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Friday, May 3, 2019

कन्याकुमारी

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रामेश्वरम से कन्याकुमारी के लिए दिन के 11.30 बजे रवाना हुए तो भरपेट खाना खाकर। लगभग 310 किलोमीटर की दूरी तय करनी थी। तो अब अगला भोजन रात में कन्याकुमारी में नियत था। सारी चिन्ताएं कपूर के धुएं की माफिक उड़ गयी थीं। चाय–काफी तो बिन माँगे मिलते रहेंगे। अधिकांश दूरी समंदर के किनारे–किनारे ही तय करनी थी। हम नारियल के देश में थे। नारियल के झुण्ड के झुण्ड पेड़ों को देखकर मन गदगद हुआ जा रहा था। शाम के 5.30 बजे कन्याकुमारी पहुँच गये। तमिलनाडु का जिला कन्याकुमारी। शहर कन्याकुमारी। सागरों के संगम वाला शहर कन्याकुमारी।
यह वह स्थान है जहाँ सागर निरन्तर माँ भारती के चरण धोता रहता है। हम उत्तर भारतीयों को ʺकन्या–कुमारीʺ शब्द पर ही रोमांच हो उठता है। अभी काफी धूप थी। ड्राइवर ने एक होटल के सामने अपनी ट्रैवलर खड़ी कर दी। बहुत बड़ा होटल था। बहुत सारी बसों को शरण दे सकने की क्षमता वाला। ड्राइवर पहले अपना मोलभाव कर लेना चाहता था और हम पहले सनसेट देखने किनारे पर जाना चाहते थे।
होटल वाले से पूछताछ की गयी। इण्टरनेट खंगाला गया। पता चला कि सूर्यास्त 6.39 पर होगा। आखिरकार कमरा बुक कर सामान के बोझ से मुक्ति पायी गयी। ड्राइवर ने समुद्र का रास्ता दिखा दिया। जानकारी भी दे दी कि सूर्यास्त कहीं से भी दिख जाएगा। बात भी सही थी। वास्तव में सूर्यास्त कहीं से भी दिख जायेगा। लेकिन अगर सूर्यास्त कहीं से भी देखना था तो फिर कन्याकुमारी आने की कोई जरूरत नहीं थी। हमें तो वह नजारा देखना था जब सूरज का विशाल गोला बेबस होकर समुद्र के पानी में समाहित हो जाता है और समंदर का पानी सूरज के रंगों को अपने में घोलकर लाल हो जाता है। ड्राइवर की बातों से मु्झे संतुष्टि नहीं मिली। मैं उस अंतिम छोर पर पहुँच जाना चाहता था जहाँ से आगे कहीं और जमीन न दिखे। मेरे और समुद्र के गहरे नीले पानी में डूबते बेबस लाल सूरज के बीच कोई न हो। तो मैं भागता रहा उतना तेज जितना कि मैं चल सकता था। मेरे दो–तीन मित्र भी मेरे साथ ही चल रहे थे। अधिकांश तो फिसड्डी साबित हो गये। वैसे भी सूर्यास्त तो कहीं से भी दिखायी देने की स्थिति में था। समुद्र के किनारे जगह–जगह दो–चार लोगों के समूह सूरज के डूबने का इन्तज़ार कर रहे थे। लेकिन हम भागते जा रहे थे। हम बिल्कुल समुद्र के किनारे ही चल रहे थे। सामने एक टीला जैसा दिखाई पड़ रहा था। लगता था कि इसे पार कर जायेंगे तो बिल्कुल अंतिम कोने पर पहुँच जायेंगे लेकिन तब तक जमीन का एक और टुकड़ा दिख जाता। भागते–भागते साँसे फूल गयीं। पसीने से सारा शरीर तरबतर हो गया। मेहनत का फल मिला और वो जगह मिल गयी जिस के आगे कुछ नहीं था। था तो बस समुद्र का अथाह विस्तार। समुद्र के पानी में किनारे पर बिखरे कुछ विशाल पत्थर। कन्याकुमारी के सूर्यास्त को निहारने की जनम–जनम की लालसा लिए कुछ लोग।

लेकिन हायǃ किस्मत दगा दे गयी।

पूरी गोलाई में दिख रहे जिस रक्ताभ सूरज पर हम अपलक निगाहें गड़ाये हुए थे,उसे राहु और केतु की भाँति बादलों ने,समंदर से पहले ही लीलना शुरू कर दिया था। पसीने से भीगे शरीर और धाड़–धाड़ करते दिल की सारी उमंगें शान्त हो गयीं थीं। वातवरण में लालिमा की जगह कालिमा छाने लगी। सूर्यास्त तो हो रहा था लेकिन उसे आँखों के सामने न देख पाने की कसक मन में ही रह गयी। लगा कि जैसे बहुत कुछ खो गया है। हजारों किलोमीटर दूर जिस सपने को मन में लेकर आये थे वह टूट रहा था।
फिर भी खोजी मन कुछ न कुछ नया खोज ही लेता है। बादलों के पीछे डूबते सूरज की पृष्ठभूमि में एक नये दृश्य की संरचना हो रही थी। नीले पानी में बिखरे भूरे पत्थरों पर छा रहा शाम का धुँधलका एक नये रंग का सृजन कर रहा था। सूर्यास्त के रंगों से वंचित रह गये हम सभी अब इस नये सुरमई रंग में सराबोर हो रहे थे।

7 बज रहे थे। अँधेरा बढ़ गया। सारे रंग उड़न–छू हो गये थे। मन कुछ–कुछ उदास सा हो रहा था। अब होटल भागने की जल्दी थी। शरीर की सारी ऊर्जा समाप्त हो चुकी थी। पैर पैदल चलने से इन्कार कर रहे थे। तो एक ऑटो बुक कर लिया गया जिसने हमें ʺबीच रोड चौराहेʺ पर उतार दिया। यहाँ से टहलते हुए हम एक बार फिर से पास के समुद्री किनारे पर पहुँच गये ओर सामने दिख रही ʺविवेकानन्द रॉकʺ के सामने के चट्टानी किनारे पर बैठ गये। उस समय हमें नहीं पता था कि हम कहाँ बैठे हैं। मुझे बाद में पता चला कि यह वही जगह थी जिसे "केप कोमोरिन" या "कुमारी अन्तरीप" कहा जाता है। अँधेरे में ही शंख और मालाओं की इक्का–दुक्का दुकानें लगी थीं। बिजली की रोशनी में जगमगाते विवेकानन्द रॉक मेमोरियल और संत तिरूवल्लूवर की प्रतिमा को काॅफी पीते हुए शाम के धुँधलके में,उछलती समुद्री लहरों के साथ देखने का अपना अलग ही रोमांच है। ओरिजिनल बताकर मोतियों की माला ʺकेवलʺ 200 रूपये में बेची जा रही थी। ओरिजिनल शंख की मालाएं भी बिक रही थीं। कुछ मित्र इन ओरिजिनल मोतियों और शंखों के पारखी भी थे जिन्होंने कई मालाएं खरीदीं।
भोजन की समस्या कन्याकुमारी में नहीं है। शाकाहारी भोजन भले ही थोड़ा खोजना पड़ सकता है। रहने–खाने के मामले में कन्याकुमारी रामेश्वरम की तुलना में अवश्य ही कुछ महँगा है। हमें भी एक रेस्टोरेण्ट में 100 रूपये में थाली वाला खाना मिला।

6
यात्रा का छठा दिन। आज सुबह होने से पहले ही उठना था। क्योंकि आज कन्याकुमारी के सूर्याेदय का दर्शन करना था। सूर्याेदय तो हम रोज देखते हैं लेकिन वह क्षितिज के नीचे से होता है। आज का सूरज समुद्र के पानी में से निकलेगा। अद्भुत दृश्य होगा वह। जब लाल रंग की चादर ओढ़े सूरज नीले पानी के अन्दर से निकलेगा। सूर्याेदय का समय 6.30 बजे निर्धारित था। हमने तय कर रखा था कि 6 बजे तक जगह पर पहुँच जायेंगे। तो पैरों को तो मानो पंख लग गये थे। सूरज के हवाई घोड़ों की भाँति हमारा झुण्ड हवा में उड़ता जा रहा था।
केप कोमोरिन से समुद्र के किनारे–किनारे थोड़ा सा उत्तर की ओर चलने पर दाहिने हाथ अर्थात पूरब की ओर एक तटबंधनुमा संरचना बनी है जो समुद्र के काफी अंदर तक प्रवेश करती हुई चली गयी है। जब मैं इसके पास तक पहुँचा तो धुँधलका धीरे–धीरे छँट रहा था। मुझे लगा कि सूर्याेदय देखने के लिए इस बंधे की "नोज" सबसे उपयुक्त स्थान हाेगी। तो मैं आगे बढ़ता गया और मेरे पीछे मेरी पूरी टीम चलती रही। पत्थरों को व्यवस्थित कर नोज तक रास्ता बना दिया गया है। जब नोज तक मैं पहुँचा तो लगा कि एवरेस्ट फतह कर लिया। जीवन सार्थक हो गया। अब बस पत्थरों पर बैठ कर सूर्यदेव का इंतजार करना था।
लगभग 10 मिनट तक इंतजार करने के बाद महसूस हुआ कि सूर्यदेव ने हमारी अगवानी करने के लिए नामुराद बादलों को पहले से ही नियुक्त कर रखा है। मन आशंकाओं से भर उठा। शायद हमारी किस्मत हाथ–पैर धाेकर नहीं वरन अच्छे से नहा–धोकर हमारे पीछे पड़ी है। हमारी यात्रा की शुरूआत ही ऐसी हुई थी कि मन में डर बैठ गया था। आज वो डर यहाँ सही साबित हो रहा था। मन इतना दुःखी हो रहा था जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। कल शाम को सूर्यास्त के समय भी यही हुआ था। हमारी किस्मत का सनीचर हमारे पैरों के सनीचर पर भारी पड़ गया था। समुद्र में सूर्याेदय नहीं होना था सो नहीं हुआ। आज भी हम निराश मन से वापस लौट आए। लेकिन उसके पहले निराशा को कम करने का कुछ तो उपाय करना ही था। विचार हुआ कि समुद्र स्नान कर लिया जाय। लेकिन कन्याकुमारी का समुद्र तट अधिकांशतः पथरीला है। बलुआ समुद्र तटों के लिए तो भारत के पूर्वी समुद्री किनारे ही बेहतर हैं। फिर भी जिस तटबंध के पास हम सूर्याेदय देखने गए थे,उसी के पास थोड़ा सा बलुआ किनारा मिला। सभी ने तो नहीं लेकिन कुछ ने यहाँ उछल–कूद मचायी। फिर भी समुद्र के अधिक अन्दर जाना संभव नहीं था क्योंकि वहाँ चट्टानें थींं।
नहाने के अलावा यहाँ एक और काम हुआ। और वो था मालाओं की खरीदारी। कल जो ʺओरिजिनलʺ मालाएं 200 की मिल रही थीं,वो आज 10-10 रूपये में थोक के भाव मिल रही थीं। माला बेचने वालों के इस व्यापारिक कौशल पर हम मंत्रमुग्ध थे। समुद्री किनारे से किनारे पर बसे कन्याकुमारी शहर का सुन्दर नजारा दिखायी पड़ रहा था। 

स्नान करने के बाद वापस लौटे तो मछलियों का बाजार दिखाई पड़ा। अब इतनी बड़ी मछलियां हमने नहीं देखीं थीं। मैदानी इलाके का निवासी भला समुद्री मछलियाें के बारे क्या जाने। समुद्र में नहाने के बाद वापस लौटे तो बाथरूम में भी नहाना आवश्यक था।
9 बज रहे थे। कुछ लोग कन्याकुमारी के स्थानीय बाजार में खरीदारी करने निकल गये। साड़ियों के बाजार की पहली वरीयता थी। अधिकांश मित्र तमिलनाडु की साड़ियों और उन्हें बहुत ही सलीके से पहन कर सड़क पर चल रही महिलाओं पर फ़िदा हो गये थे। पता नहीं फिर कन्याकुमारी आने का अवसर मिले न मिले। मैं ठहरा घुमक्कड़। मेरा कोई ठिकाना नहीं कब फिर से ʺकन्या–कुमारीʺ की ओर मुँह कर दूँ। सो साड़ियों का मोह छोड़कर दो साथियों के साथ कन्याकुमारी मंदिर में दर्शन के लिए निकल पड़ा। यहाँ एक अजीब अनुभव हुआ जिसके बारे में हमें पहले नहीं पता था। पुरूष दर्शनार्थियों को कमर के ऊपर के सारे वस्त्रों को उतार कर व कन्धे पर रखकर दर्शन करना था। महिलाओं को इससे छूट है। बाकी सामान को काउण्टर पर जमा किया जा सकता है। चप्पलों को चाहें तो स्टैण्ड में जमा कर दें या भगवान भरोसे छोड़ दें।
कन्याकुमारी का मंदिर एक प्राचीन मंदिर है। महाभारत में इस बात का उल्लेख मिलता है कि बलराम तथा अर्जुन ने इस मंदिर तक की यात्रा की थी। दक्षिण भारत की परम्परानुसार ही इस मंदिर के चारों तरफ ऊँची चारदीवारी बनी हुई है। चारदीवारी का पूर्वी द्वार प्रायः बन्द रहता है अतः उत्तरी द्वार से ही दर्शनार्थियों को प्रवेश मिलता है। गर्भगृह में देवी की पूर्वाभिमुखी मनमोहक प्रतिमा प्रतिष्ठित है। देवी के दायें हाथ में एक माला है जबकि बायां हाथ जंघा से लगा हुआ है। देवी को पिसे हुए आभू्षण चढ़ाये जाते हैं। नवरात्र के अलावा वैशाख महीने में भी यहाँ एक मेले का आयोजन होता है। यह मंदिर ʺअरूलमिगु भगवती अम्मन मंदिरʺ के नाम से जाना जाता है।

बाकी साथी अभी भी खरीदारी करने और खाना खाने में व्यस्त थे जबकि हम तीन विवेकानन्द रॉक की ओर ले जाने वाले बोट स्टैण्ड की ओर चल पड़े। 9.45 बजे हमने स्टीमर का टिकट ले लिया लेकिन इंतजार की लम्बी लाइन के चलते उस पार पहुँचने में 10.30 बज गए। भागते हुए हमने विवेकानन्द मेमोरियल में भ्रमण किया और तुरंत वापस हो गये। विवेकानन्द रॉक कन्याकुमारी अन्तरीप से लगभग 2.5 किमी की दूरी पर पूर्व दिशा में अवस्थित है। यहाँ दो चट्टानें अवस्थित हैं जिसमें से बड़ी चट्टान आकार में लगभग 3 एकड़ की है और समुद्रतल से 55 फीट की ऊँचाई पर है। इस चट्टान पर एक ʺपादमुद्राʺ बनी हुई जिसे देवी के पदचिह्न कहा जाता है। इसी के नाम पर इस चट्टान को ʺश्रीपाद चट्टानʺ भी कहा जाता है। 1892 में जब स्वामी विवेकानन्द जी यहाँ पहुँचे तो समुद्र में तैरकर इस चट्टान पर पहुँचे और तीन दिनों तक बिना अन्न–जल के साधना करते रहे। बाद में 1970 में उनकी स्मृति में इस चट्टान पर विवेकानन्द स्मारक का निर्माण किया गया। स्मारक के मेहराबनुमा प्रवेश द्वार पर स्वामी जी की सवा आठ फीट ऊँची प्रतिमा परिव्राजक मुद्रा में स्थापित की गयी है। इस बड़ी चट्टान के पास ही एक छोटी चट्टान भी है जिस पर तमिल ग्रन्थ ʺतिरूक्कुरूलʺ की रचना करने वाले महान कवि तिरूवल्लुवर की विशाल प्रतिमा स्थापित की गयी है। इस प्रतिमा की ऊँचाई 95 फीट है जिसे 38 फीट ऊँचे एक चबूतरे पर स्थापित किया गया है। पत्थर से बनी इस प्रतिमा का वजन 2000 टन है।
इस बीच बाकी साथियों के फोन आ रहे थे। जल्दी से स्टीमर पकड़कर हम वापस भागे। जल्दी–जल्दी में नाश्ता किया और होटल भागे। होटल में हमारे सभी साथी ʺबैग एण्ड बैगेजʺ बस के पास खड़े होकर हमारा ही इन्तज़ार कर रहे थे।
12 बजे हम कन्याकुमारी से महाबलिपुरम् के लिए रवाना हो गए। बिल्कुल निश्चिन्त होकर,क्योंकि लगभग 665 किलोमीटर की यात्रा करनी थी। अनुमान था कि रात के 1 या 2 तो बज ही जायेंगे,तो हमने तय कर लिया कि खाते–पीते और तमिलनाडु को देखते हुए बस चलते रहना है।

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