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Friday, August 16, 2019

पनार बुग्याल से रूद्रनाथ

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मुझे पहले से ही पता है कि पित्रधार इस ट्रेक का सबसे ऊँचा स्थान है। पनार में मैं 3400 मीटर की ऊँचाई पर था और अभी इससे भी कुछ सौ मीटर ऊपर जाना है। मैं अपने जीवन में पहली बार इतनी ऊँचाई चढ़ने जा रहा हूॅं। मन में रोमांच भी है और कुछ–कुछ डर भी। इसके अलावा डर इस बात का भी है कि मैंने लगभग 1750 मीटर की ऊँचाई से चढ़ाई शुरू की थी और एक ही दिन में इतनी ऊँचाई तय करने जा रहा हूँ। मेरा शरीर एक्लाइमेटाइज हो पायेगा या नहीं– मन में शंका है। लेकिन जुनून अपने चरम पर है।
इसी जुनून के बल पर मैं आगे चलता जा रहा हूँ। लेकिन अब मेरे पैर और शरीर आगे बढ़ने से इन्कार कर रहे हैं। पगडण्डी के दायीं तरफ बुग्याल दिखायी दे रहा है जबकि बायीं तरफ सीना ताने धार रास्ते के साथ साथ ही चलती जा रही है। बायें धार,दायें पनार। बुग्याल वाली दिशा में ही सुदुर क्षितिज के किनारे हिमाच्छादित चोटियाँ दिखायी पड़ रही हैं। अगले लगभग दो किमी तक इसी तरह से धार और पगडण्डी आँख मिचौनी खेलते हुए चलते रहे। लेकिन एक स्थान पर अचानक पगडण्डी छोटे–छोटे मोड़ लेकर ऊपर चढ़ने लगी है और कुछ ही देर में धार को एक बार फिर से पार कर जाती है। अब मैं धार की बायीं तरफ की ढलान पर आ गया हूँ। दाहिनी तरफ दिखती बर्फ से ढकी चोटियाँ धार की ओट में आ गयी हैं। लेकिन बायीं तरफ नीचे का दृश्य और भी सुंदर है। चटख हरियाली से ढकी घाटी दिखायी पड़ रही है। दूर सामने कुछ बादल भी दिखायी पड़ रहे हैं। ये बादल संभवतः इस धार के सबसे ऊँचे भाग पित्रधार से टकरा रहे हैं। बारिश की संभावना दिखायी पड़ रही है। अब मेरे पैर मुझे जवाब देने की स्थिति में आ गये हैं। हल्की चढ़ाई पर भी दस कदम चलने के बाद मुझे साँस लेने के लिए रूकना पड़ रहा है। और अब तो पगडण्डी पर एक–दो जगह बर्फ भी दिखायी पड़ने लगी है। हालाँकि इस बर्फ पर कदमों के कुछ निशान भी दिखायी पड़ रहे हैं जो यह बता रहे हैं कि कुछ सूरमा आगे भी निकले हैं।

पित्रधार का सबसे ऊँचा भाग अब लगभग 1 किमी के आस–पास रह गया है। मैं लड़ाई हारने की स्थिति में आ चुका हूँ। शरीर ने पूरी तरह से आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया है। एक चट्टान के पास छड़ी की टेक लेकर मैं खड़ा हो गया हूँ। मुझे पनार बुग्याल में ही पता चला था कि आगे पित्रधार में भी रूकने की व्यवस्था है। तो अब मैं बस यही सोच रहा हूँ कि किसी तरह पित्रधार पहुँच जाता तो इस बेवजह की चढ़ाई से मुक्ति मिल जाती। लेकिन चलने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है। और चलने से मेरे पैरों ने इन्कार कर दिया है। इसी समय सामने से आते एक बुजुर्ग व्यक्ति दिखायी पड़ते हैं। मैं पास आते ही बिल्कुल स्वाभाविक सा सवाल दाग देता हूँ– "आगे का रास्ता कैसा है और रूकने की जगह कहाँ मिलेगी।"
बुजुर्ग मेरी स्थिति समझ जाते हैं। बड़े ही प्यार से मेरी हिम्मत बढ़ाते हैं– "ये बस सामने पित्रधार दिख रहा है। वहीं तक चढ़ाई है। उसके बाद तो केवल डाउन ही डाउन है।"
मैं बच्चों जैसा सवाल करता हूँ– "उसके बाद चढ़ाई नहीं है?"
"बिल्कुल नहीं। अगर कहीं थोड़ी सी है भी तो तुरंत उतराई है।"
ये बुजुर्ग बरेली के रहने वाले हैं। वे बरेली के लोकसभा चुनाव के परिणाम के बारे में मुझसे पूछते हैं। लेकिन मुझे भी बरेली का परिणाम नहीं पता। पूरे देश के परिणाम के बारे में तो मोबाइल से मुझे पता चल गया है लेकिन अब एक–एक सीट के बारे में नहीं पता क्योंकि 23 तारीख को,जिस दिन वोटों की गिनती हो रही थी,उसी दिन मैं भी घर से निकल गया था। रूद्रनाथ के ट्रेक पर मोबाइल में भरसक कोई भी नेटवर्क काम नहीं करता। इस समय लगभग 3.30 बज रहे हैं और वे बुजुर्ग आज ही के दिन,रात तक नीचे उतरने की बात कर रहे हैं। उनका उत्साह देखकर मेरे तन–मन में भी कुछ ऊर्जा आ जाती है। बची–खुची सारी ताकत बटाेरकर मैं चल पड़ता हूँ। छ्टिपुट बूँदाबाँदी हो रही है। वैसे बारिश का मुझे डर नहीं है क्योंकि मेरे पास रेनकोट है। रूई के फाहे जैसी कोई चीज हवा में उड़ रही है। यह बरफ है। लेकिन बहुत ही मामूली। और ऐसी ही परिस्थिति में जब मैं पित्रधार के सबसे ऊँचे बिन्दु पर पहुँचता हूँ तो सबसे पहले ऊँचाई ज्ञात करता हूँ। मेरा मोबाइल एप्प 3794 या लगभग 3800 मीटर या 12450 फीट बता रहा है। इस हिसाब से मैं 2050 मीटर से अधिक की ऊँचाई एक ही दिन में पार कर गया हूँ। शाम के 4 बज रहे हैं। मैं अपनी थकान भूल चुका हूँ। कारण कि मैंने पहली बार इतनी ऊँचाई को छुआ है और दूसरा ये भी कि अब बरेली के बुजुर्ग के बताये अनुसार नीचे ही उतरना है। साथ ही मुझे वो झोपड़ी भी दिख गयी जो आज मेरा पड़ाव बनने वाली है। मैं अन्दर प्रवेश कर जाता हूँ। साथ ही चाय का आर्डर देने के बाद कम्बल पर लेट जाता हूँ। इस झोपड़ी के चारों ओर काफी मोटी बर्फ जमा है। इसमें कई जगह मेरे पैर धँस गये थे। पता चलता है कि अभी आधे घण्टे पहले ही जमकर बर्फबारी हुई है। इसका मतलब ये कि अभी थोड़ी देर पहले रास्ते में मुझे जो बादल दिख रहे थे,उन्होंने अपना काम बखूबी कर दिया है। वैसे मैं इस बर्फबारी की मार से साफ बच गया था। मन में काफी सुकून है।

कम्बल पर लेटे–लेटे ही मैंने स्टील की गिलास में एक गिलास चाय पी। इस दुकान को बाप–बेटे मिलकर संचालित कर रहे हैं। आज वहीं रूकने के बारे में मैंने उनसे बात भी कर ली है। लेकिन एक गिलास चाय पीने और 15-20 मिनट लेटने के बाद मेरे शरीर में जैसे फिर से ऊर्जा आ गयी है। मैं उठ खड़ा होता हूँ और रूद्रनाथ की ओर चल पड़ता हूँ। वास्तव में अब उतराई ही उतराई है। लेकिन पगडण्डी को जगह–जगह बर्फ ने ढक रखा है। कहीं–कहीं तो तेज ढलान की वजह से इस बर्फ पर चलना मुश्किल हो रहा है। बर्फ के अलावा जितनी भी पथरीली पगडण्डी है,वहाँ मैं पूरी तेजी से नीचे की ओर भाग रहा हूँ। लेकिन जहाँ कहीं भी थोड़ी सी चढ़ाई मिलती है,साँसें उखड़ जा रही है। पैर भले ही चलने काे तैयार नहीं हैं,मन हार मानने को तैयार नहीं है। उतराई की अधिकता ने मन में एक नया जोश भर दिया है। मैंने यह तय कर लिया है कि रूद्रनाथ पहुँच कर ही विश्राम करूँगा। और इसी जोश में बर्फ पर सरकते–फिसलते मैं इतनी जल्दी पंचगंगा पहुँच गया हूँ कि विश्वास ही नहीं हो रहा है।
5 बजे के आस–पास मैंने पंचगंगा पार कर लिया है। बताने वालों ने तो यह दूरी 3 किमी बतायी थी लेकिन मुझे तो 2 किमी ही लग रही है। पंचगंगा के चारों ओर ऊपर से नीचे आती बर्फ की बहुत सारी नदियाँ दिखायी पड़ रही हैं। बहुत ही सुंदर दृश्य है। ऐसे ही वातावरण में दुकान के सामने बने चबूतरे पर बैठा एक अमेरिकी नागरिक सामने दिख रही हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियों को निहार रहा है। उसके पीछे उसके साथ आये तीन गाइड पत्थरों पर बैठे हुए हैं। मैं जैसे ही आगे बढ़ता हूँ,पीछे से अजीब से लहजे में आवाज आती है–
"नमस्ते"
पीछे मुड़कर देखता हूँ तो वह अमेरिकी व्यक्ति मुझे नमस्ते कर रहा है। मैं रूक जाता हूँ। अपनी टूटी–फूटी अंग्रेजी में उसका परिचय लेता हूँ। पता चलता है कि उसे आज की रात यहीं रूकना है। वह सगर के रास्ते ऊपर आया है और कल सुबह उसे यहीं पंचगंगा के ऊपर से,धार को पारकर मण्डल की ओर उतर जाना है।
मैं पंचगंगा से रूद्रनाथ के रास्ते पर चल पड़ता हूँ। पंचगंगा 3600 मीटर या 11800 फीट की ऊँचाई पर है। पंचगंगा से रूद्रनाथ की ओर बढ़ने पर चढ़ाई तो नहीं है लेकिन जगह–जगह रास्ते पर जमी बर्फ भारी मुसीबत खड़ी कर रही है। पेड़ तो कब के गायब हो चुके हैं। रह गयी हैं तो बस घासें और घास से भरी ढलानों पर बुरांश के छोटे–छोटे पेड़ों का जंगल। कहीं–कहीं खड़ी ढाल वाली नंगी चट्टानें भी दिख रही थीं। इस समय धार पूरी तरह से पगडण्डी की बायीं ओर चल रही है।

आज की तारीख में मैं आखिरी आदमी हूँ जो रूद्रनाथ जा रहा है। अन्यथा जिसको भी जाना है वो मुझसे आगे निकल चुका है। इसका मतलब ये नहीं कि सारे के सारे बहुत तेज चलने वाले हैं। एक ही दिन में सगर से रूद्रनाथ पहुँचने वालों में मेरे अलावा मण्डल के रहने वाले वे तीन युवा हैं जो रास्ते में मुझे कई जगह मिल चुके हैं। बाकी सभी लोगों ने रास्ते में कहीं न कहीं एक रात विश्राम लिया है।
रूद्रनाथ से कुछ पहले एक स्थान पर,रास्ते की दाहिनी तरफ लोहे की एक छड़ को अर्द्धवृत्ताकार रूप में मोड़कर एक गेट जैसा बनाया गया है और "देव दर्शनी" नाम की एक तख्ती लगी हुई है। यह वास्तव में गेट नहीं वरन वह स्थान है जहाँ से इस ट्रेक पर पहली बार रूद्रनाथ के दर्शन होते हैं। इस स्थान के बाद नीचे की ओर तेज उतराई है। यह उतराई वहाँ जाकर समाप्त होती है जहाँ एक खूबसूरत झरना नीचे उतरता है। ऊपर से यह झरना एक हिमनदी के रूप में उतरता है। इस झरने के पास से मंदिर तक हल्की–हल्की चढ़ाई है। वैसे लग रहा है जिस धार के इस पार और उस पार होते हुए मैं यहाँ तक पहुँचा हूँ,उसका छोर अब निकट आ गया है। आस–पास कोई धार नजर नहीं आ रही। अब केवल घासों से भरी ढलानें नजर आ रही हैं। शाम के 6.30 बज रहे हैं। सूरज क्षितिज का रूख कर रहा है। ऐसे में जब मैं रूद्रनाथ पहुँचता हूँ,तो सबसे पहले दाहिनी तरफ एक छोटी सी इमारत मिलती है जिसमें ताला बन्द है। वैसे दूर से तो कई मकानों को देख कर लगता है कि कोई छोटा–मोटा गाँव बसा हुआ होगा लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। अधिकांश खाली हैं। इसके थोड़ा सा आगे एक मकान में कुछ हलचल महसूस हो रही है। आज के दिन नीचे से आये सारे लोग यहीं ठहरे हुए हैं। मण्डल वाले तीनों लड़के भी यहीं ठहरे हुए हैं। मैं भी पूछताछ करता हूँ। पता चलता है कि एक रात ठहरने और खाने का रेट 400 है। मुझे कुछ महँगा प्रतीत होता है तो मैं उस पड़ाव के संचालकों को थोड़ा सा गोल–गोल घुमाकर,थोड़ा सा ऊपर बने बाबा रूद्रनाथ के मंदिर तक चला जाता हूँ। शरीर ऊपर चढ़ने से बिल्कुल इंकार कर रहा है फिर भी,शायद वहाँ कुछ सस्ता मिल जाये। रास्ते में बायीं तरफ एक–दो खाली कमरे भी दिख रही हैं जिनमें कोई नहीं हैं। मंदिर के थोड़ा सा पहले एक महात्मा जी मिलते हैं। मैं उनसे भी पूछताछ करता हूँ। पता चलता है कि वे भी अभी कल ही यहाँ पहली बार आये हैं तो उन्हें भी कुछ पता नहीं है। मंदिर के बिल्कुल पास जाकर पता चलता है कि मंदिर में पर्यटकों के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। इसके लिए नीचे दुकान में जाना पड़ेगा। यह वही दुकान है जहाँ मैं थोड़ी देर पहले पूछताछ कर चुका हूँ। हताश होकर मैं फिर से उसी 400 रूपये वाली दुकान में वापस आ जाता हूँ।

इस दुकान में कुल तीन कमरे हैं। दो पीछे की ओर और एक आगे। तीनों के दरवाजे बिल्कुल पास–पास ही हैं। एक चौथा कमरा भी हो सकता था लेकिन उसकी जगह पर एक खुला हुआ टिन–शेड पड़ा हुआ है जिसमें कुर्सियाँ रखी हुई हैं। यात्रियों के जूते और छड़ियाँ भी यहीं विराजमान हैं। इन सारे कमरों के पीछे एक टाॅयलेट और एक बाथरूम बना हुआ है। जबकि सामने एक छोटा सा किचेन बना हुआ जिसमें खाना भी बनता है और इस दुकान को संचालित करने वाले तीनों लोग इसी किचेन में सोते हैं। सारे के सारे यात्री कमरों में रजाइयों में दुबके हुए हैं। एक छोटे कमरे में मण्डल वाले तीनों लड़के कब्जा जमाये हुए हैं। दूसरे छोटे कमरे में अधेड़ उम्र वाले दो पति–पत्नी जमे हुए हैं। तीसरे सबसे बड़े कमरे में,जिसे हॉल का नाम का भी दिया जा रहा है,मेरे अलावा चार अन्य लोग पड़े हुए हैं। मैं भी एक रजाई शरीर पर डाल,दीवार से पीठ टिका कर बैठ जाता हूँ। मैंने गरम पानी की माँग की जो मुझे बैठे–बिठाये ही मिल जाता है। अब मुझमें हिलने की भी हिम्मत नहीं रह गयी है।
पौने सात बज रहे हैं। सात बजे मंदिर की आरती आरम्भ होने वाली है। मेरे कमरे में लेटे लड़के भी आरती में चलने की बात कर रहे हैं लेकिन हिल कोई नहीं रहा है। आखिर रजाई में से निकलने की हिम्मत जुटाने में आधे घण्टे लग जाते हैं। सवा सात बजे मैं तेजी से उठता हूँ। मेरे साथ ही बाकी लड़के भी उठते हैं। मुझे ठण्ड लग रही है। तो मैं तेजी से लगभग दौड़ते हुए मंदिर की ओर चल पड़ता हूँ। जिससे शरीर में कुछ गर्मी आ सके। लेकिन वहाँ भी समस्या कम नहीं है। मंदिर के गर्भगृह में,जहाँ बाबा की मूर्ति रखी है,एक युवा पुजारी पूजा कर रहा है। बाहर के कमरे में,जहाँ नन्दी की मूर्ति है,कुछ लोग बर्फ की तरह ठण्डे,नंगे फर्श पर बैठे हुए हैं। पहले तो मैं कुछ देर खड़ा होता हूँ,फिर उकड़ूँ बैठ जाता हूँ और उसके कुछ देर बाद पालथी मार लेता हूँ। लग रहा है कि शरीर में अब कँपकँपी छूट जाएगी। फर्श की ठण्ड जींस की पैंट और थर्मल इनर को छेदती हुई पैर की नसों को झनझना रही है। किसी तरह 8 बजे तक आरती समाप्त होती है। बुरांश के नीले रंग के फूलों का प्रसाद मिलता है और सबसे पहले मैं गोली की तेजी से मंदिर से निकलकर वापस अपने कमरे की तरफ भागता हूँ। लेकिन वहाँ भी अभी खाना मिलने में आधे घण्टे की देरी है। मैं दुकान वाले से कम्बल लेता हूँ और उस पर एक रजाई चिपकाकर सो जाता हूँ। वैसे कमरा काफी गर्म है।
8.30 पर खाने की घण्टी बजती है। दुकान वाले मेरे कमरे के दरवाजे पर आवाज लगाते हैं– ʺखाना बन गया।ʺ रजाई में दुबके होने व बाहर की तेज ठण्ड के बावजूद किचेन में मैं सबसे पहले पहुँचता हूँ। किचेन में लकड़ियाँ जलने की वजह से काफी गर्मी है। मैं बिल्कुल चूल्हे के पास बैठकर हाथ सेंकने लगता हूँ। मेरे कमरे के शेष 4 लोगों के आने में कुछ समय लगता है क्योंकि कुछ लोग हाथ धुल रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में मैं हाथ–मुँह धुलने,ब्रश करने,नहाने वगैरह के फेर में बहुत नहीं पड़ता। थाली सामने आयी तो बिल्कुल ही साधारण लगी। रोटी या चावल के अलावा पतली सी दाल और आलू–सोयाबीन की सदाबहार सब्जी। सब्जी में भी आलू को सब्जी की तरह से नहीं बल्कि आलू के भरते की तरह से मिलाया गया है। रोटी या चावल लेने पर कोई प्रतिबंध नहीं है। तो मैं चावल की तरफ आँख उठाकर देखता भी नहीं और केवल चार रोटियों को अपना निवाला बनाता हूँ। इसके बाद टॉयलेट जाता हूँ ताकि रात में उठने की जरूरत न पड़े। और इसके बाद कमरे में घुस जाता हूँ। ओढ़ने के लिए मुझे जो कम्बल मिला है,उसे नीचे बिछे फोम के गद्दे के ऊपर बिछा लेता हूँ और ऊपर से दो रजाइयां ओढ़ कर सो जाता हूँ।




पनार बुग्याल से आगे





पित्रधार




पंचगंगा

बर्फीला रास्ता
बुरांश के जंगल




रूद्रनाथ

पित्रधार में


रूद्रनाथ की थाली
अगला भाग ः रूद्रनाथ से वापसी

सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. रूद्रनाथ के द्वार पर
2. सगर से पनार बुग्याल
3. पनार बुग्याल से रूद्रनाथ
4. रूद्रनाथ से वापसी
5. काण्डई बुग्याल से नीचे
6. कल्पेश्वर–पंचम केदार

2 comments:

  1. चलो तो सो जाते ह् ,सुबह मिलेंगे

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    1. बिल्कुल। वैसे अब सुबह हो चुकी है।

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