Friday, August 30, 2019

काण्डई बुग्याल से नीचे

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काण्डई बुग्याल से थोड़ी ही दूर चलने के बाद जंगल फिर से शुरू हो गया। साथ चल रहे साधु महाराज ने बताया कि ये जंगल अब अंत तक साथ चलेगा। मतलब ये कि सगर वाले रास्ते की तुलना में इस रास्ते के अधिकांश भाग पर जंगल है और यह जंगल काफी घना भी है। वैसे जंगल का डर अब तक मन से निकल चुका था। अब जंगल में चलने में मजा भी आ रहा था। हाँ,रास्ते का तेज ढाल उतराई में भी दिक्कतें पैदा कर रहा था। वैसे जंगल का मौसम काफी सम रहता है। साधु महाराज को जंगल से डर लग रहा था जबकि मुझे मजा आ रहा था।
साथ ही मुझे यह भी महसूस हुआ कि ये जंगल के रास्ते अकेले आदमी के लिए तो कतई नहीं हैं। एक बात और कि सारे जंगल में अब तक मुझे कोई जंगली जानवर नहीं दिखा था। आदमी से भरसक कोई भी जीव डरता है। वो क्योंकर सामने आएगाǃ
काण्डई बुग्याल से अनुसुइया माता मंदिर 3 किमी है। लेकिन उससे भी पहले,डेढ़ किमी की दूरी पर अत्रि मुनि का आश्रम है। हम ढाल पर चल रहे थे। सोच रखा था कि आधे घण्टे से कम में ही अत्रि मुनि के आश्रम तो पहुँच ही जायेंगे। लेकिन ये डेढ़ किमी था कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। साथ चल रहे साधु रूपी शिष्य इस मीटर की माप पर कुढ़ रहे थे– "पता नहीं किस मीटर से नाप कर यह दूरी लिखी गयी है।" बात भी सही थी। 2.15 बजे काण्डई बुग्याल से चलने के बाद हम 3.15 बजे के आस–पास अत्रि मुनि के आश्रम में पहुँचे। अर्थात डेढ़ किमी की दूरी तय करने में लगभग एक घण्टे लग गये। लेकिन यह समय नाजायज नहीं था। एक और बात काफी हैरत में डालने वाली थी। इस डेढ़ किमी की दूरी में ही हम 2350 मीटर से उतरकर 1980 मीटर पर आ गये थे। इतने तेज ढाल पर चढ़ाई करनी पड़ती तो क्या होताǃ दरअसल अत्रि मुनि का आश्रम मुख्य रास्ते पर नहीं है। वरन रास्ते से हटकर काफी नीचे की ओर है। यहाँ से एक तेज जलधारा प्रवाहित होती है। इस धारा का शोर पूरी घाटी में गूँजता रहता है। इस कम ऊँचाई की वजह ये है कि किसी भी घाटी में नदी,सबसे निचली सतह पर प्रवाहित होती है। इसी कारण अत्रि मुनि का आश्रम भी सबसे कम ऊँचाई पर अवस्थित है। शिष्य की सलाह पर मैं भी अत्रि मुनि के आश्रम की ओर चल दिया। अत्रि मुनि की गुफा नदी को पार कर दूसरे किनारे पर है। जबकि इस किनारे पर एक नागा साधु निवास करते हैं। मण्डल वाले रास्ते को छोड़कर जब हम आश्रम की ओर मुड़े तो वहाँ एक घण्टी लगी मिली। साधु जी ने घण्टी बजाई।
मैंने पूछा, "ऐसा क्यों?"
"नागा साधु बिल्कुल नग्न रहते हैं। हम बाबाओं की तो बात नहीं। लेकिन जब कोई शहरी आता है तो बाबा कोई कपड़ा वगैरह लपेट लेते हैं।" शिष्य ने जवाब दिया।
तो यह घंटी किसी बाहरी आदमी के अन्दर प्रवेश करने से पहले सूचना देने के लिए है। नागा बाबा के पास तक पहुँचने से पहले ऐसी एक–दो घण्टियां और भी लगी हुई हैं। वैसे नदी का शोर इतना अधिक है कि घण्टी की आवाज बाबा तक शायद ही पहुँच पाती होगी। आश्रम में पहुँचने पर पता लगा कि आज की यात्रा हमारे साथ करने वाले गुरू जी महाराज वहाँ पहले से ही विराजमान हैं। वास्तव में गुरू जी हवा के वेग से चलने वाले थे। इस कठिन उतराई–चढ़ाई के बाद भी उनके चेहरे पर थोड़ी भी थकान महसूस नहीं हो रही थी। मैं थोड़ा बाहर ही ठिठक गया। लेकिन मुझे भी अन्दर से बुलावा आ गया। अन्दर पहुँचने पर पता चला कि नागा साधु बिना किसी वस्त्र के पालथी मारकर बैठे हुए हैं। उनके ठीक सामने लकड़ियों वाला चूल्हा जल रहा था। चूल्हे पर चाय की केतली रखी हुई थी। चूल्हे के इस तरफ मेरी आज की यात्रा के सहयात्री साधु लोग अर्थात गुरू–शिष्य आसन जमा चुके थे। मैं भी दोनों के बीच जाकर बैठ गया। दो मिनट बाद ही बिस्किट का एक छोटा पैकेट खुला। उसके दो मिनट बाद चाय की केतली खुली। मैंने चाय पी और बाहर आकर नदी के किनारे गिलास धोकर वापस कर दी। कुछ मिनटों तक आमने–सामने बैठकर रूद्रनाथ के रास्ते के बारे में इधर–उधर की चर्चा हुई,परिचय हुआ,और  इसके बाद मैंने नीचे जाने की अनुमति माँगी। क्योंकि शरीर आराम खोज रहा था। यहाँ ठहरने–खाने की कोई व्यवस्था नहीं थी। साधु–सन्यासी की तो बात ही अलग है। ठहरने की व्यवस्था अनुसुइया माता मंदिर के पास ही है। और वहाँ पहुँचने के लिए अभी डेढ़ किमी की दूरी तय करनी थी। पिछले डेढ़ किमी की दूरी देखकर मैं थोड़ा संशय में था। अत्रि मुनि आश्रम से अनुसुइया माता मंदिर तक हल्की–हल्की चढ़ाई है। पूरा रास्ता घने जंगलाें से घिरा है।

4.30 बजे तक मैं अनुसुइया माता मंदिर तक पहुँच गया। मैं इधर–उधर देख कर कहीं रूकने की जगह तलाश कर ही रहा था कि एक तरफ से आवाज आयी– "इधर आ जाओ।" सामने देखा तो वही मण्डल वाले तीन लड़के एक दुकान पर बैठे हुए थे। वे यहाँ पहुँच कर,खाना बनवाकर उसे ठिकाने लगा चुके थे और अब निकलने की तैयारी कर रहे थे। मैंने उनसे सगर पहुँचने के बारे में जानकारी ली। उन्होंने सलाह दी कि नीचे मण्डल तक तो पहुँच जायेंगे लेकिन वहाँ से सगर की गाड़ी मिलनी मुश्किल होगी। मुझे भी अब और चलने की इच्छा नहीं कर रही थी। मैंने दुकानदार नरेन्द्र भाई से बात की। एक रात ठहरने–खाने का रेट 250 रूपये। मैंने हामी भर दी। उस समय तक यहाँ मेरे अलावा ठहरने वाला कोई नहीं था। लकड़ियों से बनी यह दुकान दो–मंजिली है। पीछे की ओर दो बड़े कमरे,आगे की ओर एक छोटा कमरा और बरामदा,दोनों ही मंजिलों पर हैं। वैसे तो दूर से देखने पर लगता है कि अनुसुइया माता मंदिर के आस–पास पूरा गाँव बसा हुआ है लेकिन ठीक–ठाक से चलने वाली दुकान एकमात्र यही है। अधूरी बनी या निर्माणाधीन कई इमारतें हैं। मंदिर में भी धर्मशाला है जहाँ रहने की पर्याप्त व्यवस्था है। हाँ खाने की व्यवस्था केवल इस दुकान में ही है। इक्का–दुक्का और भी लोग इस क्षेत्र में रहते हैं। लेकिन इस रास्ते से रूद्रनाथ जाने वालों की कम संख्या के कारण सुविधाएं नगण्य हैं। बिजली की अच्छी व्यवस्था है। एक उल्लेखनीय बात ये कि रूद्रनाथ ट्रेक पर पहली बार थोड़ा ठीक–ठाक बेड मिला। अन्यथा अब तक तो नीचे ही सोने को मिला था।
इस क्षेत्र की ऊँचाई 2285 मीटर या 7500 फीट है। यहाँ से मण्डल की दूरी 5 किमी है। दुकान के संचालक नरेंन्द्र भाई मुझ पर खाना खाने के लिए दबाव बना रहे थे। वजह ये थी कि अभी थोड़ी देर पहले ही उन्होंने मण्डल वाले तीन लड़कों के लिए खाना बनाया था। काफी खाना बच गया था जिसका सदुपयोग उन्हें करना था। मुझे भी भूख लगी थी। रास्ते में पंचगंगा में खायी गयी मैगी के अलावा और कुछ नहीं मिला था। लेकिन उसके पहले नहाना आवश्यक लग रहा था। नरेन्द्र भाई के पास एक बाथरूम भी था। लेकिन पानी तो बाहर गिर रहे झरने से ही लाना था। फिर भी ठण्डे पानी से नहा लेने के बाद शरीर काफी हल्का हो गया और थकान जाती रही। अब तक रूद्रनाथ से साथ आये कर्नाटक वाले साधु भी यहाँ पधार चुके थे। तो उनसे कुछ बातचीत करते हुए मैंने किचेन में ही बैठकर चावल–दाल–सब्जी खा ली। चावल तो खाने की इच्छा नहीं थी लेकिन अरहर की गाढ़ी दाल और राई का साग देखकर मुँह में पानी आ गया। अभी मैं खाना खा ही रहा था कि मण्डल की ओर से दो घोड़े वाले आकर रूके। घोड़ों की पूरी क्षमता भर सामान लदा हुआ था। पता चला कि कर्नाटक के 42 लाेगों का समूह है जो इसी रास्ते रूद्रनाथ की चढ़ाई करने जा है। आधे घण्टे बाद समूह के लोग भी पहुँचना शुरू हुए। पैसे वाले लोग लग रहे थे। समूह में अधिक उम्र की महिलाएं भी दिख रही थीं। जिन्हें देख कर नहीं लग रहा था कि ये इस रास्ते से रूद्रनाथ तक पहुँच पायेंगी। फिर भी यह जिम्मेदारी उनके गाइड की थी जो इन्हें यहाँ तक लाया था। यह समूह पंचकेदार की यात्रा कर रहा था। केदारनाथ और मदमहेश्वर तो ये लोग घोड़े पर चढ़कर पहुँच गये थे लेकिन यहाँ पैदल जा रहे थे। मैं मन में सोच रहा था कि इनका ईश्वर ही मालिक है। समूह का सारा सामान घोड़ों पर लदा था। इसमें खाना बनाने की व्यवस्था भी थी। अर्थात ये लोग जहाँ भी रूकेंगे,अपना भोजन स्वयं बनायेंगे। संभवतः हंस बुग्याल तक पहुँचकर ये लोग खाना अवश्य बनायेंगे। अभी तो इन्हें इसी जगह भोजन की व्यवस्था करनी थी। कर्नाटक वाले साधु ने इस समूह से अपनी भाषा में परिषय लिया,बातचीत की। कन्नड़ में उन्हें बातें करते देख बाकी सारे लोग उनका मुँह ताक रहे थे।

खाना खाने के बाद अब मैं यहाँ इधर–उधर घूमने,अनुसुइया माता मंदिर की आरती देखने और अन्य लोगों की गतिविधियाँ देखने के लिए स्वतंत्र था। कर्नाटक वाला बड़ा समूह अनुसुइया माता मंदिर की धर्मशाला में चला गया था। अन्य किसी जगह पर उनके रूकने लायक व्यवस्था होने की संभावना नहीं दिख रही थी। वहीं एक टिन शेड में उनका खाना भी बनना शुरू हो गया। मैं जहाँ ठहरा था,उस दुकान में भी,4 और 6 के दो समूह आ गये थे। पता चला कि ये लोग सगर के रास्ते रूद्रनाथ का ट्रेक पूरा कर सड़क के रास्ते मण्डल आये थे और फिर वहाँ से पैदल चलकर अनुसुइया माता के दर्शन करने के लिए यहाँ आये हैं। मण्डल की ओर से आने वाले ट्रेक की कठिनाई के चलते उन्होंने ऐसा किया था। दुकान के दोनों बड़े कमरों पर उन्होंने कब्जा कर लिया। मैं बरामदे के बगल वाले कमरे में विस्थापित हो गया। मेरे लिए यह अच्छा हो गया क्योंकि इस छोटे से कमरे में केवल एक ही बेड था। मेरे लिए यह अब बेड न होकर कमरा हो गया था।
शाम को चावल–दाल खाने के बाद मैंने यह मान लिया था कि मेरा भोजन हो चुका लेकिन जब दुकान में ठहरे बाकी लोगों के लिए नरेंन्द्र भाई ने रात में खाना बनाया तो मुझे भी खाने के लिए बुलाया। इच्छा तो नहीं थी लेकिन मैंने उनका बुलावा अस्वीकार नहीं किया। इस बार खाने में रोटियाँ मिल रही थीं। यह मेरे लिए खुशी की बात थी।

27 मई
कल शाम जब अत्रि मुनि आश्रम में कुछ देर के लिए रूका था तो वहाँ रहने वाले नागा साधु ने अगली सुबह मुझे वहाँ फिर से आने का निमंत्रण दिया था लेकिन आज सुबह जब सोकर उठा तो फिर से उधर जाने की हिम्मत नहीं कर रही थी। 3 किमी अतिरिक्त चलना पड़ता। सुबह कुछ देर से उठा। नित्यकर्म से निवृत्त हुआ लेकिन नहाना बड़ा मुश्किल लग रहा था। क्योंकि दुकान में ठहरे अन्य लोगों ने एकमात्र बाथरूम में लाइन लगा रखी थी। एक समूह तो दुकान के बगल में पत्थरों से अपना चूल्हा बना कर भगोने में पानी गर्म कर रहा था। मैं  6.30 बजे तक अनुसुइया माता मंदिर से नीचे की ओर चल पड़ा। 5 किमी की दूरी तय करनी थी। लेकिन केवल उतराई ही उतराई है। साफ–सुथरा सीमेंटेड ट्रेक बना हुआ है। रास्ते के दोनों ओर फैले घने जंगल इसे बहुत ही खूबसूरत बना देते हैं। अनुसुइया माता मंदिर–मण्डल रास्ते में एक शिलालेख भी दिखायी पड़ता है। इसके पास ही पुरातत्व विभाग द्वारा एक बोर्ड पर इसके बारे में कुछ सूचनाएं उपलब्ध करायी गयी हैं। यह शिलालेख संस्कृत भाषा और उत्तर ब्राह्मी लिपि में अभिलिखित है। इस अभिलेख के अनुसार महाराजाधिराज परमेश्वर सरवर्मन के अधीन एक क्षत्रिय नरवर्मन ने अपने पूर्वजों और स्वयं के पुण्य–लाभ के लिए इस स्थान पर एक जलाशय और एक मंदिर का निर्माण कराया। इस अभिलेख में सरवर्मन के बारे में कोई विशेष परिचय नहीं दिया गया है लेकिन पुरालिपि के आधार पर यह अभिलेख छठीं शताब्दी के मध्य का माना जाता है। इस समयावधि और अभिलेख में उल्लिखित उपाधि महाराजाधिराज के आधार पर सम्बन्धित राजा को मौखरि शासक सरवर्मन के रूप में पहचाना गया है जिसका शासन काल सन् 576–580 ई. के मध्य था। यह अभिलेख प्राचीन यात्रा मार्ग पर तीर्थयात्रियों के लाभार्थ किये गये कार्याें को प्रदर्शित करता है। इसके अतिरिक्त यह अभिलेख इस क्षेत्र के लिए ऐतिहासिक रूप से भी काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि अशोक के कालसी शिलालेख के पश्चात्,उत्तराखण्ड में यह किसी शासक के बारे में उपलब्ध,पहला पुरातात्विक उल्लेख है।
काफी देर तक चलने के बाद मुझे एक महिला अपनी बच्चियों के साथ,पीठ पर टोकरियाँ बाँधे ऊपर की तरफ जाती दिखी। कुछ खच्चर वाले मिले जो मुझे सगर वाले रास्ते पर मिले थे। देखते ही मुझे पहचान गये। नीचे उतरते समय हरी–भरी घाटी और उनके बीच बसा गाँव दिखायी पड़ता है। मण्डल तक पहुँचने से लगभग 1 किमी पहले एक छोटा सा खुबसूरत पहाड़ी गाँव पड़ता है– सिरोली। ढलान कुछ हल्की है तो सीढ़ीदार खेत दूर–दूर तक निकल आये हैं। रास्ते के एक किनारे गाँव बसा है तो दूसरे किनारे पर नदी अपने पूरे जोश में प्रवाहित हो रही है। पूरी तरह से पक्के बने मकानों को देखकर लगता ही नहीं कि यह एक पहाड़ी गाँव है। पशुओं को रखे जाने वाले बाड़े ही कच्चे दिखायी पड़ते हैं।

लगभग 2 घण्टे में या 8.30 बजे तक मैं मण्डल पहुँच गया। यहाँ से मुझे सगर पहुँचकर अपना बैग लेना था। लेकिन यहाँ सगर या गोपेश्वर के लिए कोई गाड़ी नहीं थी। एक विदेशी पर्यटक भी अपने दो गाइडों के साथ चोपता जाने के लिए गाड़ी का इन्तजार कर रहा था। कहाँ तो मैंने पर्यटकों के बड़े–बड़े समूहों के साथ केवल एक गाइड को चलते देखा था और यहाँ एक व्यक्ति के साथ दो गाइड थे। रूद्रनाथ ट्रेक पर भी पंचगंगा के पास,एक विदेशी यात्री के साथ तीन गाइड दिखे थे। आधे घण्टे के अन्दर ही एक स्थानीय गाड़ीवाला गोपेश्वर तक चलने के लिए तैयार हुआ। चूँकि मेरा एक बैग सगर के एक लॉज में पड़ा था तो मैंने ड्राइवर से पहले ही तय कर लिया कि बैग लेने के लिए सगर में 2 मिनट रूकना पड़ेगा।



काण्डई बुग्याल

अत्रि मुनि आश्रम के पास प्रवाहित होती जलधारा







मण्डल से पहले सिरोली गाँव

अनुसुइया माता आश्रम के पास दुकान का कमरा
अनुसुइया माता मंदिर
नरेंद्र भाई का किचेन
मण्डल के रास्ते में शिलालेख
अगला भाग ः कल्पेश्वर–पंचम केदार

सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. रूद्रनाथ के द्वार पर
2. सगर से पनार बुग्याल
3. पनार बुग्याल से रूद्रनाथ
4. रूद्रनाथ से वापसी
5. काण्डई बुग्याल से नीचे
6. कल्पेश्वर–पंचम केदार

9 comments:

  1. बहुत सजीव चित्रण

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद जी ब्लॉग पर आने के लिए। आगे भी आते रहिये।

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  2. बहुत अच्छा विवरण, लगा कि आपके साथ साथ हम भी यात्रा कर रहे हैं...

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    1. प्रोत्साहन करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद जी।

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  3. अच्छा लिखा है , पाण्डेयजी । सजीव चित्रण

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    1. आपके इस प्रोत्साहन से अपार ऊर्जा मिलती है। धन्यवाद।

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  4. बहुत सुंदर व्रतांत और छाया चित्र

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद जी।

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  5. बहुत अछा।

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