इस यात्रा के बारे में शुरू से पढ़ने के लिए
यहाँ क्लिक करें–
दोपहर के 12 बजे हम कन्याकुमारी के लिए रवाना हो गये। कन्याकुमारी से महाबलिपुरम की दूरी 663 किमी है। गूगल मैप पर जब दूरी चेक की गयी तो इतना तो समझ में आ ही गया कि आज भी रात भर बस में यात्रा ही करनी पड़ेगी। आराम करने का मौका तो बस चाय पीने के दौरान ही आएगा। अन्यथा बस में पैर लटकाए–लटकाए सूजन तो होनी ही है। तो हम रास्ते भर,हर ढाई–तीन घण्टे पर चाय या काॅफी पीते रहे। शाम तक ड्राइवर ने जब हमारा यह रवैया देखा तो एक ढाबे पर गाड़ी रोककर खाना खा लिया। और उसके बाद गाड़ी चलती रही।
जब अधिक देर हो गयी तब हमारी समझ में आया कि ऐसे ही रहा तो इस रात भी एकादशी हो जाएगी जैसा कि इसी यात्रा में हमारे साथ एक रात हो चुका था। सारी खिड़कियों से झाँक–झाँक कर रास्ते के रेस्टोरेण्ट्स पर नजर रखी जाने लगी। ड्राइवर से भी निवेदन किया जाने लगा। सारी हेकड़ी उतर गयी।
आखिर एक रेस्टोरेण्ट के सामने हमारी ट्रैवलर जा लगी। रात के 11 बज रहे थे। रेस्टोरेण्ट के कर्मचारी सारा काम समाप्त करके तालाबन्दी की तैयारी में थे। पूछताछ करने पर पता चला कि एक तो थाली जैसा कुछ है नहीं और उस पर भी इस समय कुछ बचा नहीं है। दो मिनट बाद पता चला कि पनीर और रोटी मिल सकती है। मरता क्या न करता। यहाँ इन्कार करने का सवाल ही नहीं उठता। आर्डर दे दिए गए। एक–एक प्लेट पनीर में तीन–तीन हिस्से लगाए गए। रोटियों के बारे में पता चला कि एक प्लेट में दो रोटियां होंगी। तो कम से कम एक–एक प्लेट प्रति व्यक्ति के हिसाब से आर्डर दे दिया गया। ऐसी रोटियां हम चेन्नई सेन्ट्रल रेलवे स्टेशन के पास खा चुके थे। मैदे की बनी हुई रोटियां जिनके कोमल बदन पर घी के बजाय रिफाइन्ड ऑयल या नारियल तेल की मालिश कर दी गयी थी। इन रोटियों की सबसे बड़ी खासियत ये थी कि ये गोल नहीं थीं। पनीर की सब्जी बनाने में भी चीनी की मदद ली गयी थी। चौदह लोगों के बीच में,दो–तिहाई पेट खाने के बाद लगभग 1900 रूपये का बिल बना तो कोई बहुत अधिक नहीं था। भोजन संतुष्ट करने लायक तो बिल्कुल नहीं मिला। ए.सी. रेस्टोरेण्ट में बैठने का अवसर मिला,यही बहुत था।
अब इसके बाद बस चली तो सीधे महाबलिपुरम जाकर ही रूकी।
हमारी बस जब महाबलिपुरम पहुँची तो रात के 2.15 बज रहे थे। ड्राइवर ने अच्छी तरह से ठोंक–बजा कर कमरा लेने में तीन बजा दिए। इधर शरीर की हालत ये थी कि खड़ा नहीं हुआ जा रहा था। इधर तो प्लान यह था कि पहले जमकर सोयेंगे। उसके बाद ही महाबलिपुरम घूमेंगे। लेकिन ड्राइवर के मन में कुछ और ही खिचड़ी पक रही थी। उसने केवल 12 बजे तक के लिए रूम बुक कराए थे या फिर होटल का चेकआउट टाइम ही 12 बजे था। अब हमारे पास सोने,नहाने–धोने,खाना खाने तथा घूमने के लिए केवल 9 घण्टे का समय था और इतने समय में यह सब कुछ होना लगभग असम्भव था। सब कुछ एड्जस्ट करने पर ही निर्भर था।
सुबह के 8 बजे हम लोग बाहर निकले। सीधे समंदर के किनारे। इस यात्रा में हमें पहली बार ʺबीचʺ या बलुआ समुद्री किनारा मिला था। तो फिर समय के बन्धन को तोड़ते हुए हम समंदर की लहरों में प्रवेश कर गए और काफी देर तक लहरों से संघर्ष करते रहे। समय का पता ही नहीं चला। समय का ध्यान आया तो भागते हुए कमरे पहुँचे। नहाने–धोने में 10 बज गए। नहा–धोकर बाहर निकले तो महाबलिपुरम के स्मारक समूह तक पहुँचने में 10.30 बज गये। इस स्मारक समूह से थोड़ी ही दूरी पर महाबलिपुरम का प्रसिद्ध पंच–पाण्डव रथ मंदिर भी है।
महाबलिपुरम का इतिहास अत्यधिक प्राचीन है। ईसा के समय से ही एक समुद्री बन्दरगाह शहर के रूप में इसकी उपस्थिति के ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं। एक विश्वप्रसिद्ध भौगोलिक पुस्तक ʺपेरीप्लस ऑफ द इरिथ्रियन सीʺ के अज्ञात लेखक,जो कि एक यूनानी नाविक था,ने पहली शताब्दी में इस शहर का उल्लेख किया है। दूसरी शताब्दी के विद्वान टाॅलेमी ने भी ʺमलांगेʺ के नाम से इस शहर का उल्लेख किया है। सातवीं शताब्दी में भारत आये चीनी यात्री ह्वेनसांग ने दक्षिण भारत के पल्लव शासकों के समुद्री बंदरगाह के रूप में कांची शहर का उल्लेख किया है। लेकिन स्पष्टतः उसने भूल से महाबलिपुरम को कांची कह दिया है क्योंकि कांची समुद्र के किनारे न होकर भीतरी भाग में अवस्थित है। महाबलिपुरम की व्युत्पत्ति ʺमामल्लपुरमʺ से मानी जाती है। मामल्लपुरम का अर्थ है– मामल्ल का शहर। ʺमामल्लʺ प्रसिद्ध पल्लव शासक नरसिंहवर्मन प्रथम (630-668 ई0) की उपाधि थी। महाबलिपुरम के पत्थरों को तराश कर बनाये गये अधिकांश मंदिरों और उन पर बनी आकृतियों का निर्माण नरसिंहवर्मन प्रथम ने ही कराया था। तत्कालीन समय में पश्चिमी जगत में यह स्थान ʺसप्त पैगोडाʺ के शहर के नाम से जाना जाता था। संभवतः यह नाम नाविकों द्वारा,दूर समुद्र से दिखने वाले महाबलिपुरम के मंदिरों के कारण दिया गया था। वैसे यहाँ मंदिरों की वास्तविक संख्या,सात की इस अनुमानित संख्या से कहीं अधिक थी।
दक्षिण भारत के पल्लव शासकों का उत्थान तीसरी–चौथी शताब्दी में शुरू हुआ। इनकी राजधानी कांची थी। छठीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर दसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक का लगभग 400 वर्षाें का समय दक्षिण भारत के इतिहास और संस्कृति के दृष्टिकोण से अत्यन्त महत्वपूर्ण समय रहा। इस दौरान तीन समकालीन राजवंश– वातापी या आधुनिक बादामी के चालुक्य,कांची या वर्तमान कांचीपुरम के पल्लव और मदुरई के पाण्ड्य,अपना प्रभुत्व बढ़ाने के प्रयास में लगे हुए थे। वैसे साम्राज्य विस्तार की इनकी आपसी प्रतिद्वंदि्वता ने कला,स्थापत्य और साहित्य के विकास में कोई बाधा नहीं डाली। क्योंकि इन शासकों में कला,स्थापत्य और साहित्य की भी समान रूप से प्रतिद्वंदि्वता चल रही थी। छठीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में,कांची में नवीन पल्लव राजवंश की स्थापना के बाद से अगले 400 वर्षाें तक पल्लव शासन तब तक चलता रहा जब तक कि तंजावुर के चोलों ने उन्हें पराजित कर पदच्युत नहीं कर दिया। इस दौरान पल्लव वंश के महेन्द्रवर्मन प्रथम (580-630 ई0),नरसिंहवर्मन प्रथम ʺमामल्लʺ (630-668 ई0),परमेश्वरवर्मन प्रथम (672-700 ई0) और नरसिंहवर्मन दि्वतीय (700-728 ई0) के शासन काल में कला,स्थापत्य,मूर्तिकला और साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई। महाबलिपुरम के अधिकांश स्मारक इसी कालखण्ड के बने हुए हैं।
महाबलिपुरम क रथ–मंदिर सर्वाधिक महत्वपूर्ण संरचनाएँ है। ये एकाश्मक मंदिर हैं जिनकी संख्या 5 है। इन्हें कठाेर चट्टानों को काटकर बनाया गया है। रथ–मंदिरों का सम्बन्ध महाभारत काल के पाण्डवों से जोड़ा जाता है। इन मंदिरों का निर्माण नरसिंहवर्मन प्रथम के काल में हुआ था। परिसर में बने मंदिरों में सबसे उत्तर की ओर द्रौपदी मंदिर बना हुआ है। यह इस परिसर का सबसे छोटा मंदिर है। इसके दक्षिण में अर्जुन मंदिर,भीम मंदिर और धर्मराज मंदिर क्रमशः बने हुए हैं। इस क्रम में इन मंदिरों का आकार भी क्रमशः बढ़ता जाता है। धर्मराज मंदिर सर्वाधिक दक्षिण में बना हुआ है और सबसे ऊँचा है। अर्जुन मंदिर,धर्मराज मंदिर की ही छोटी प्रतिकृति है। भीम मंदिर आयताकार है और सर्वाधिक लम्बा बना हुआ है। उपर्युक्त श्रृंखला के पश्चिम की ओर नकुल–सहदेव मंदिर बना हुआ है। नकुल–सहदेव मंदिर के बिल्कुल पास एक हाथी की मूर्ति बनी हुई। पास ही एक बैठे हुए वृषभ की आकृति भी बनी हुई है। लोग–बाग इन मूर्तियों पर बैठकर फोटो खींचने में लगे हुए थे। इन मंदिरों के आस–पास कई अनगढ़ चट्टानें भी पड़ी हुई हैं जिन्हें देखकर प्रतीत होता है कि इन मंदिरों का निर्माण संभवतः अधूरा ही रह गया। मंदिरों की दीवारों पर बनी कुछ आकृतियों को देखकर भी ऐसा ही प्रतीत होता है।
रथ मंदिर परिसर से कुछ दूर,उत्तर में बना ʺअर्जुन की तपस्याʺ और ʺमहिषमर्दिनी गुफाʺ परिसर,महाबलिपुरम का सर्वाधिक विस्तृत स्मारक परिसर है। इसमें अर्जुन की तपस्या सर्वाधिक चर्चित स्मारक है। इसमें विशाल ह्वेल मछली के आकार की एक चट्टान की सतह पर आकृतियों को तराशा गया है। भारतीय शिल्प की दृष्टि से अपनी तरह की यह अदि्वतीय कलाकृति है। इसके अन्तर्गत विभिन्न देवी–देवताओं जैसे चन्द्र,सूर्य,किन्नर,गन्धर्व,सिद्ध,अप्सराओं इत्यादि को एक केन्द्रीय बिन्दु की ओर आकर्षित होते हुए प्रदर्शित किया गया है जहाँ एक सिद्धपुरूष अपने बायें पैर पर खड़े होकर गहन तपस्या में लीन है। यह दृश्य महाभारत की उस कथा से प्रेरित प्रतीत होता है जिसमें अर्जुन पाशुपत अस्त्र की प्राप्ति के लिए भगवान शिव की गहन तपस्या करते हैं।
अर्जुन की तपस्या के दक्षिण की ओर कृष्ण मण्डप बना हुआ है जिसमें भगवान कृष्ण को गोवर्धन पर्वत को उठाये हुए प्रदर्शित किया गया है। कृष्ण मण्डप के पास ही पंचपाण्डव मण्डप बना हुआ है। इसी परिसर में भीम रथ से समरूपता रखता हुआ गणेश रथ बना हुआ है।
महिषमर्दिनी गुफा इस परिसर का सबसे सुंदर गुफा मंदिर है। और इसी पहाड़ी के सबसे ऊपरी हिस्से में ओलक्कनीश्वर मंदिर बना हुआ है। यह इस परिसर की सबसे ऊँची चट्टान है। यह मंदिर अधूरा बना है। इस पहाड़ी से कुछ ही दूरी पर महाबलिपुरम का ʺलाइट हाउसʺ भी बना हुआ है।
इसके अतिरिक्त इस परिसर में अनेक छोटे–छोटे मण्डप बने हुए हैं।
उपर्युक्त परिसर के विपरीत दिशा में एक रास्ता समुद्र के किनारे चला जाता है। समुद्र के किनारे पर एक विशाल मंदिर बना हुआ है जिसे तटवर्ती मंदिर कहा जाता है।
महिषमर्दिनी गुफा परिसर और रथ मंदिर घूमने में ही हमें 12 बज गए। इस बीच ड्राइवर ने फोन करना शुरू कर दिया। उसके दबाव की वजह से हमें जल्दी ही लौटना पड़ा और समुद्र के किनारे बना ऐतिहासिक महत्व का विष्णु मंदिर हमने दूर से ही देखकर संतोष कर लिया।
No comments:
Post a Comment