भी बन्द हो चुके थे। एक–दो खुले थे। हो सकता है कि लड़के ने इशारा न किया होता और अगले आधे घण्टे तक मैं संगम के दर्शन में ही उलझा होता तो रात पर भूखे पेट दर्शन ही करना पड़ता क्योंकि नींद भी नहीं आती। एक ढाबे में 60 रूपये में भरपेट खाना मिला। गाजियाबाद के दो लोगों से मुलाकात भी हुई जो बाइक से आ रहे थे और खाना खाने के लिए वहाँ रूके थे। पता चला कि अभी वे कुछ दूर और आगे जायेंगे। मैं हैरत में पड़ा कि रात के अँधेर में पहाड़ी सड़कों पर वे कैसे बाइक चलायेंगे।

आठवाँ दिन–
आज रात में मुझे हरिद्वार से ट्रेन पकड़नी थी तो मुझे कोई जल्दबाजी नहीं थी। पर्याप्त समय था। कमरे का चेक आउट टाइम 11 बजे था तो उससे पहले तो मैं कमरा खाली करने वाला नहीं था। सुबह के समय मैं एक बार फिर से काफी देर तक, देवप्रयाग की गलियों में चक्कर लगाता रहा। और 11 बजे के पहले,एक ढाबे में 70 रूपये थाली वाला खाना खाकर देवप्रयाग के स्टैण्ड पर,हरिद्वार की गाड़ी पकड़ने के लिए खड़ा हो गया।















10 comments:

  1. INDERJEET SINGH SODHIJune 9, 2020 at 12:34 PM

    I have read your full series of this trip.Your style of narrating the travel is smooth and interesting. Will try to read more of your travelogues.Keep writing and keep sharing.

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद ब्लाॅग पर आने के लिए। आगे भी आते रहिए।

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  2. बहुत शानदार यात्रा विवरण

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  3. आपके सारे यात्रा वृतांत बहुत ही अच्छे है। इनको पढ़कर अच्छा लगता है। कई जगह तो हमारी घूमी हुई होती हैं तो वापस सब याद आ जाता है।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद। यात्रा वृत्तांत पढ़ना मुझे भी अच्छा लगता है। लिखना तो और भी अच्छा लगता है। भविष्य में भी ब्लॉग पर आते रहिए।

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  4. आनन्द आ गया डॉक्टर साहब, ऐसा महसूस हो रहा था कि मैं स्वयम् यात्रा कर रहा हूँ आपके साथ। यात्रा करने का मुझे भी शौक़ है

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    1. जी बस महसूस करने की बात है। बहुत बहुत धन्यवाद ब्लॉग पर आने के लिए।

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