तीसरा दिन–
सुबह सोकर उठा तो रिमझिम बारिश अपने पूरे शबाब पर थी। सामने लक्ष्मणगंगा बादलों से निकलकर नीचे हरे जंगलों में कहीं खो जा रही थी। गोविंदघाट की रोमानी सुबह अपने आप में बहुत कुछ कह रही थी। वास्तव में यह स्थान रास्ता नहीं वरन मंजिल होनी चाहिए। बारिश प्रकृति का उत्सव है। प्रकृति आज पूरे श्रृंगार में उत्सव मना रही थी। पहाड़ों की बरसात जितनी डरावनी होती है उतनी ही सुंदर भी। इस मौसम में पहाड़ हरी चादर तो वैसे भी ओढ़ लेते हैं। इस हरी चादर के ऊपर सफेद बादलों का दुशाला ओढ़ प्रकृति सुंदरी अपने अप्रतिम स्वरूप में निखर आती है।
और आज तो बादलों की एक झीनी परत मेरे कमरे के सामने भी फैल गयी थी। मन मयूर हठात् नृत्य कर उठा।
सुबह सोकर उठा तो रिमझिम बारिश अपने पूरे शबाब पर थी। सामने लक्ष्मणगंगा बादलों से निकलकर नीचे हरे जंगलों में कहीं खो जा रही थी। गोविंदघाट की रोमानी सुबह अपने आप में बहुत कुछ कह रही थी। वास्तव में यह स्थान रास्ता नहीं वरन मंजिल होनी चाहिए। बारिश प्रकृति का उत्सव है। प्रकृति आज पूरे श्रृंगार में उत्सव मना रही थी। पहाड़ों की बरसात जितनी डरावनी होती है उतनी ही सुंदर भी। इस मौसम में पहाड़ हरी चादर तो वैसे भी ओढ़ लेते हैं। इस हरी चादर के ऊपर सफेद बादलों का दुशाला ओढ़ प्रकृति सुंदरी अपने अप्रतिम स्वरूप में निखर आती है।
और आज तो बादलों की एक झीनी परत मेरे कमरे के सामने भी फैल गयी थी। मन मयूर हठात् नृत्य कर उठा।
गाेविन्दघाट लगभग 6000 फीट की ऊँचाई पर अवस्थित है। इतनी ऊँचाई पर स्थित मध्य हिमालय के शहर खूबसूरत हिल स्टेशन के रूप में जाने जाते हैं। लेकिन गोविन्दघाट की चर्चा इस रूप में शायद ही कहीं होती है। वैसे उच्च हिमालय के पाद प्रदेश में बसे होने के कारण मध्य हिमालय के अन्य हिल स्टेशनों की तुलना में यहाँ कहीं अधिक ठण्ड होती है। इस कारण यहाँ स्थायी जनसंख्या कम ही निवास करती है। आज मेरे लिए भी यह रास्ते के एक पड़ाव के रूप में आया था लेकिन एक रात गुजारने के बाद पता चल गया कि यह कितना खूबसूरत है।
अब मैं बारिश के धीमी होने का इन्तजार कर रहा था। गुरूद्वारा मेरे कमरे से लगभग 200 मीटर दूर था। गाेविन्दघाट से पुलना गाँव तक 4 किमी की दूरी में,लगभग 4 साल पहले पक्की सड़क बन गयी तो अब वहाँ तक गाड़ियाँ जाती हैं। अन्यथा पहले हेमकुण्ड और फूलों की घाटी की पैदल यात्रा गोविन्दघाट से ही शुरू होती थी। गोविन्दघाट से पुलना तक खड़ी चढ़ाई है। पुलना जाने वाली गाड़ियाँ गुरूद्वारे के पास के स्टैण्ड से जाती हैं। मैंने अपने पिट्ठू बैग में जरूरी सामान पैक कर दिया। बाकी सामान दूसरे बैग में पैक कर होटल वाले के हवाले किया।
8 बजे के आस–पास बारिश कुछ धीमी हुई तो मैं टैक्सी स्टैण्ड की ओर चल पड़ा। यहाँ बड़ी मगजमारी थी। गाड़ियाँ लगी हुई थीं। जाने वाले भी भीड़ लगाये हुए थे लेकिन जा कोई नहीं रहा था। कुछ ही देर में समस्या का पता चला। गाड़ियों में दस की सीट है। गोविन्दघाट से पुलना तक 4 किमी की दूरी का 40 रूपये किराया है। गाड़ी वाला या तो 10 सवारियाँ बिठायेगा या फिर 400 रूपये लेगा,तभी यहाँ से हिलेगा। अगर कम सवारियों को लेकर जाएगा तो किराये को सवारियों को ही एड्जस्ट करना पड़ेगा। यहाँ किसी समूह में 6 लोग थे किसी में 8,किसी में 12 तो किसी में 18। सबको समायोजित करने में भारी समस्या आ रही थी। मैं अपने समूह में अकेला था तो मेरे लिए कोई समस्या नहीं थी। मैं किसी भी समूह में नमक की तरह मिल जाने की स्थिति में था। लेकिन उसके पहले एक जलपान की दुकान के बड़े से बरामदे में,कुर्सी–मेज लगाकर खड़े हुए वर्दीधारी सरदार जी के रजिस्टर में,रजिस्ट्रेशन कराना जरूरी था। बिना इसके पुल पार करना असम्भव था। दो लाेग बतियाते हुए पैदल ही पुल के उस पार जाने लगे। सरदार जी गला फाड़–फाड़ कर चिल्लाने लगे। आखिर उन दोनों को वापस आना पड़ा। मैंने भी रजिस्ट्रेशन कराया और सरदार जी के मोबाइल से फ्री में घर का हालचाल भी लिया।
वापस गाड़ियों की ओर पलटा तो एक गाड़ी भर चुकी थी और सिर्फ मेरे लिए ही जगह खाली थी। भीगने लायक रिमझिम बारिश हो रही थी। मैंने बैग को रेनकवर पहनाया और गाड़ी के ऊपर लाद दिया। फिर अपने डण्डे के साथ सबसे आगे वाली सीट पर सवार हो गया। गाड़ी चली तो पता चला कि काफी तीखी चढ़ाई है। वैसे गाड़ी में एक सवारी कम थी तो किराये को लेकर भी चर्चा हो रही थी। क्योंकि ड्राइवर ने सीधी चेतावनी जारी कर दी थी कि 400 तो किसी तरह से पूरा करना ही पड़ेगा। समूह वाले लोग इसकी क्षतिपूर्ति को लेकर विचारमग्न थे। चूँकि मैं अकेला था कि मुझे इसकी चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं थी। 10-15 मिनट के अन्दर ही गाड़ी पुलना गाँव पहुँच गयी।
पुलना एक छोटा सा गाँव है। और मुझे लगा कि घरों से अधिक यहाँ मोटरसाइकिलों की पार्किंग हैं। छोटी–छोटी नाश्ते–पानी की दुकानें हैं। गाड़ियों का स्टैण्ड है और साथ ही घोड़ों का भी। क्योंकि यहीं से घांघरिया के लिए पैदल ट्रेकिंग शुरू होती है। ऊपर जाने वाले लोगों की भीड़ हो रही थी क्योंकि समूहों में आए हुए लोग एकत्र हो रहे थे। घोड़ों का मोल–भाव भी करना था। सर्वाधिक संख्या भारत के दो क्षेत्रों से आए हुए लोगों की थी। एक तो पंजाब,जहाँ से लोग हेमकुण्ड साहिब की ओर जाते हैं और दूसरा बंगाल,जो कि भारत के सर्वाधिक यात्रा करने वाले लोगों का क्षेत्र है। पंजाबियों को अधिक विश्वास अपने पैरों पर है तो बंगालियों को चार पैरों वाले घोड़ों पर। चूँकि बंगाली लाेग काफी बड़े–बड़े समूहों में दिख रहे थे तो अपने लिए न सही,सामान के लिए तो घोड़ा लिया ही जा रहा था।
8 बज रहे थे। रिमझिम बारिश जारी थी। कई लाेग दुकानों में लगी कुर्सियों पर बैठकर रेनकोट पहन रहे थे। मुझे भी लगा कि रेनकोट पहन लेनी चाहिए तो मैंने भी एक कुर्सी कब्जा करके रेनकोट पहन ली। इसके बाद शुरू हुई दमदार चढ़ाई,घने जंगलों के बीच से। पत्थरों को जमा कर ठीक–ठाक रास्ता बनाया गया है। कहीं किसी भी तरह की मदद की जरूरत नहीं है। हाथ में छड़ी है तो काफी सहूलियत है। गोविन्दघाट की समुद्रतल से ऊँचाई है लगभग 1800 मीटर या 6000 फीट है जबकि घांघरिया की ऊँचाई है 3050 मीटर या 10000 फीट। तो लगभग 10 किमी की लम्बाई में 1250 मीटर की ऊँचाई चढ़नी है। प्रति किमी लगभग 125 मीटर। चढ़ाई कठिन है लेकिन मौसम ठण्डा है,रिमझिम बारिश हो रही है,बारिश की वजह से जंगल हरियाली से लक–दक हैं,तो थकान का पता नहीं चलता। वैसे चढ़ाई एड़ी का पसीना चोटी पर तो चढ़ा ही देती है। फिर भी चढ़ाई केवल वही नहीं है जो एड़ी का पसीना चोटी पर चढ़ा दे,चढ़ाई वह भी है जिसमें होठों का लिपस्टिक पसीने के साथ बहकर गले तक चला जाय। ये एक नई बात इस यात्रा में पता चली। ऐसे में घण्टे भर की चढ़ाई में ही रेनकोट ने वो समां बाँधा कि कपड़ों के अन्दर पसीने की धारा बहने लगी। रिमझिम बारिश से जितने कपड़े भीगते,उससे अधिक पसीने से भीग गये। मैंने रेनकोट उतार कर कन्धे पर लाद लिया। सारी गर्मी उड़न–छू हो गयी और खुशगवार मौसम का असली मजा आने लगा।
गोविन्दघाट–घांघरिया ट्रेक का मुख्य पड़ाव है भ्यूंदार गाँव। भ्यूँदार गाँव भ्यूँदार घाटी में बसा एक छोटा सा गाँव है जहाँ कुछ ग्रामीण यात्रा सीजन में यात्रियों के चलते रहते हैं। यात्रियों के नाश्ते–जलपान व भोजन की यहाँ ठीक–ठाक व्यवस्था है। रहने की कोई व्यवस्था नहीं। 2013 में आयी बाढ़ ने भ्यूँदार के भी निचले भागों पर अपना असर दिखाया था। भ्यूँदार में लक्ष्मणगंगा और कागभुशुण्डि का संगम होता है। और इस स्थान पर यह घाटी बहुत ही खूबसूरत है। रास्ते के किनारे,जगह–जगह प्लास्टिक टेण्ट में कई दुकानें हैं। ऐसी ही एक दुकान में मैंने 50 रूपये प्लेट वाली मैगी बनवायी और टाफियाँ खरीदीं। टाफियों का रेट यहाँ तक,नीचे की तुलना में दोगुना हो चुका था। लेकिन ट्रेक के दौरान टाफियाँ बड़ी ही मददगार साबित होती हैं। भ्यूँदार में लक्ष्मणगंगा को पार करने के लिए कामचलाऊ पुल बना हुआ है। पुल के पास एक बोर्ड पर पुल पर न रूकने के निर्देश लिखे गये हैं। फिर भी लाेग पुल पर खड़े होकर फोटो खींचने से परहेज नहीं कर रहे थे। इस पुल के थोड़ा सा ऊपर लक्ष्मणगंगा नदी पर नये पक्के पुल का निर्माण कार्य जारी है।
मैं अकेले,बिल्कुल अकेले चलता रहा। रास्ते में लाेग मिलते रहे। पंजाब के सरदार और सरदारनी। बंगाल के दादा और दादी। मेरी तरह से अकेला तो शायद ही कोई होगा। सरदारों के समूह बिल्कुल साधारण तरीके से चल रहे थे,बिल्कुल खाली हाथ। पीठ पर एक बहुत ही छोटा सा बैग या फिर हाथ में प्लास्टिक का छोटा सा थैला। लेकिन बंगाली दादाओं और दादियों के साथ पूरा माल–असबाब था। अपनी पीठ पर तो कम ही था लेकिन घोड़ों की पीठ पर अवश्य था। और इस सारी मगजमारी से दूर ऊपर आसमान में हेलीकाप्टर अपनी गड़गड़ाहट से घाटी की शांति को भंग करने के साथ साथ प्रदूषण नियंत्रण का काम भी कर रहे थे। ये हेलीकाप्टर यात्रियों को नीचे से घांघरिया तक लाते हैं। घांघरिया से लगभग 3 किमी पहले अधेड़ उम्र के एक अकेले सरदार जी मिले। अकेले थे तो उन्हें देखकर मैं भी आश्चर्यचकित हुआ। बिचारे से चला नहीं जा रहा था। संकोचवश मैं कुछ बोला नहीं। लेकिन सरदार जी कहाँ चुप रहने वाले थे– ʺअभी कितना होगा जी?ʺ
ʺ3 किमी से कम नहीं होगा।ʺ
ʺतब तो कम से कम डेढ़ घण्टा। मैं तो इधर ही खतम हो जाऊँगा जी।ʺ
मैं मुस्कुरा कर आगे निकल गया। आधे घण्टे बाद मेरे पीछे से आवाज आयी– ʺमन्ने तो घोड़ा कर लिया जी।ʺ
पीछे मुड़कर देखा तो वही सरदार जी घोड़े पर सवार थे और अब वे मुझसे आगे निकलने वाले थे। एक जगह और तीन सरदार मिले। हवाई चप्पल पहने। लगभग साथ साथ ही चल रहे थे। कभी वो आगे निकलते तो कभी मैं। परिचय भी हुआ। रास्ते भर बंगाली दादाओं के भी झुण्ड भी मिलते रहे। लेकिन बिल्कुल खाली हाथ। सारे बैग घोड़े की पीठ पर।
अपराह्न के 1 बजे घांघरिया पहुँचा। गाँव के कुछ पहले से ही आर्मी कैम्प बने हुए हैं। दूर से देखने पर ये बड़े ही सुन्दर दिखते हैं। यहीं दो बहादुर व्यक्ति मिले जो अभी आज ही फूलों की घाटी जाने के बारे में सोच रहे थे। मैंने उन्हें बताया कि इस समय प्रवेश नहीं मिलेगा। घांघरिया में प्रवेश करते ही मैंने कमरा खोजना शुरू कर दिया। एक पतली सी पक्की सड़क के दोनाें किनारों पर घांघरिया बसा हुुआ है। बड़े–बड़े होटल बने हुए हैं। मैं सोचने लगा। इतनी ईंटें,सीमेण्ट व बालू कैसे ऊपर लाया गया होगा। होटलों में कमरे के लिए मोल–भाव शुरू हुआ। दो–तीन होटल वाले 600 और 500 से 400 तक आये तो मेरा उत्साह बढ़ा और मैंने भी 300 पर खूँटा गाड़ दिया। आगे बढ़ता गया। एक किनारे गढ़वाल मण्डल विकास निगम का होटल भी दिखा। पता चला कि यहाँ आनलाइन बुकिंग होती है। वैसे इसके कमरे काफी महँगे भी हैं। एक व्यक्ति ने मामू की दुकान और कमरे के बारे में बताया। मामूजान के पास दो ही कमरे हैं। एक में दुकान और दूसरे में मकान। मकान में एक सिंगल बेड। मामूजान यहीं सोते हैं। कोई यात्री आ गया तो मकान किराये पर उठा देते हैं और अपने दुकान में सो रहते हैं। वैसे मामू ने जो रेट बताया उसे सुनकर मेरे पाँव तले की जमीन खिसक गयी। एक सिंगल बेड का एक हजार। मैंने सिर झुकाकर मामूजान को खुदा हाफिज कहा और आगे बढ़ गया। अब 1500 और 2000 वाले होटल सामने थे। उत्साह कुछ ठण्डा पड़ा। आखिर एक होटल में 400 में ही तीन बेड का कमरा ले लिया। जब रेट उतना ही देना है तो क्यों न कमरा अधिक बड़ा लिया जाय। सिंगल कमरा तो यहाँ शायद ही मिले।
अब तक घांघरिया से हेमकुण्ड साहिब और फूूलाें की घाटी जाने का समय निकल चुका था। तो अब मुझे घांघरिया की गलियों में ही घूमना था। पर घांघरिया की गलियाँ इतनी बड़ी नहीं हैं कि इनमें ज्यादा समय बिताया जाय। तो मैं होटल की गलियों में ही टहलने लगा। गोविन्दघाट से ऊपर आने में काफी थकान हो गयी थी। बारिश जारी थी। तापमान काफी कम हो गया था। शरीर पर तो कपड़े पर्याप्त थे लेकिन हाथों में दस्ताने नहीं थे। जल्दी ही हाथ सुन्न होने लगे तो मैं रजाई में घुस गया। आधे घण्टे रजाई में घुसे रहने से शरीर को काफी आराम मिला। तो फिर से बाहर निकला।
होटल के काउण्टर पर बैठे लड़के से कुछ बातचीत कर ही रहा था कि तभी गोविन्दघाट की ओर से एक घोड़े वाला दो घोड़ों पर भारी–भरकम बैग लादे आ धमका। कुछ पर्यटकों का समूह पीछे खाली हाथ आ रहा था। उन्हीं के बैग लेकर वह यहाँ पहुँचा था। उसे यहीं का पता बताया गया था या फिर उसने पर्यटकों को इस होटल का पता बताया होगा। काउण्टर पर बैठे लड़के और उस घोड़ेवाले से स्थानीय भाषा में कुछ संवाद हुआ जिसे मैं समझ नहीं सका। कुछ बातें उन्होंने हिन्दी में भी की। लड़का पूछ रहा था–
ʺकहाँ के रहने वाले हैं?ʺ
ʺबंगाली दादा हैं।ʺ
ʺपंजाबी तो नहीं हैं?ʺ
ʺनहीं बंगाली दादा ही हैं।ʺ
मैं बीच में टपक पड़ा–
ʺपंजाबियों से कोई दिक्कत है क्या?ʺ
मेरे सवाल के जवाब में लड़का धीमी सी हँसी हँसकर चुप हो गया। दो मिनट बाद ही मैं उस लड़के से इस मसले पर कुछ बातें कर रहा था। कुछ परिणाम निकल कर सामने आए। दरअसल पंजाबियों से कोई दिक्कत नहीं है। हाँ बंगालियों से फायदा जरूर है। वजह ये कि अधिकांश पंजाबी बिल्कुल साधारण तरीके से आते हैं। सस्ता कमरा चाहिए। सस्ता कमरा नहीं मिला तो गुरूद्वारे में भी चले जायेंगे। उनसे रेस्टोरेण्ट को भी कोई फायदा नहीं होगा। बंगाली दादा रहेंगे तो मोल–भाव कम करेंगे। खाना भी गुरूद्वारे की बजाय भरसक रेस्टोरेण्ट में ही खायेंगे। जबकि पंजाबी गुरूद्वारे में जाकर लंगर खा आयेंगे। तो ऐसे लोगों को कमरा देने से क्या फायदाǃ
अभी मैं कन्धों पर मफलर लटकाये अपने होटल की गलियों में ही भटक रहा था कि नीचे के तल्ले के एक कमरे में दो और बन्दों के साथ अपना आशियाना बनाये एक सरदार जी ने पूछ ही लिया– ʺरोटी खायी?ʺ
मैं चक्कर में पड़ गया। मैंने कहाँ रोटी खायीǃ और अगर खायी तो ये सब सरदार जी को कैसे पता। मुझे मुँह ताकता देख सरदार जी ने एक बड़ा रहस्योद्घाटन किया– ʺअरे चाय भी रखी है। वो लंगर वाले हॉल के बाहर जो बरामदा है उसी में। जाओ लेकर पी लो।ʺ
अब मुझे सरदार जी की बातों का मतलब समझ में आ रहा था। सरदार जी गुरूद्वारे में चलने वाले लंगर की बात कर रहे थे। अब तक घांघरिया की गलियों में टहलते हुए मुझे भी अंदाजा हो चुका था कि घांघरिया कुछ महँगा जरूर है। उस पर भी यह ʺपीक सीजनʺ है। गुरूद्वारे में कमरा या बेड भी लिया जा सकता है। लेकिन थोड़ा असुरक्षित जैसा लगता है। सरदार जी बता रहे थे– ʺगुरूद्वारे में ठहरने में दिक्कत होती है जी। भीड़ बहुत है। पिछली बार कई लोगों की जेबें कट गयी थीं। फिर गुरूद्वारे में केवल एक कम्बल देते हैं। ठण्ड लगने लगती है जी। फेमिली वाला झूठ बोलकर दूसरा कम्बल लेना पड़ता है। हाँ गुरूद्वारे में लंगर खाना ठीक रहता है।ʺ
घांघरिया में टहलते–घूमते शाम के 4 बज चुके थे। अब मैं गुरूद्वारे का निरीक्षण कर रहा था। गुरूद्वारे की परम्पराओं से मैं बहुत अधिक परिचित नहीं था तो मुझे आनन्द आ रहा था। लंगर हॉल में लोग लंगर छक रहे थे। हॉल के बाहर बने बरामदे में चाय की टंकी रखी थी जिसमें दो टोंटिया लगी थीं। एक सरदार जी टंकी की पास वाली बेंच पर टंकी की रखवाली कर रहे थे। मौसम काफी ठण्डा था तो चाय की माँग स्वाभाविक रूप से काफी अधिक थी। टंकी में चाय कम होते ही सरदार जी तुरंत ही बाल्टियों से चाय लाकर उसे भरने लगते।
अब मैं घांघरिया से ऊपर हेमकुण्ड साहिब और फूलाें की घाटी की ओर जाने वाले रास्ते पर बढ़ा। रिमझिम बारिश से बचना भी पड़ रहा था। गुरूद्वारे के गेट पर घोड़े और पालकी वालों की भीड़ लगी थी। अगर सुबह का समय होता तो ये यात्रियों से मोलभाव करने में व्यस्त होते। शाम के समय कोई ऊपर जाता नहीं तो बचकूँचन में व्यस्त थे। गुरूद्वारे में चाय और भोजन आसानी से उपलब्ध है ही।
गुरूद्वारे से ऊपर की ओर बढ़ने पर दुकानें और मकान छोटे होते जाते हैं। दुकानें प्लास्टिक के टेण्ट में समा जाती हैं। दुकानों के बाद कुछ और भी टेण्ट लगे हुए हैं। लेकिन इन टेण्टों के चारों ओर कीचड़ और गन्ध भरी हुई है। ये घोड़ों के टेण्ट हैं। अब मौसम काफी ठण्डा है और इतनी ऊँचाई पर बारिश का कोई ठिकाना नहीं तो घोड़ों के लिए भी ठीक–ठीक व्यवस्था होनी ही चाहिए। थोड़ा ही आगे दाहिनी ओर से आती हुई लक्ष्मणगंगा की धारा मिलती है जो रास्ते पर बने पुल के नीचे से होकर बायें निकल जाती है और फूलों की घाटी से आती हुई पुष्पावती को स्वयं में समाहित कर लेती है। थोड़ा सा और आगे चेक–पोस्ट है जहाँ हेमकुण्ड की ओर जाने वाले घोड़ों की चेकिंग होती है। यहीं से फूलों की घाटी की ओर जाने वाला रास्ता अलग होता है।
घांघरिया के आस–पास सब कुछ देख लेने के बाद मैं गुरूद्वारे लौट आया। शाम के 6 बज रहे थे। भूख जोर की लगी थी तो गुरूद्वारे के लंगर में घुस गया। अगले दिन फूलों की घाटी या हेमकुण्ड साहिब की यात्रा होगी। मौसम साफ रहा तो फूलों की घाटी और बारिश हुई तो हेमकुण्ड साहिब। बिल्कुल सीधा फार्मूला।
अगला भाग ः घांघरिया से हेमकुण्ड साहिब
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. सावन की ट्रेन
2. गोविन्दघाट की ओर
3. गोविन्दघाट से घांघरिया
4. घांघरिया से हेमकुण्ड साहिब
5. फूलों की घाटी
6. घांघरिया से वापसी
7. देवप्रयाग–देवताओं का संगम
वापस गाड़ियों की ओर पलटा तो एक गाड़ी भर चुकी थी और सिर्फ मेरे लिए ही जगह खाली थी। भीगने लायक रिमझिम बारिश हो रही थी। मैंने बैग को रेनकवर पहनाया और गाड़ी के ऊपर लाद दिया। फिर अपने डण्डे के साथ सबसे आगे वाली सीट पर सवार हो गया। गाड़ी चली तो पता चला कि काफी तीखी चढ़ाई है। वैसे गाड़ी में एक सवारी कम थी तो किराये को लेकर भी चर्चा हो रही थी। क्योंकि ड्राइवर ने सीधी चेतावनी जारी कर दी थी कि 400 तो किसी तरह से पूरा करना ही पड़ेगा। समूह वाले लोग इसकी क्षतिपूर्ति को लेकर विचारमग्न थे। चूँकि मैं अकेला था कि मुझे इसकी चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं थी। 10-15 मिनट के अन्दर ही गाड़ी पुलना गाँव पहुँच गयी।
पुलना एक छोटा सा गाँव है। और मुझे लगा कि घरों से अधिक यहाँ मोटरसाइकिलों की पार्किंग हैं। छोटी–छोटी नाश्ते–पानी की दुकानें हैं। गाड़ियों का स्टैण्ड है और साथ ही घोड़ों का भी। क्योंकि यहीं से घांघरिया के लिए पैदल ट्रेकिंग शुरू होती है। ऊपर जाने वाले लोगों की भीड़ हो रही थी क्योंकि समूहों में आए हुए लोग एकत्र हो रहे थे। घोड़ों का मोल–भाव भी करना था। सर्वाधिक संख्या भारत के दो क्षेत्रों से आए हुए लोगों की थी। एक तो पंजाब,जहाँ से लोग हेमकुण्ड साहिब की ओर जाते हैं और दूसरा बंगाल,जो कि भारत के सर्वाधिक यात्रा करने वाले लोगों का क्षेत्र है। पंजाबियों को अधिक विश्वास अपने पैरों पर है तो बंगालियों को चार पैरों वाले घोड़ों पर। चूँकि बंगाली लाेग काफी बड़े–बड़े समूहों में दिख रहे थे तो अपने लिए न सही,सामान के लिए तो घोड़ा लिया ही जा रहा था।
8 बज रहे थे। रिमझिम बारिश जारी थी। कई लाेग दुकानों में लगी कुर्सियों पर बैठकर रेनकोट पहन रहे थे। मुझे भी लगा कि रेनकोट पहन लेनी चाहिए तो मैंने भी एक कुर्सी कब्जा करके रेनकोट पहन ली। इसके बाद शुरू हुई दमदार चढ़ाई,घने जंगलों के बीच से। पत्थरों को जमा कर ठीक–ठाक रास्ता बनाया गया है। कहीं किसी भी तरह की मदद की जरूरत नहीं है। हाथ में छड़ी है तो काफी सहूलियत है। गोविन्दघाट की समुद्रतल से ऊँचाई है लगभग 1800 मीटर या 6000 फीट है जबकि घांघरिया की ऊँचाई है 3050 मीटर या 10000 फीट। तो लगभग 10 किमी की लम्बाई में 1250 मीटर की ऊँचाई चढ़नी है। प्रति किमी लगभग 125 मीटर। चढ़ाई कठिन है लेकिन मौसम ठण्डा है,रिमझिम बारिश हो रही है,बारिश की वजह से जंगल हरियाली से लक–दक हैं,तो थकान का पता नहीं चलता। वैसे चढ़ाई एड़ी का पसीना चोटी पर तो चढ़ा ही देती है। फिर भी चढ़ाई केवल वही नहीं है जो एड़ी का पसीना चोटी पर चढ़ा दे,चढ़ाई वह भी है जिसमें होठों का लिपस्टिक पसीने के साथ बहकर गले तक चला जाय। ये एक नई बात इस यात्रा में पता चली। ऐसे में घण्टे भर की चढ़ाई में ही रेनकोट ने वो समां बाँधा कि कपड़ों के अन्दर पसीने की धारा बहने लगी। रिमझिम बारिश से जितने कपड़े भीगते,उससे अधिक पसीने से भीग गये। मैंने रेनकोट उतार कर कन्धे पर लाद लिया। सारी गर्मी उड़न–छू हो गयी और खुशगवार मौसम का असली मजा आने लगा।
गोविन्दघाट–घांघरिया ट्रेक का मुख्य पड़ाव है भ्यूंदार गाँव। भ्यूँदार गाँव भ्यूँदार घाटी में बसा एक छोटा सा गाँव है जहाँ कुछ ग्रामीण यात्रा सीजन में यात्रियों के चलते रहते हैं। यात्रियों के नाश्ते–जलपान व भोजन की यहाँ ठीक–ठाक व्यवस्था है। रहने की कोई व्यवस्था नहीं। 2013 में आयी बाढ़ ने भ्यूँदार के भी निचले भागों पर अपना असर दिखाया था। भ्यूँदार में लक्ष्मणगंगा और कागभुशुण्डि का संगम होता है। और इस स्थान पर यह घाटी बहुत ही खूबसूरत है। रास्ते के किनारे,जगह–जगह प्लास्टिक टेण्ट में कई दुकानें हैं। ऐसी ही एक दुकान में मैंने 50 रूपये प्लेट वाली मैगी बनवायी और टाफियाँ खरीदीं। टाफियों का रेट यहाँ तक,नीचे की तुलना में दोगुना हो चुका था। लेकिन ट्रेक के दौरान टाफियाँ बड़ी ही मददगार साबित होती हैं। भ्यूँदार में लक्ष्मणगंगा को पार करने के लिए कामचलाऊ पुल बना हुआ है। पुल के पास एक बोर्ड पर पुल पर न रूकने के निर्देश लिखे गये हैं। फिर भी लाेग पुल पर खड़े होकर फोटो खींचने से परहेज नहीं कर रहे थे। इस पुल के थोड़ा सा ऊपर लक्ष्मणगंगा नदी पर नये पक्के पुल का निर्माण कार्य जारी है।
मैं अकेले,बिल्कुल अकेले चलता रहा। रास्ते में लाेग मिलते रहे। पंजाब के सरदार और सरदारनी। बंगाल के दादा और दादी। मेरी तरह से अकेला तो शायद ही कोई होगा। सरदारों के समूह बिल्कुल साधारण तरीके से चल रहे थे,बिल्कुल खाली हाथ। पीठ पर एक बहुत ही छोटा सा बैग या फिर हाथ में प्लास्टिक का छोटा सा थैला। लेकिन बंगाली दादाओं और दादियों के साथ पूरा माल–असबाब था। अपनी पीठ पर तो कम ही था लेकिन घोड़ों की पीठ पर अवश्य था। और इस सारी मगजमारी से दूर ऊपर आसमान में हेलीकाप्टर अपनी गड़गड़ाहट से घाटी की शांति को भंग करने के साथ साथ प्रदूषण नियंत्रण का काम भी कर रहे थे। ये हेलीकाप्टर यात्रियों को नीचे से घांघरिया तक लाते हैं। घांघरिया से लगभग 3 किमी पहले अधेड़ उम्र के एक अकेले सरदार जी मिले। अकेले थे तो उन्हें देखकर मैं भी आश्चर्यचकित हुआ। बिचारे से चला नहीं जा रहा था। संकोचवश मैं कुछ बोला नहीं। लेकिन सरदार जी कहाँ चुप रहने वाले थे– ʺअभी कितना होगा जी?ʺ
ʺ3 किमी से कम नहीं होगा।ʺ
ʺतब तो कम से कम डेढ़ घण्टा। मैं तो इधर ही खतम हो जाऊँगा जी।ʺ
मैं मुस्कुरा कर आगे निकल गया। आधे घण्टे बाद मेरे पीछे से आवाज आयी– ʺमन्ने तो घोड़ा कर लिया जी।ʺ
पीछे मुड़कर देखा तो वही सरदार जी घोड़े पर सवार थे और अब वे मुझसे आगे निकलने वाले थे। एक जगह और तीन सरदार मिले। हवाई चप्पल पहने। लगभग साथ साथ ही चल रहे थे। कभी वो आगे निकलते तो कभी मैं। परिचय भी हुआ। रास्ते भर बंगाली दादाओं के भी झुण्ड भी मिलते रहे। लेकिन बिल्कुल खाली हाथ। सारे बैग घोड़े की पीठ पर।
अपराह्न के 1 बजे घांघरिया पहुँचा। गाँव के कुछ पहले से ही आर्मी कैम्प बने हुए हैं। दूर से देखने पर ये बड़े ही सुन्दर दिखते हैं। यहीं दो बहादुर व्यक्ति मिले जो अभी आज ही फूलों की घाटी जाने के बारे में सोच रहे थे। मैंने उन्हें बताया कि इस समय प्रवेश नहीं मिलेगा। घांघरिया में प्रवेश करते ही मैंने कमरा खोजना शुरू कर दिया। एक पतली सी पक्की सड़क के दोनाें किनारों पर घांघरिया बसा हुुआ है। बड़े–बड़े होटल बने हुए हैं। मैं सोचने लगा। इतनी ईंटें,सीमेण्ट व बालू कैसे ऊपर लाया गया होगा। होटलों में कमरे के लिए मोल–भाव शुरू हुआ। दो–तीन होटल वाले 600 और 500 से 400 तक आये तो मेरा उत्साह बढ़ा और मैंने भी 300 पर खूँटा गाड़ दिया। आगे बढ़ता गया। एक किनारे गढ़वाल मण्डल विकास निगम का होटल भी दिखा। पता चला कि यहाँ आनलाइन बुकिंग होती है। वैसे इसके कमरे काफी महँगे भी हैं। एक व्यक्ति ने मामू की दुकान और कमरे के बारे में बताया। मामूजान के पास दो ही कमरे हैं। एक में दुकान और दूसरे में मकान। मकान में एक सिंगल बेड। मामूजान यहीं सोते हैं। कोई यात्री आ गया तो मकान किराये पर उठा देते हैं और अपने दुकान में सो रहते हैं। वैसे मामू ने जो रेट बताया उसे सुनकर मेरे पाँव तले की जमीन खिसक गयी। एक सिंगल बेड का एक हजार। मैंने सिर झुकाकर मामूजान को खुदा हाफिज कहा और आगे बढ़ गया। अब 1500 और 2000 वाले होटल सामने थे। उत्साह कुछ ठण्डा पड़ा। आखिर एक होटल में 400 में ही तीन बेड का कमरा ले लिया। जब रेट उतना ही देना है तो क्यों न कमरा अधिक बड़ा लिया जाय। सिंगल कमरा तो यहाँ शायद ही मिले।
अब तक घांघरिया से हेमकुण्ड साहिब और फूूलाें की घाटी जाने का समय निकल चुका था। तो अब मुझे घांघरिया की गलियों में ही घूमना था। पर घांघरिया की गलियाँ इतनी बड़ी नहीं हैं कि इनमें ज्यादा समय बिताया जाय। तो मैं होटल की गलियों में ही टहलने लगा। गोविन्दघाट से ऊपर आने में काफी थकान हो गयी थी। बारिश जारी थी। तापमान काफी कम हो गया था। शरीर पर तो कपड़े पर्याप्त थे लेकिन हाथों में दस्ताने नहीं थे। जल्दी ही हाथ सुन्न होने लगे तो मैं रजाई में घुस गया। आधे घण्टे रजाई में घुसे रहने से शरीर को काफी आराम मिला। तो फिर से बाहर निकला।
होटल के काउण्टर पर बैठे लड़के से कुछ बातचीत कर ही रहा था कि तभी गोविन्दघाट की ओर से एक घोड़े वाला दो घोड़ों पर भारी–भरकम बैग लादे आ धमका। कुछ पर्यटकों का समूह पीछे खाली हाथ आ रहा था। उन्हीं के बैग लेकर वह यहाँ पहुँचा था। उसे यहीं का पता बताया गया था या फिर उसने पर्यटकों को इस होटल का पता बताया होगा। काउण्टर पर बैठे लड़के और उस घोड़ेवाले से स्थानीय भाषा में कुछ संवाद हुआ जिसे मैं समझ नहीं सका। कुछ बातें उन्होंने हिन्दी में भी की। लड़का पूछ रहा था–
ʺकहाँ के रहने वाले हैं?ʺ
ʺबंगाली दादा हैं।ʺ
ʺपंजाबी तो नहीं हैं?ʺ
ʺनहीं बंगाली दादा ही हैं।ʺ
मैं बीच में टपक पड़ा–
ʺपंजाबियों से कोई दिक्कत है क्या?ʺ
मेरे सवाल के जवाब में लड़का धीमी सी हँसी हँसकर चुप हो गया। दो मिनट बाद ही मैं उस लड़के से इस मसले पर कुछ बातें कर रहा था। कुछ परिणाम निकल कर सामने आए। दरअसल पंजाबियों से कोई दिक्कत नहीं है। हाँ बंगालियों से फायदा जरूर है। वजह ये कि अधिकांश पंजाबी बिल्कुल साधारण तरीके से आते हैं। सस्ता कमरा चाहिए। सस्ता कमरा नहीं मिला तो गुरूद्वारे में भी चले जायेंगे। उनसे रेस्टोरेण्ट को भी कोई फायदा नहीं होगा। बंगाली दादा रहेंगे तो मोल–भाव कम करेंगे। खाना भी गुरूद्वारे की बजाय भरसक रेस्टोरेण्ट में ही खायेंगे। जबकि पंजाबी गुरूद्वारे में जाकर लंगर खा आयेंगे। तो ऐसे लोगों को कमरा देने से क्या फायदाǃ
अभी मैं कन्धों पर मफलर लटकाये अपने होटल की गलियों में ही भटक रहा था कि नीचे के तल्ले के एक कमरे में दो और बन्दों के साथ अपना आशियाना बनाये एक सरदार जी ने पूछ ही लिया– ʺरोटी खायी?ʺ
मैं चक्कर में पड़ गया। मैंने कहाँ रोटी खायीǃ और अगर खायी तो ये सब सरदार जी को कैसे पता। मुझे मुँह ताकता देख सरदार जी ने एक बड़ा रहस्योद्घाटन किया– ʺअरे चाय भी रखी है। वो लंगर वाले हॉल के बाहर जो बरामदा है उसी में। जाओ लेकर पी लो।ʺ
अब मुझे सरदार जी की बातों का मतलब समझ में आ रहा था। सरदार जी गुरूद्वारे में चलने वाले लंगर की बात कर रहे थे। अब तक घांघरिया की गलियों में टहलते हुए मुझे भी अंदाजा हो चुका था कि घांघरिया कुछ महँगा जरूर है। उस पर भी यह ʺपीक सीजनʺ है। गुरूद्वारे में कमरा या बेड भी लिया जा सकता है। लेकिन थोड़ा असुरक्षित जैसा लगता है। सरदार जी बता रहे थे– ʺगुरूद्वारे में ठहरने में दिक्कत होती है जी। भीड़ बहुत है। पिछली बार कई लोगों की जेबें कट गयी थीं। फिर गुरूद्वारे में केवल एक कम्बल देते हैं। ठण्ड लगने लगती है जी। फेमिली वाला झूठ बोलकर दूसरा कम्बल लेना पड़ता है। हाँ गुरूद्वारे में लंगर खाना ठीक रहता है।ʺ
सरदार जी बता रहे थे–
ʺमेरे साथ तो दो बन्दे और हैं। तुम अकेले हो क्या? अकेला आदमी क्या घूमेगा। मैंने 500 में ये तीन बेड का कमरा लिया है।ʺ
मेरे पास सरदार जी के इस सवाल का कोई जवाब नहीं था।
मेरे पास सरदार जी के इस सवाल का कोई जवाब नहीं था।
मेरा लॉज एक गली में था जो घांघरिया के मुख्य रास्ते में मिल रही थी। इस गली के दोनों तरफ कई सारे लॉज व नीचे के तल पर एक महँगा रेस्टोरण्ट भी था। इस वजह से इस गली में टूरिस्टों का जमघट था। टूरिस्ट भी अधिकांशतः बंगाली। शाम के समय तो मछली बाजार का सा दृश्य हो गया था। बंगाली पर्यटक 30-30 या 40-40 के समूह में थे। इतना शोर हो रहा था कि पूरा घांघरिया ही हिल गया। मैं देख रहा था कि सिक्ख लोग अधिकांशतः तीर्थयात्री हैं जबकि बंगाली दादा भरसक टूरिस्ट। मैं कन्फ्यूज था कि मैं किस श्रेणी में हूँǃ
मैं सरदार जी की बातें ध्यान से सुन रहा था। उनका मुँह बन्द होते ही गुरूद्वारे की ओर भागा। गेट से अन्दर पैर रखते ही रोक लिया गया क्याेंकि सिर पर कपड़ा नहीं था। झटपट सिर पर मफलर का साफा बाँध लिया। अब सब कुछ ठीक था। बरामदे में वास्तव में एक टंकी में चाय भरी थी। टोंटी खोलकर मनमर्जी चाय लेने की पूरी छूट थी। शूद्ध दूध की चाय। इधर भूख लगी ही थी। तो बिना मुरव्वत दो गिलास चाय चढ़ा ली। काफी आराम मिला।घांघरिया में टहलते–घूमते शाम के 4 बज चुके थे। अब मैं गुरूद्वारे का निरीक्षण कर रहा था। गुरूद्वारे की परम्पराओं से मैं बहुत अधिक परिचित नहीं था तो मुझे आनन्द आ रहा था। लंगर हॉल में लोग लंगर छक रहे थे। हॉल के बाहर बने बरामदे में चाय की टंकी रखी थी जिसमें दो टोंटिया लगी थीं। एक सरदार जी टंकी की पास वाली बेंच पर टंकी की रखवाली कर रहे थे। मौसम काफी ठण्डा था तो चाय की माँग स्वाभाविक रूप से काफी अधिक थी। टंकी में चाय कम होते ही सरदार जी तुरंत ही बाल्टियों से चाय लाकर उसे भरने लगते।
अब मैं घांघरिया से ऊपर हेमकुण्ड साहिब और फूलाें की घाटी की ओर जाने वाले रास्ते पर बढ़ा। रिमझिम बारिश से बचना भी पड़ रहा था। गुरूद्वारे के गेट पर घोड़े और पालकी वालों की भीड़ लगी थी। अगर सुबह का समय होता तो ये यात्रियों से मोलभाव करने में व्यस्त होते। शाम के समय कोई ऊपर जाता नहीं तो बचकूँचन में व्यस्त थे। गुरूद्वारे में चाय और भोजन आसानी से उपलब्ध है ही।
गुरूद्वारे से ऊपर की ओर बढ़ने पर दुकानें और मकान छोटे होते जाते हैं। दुकानें प्लास्टिक के टेण्ट में समा जाती हैं। दुकानों के बाद कुछ और भी टेण्ट लगे हुए हैं। लेकिन इन टेण्टों के चारों ओर कीचड़ और गन्ध भरी हुई है। ये घोड़ों के टेण्ट हैं। अब मौसम काफी ठण्डा है और इतनी ऊँचाई पर बारिश का कोई ठिकाना नहीं तो घोड़ों के लिए भी ठीक–ठीक व्यवस्था होनी ही चाहिए। थोड़ा ही आगे दाहिनी ओर से आती हुई लक्ष्मणगंगा की धारा मिलती है जो रास्ते पर बने पुल के नीचे से होकर बायें निकल जाती है और फूलों की घाटी से आती हुई पुष्पावती को स्वयं में समाहित कर लेती है। थोड़ा सा और आगे चेक–पोस्ट है जहाँ हेमकुण्ड की ओर जाने वाले घोड़ों की चेकिंग होती है। यहीं से फूलों की घाटी की ओर जाने वाला रास्ता अलग होता है।
घांघरिया के आस–पास सब कुछ देख लेने के बाद मैं गुरूद्वारे लौट आया। शाम के 6 बज रहे थे। भूख जोर की लगी थी तो गुरूद्वारे के लंगर में घुस गया। अगले दिन फूलों की घाटी या हेमकुण्ड साहिब की यात्रा होगी। मौसम साफ रहा तो फूलों की घाटी और बारिश हुई तो हेमकुण्ड साहिब। बिल्कुल सीधा फार्मूला।
भ्यूँदार में कागभुशुण्डि |
भ्यूँदार में लक्ष्मणगंगा पर बना कामचलाऊ पुल |
घांघरिया से ऊपर खूबसूरत झरना बनाती लक्ष्मणगंगा |
घांघरिया गाँव |
घांघरिया गाँव से थोड़ा सा ऊपर |
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. सावन की ट्रेन
2. गोविन्दघाट की ओर
3. गोविन्दघाट से घांघरिया
4. घांघरिया से हेमकुण्ड साहिब
5. फूलों की घाटी
6. घांघरिया से वापसी
7. देवप्रयाग–देवताओं का संगम
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