गर्मी की शुरूआत हो चुकी है। सूखे मौसम में सूरज तपन फैला रहा है। इधर मन में मरोड़ उठी है और घोड़ा तैयार होने लगा है– पूरब की यात्रा के लिए। मेरे लिए पूरब अर्थात बिहार। बिहार– जहाँ के लोग कभी पूरब की ओर जाते थे– ʺरोजी–रोटी की तलाश में।ʺ उनके लिए पूरब अर्थात् बंगाल। वो पूरब बड़ा ही भयावना था। वहाँ की औरतें पश्चिम वालों को ʺतोताʺ बना कर पिंजरे में कैद कर लेती थीं। उस अनजाने पूरब की कहानियों ने ʺविदेशियाʺ को जन्म दिया–
ʺपिया मोरे मति जा,हो पूरुबवा।ʺ
लेकिन इधर ऐसा कोई डर नहीं है।
ʺपिया निपटे नादानवां ए सजनी।ʺ
ये वाली दशा अब नहीं है। तोता बनने के चांस न के बराबर हैं। इसलिए कोई ʺप्यारी सुंदरीʺ बाधा डालने वाली नहीं है। घोड़े अर्थात दो पहियों वाली बाइक पर बैग बाँध दिये गये हैं। छ्पि कर भागने की कोई जरूरत नहीं है।
ʺपिया मोरे मति जा,हो पूरुबवा।ʺ
लेकिन इधर ऐसा कोई डर नहीं है।
ʺपिया निपटे नादानवां ए सजनी।ʺ
ये वाली दशा अब नहीं है। तोता बनने के चांस न के बराबर हैं। इसलिए कोई ʺप्यारी सुंदरीʺ बाधा डालने वाली नहीं है। घोड़े अर्थात दो पहियों वाली बाइक पर बैग बाँध दिये गये हैं। छ्पि कर भागने की कोई जरूरत नहीं है।
सुबह के 6 बजे,बलिया जिले से पूरब की ओर जाने वाली खाली सड़कों पर दुपहिया फर्राटे भर रही है। आज के 10 साल पहले की कमरतोड़ सड़कें अब मक्खन सी चिकनी हो गयी हैं,चौड़ी हो गयी हैं। लेकिन उन पुरानी यादों को जेहन में ताजा रखने के इंतजाम भी जगह–जगह रख छोड़े गये हैं। कुछ ठीक–ठाक गड्ढे बचा कर रखे गये हैं। मसलन,रेलवे क्रासिंगों पर,सड़क किनारे बसी बस्तियों के आस–पास ,बाजारों के बीच में,वगैरह,वगैरह। ऐसा कैसे हो सकता है कि हम अपने इतिहास को भूल जायें।
मेरे जिले बलिया को,माँ गंगा और घाघरा,दोनों का असीम प्रेम प्राप्त है। दोनों,दो तरफ से इस क्षेत्र को घेरकर बैठी हुई हैं। बिना इनको लाँघे इस पार से उस पार जाना असंभव है। इन दोनों के आपस का प्रेम भी इस धरती को छोड़ते ही अपनी चरम परिणति को प्राप्त कर लेता है। दोनों एक दूसरे में समाहित हो जाती हैं। यूपी–बिहार बॉर्डर पर इन दोनों नदियों पर पुल बने हुए हैं। वैसे इन पुलों के रास्ते बॉर्डर पार करना इन नदियों को पार करने से कम मुश्किल नहीं है। गंगा को पार करने वाले बक्सर पुल के क्षतिग्रस्त होने के कारण बड़ी गाड़ियों का आवागमन प्रतिबंधित है। अब यह क्षतिग्रस्त कब से है,यह सोचने के लिए दिमाग पर काफी जोर डालना पड़ेगा और यह बनेगा कब तक,यह तो दिमाग की चीर–फाड़ कर देने पर भी पता नहीं चलेगा। पुल के दोनों तरफ कम ऊँचाई वाले बैरियर लगा दिये गये हैं। छोटी गाड़ी की छत पर अगर बैग रखें हों तो उसका भी पार जाना असंभव है। एकमात्र विकल्प बचता है घाघरा पर बना मांझीघाट पुल। खैर,मेरी बाइक के लिए ऐसी कोई बाधा नहीं है। यह तो किसी भी रास्ते जा सकती है लेकिन मैंने मांझीघाट वाले रास्ते को चुना है। अब जिले का पड़ोसी राज्य से सम्पर्क का एक ही रास्ता है तो इस रास्ते की क्या दशा हो सकती है,सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। पुल के कुछ किमी पहले से ही सड़क,ट्रकों के बोझ से कराह उठती है। बाढ़ का क्षेत्र होने की वजह से आस–पास की जमीन से सड़क की ऊँचाई काफी अधिक है। इस कारण सड़क पर जगह सीमित ही है।
मैं 8 बजे के आस–पास सड़क के गड्ढों से जूझता हुआ मांझीघाट पुल की तरफ बढ़ता हूँ। लेकिन पुल तक पहुँचने के पहले ही पता चलता है कि मेरे बगैर ही एक ʺलव–स्टोरीʺ परवान चढ़ चुकी है। दो ट्रक वालों को प्रेम हो गया है। वो भी इतना कि दोनों आमने–सामने से आकर चिपक गये हैं। बाकी ट्रक वाले इस अलौकिक परिघटना के साक्षी बनकर मोक्ष प्राप्ति जैसा अनुभव कर रहे हैं। दोनों तरफ से भयंकर लाइन लग गयी है। लगभग 10 किमी की। और इन दो लाइनों के बगल से चारपहिया गाड़ी वाले अपनी तीसरी लाइन लगाने की फिराक में हैं। इस चक्कर में उनके छोटे पहिये सड़क किनारे के मुक्तिप्रदायक गड्ढों में फँस चुके हैं। जाहिर है,चौथी लाइन लगाने की जुर्रत बाइक वाले ही कर सकते हैं।
ऐसे ही माहाैल में,मैं हाथों में अपनी बाइक का हैण्डल पकड़े,पैरों पर उसे सॅंभालते हुए,मन में ʺशराबरहितʺ बिहार में प्रवेश करने की हसरत लिये,एक अवांछ्ति तत्व सा,भारी–भरकम ट्रकों के बीच टपक पड़ता हूँ। ʺबाइक को कोई बाधा नहीं रोक सकतीʺ,इस सार्वभौम नियम का अनुसरण करते हुए मैं ट्रकों के बीच की गलियों में घुस जाता हूँ। आधे घण्टे के धक्कम–धक्का योग के बाद इस 10 किमी लम्बे जाम से मुझे मोक्ष की प्राप्ति होती है। साथ ही पुल पर पहुँच कर माँ घाघरा के दर्शन होते हैं और पुल पार करने के बाद एक दुकान पर छन रही जलेबियों के। मतलब अब पेट को भी कुछ भौतिक सुख की प्राप्ति होगी। जिह्वा को जलेबियों का स्वाद चखाने के बाद मैं आगे बढ़ता हूँ। थोड़ा सा ही आगे बढ़ने पर रिविलगंज कस्बा मिलता है। यह बिहार की दूसरी सबसे पुरानी नगर पंचायत है। अर्थात मैं अभी से बिहार के इतिहास में पहुँच गया हूँ। क्योंकि शाम को मुझे बिहार की सबसे पुरानी नगर पंचायत में पहुँचना है और उसके बाद सदियों पुराने नगरों में।
अब मैं छपरा से आगे की ओर बढ़ चलता हूँ। जगह–जगह ʺघनी आबादीʺ के बोर्ड लगे हुए हैं। वास्तव में घनी आबादी है। बिल्कुल सड़क किनारे जगह–जगह मानव बस्तियाँ बसी हुई हैं। बाइक की स्पीड सुबह की तुलना में काफी कम हो गयी है। मैं समय और दूरी का औसत निकालता हूँ। सुबह की तुलना में एवरेज काफी कम हो गया है। सुबह जब मैं अपने जिले में था तो ʺकिलोमीटर प्रति घण्टेʺ का अनुपात काफी अच्छा था लेकिन वह अब घटता जा रहा है। यह शायद ʺघनी आबादीʺ का ʺसाइड इफेक्टʺ है। सुबह में ʺसुबहʺ का टाइम होने से सड़कें खाली थीं। वैसे भी बिहार में घनी आबादी कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
सघन मानव बसाव की दृष्टि से बिहार,भारतीय इतिहास का सर्वाधिक प्राचीन अधिवसित क्षेत्र रहा है। हिमालय से निकलने वाली सदानीरा नदियों ने प्राचीन भारत के सत्ता केन्द्र को बिहार में ही स्थापित रखा। राजगीर एवं वैशाली के अलावा कुछ अन्य स्थानों से भी हड़प्पा कालीन अवशेष प्राप्त हुए। वैदिक कालीन ग्रन्थाें में भी बिहार का उल्लेख मिलता है।
आज भी बिहार भारत के सर्वाधिक घने बसे राज्यों में से एक है। गंगा की शस्य श्यामला धरती ने आरम्भ से ही घनी आबादी को अपनी ओर आकर्षित किया है। और आज भी अधिकांश जनसंख्या प्राचीन काल की ही तरह कृषि पर ही आश्रित है। इस समय गेहूँ की फसल खेतों में तैयार खड़ी है। काफी कुछ तो कट कर घरों में जा चुकी है। गेहूँ की मड़ाई भयंकर गर्द पैदा कर रही है। तेज पछुआ हवा धूल और मड़ाई की गर्द को अपने साथ उड़ाकर अंधड़ का रूप दे रही है। और इसी अंधड़ से मुकाबला करता मैं बिहार की सड़कों पर बाइक दौड़ा रहा हूँ।
कहा जाता है कि बौद्ध विहारों की अत्यधिक संख्या के कारण इस क्षेत्र का नाम बिहार पड़ गया। प्रारंभ में ब्रिटिशकाल में बंगाल,बिहार और उड़ीसा को मिलाकर एक प्रशासनिक इकाई का निर्माण किया गया जिसे बंगाल प्रेसीडेंसी का नाम दिया गया। बिहार दिसम्बर 1911 तक बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा बना रहा। 22 मार्च 1912 को बिहार और उड़ीसा को बंगाल प्रेसीडेंसी से अलग कर संयुक्त रूप से एक नये प्रान्त का गठन किया गया। 1936 में उड़ीसा को भी बिहार से पृथक कर दिया गया। 1956 में राज्यों के पुनर्गठन के समय बिहार के पुरूलिया जिले को बंगाल में मिला दिया गया। 15 नवम्बर 2000 को पुनः बिहार का विभाजन करके झारखण्ड राज्य का गठन किया गया।
मुझे छपरा को बाई पास करते हुए छपरा–मुजफ्फरपुर हाइवे पर चलना है। क्योंकि मुझे बिहार के इतिहास में प्रवेश करना है। छपरा–मुजफ्फरपुर सड़क पर,छपरा से लगभग 50 किमी की दूरी पर और मुजफ्फरपुर से 30 किमी पहले,मानिकपुर नामक स्थान पर,पटना–बेतिया–बगहा वाली सड़क क्राॅस करती है। और इन दोनों सड़कों के बीच के एक कोने में,बिहार का सर्वाधिक प्राचीन इतिहास दबा पड़ा है।
छपरा से 47 किमी की दूरी पर बखरा नामक छोटा सा कस्बा है। यहाँ से दाहिनी तरफ एक सड़क निकलती है। यहाँ मुझे पता चलता है कि यह सड़क वैशाली की ओर जाती है। मेरा दिल बल्लियों उछलने लगता है। मैं सदियों पहले के समय में प्रवेश करने वाला हूँ। लेकिन उसके पहले सुबह से पेट में खौलती जलेबियों को समोसे और कोल्ड–ड्रिंक की मदद से ठण्डा करता हूँ। थोड़ा सा ही आगे बढ़ने पर दाहिने हाथ एक बर्मीज मंदिर दिखता है। मैं उसके प्रवेश द्वार पर खड़े आदमी से अन्दर जाकर दर्शन करने की इजाजत माँगता हूँ। वो मुझे तुरंत ही पहचान जाता है–
ʺयहाँ आपके देखने लायक कुछ नहीं है। वो देखने वाली जगह 1 किमी आगे गाँव में है।ʺ
मैं उसका मंतव्य समझकर आगे बढ़ जाता हूँ। वस्तुतः यह बर्मीज लोगों के लिए बना हुआ छोटा सा मंदिर है जिसके पीछे बड़ा सा रेस्ट हाउस जैसा दिखायी पड़ रहा है। फिर यहाँ मेरे देखने लायक कोई चीज भला कैसे मिल सकती है। मैं भी कितना बेकार सा आदमी हूँ।
10.30 बज रहे हैं। मैं आगे बढ़ता हूँ। थोड़ा ही आगे इस सड़क में से दाहिनी ओर एक और शाखा निकलती है। मैं रास्ता पूछकर उधर मुड़ जाता हूँ। दूर से ही पता चल जाता है कि पास में पुरातत्व विभाग की कोई साइट है। बिल्कुल पास पहुँचने के पहले ही एक लड़का मुझे हाथ देकर रोक लेता है। एक बगीचे में बने स्टैण्ड में मेरी बाइक खड़ी हो जाती है। यह कोल्हुआ गाँव है। यहाँ एक परिसर में एक बड़ा स्तूप और उसके एक किनारे सुप्रसिद्ध स्तम्भ,महान सम्राट अशोक का जयघोष करता खड़ा है।
यह बिहार के इतिहास का सर्वाधिक प्राचीन स्थल है।
मुख्य परिसर की ओर जाते रास्ते के दोनों तरफ छोटी–छोटी दुकानें हैं जिनमें से 90 प्रतिशत बन्द हैं। वास्तविकता यह है कि उनके ग्राहक भी उपलब्ध नहीं हैं। संभवतः यह ऑफ सीजन है। तपती दोपहरी में कौन बेवकूफ यहाँ आयेगा। दो शहरी ग्राहकों के पीछे वो दुकानदार हाथ धोकर पीछे पड़े हैं। मुझमें उन्हें कोई रूचि नहीं है। मेरी शक्ल से ही उन्हें पता चल जाता है कि यह बेकार आदमी है। मैं भी निश्चिन्त होकर,टिकट लेकर अन्दर प्रवेश कर जाता हूँ।
स्तूप परिसर बिल्कुल खाली है। जो भी दो–चार लोग हैं,पेड़ के नीचे बेंचों पर आराम फरमा रहे हैं। एक–दो लैला–मजनूं भी हैं जो पीछे के हिस्से में झुरमुटों में छ्पिे बैठे हैं। तेज धूप है। अशोक की रखी गयी ईंटें तेज धूप में चमक रही हैं।
गले में कैमरा और पीठ पर बैग टाँगे मैं इस ऐतिहासिक स्थल के चक्कर लगाने शुरू करता हूँ।
अगला भाग ः वैशाली–इतिहास का गौरव (पहला भाग)
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
मेरे जिले बलिया को,माँ गंगा और घाघरा,दोनों का असीम प्रेम प्राप्त है। दोनों,दो तरफ से इस क्षेत्र को घेरकर बैठी हुई हैं। बिना इनको लाँघे इस पार से उस पार जाना असंभव है। इन दोनों के आपस का प्रेम भी इस धरती को छोड़ते ही अपनी चरम परिणति को प्राप्त कर लेता है। दोनों एक दूसरे में समाहित हो जाती हैं। यूपी–बिहार बॉर्डर पर इन दोनों नदियों पर पुल बने हुए हैं। वैसे इन पुलों के रास्ते बॉर्डर पार करना इन नदियों को पार करने से कम मुश्किल नहीं है। गंगा को पार करने वाले बक्सर पुल के क्षतिग्रस्त होने के कारण बड़ी गाड़ियों का आवागमन प्रतिबंधित है। अब यह क्षतिग्रस्त कब से है,यह सोचने के लिए दिमाग पर काफी जोर डालना पड़ेगा और यह बनेगा कब तक,यह तो दिमाग की चीर–फाड़ कर देने पर भी पता नहीं चलेगा। पुल के दोनों तरफ कम ऊँचाई वाले बैरियर लगा दिये गये हैं। छोटी गाड़ी की छत पर अगर बैग रखें हों तो उसका भी पार जाना असंभव है। एकमात्र विकल्प बचता है घाघरा पर बना मांझीघाट पुल। खैर,मेरी बाइक के लिए ऐसी कोई बाधा नहीं है। यह तो किसी भी रास्ते जा सकती है लेकिन मैंने मांझीघाट वाले रास्ते को चुना है। अब जिले का पड़ोसी राज्य से सम्पर्क का एक ही रास्ता है तो इस रास्ते की क्या दशा हो सकती है,सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। पुल के कुछ किमी पहले से ही सड़क,ट्रकों के बोझ से कराह उठती है। बाढ़ का क्षेत्र होने की वजह से आस–पास की जमीन से सड़क की ऊँचाई काफी अधिक है। इस कारण सड़क पर जगह सीमित ही है।
मैं 8 बजे के आस–पास सड़क के गड्ढों से जूझता हुआ मांझीघाट पुल की तरफ बढ़ता हूँ। लेकिन पुल तक पहुँचने के पहले ही पता चलता है कि मेरे बगैर ही एक ʺलव–स्टोरीʺ परवान चढ़ चुकी है। दो ट्रक वालों को प्रेम हो गया है। वो भी इतना कि दोनों आमने–सामने से आकर चिपक गये हैं। बाकी ट्रक वाले इस अलौकिक परिघटना के साक्षी बनकर मोक्ष प्राप्ति जैसा अनुभव कर रहे हैं। दोनों तरफ से भयंकर लाइन लग गयी है। लगभग 10 किमी की। और इन दो लाइनों के बगल से चारपहिया गाड़ी वाले अपनी तीसरी लाइन लगाने की फिराक में हैं। इस चक्कर में उनके छोटे पहिये सड़क किनारे के मुक्तिप्रदायक गड्ढों में फँस चुके हैं। जाहिर है,चौथी लाइन लगाने की जुर्रत बाइक वाले ही कर सकते हैं।
ऐसे ही माहाैल में,मैं हाथों में अपनी बाइक का हैण्डल पकड़े,पैरों पर उसे सॅंभालते हुए,मन में ʺशराबरहितʺ बिहार में प्रवेश करने की हसरत लिये,एक अवांछ्ति तत्व सा,भारी–भरकम ट्रकों के बीच टपक पड़ता हूँ। ʺबाइक को कोई बाधा नहीं रोक सकतीʺ,इस सार्वभौम नियम का अनुसरण करते हुए मैं ट्रकों के बीच की गलियों में घुस जाता हूँ। आधे घण्टे के धक्कम–धक्का योग के बाद इस 10 किमी लम्बे जाम से मुझे मोक्ष की प्राप्ति होती है। साथ ही पुल पर पहुँच कर माँ घाघरा के दर्शन होते हैं और पुल पार करने के बाद एक दुकान पर छन रही जलेबियों के। मतलब अब पेट को भी कुछ भौतिक सुख की प्राप्ति होगी। जिह्वा को जलेबियों का स्वाद चखाने के बाद मैं आगे बढ़ता हूँ। थोड़ा सा ही आगे बढ़ने पर रिविलगंज कस्बा मिलता है। यह बिहार की दूसरी सबसे पुरानी नगर पंचायत है। अर्थात मैं अभी से बिहार के इतिहास में पहुँच गया हूँ। क्योंकि शाम को मुझे बिहार की सबसे पुरानी नगर पंचायत में पहुँचना है और उसके बाद सदियों पुराने नगरों में।
अब मैं छपरा से आगे की ओर बढ़ चलता हूँ। जगह–जगह ʺघनी आबादीʺ के बोर्ड लगे हुए हैं। वास्तव में घनी आबादी है। बिल्कुल सड़क किनारे जगह–जगह मानव बस्तियाँ बसी हुई हैं। बाइक की स्पीड सुबह की तुलना में काफी कम हो गयी है। मैं समय और दूरी का औसत निकालता हूँ। सुबह की तुलना में एवरेज काफी कम हो गया है। सुबह जब मैं अपने जिले में था तो ʺकिलोमीटर प्रति घण्टेʺ का अनुपात काफी अच्छा था लेकिन वह अब घटता जा रहा है। यह शायद ʺघनी आबादीʺ का ʺसाइड इफेक्टʺ है। सुबह में ʺसुबहʺ का टाइम होने से सड़कें खाली थीं। वैसे भी बिहार में घनी आबादी कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
सघन मानव बसाव की दृष्टि से बिहार,भारतीय इतिहास का सर्वाधिक प्राचीन अधिवसित क्षेत्र रहा है। हिमालय से निकलने वाली सदानीरा नदियों ने प्राचीन भारत के सत्ता केन्द्र को बिहार में ही स्थापित रखा। राजगीर एवं वैशाली के अलावा कुछ अन्य स्थानों से भी हड़प्पा कालीन अवशेष प्राप्त हुए। वैदिक कालीन ग्रन्थाें में भी बिहार का उल्लेख मिलता है।
आज भी बिहार भारत के सर्वाधिक घने बसे राज्यों में से एक है। गंगा की शस्य श्यामला धरती ने आरम्भ से ही घनी आबादी को अपनी ओर आकर्षित किया है। और आज भी अधिकांश जनसंख्या प्राचीन काल की ही तरह कृषि पर ही आश्रित है। इस समय गेहूँ की फसल खेतों में तैयार खड़ी है। काफी कुछ तो कट कर घरों में जा चुकी है। गेहूँ की मड़ाई भयंकर गर्द पैदा कर रही है। तेज पछुआ हवा धूल और मड़ाई की गर्द को अपने साथ उड़ाकर अंधड़ का रूप दे रही है। और इसी अंधड़ से मुकाबला करता मैं बिहार की सड़कों पर बाइक दौड़ा रहा हूँ।
कहा जाता है कि बौद्ध विहारों की अत्यधिक संख्या के कारण इस क्षेत्र का नाम बिहार पड़ गया। प्रारंभ में ब्रिटिशकाल में बंगाल,बिहार और उड़ीसा को मिलाकर एक प्रशासनिक इकाई का निर्माण किया गया जिसे बंगाल प्रेसीडेंसी का नाम दिया गया। बिहार दिसम्बर 1911 तक बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा बना रहा। 22 मार्च 1912 को बिहार और उड़ीसा को बंगाल प्रेसीडेंसी से अलग कर संयुक्त रूप से एक नये प्रान्त का गठन किया गया। 1936 में उड़ीसा को भी बिहार से पृथक कर दिया गया। 1956 में राज्यों के पुनर्गठन के समय बिहार के पुरूलिया जिले को बंगाल में मिला दिया गया। 15 नवम्बर 2000 को पुनः बिहार का विभाजन करके झारखण्ड राज्य का गठन किया गया।
मुझे छपरा को बाई पास करते हुए छपरा–मुजफ्फरपुर हाइवे पर चलना है। क्योंकि मुझे बिहार के इतिहास में प्रवेश करना है। छपरा–मुजफ्फरपुर सड़क पर,छपरा से लगभग 50 किमी की दूरी पर और मुजफ्फरपुर से 30 किमी पहले,मानिकपुर नामक स्थान पर,पटना–बेतिया–बगहा वाली सड़क क्राॅस करती है। और इन दोनों सड़कों के बीच के एक कोने में,बिहार का सर्वाधिक प्राचीन इतिहास दबा पड़ा है।
छपरा से 47 किमी की दूरी पर बखरा नामक छोटा सा कस्बा है। यहाँ से दाहिनी तरफ एक सड़क निकलती है। यहाँ मुझे पता चलता है कि यह सड़क वैशाली की ओर जाती है। मेरा दिल बल्लियों उछलने लगता है। मैं सदियों पहले के समय में प्रवेश करने वाला हूँ। लेकिन उसके पहले सुबह से पेट में खौलती जलेबियों को समोसे और कोल्ड–ड्रिंक की मदद से ठण्डा करता हूँ। थोड़ा सा ही आगे बढ़ने पर दाहिने हाथ एक बर्मीज मंदिर दिखता है। मैं उसके प्रवेश द्वार पर खड़े आदमी से अन्दर जाकर दर्शन करने की इजाजत माँगता हूँ। वो मुझे तुरंत ही पहचान जाता है–
ʺयहाँ आपके देखने लायक कुछ नहीं है। वो देखने वाली जगह 1 किमी आगे गाँव में है।ʺ
मैं उसका मंतव्य समझकर आगे बढ़ जाता हूँ। वस्तुतः यह बर्मीज लोगों के लिए बना हुआ छोटा सा मंदिर है जिसके पीछे बड़ा सा रेस्ट हाउस जैसा दिखायी पड़ रहा है। फिर यहाँ मेरे देखने लायक कोई चीज भला कैसे मिल सकती है। मैं भी कितना बेकार सा आदमी हूँ।
10.30 बज रहे हैं। मैं आगे बढ़ता हूँ। थोड़ा ही आगे इस सड़क में से दाहिनी ओर एक और शाखा निकलती है। मैं रास्ता पूछकर उधर मुड़ जाता हूँ। दूर से ही पता चल जाता है कि पास में पुरातत्व विभाग की कोई साइट है। बिल्कुल पास पहुँचने के पहले ही एक लड़का मुझे हाथ देकर रोक लेता है। एक बगीचे में बने स्टैण्ड में मेरी बाइक खड़ी हो जाती है। यह कोल्हुआ गाँव है। यहाँ एक परिसर में एक बड़ा स्तूप और उसके एक किनारे सुप्रसिद्ध स्तम्भ,महान सम्राट अशोक का जयघोष करता खड़ा है।
यह बिहार के इतिहास का सर्वाधिक प्राचीन स्थल है।
मुख्य परिसर की ओर जाते रास्ते के दोनों तरफ छोटी–छोटी दुकानें हैं जिनमें से 90 प्रतिशत बन्द हैं। वास्तविकता यह है कि उनके ग्राहक भी उपलब्ध नहीं हैं। संभवतः यह ऑफ सीजन है। तपती दोपहरी में कौन बेवकूफ यहाँ आयेगा। दो शहरी ग्राहकों के पीछे वो दुकानदार हाथ धोकर पीछे पड़े हैं। मुझमें उन्हें कोई रूचि नहीं है। मेरी शक्ल से ही उन्हें पता चल जाता है कि यह बेकार आदमी है। मैं भी निश्चिन्त होकर,टिकट लेकर अन्दर प्रवेश कर जाता हूँ।
स्तूप परिसर बिल्कुल खाली है। जो भी दो–चार लोग हैं,पेड़ के नीचे बेंचों पर आराम फरमा रहे हैं। एक–दो लैला–मजनूं भी हैं जो पीछे के हिस्से में झुरमुटों में छ्पिे बैठे हैं। तेज धूप है। अशोक की रखी गयी ईंटें तेज धूप में चमक रही हैं।
गले में कैमरा और पीठ पर बैग टाँगे मैं इस ऐतिहासिक स्थल के चक्कर लगाने शुरू करता हूँ।
अगला भाग ः वैशाली–इतिहास का गौरव (पहला भाग)
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
दिलचस्प किस्सागोई।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद जी,ब्लॉग पर आने के लिए। आगे भी आते रहिए।
Deleteशानदार विवरण सहित यात्रा वृतांत
ReplyDeleteधन्यवाद एवं आभार अभिषेक जी।
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