बिहार का जहानाबाद जिला। दिन के 10 बजे जब मैं बराबर पहुँचा तो धूप मेरे बराबर हो गयी थी। और अब मुझसे आगे निकलने की होड़ में थी। मुझे बराबर की पहाड़ियों पर इसी तपती धूप में ऊपर चढ़ना था तो मैं सामने आने वाली परिस्थिति का अनुमान भी लगा रहा था। सुबह का समय इन पहाड़ियों पर घूमने के लिए बहुत मुफीद रहा होता लेकिन मेरे लिए वह समय निकल चुका था। मैंने बराबर के चौराहे पर एक कोने में थोड़ी छाया देखकर बाइक खड़ी की और सामने वाले दुकानदार से उसकी निगरानी करने के लिए निवेदन किया।
मेरा एक बैग भी बाइक पर ही बँधा था। दुकान से मैंने एक कोल्ड ड्रिंक की बोतल भी खरीदी,बोतल में पानी भरा और रास्ता पूछकर ऊपर चल पड़ा। पता चला था कि इस पहाड़ी पर दो प्राचीन गुफाएं हैं और गुफाओं से ऊपर की पहाड़ी पर सिद्धनाथ मंदिर है।
मेरा एक बैग भी बाइक पर ही बँधा था। दुकान से मैंने एक कोल्ड ड्रिंक की बोतल भी खरीदी,बोतल में पानी भरा और रास्ता पूछकर ऊपर चल पड़ा। पता चला था कि इस पहाड़ी पर दो प्राचीन गुफाएं हैं और गुफाओं से ऊपर की पहाड़ी पर सिद्धनाथ मंदिर है।
बराबर की पहाड़ियाँ किसी लम्बी श्रृंखला का हिस्सा नहीं हैं वरन छोटा नागपुर के पठार से काफी दूर एक छोटे से क्षेत्र में फैली हुई हैं। इन पहाड़ियों को दूर से देखकर ऐसा लगता है जैसे बड़े–बड़े पत्थरों को इकट्ठा करके एक बड़ा सा ढेर बना दिया गया हो। नजदीक जाने पर भी एक सीधा खड़ा पहाड़ नहीं दिखायी पड़ता वरन बड़े–बड़े,गोल–गोल चिकने पत्थर एक दूसरे के ऊपर सजा कर रखे हुए से प्रतीत होते हैं। बराबर का एक नाम सतघरवा भी है जो शायद यहाँ की सात गुफाओं की ओर इंगित करता है। कहते हैं कि बराबर का प्राचीन नाम बाणावर था जो कि सिद्धनाथ मंदिर का निर्माण कराने वाले राजा बाणा के नाम पर पड़ा है। इस मंदिर का निर्माण संभवतः सातवीं सदी में किया गया।
गुफाओं की ओर ऊपर जाने के लिए जहाँ से सीढ़ियाँ शुरू होती हैं वहाँ एक छोटा सा मंदिर बना हुआ है। मैं पहुँचा तो मंदिर के पुजारी गौ–सेवा में संलग्न थे। पाँच मिनट में ही मैं सीढ़ियाँ चढ़कर गुफा परिसर में पहुँच गया। ऊपर पहुँचकर चारों तरफ नजरें डाली तो लगा कि बिहार इन गुफाओं की ऐतिहासिकता और महत्व को शायद भूल चुका है। दो बेंचें लगी हुई हैं लेकिन टूट चुकी हैं। अगर पेड़ न हों तो छाये की भी कोई व्यवस्था नहीं है।
पगडण्डी की बायीं तरफ,लगभग पूर्व–पश्चिम दिशा में फैली एक लम्बाकार और ऊपर से गोल दिख रही विशाल चट्टान लेटी हुई है। इसी चट्टान में विश्व प्रसिद्ध बराबर की गुफाएं बनी हुई हैं। चट्टान की उत्तरी ढलान पर एक गुफा है जबकि दक्षिणी या विपरीत ढलान पर दो गुफाएं हैं। एक बोर्ड पर सुदामा गुफा के बारे में कुछ सूचनाएं लिखी हुई हैं लेकिन इस सूचना से यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि किस गुफा का क्या नाम है। फिर भी अपने पूर्वज्ञान और इधर–उधर से जुटायी जानकारी के आधार पर मैंने अनुमान लगाया कि उत्तरी ढलान पर बनी का गुफा का नाम कर्ण चौपार गुफा है। दक्षिणी ढलान की दाे गुफाओं में से एक लोमश ऋषि गुफा है और दूसरी सुदामा गुफा। ये गुफाएं 150 फीट की ऊँचाई पर बनी हैं।
ये गुफाएं भारतीय इतिहास के मौर्यकाल की देन हैं। माना जाता है कि मौर्ययुग में पहाड़ों को काटकर गुफाएं बनाने की कला का पूर्ण विकास हुआ। अशोक और उसके पौत्र दशरथ के समय बराबर और नागार्जुनी की पहाड़ियों को काटकर आजीवक सम्प्रदाय के भिक्षुओं के लिए आवास बनाये गये थे। अशोक के शासन काल के बारहवें वर्ष में सुदामा गुफा तथा 19वें वर्ष में कर्णचौपार गुफा का निर्माण हुआ। सुदामा गुफा में दो कमरे हैं जो वर्गाकार हैं तथा इसकी छत गुम्बदाकार है। कर्णचौपार की गुफा एकल कक्ष वाली है तथा आयताकार है। इन गुफाओं की दीवारों और छतों पर चमकीली पालिश है। यह पालिश सदियों तक मौसम की मार झेलने के बाद आज भी इतनी चमकीली है कि नजरें फिसल जाती हैं। कैमरे का फ्लैश इस पालिश पर इस तरह टकराता है मानो यह शीशे की दीवार हो। कर्ण चौपार गुफा से 245 ई0पू0 के कुछ शिलालेख भी प्राप्त हुए हैं।
सुदामा गुफा के बगल में लोमश ऋषि की गुफा है। इसका निर्माण अशोक के पौत्र दशरथ के समय हुआ। यह बराबर गुफा समूह की सबसे प्रसिद्ध गुफा है। यह एक अण्डाकार गुफा है। इसका गुफा का प्रवेश द्वार सर्वाेत्तम है। द्वार के दोनों किनारों पर तिरछे खड़े दो स्तम्भ बने हुए हैं जिनके ऊपर मेहराबों की आकृति बनायी गयी है। इन मेहराबों के ठीक बीच में एक स्तूप तथा दोनों किनारों पर हाथियों की आकृतियाँ उत्कीर्ण की गयी हैं। हाथियों को स्तूप की पूजा करते हुए प्रदर्शित किया गया है। इन सारी गुफाओं के प्रवेश द्वार पर लोहे के छड़ों वाले गेट लगा दिये गये हैं जिनमें ताले लगे हुए थे। वैसे छड़ों के बीच की फाँक से गुफा का पूरा दृश्य दिखायी पड़ रहा था। बराबर की ये गुफाएँ भारत के इतिहास में,चट्टानों को काटकर बनायी गयी सर्वाधिक प्राचीन गुफाएँ हैं।
ये गुफाएं भारतीय इतिहास के मौर्यकाल की देन हैं। माना जाता है कि मौर्ययुग में पहाड़ों को काटकर गुफाएं बनाने की कला का पूर्ण विकास हुआ। अशोक और उसके पौत्र दशरथ के समय बराबर और नागार्जुनी की पहाड़ियों को काटकर आजीवक सम्प्रदाय के भिक्षुओं के लिए आवास बनाये गये थे। अशोक के शासन काल के बारहवें वर्ष में सुदामा गुफा तथा 19वें वर्ष में कर्णचौपार गुफा का निर्माण हुआ। सुदामा गुफा में दो कमरे हैं जो वर्गाकार हैं तथा इसकी छत गुम्बदाकार है। कर्णचौपार की गुफा एकल कक्ष वाली है तथा आयताकार है। इन गुफाओं की दीवारों और छतों पर चमकीली पालिश है। यह पालिश सदियों तक मौसम की मार झेलने के बाद आज भी इतनी चमकीली है कि नजरें फिसल जाती हैं। कैमरे का फ्लैश इस पालिश पर इस तरह टकराता है मानो यह शीशे की दीवार हो। कर्ण चौपार गुफा से 245 ई0पू0 के कुछ शिलालेख भी प्राप्त हुए हैं।
सुदामा गुफा के बगल में लोमश ऋषि की गुफा है। इसका निर्माण अशोक के पौत्र दशरथ के समय हुआ। यह बराबर गुफा समूह की सबसे प्रसिद्ध गुफा है। यह एक अण्डाकार गुफा है। इसका गुफा का प्रवेश द्वार सर्वाेत्तम है। द्वार के दोनों किनारों पर तिरछे खड़े दो स्तम्भ बने हुए हैं जिनके ऊपर मेहराबों की आकृति बनायी गयी है। इन मेहराबों के ठीक बीच में एक स्तूप तथा दोनों किनारों पर हाथियों की आकृतियाँ उत्कीर्ण की गयी हैं। हाथियों को स्तूप की पूजा करते हुए प्रदर्शित किया गया है। इन सारी गुफाओं के प्रवेश द्वार पर लोहे के छड़ों वाले गेट लगा दिये गये हैं जिनमें ताले लगे हुए थे। वैसे छड़ों के बीच की फाँक से गुफा का पूरा दृश्य दिखायी पड़ रहा था। बराबर की ये गुफाएँ भारत के इतिहास में,चट्टानों को काटकर बनायी गयी सर्वाधिक प्राचीन गुफाएँ हैं।
इन तीन गुफाओं के अतिरिक्त और कोई जानकारी देने वाला वहाँ कोई नहीं था। हाँ वहाँ बैठे एक–दो ग्रामीणों ने सिद्धनाथ मंदिर का रास्ता जरूर बताया। गुफा परिसर से आगे बढ़ने पर कई आधुनिक चीजें के अवशेष दिखायी पड़ते हैं। पास ही एक मनोरंजन पार्क के लक्षण दिखायी पड़ते हैं जहाँ जंगल–झाड़ उग आये हैं। इसके थोड़ा सा आगे एक तीर का निशान लगा बोर्ड दिखायी पड़ता है जिसपर लिखा है– ʺनौका विहार।ʺ हालाँकि वहाँ न पानी है न नावें। नौका विहार कैसे होता होगा,राम जाने। और इसी के थोड़ा सा आगे एक गेट बना हुआ है जहाँ से बिल्कुल खड़ी सीढ़ियाँ दिखायी पड़ती हैं जो सिद्धनाथ मंदिर की ओर लेकर जाती हैं।
इन सारे लक्षणों को देखकर लगता है कि इस स्थान का विकास करने का प्रयास तो किया गया है लेकिन केवल एक बार। फिर उसे भुला दिया गया। गुफा परिसर से लगभग 10 मिनट चलने के बाद मैं सीढ़ियों तक पहुँच गया। और फिर शुरू हुई तपती दोपहरी में खड़ी चढ़ाई। सीढ़ियाँ बिल्कुल ही खड़ी हैं। पसीने छूटने लगे। लेकिन चढ़ाई जारी रही। कुछ ही देर में पसीने से तर–ब–तर होते हुए मैंने सीढ़ियों से मुक्ति पायी और ढलान वाला रास्ता मिल गया। लगभग पौने एक घण्टे की मेहनत के बाद मैं सिद्धनाथ मंदिर तक पहुँच गया। यहाँ दी गयी सूचना के अनुसार मंदिर 1200 फीट की ऊँचाई पर बना है। मंदिर की ऊँचाई से चारों तरफ का दृश्य बहुत ही सुंदर दिखायी पड़ता है। इस समय सूखे का मौसम था। यदि यह बारिश का मौसम होता तो चारों तरफ चटख हरियाली ही दिखायी देती। मंदिर परिसर में बीसों की संख्या में भक्तगण इकट्ठे थे। पूजा–पाठ का दौर चल रहा था। पूजा और कुछ खाने–पीने की चीजें बेचने वाले दुकानदार भी थे। कुछ स्थानीय लड़के भी थे जो उछल–कूद मचाये हुए थे। वैसे तो सिद्धनाथ का यह मंदिर नया बना है लेकिन इसकी मूर्तियाँ बहुत ही प्राचीन हैं। पता चला कि कुछ दिन पहले तक मंदिर में बिजली नहीं थी और इस वजह से पानी भी नहीं था। वर्तमान में यहाँ एक टंकी बन जाने से दर्शनार्थियों को काफी सहूलियत हो गयी है। यह भी ज्ञात हुआ कि चूँकि यह शिवजी का मंदिर है लिहाजा सावन में अत्यधिक भीड़ होती है। मैंने भी मंदिर में थोड़ी देर आराम किया,पानी पिया और नीचे चल पड़ा। क्योंकि अभी मु्झे बराबर की पहाड़ियों में अन्य गुफाओं की खोज करनी थी।
नीचे पहुँचकर मैं उसी दुकान में रूका जिसके सामने मेरी बाइक खड़ी थी। कोल्ड ड्रिंक के साथ ही मेरी बोतल का पानी भी खत्म हो चुका था। शरीर का पानी भी कम पड़ने लगा था। मैंने फिर से कोल्ड ड्रिंक खरीदी। और दुकानदार से बाकी गुफाओं के बारे में जानकारी ली। तब तक एक स्थानीय गाइड भी वहाँ पहुँच गया। काफी बातें हुई,परिचय भी हुआ। लेकिन पैसे लेकर काम करने वाला गाइड फ्री में कुछ भी बताने को तैयार नहीं था। वैसे भी दुकानदार से मुझे जरूरतभर की जानकारी मिल चुकी थी। पता चला कि एक गुफा,सीधे रास्ते पर केवल 100 मीटर की दूरी पर ही एक चट्टान की खड़ी ढलान के उस पार थी। दुकानदार मुझे उस चट्टान के पास तक छोड़ गया और ऊपर चढ़ने का तरीका भी बता गया। चट्टान पर पैर टिकाने के लिए खाँचे बनाये गये हैं। मैं सिर पर गमछा लपेटे और पीठ पर बैग लटकाये चट्टान पर चढ़कर गुफा तक पहुँच गया। यहाँ दो कक्षों वाली एक गुफा बनी हुई है लेकिन कोई नाम अंकित नहीं है। चूँकि मुझे इतना पता था कि बराबर की 4 गुफाओं में से तीन एक जगह है जबकि चौथी कुछ अलग हटकर है जो कि ʺविश्व झोपड़ीʺ के नाम से जानी जाती है। तो अब मैं विश्व झोपड़ी के सामने खड़ा था। इस गुफा में भी दो कक्ष हैं तथा दीवारों पर चमकीली पालिश है। इसमें कोई गेट नहीं लगा हुआ है अतः यह गुफा विभिन्न जीव–जन्तुओं का बसेरा बन गयी है। इस गुफा का निर्माण भी अशोक के शासन काल के 12वें वर्ष में हुआ था।
यहाँ से वापस लौटकर मैं फिर से चौराहे पर खड़ी अपनी बाइक के पास पहुॅंचा और रास्ता पूछकर नागार्जुनी पहाड़ियों की ओर चल पड़ा। नागार्जुनी गुफाएं बराबर चौराहे से लगभग 1.5 किमी की दूरी पर हैं। बराबर से आधा किमी चलने के बाद सड़क छोड़कर बायें हाथ मुड़ना पड़ता है। मैं भी उधर मुड़ गया। बिल्कुल ग्रामीण क्षेत्र है। लेकिन खेतों के बीच,रास्ते के दाहिने किनारे,चारदीवारी के भीतर एक विशाल इमारत खड़ी दिखी। मैं आश्चर्य में पड़ा लेकिन मुझे इसी इमारत के सामने से होकर गुजरना था सो आगे बढ़ा। लेकिन इस इमारत के गेट तक पहुँचते ही चार वर्दीधारी हथियारबंद लोगों ने मुझे चारों तरफ से घेर लिया। मेरे तो देवता ही कूच कर गये। थोड़ी सी हिम्मत जुटाई तो पता चला कि यह बराबर थाना है और ये पुलिस के जवान मेरी चेकिंग के लिए मुझे घेरे हुए हैं। मैंने परिचय दिया। सरकारी स्कूल के प्रधान अध्यापक होने का हवाला दिया तो मामला कुछ नरम पड़ा। वैसे भी मेरे पास पूरे कागजात थे। मैं ज्योंही चलने को हुआ कि एक दारोगा जी भी आ धमके। उनसे भी परिचय हुआ। उन्होंने बैग खोलने का निवेदन किया। पता चला कि उन्हें मोबाइल से वीडियो बनानी है। बिचारे की व्यथा ये थी कि इस समय बिहार में चुनाव चल रहे थे और गाड़ियों की चेकिंग की वीडियो दिखानी थी। समस्या ये कि इस वीराने रास्ते पर गाड़ियाँ आती नहीं।
मुझे भला क्या आपत्ति हो सकती थी। दो मिनट रूककर और बैग खोलकर मैंने वीडियो बनवायी। थाने वालों से निपट कर आगे बढ़ा तो नागार्जुनी पहाड़ियाँ सामने दिखायी पड़ रही थीं। दोपहर के 1 बज रहे थे। ऐसे में किसी आदमी का दिखना भी काफी मुश्किल था। कुछ ही मिनटों में पक्की सड़क कच्ची पगडण्डी में बदल गयी। पहाड़ी के ऊपरी हिस्से में एक गुफाद्वार दिखायी पड़ रहा था। जमीन से सीढ़ियाँ ऊपर जा रही थीं। थोड़ा सा हटकर एक चट्टान के नीचे छाये में कुछ लोग इकट्ठे थे। वैसे उनकी तरफ ध्यान दिये बिना मैंने एक जगह बाइक खड़ी की और सीढ़ियों पर चढ़ गया। पीठ पर बैग और गले में कैमरा टाँगे सीढ़ियों पर मुझे चढ़ते देख चट्टान के नीचे एकत्र लोगों में बेचैनी बढ़ गयी। मैं गुफा के द्वार पर पहुँचा तो एक आदमी टहलता मिला जबकि गुफा के अन्दर कई महिलाएँ व बच्चे लेटे हुए थे। यह गुफा वास्तव में उस जलती दोपहरी में एयर कण्डीशन का काम कर रही थी।
यह एक आयताकार गुफा है जो काफी लम्बी–चौड़ी है। दीवारों और छत में चमकीली पालिश है। प्रवेश द्वार के ऊपर कुछ लिखा हुआ है जिसे पढ़ना मेरे बस की बात नहीं थी। नागार्जुनी पहाड़ियों पर कुल तीन गुफाएँ है जो अशोक के पौत्र दशरथ द्वारा बनवायी गयी थीं। मेरे पहुँचते ही गुफा में लेटे सारे लोग बाहर निकल गये। गुफा के दरवाजे पर टहलते आदमी से मेरा परिचय हुआ। पता चला कि उसका नाम राजेश है और वह ड्राइवर है। गुफा के आस–पास इकट्ठे सारे लोग उसी की गाड़ी में बैठ कर काेई पूजा–पाठ करने आये हैं। नीचे उस चट्टान के नीचे किसी देवता का स्थान है जिसकी आज पूजा हो रही थी। बकरे की बलि दी गयी थी। राजेश ने मुझसे भी प्रसाद ग्रहण करने का आग्रह किया। मैंने चारों हाथ पैर जोड़ लिए। ऐसा प्रसाद मेरे गले के नीचे उतरने वाला नहीं था। राजेश ने मुझे नागार्जुनी पहाड़ियों की शेष दोनों गुफाएं भी दिखायीं। इन गुफाओं की दशा देखकर मुझे बहुत दुख हुआ। इन गुफाओं के लिए कम से कम एक केयरटेकर तो होना ही चाहिए। इतिहास की धरोहरों को सुरक्षित रखने के लिए हमें कुछ तो करना ही होगा। लेकिन यहाँ शायद ऐसा सोचने वाला कोई नहीं है।
बराबर की गुफाएँ देख लेने के बाद अब मैं बोधगया के लिए निकल पड़ा। अपराह्न के लगभग 2 बज रहे थे। आज भी धूप ने मेरी अच्छी खातिरदारी की थी।
बायीं तरफ दिखती वो चट्टान जिसमें गुफाएँ हैं |
लोमश ऋषि की गुफा का प्रवेश द्वार |
बायें सुदाम गुफा और दाहिने लोमश ऋषि गुफा |
सिद्धनाथ मंदिर की सीढ़ियाँ |
सिद्धनाथ मंदिर |
बिखरे पत्थरों जैसी दिखती बराबर की पहाड़ियाँ |
नागार्जुनी गुफाओं की ओर जाती सीढ़ियाँ |
चट्टान के नीचे बकरे की बलि |
बराबर थाने की इमारत |
3. वैशाली–इतिहास का गौरव (दूसरा भाग)
4. देवघर
5. राजगीर–इतिहास जहाँ ज़िन्दा हैǃ (पहला भाग)
6. राजगीर–इतिहास जहाँ ज़िन्दा हैǃ (दूसरा भाग)
7. राजगीर–इतिहास जहाँ ज़िन्दा हैǃ (तीसरा भाग)
8. नालन्दा–इतिहास का प्रज्ञा केन्द्र
9. पावापुरी से गहलौर
10. बराबर की गुफाएँ
11. बोधगया से सासाराम
मेरा बड़ा मन था यहाँ जाने का पर जा नहीं पाया, आपका शुक्रगुजार हूं कि आपने यहाँ के दर्शन कर दिए।
ReplyDeleteबहुत ही शानदार यात्रा वृतांत
बहुत बहुत धन्यवाद सुधीर जी। बिहार के ऐतिहासिक स्थलों को वर्तमान में बहुत ही कम महत्व दिया गया है। पर्यटन की दृष्टि से इनका समुचित विकास किया जाना अभी बाकी है।
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