1
घूमने की चाहत तो बचपन से ही खून में समायी हुई है लेकिन हवा में परवाज़ की ख़्वाहिश भी मन में कहीं न कहीं जरूर दबी हुई थी। सो मौका पाते ही किसी आज़ाद परिंदे की भाँति,एक दिन पंख फड़फड़ाते हुए खुले आसमान में निकल पड़ा। मौका था फरवरी के महीने में दक्षिण भारत के कुछ प्रसिद्ध स्थानों की यात्रा का। प्लानिंग तो बहुत पहले ही हो चुकी थी क्योंकि कुछ मित्रों ने काफी दबाव बना रखा था। तय हुआ था कि तिरूमला के बालाजी के दर्शन किये जाएंगे। दूरी काफी बैठ रही थी। जाँच पड़ताल की गयी तो पता चला कि कम से कम चार दिन तो केवल ट्रेन को ही समर्पित करने पड़ेंगे।
समय का अभाव था तो कुछ मित्रों ने प्रस्ताव रखा कि उड़ कर चला जाय। बजट तो अनुमति नहीं प्रदान कर रहा था लेकिन बहुमत का फैसला था सो मानना पड़ा। क्योंकि लोकतंत्र हमारी रग–रग में बसा है। नहीं तो अपने बजट में तो ट्रेन की स्लीपर बोगी ही फिट बैठती है।
घूमने की चाहत तो बचपन से ही खून में समायी हुई है लेकिन हवा में परवाज़ की ख़्वाहिश भी मन में कहीं न कहीं जरूर दबी हुई थी। सो मौका पाते ही किसी आज़ाद परिंदे की भाँति,एक दिन पंख फड़फड़ाते हुए खुले आसमान में निकल पड़ा। मौका था फरवरी के महीने में दक्षिण भारत के कुछ प्रसिद्ध स्थानों की यात्रा का। प्लानिंग तो बहुत पहले ही हो चुकी थी क्योंकि कुछ मित्रों ने काफी दबाव बना रखा था। तय हुआ था कि तिरूमला के बालाजी के दर्शन किये जाएंगे। दूरी काफी बैठ रही थी। जाँच पड़ताल की गयी तो पता चला कि कम से कम चार दिन तो केवल ट्रेन को ही समर्पित करने पड़ेंगे।
समय का अभाव था तो कुछ मित्रों ने प्रस्ताव रखा कि उड़ कर चला जाय। बजट तो अनुमति नहीं प्रदान कर रहा था लेकिन बहुमत का फैसला था सो मानना पड़ा। क्योंकि लोकतंत्र हमारी रग–रग में बसा है। नहीं तो अपने बजट में तो ट्रेन की स्लीपर बोगी ही फिट बैठती है।
जोश इतना था कि एक ही झटके में 14 भेड़–बकरियों का झुण्ड उड़ने के लिए तैयार हो गया और इण्डिगो की फ्लाइट में वाराणसी से चेन्नई की सीटें बुक कर ली गयीं। किसी ने यह सोचने की जहमत नहीं उठाई कि वाराणसी से तिरूपति के लिए सीधी फ्लाइट भी जाती होगी। भेड़–बकरियाँ सीधी ही तो चलती हैं– इधर–उधर देखने की फुर्सत किसे होती है। खैर अब तो बुकिंग हो चुकी थी। जानने वाले जानते हाेंगे कि प्लेन का टिकट कैंसिल करने पर कितने पैसे वापस होते हैं। सो उसकी भी अब कोई गुंजाइश नहीं थी। किसी तरह तो एक बार फ्लाइट के टिकट बुक हुए थे। उसे कैंसिल कर दुबारा बुक करने के लिए सवा सेर का कलेजा चाहिए। अब जब फ्लाइट क्लियर हो ही गयी तो दिमाग में आया कि घर से वाराणसी और चेन्नई से तिरूपति जाने के लिये भी टिकट चाहिए। चेन्नई से तो मुम्बई जाने वाली मुम्बई मेल में रेनीगुण्टा तक के लिए स्लीपर के टिकट मिल गये लेकिन घर के नजदीकी स्टेशन से वाराणसी के लिए जाने वाली चौरी–चौरा एक्सप्रेस में सीटें आर.ए.सी. हो गयीं। ये भी कोई बुरा नहीं था। कम से कम बैठने की तो जगह मिलेगी। इसी दौरान यह भी पता चला कि रेनीगुण्टा ही तिरूपति का नजदीकी हवाई अड्डा है। वैसे अब पता चलने से कुछ बनने–बिगड़ने वाला नहीं था।
तय समय पर यात्रा आरम्भ हो गयी। झुण्ड में से कुछ प्राणी एक दिन पहले ही वाराणसी पहुँच गये। ये थोड़े बुद्धिमान किस्म के थे। अवशेष आठ प्राणियों को रात के लगभग 1 बजे चौरी–चौरा एक्सप्रेस पकड़नी थी। शाम को रेलवे का मैसेज आया तो पता चला कि हमारी आर.ए.सी. की सीटें कन्फर्म हो चुकी हैं। अब तो मजे ही मजे ही थे। भीषण ठण्ड को देखते हुए घरवालों ने भेड़–बकरियों को ट्रेन के समय से काफी पहले ही घर से हाँक दिया। थोड़ा ठण्ड का मजा भी तो ले लो। देहात के छोटे से स्टेशन पर भी उस रात काफी भीड़ थी। समझते देर न लगी कि यह कुम्भ का पुण्यलाभ लूटने वालों की भीड़ है। डर भी लगा कि इतने लोग मिलकर तो हमारी ट्रेन काे भी लूट सकते हैं। तभी पता चला कि कोई मेला स्पेशल ट्रेन भी आ रही है तो मन को असीम शांति की प्राप्ति हुई।
कुछ देर बाद ही मेला स्पेशल ट्रेन का शुभागमन हुआ। कुम्भ का पुण्य लूटने वालों में अपनी सीट लूटने के लिए भगदड़ मच गयी। पर शायद उनमें से किसी ने पूर्व जन्म में इतना पुण्य नहीं किया था उनके लिए ट्रेन रूपी स्वर्ग का दरवाजा खुलता। अन्दर जगह पा चुकी पुण्यात्माओं ने दरवाजों में सींखचे लगा रखे थे। भला स्वर्ग–सुख में भी कोई हिस्सा बाँटता है क्याǃ प्लेटफार्म पर जमी भीड़ पापात्माओं की तरह बन्दरकूद मचा कर नीचे गिरती–पड़ती रही। ट्रेन की किसी भी बोगी का दरवाजा नहीं खुलना था सो नहीं खुला। और इधर हम सीना तानकर पैर फैलाये हुए बैठे रहे कि ऐसी स्पेशल ट्रेन हमारे ठेंगे पर। हम तो एक्सप्रेस ट्रेन की स्लीपर बोगी में सोकर ही जायेंगे। लेकिन यह दृश्य देखने के बाद,अपने भविष्य की कल्पना कर,अपना दिल भी बैठने लगा। अब कहाँ की शांति और कहाँ का चैन।
कुछ देर बाद ही मेला स्पेशल ट्रेन का शुभागमन हुआ। कुम्भ का पुण्य लूटने वालों में अपनी सीट लूटने के लिए भगदड़ मच गयी। पर शायद उनमें से किसी ने पूर्व जन्म में इतना पुण्य नहीं किया था उनके लिए ट्रेन रूपी स्वर्ग का दरवाजा खुलता। अन्दर जगह पा चुकी पुण्यात्माओं ने दरवाजों में सींखचे लगा रखे थे। भला स्वर्ग–सुख में भी कोई हिस्सा बाँटता है क्याǃ प्लेटफार्म पर जमी भीड़ पापात्माओं की तरह बन्दरकूद मचा कर नीचे गिरती–पड़ती रही। ट्रेन की किसी भी बोगी का दरवाजा नहीं खुलना था सो नहीं खुला। और इधर हम सीना तानकर पैर फैलाये हुए बैठे रहे कि ऐसी स्पेशल ट्रेन हमारे ठेंगे पर। हम तो एक्सप्रेस ट्रेन की स्लीपर बोगी में सोकर ही जायेंगे। लेकिन यह दृश्य देखने के बाद,अपने भविष्य की कल्पना कर,अपना दिल भी बैठने लगा। अब कहाँ की शांति और कहाँ का चैन।
फिर भी मन में तसल्ली थी कि यार हम तो इतने अभागे नहीं हो सकते। पिछले जन्म में जरूर कोई न कोई छोटा–मोटा पुण्य का काम किया होगा। हमारे लिये जरूर कोई न कोई गेट खुलेगा। मन ही मन चारों हाथ–पैर जोड़कर आसमान के सारे देवताओं की प्रार्थना शुरू हुई।
इस बीच एक और घटना घटित हुई। एक साथी को कुछ विशेष जरूरत पड़ गयी थी सो वह दो स्टेशन पहले ही ट्रेन पकड़ने के लिए पहुँच गया था। उस भाई से फोन पर चर्चा हुई–
"मैं फलां एसी बोगी में सवार हो गया हूँ।"
सुनकर गुस्से के मारे खून खौल उठा। बेवकूफ अपनी रिजर्व सीट छोड़कर ए.सी. का मजा ले रहा है। इधर अपनी सीट टी.टी.ई. ने किसी और के हवाले कर दी तो हो गयी यात्रा।
फोन पर फिर से आपातकालीन चर्चा हुई–
"इतनी चालाकी किसलिये की भाई?"
"किसी भी बोगी का गेट नहीं खुल रहा है। प्लेटफार्म की दूसरी तरफ अर्थात उल्टी साइड में आ जाना। मैं सिटकनी खोल दूँगा।"
मानो कोई प्रेमिका रात में अपने किसी बिछड़े प्रेमी को बुला रही हो। अब तो अपने हाथों के सारे तोते–मैना उड़ गये।
लेकिन थोड़ी गहराई से सोचा तो लगा कि देवताओं ने शायद हमारी प्रार्थना,आंशिक रूप से ही सही,कबूल कर ली थी। दुर्भाग्य बस इतना सा था कि उस स्टेशन पर भी,जहाँ हमारा मित्र पहुँचा था,एक्सप्रेस ट्रेन की किसी बोगी का गेट नहीं खुला। हम अधिकांश भारतीयों की मनःस्थिति शायद एक जैसी ही होती है। हम जगह पा लिये तो ठीक। तुमको नहीं पाने देंगे। देवताओं की कृपा ये कि ट्रेन की एक एसी बोगी से कुछ जी.आर.पी. के जवान उतरे और उस मित्र को उसमें घुसने का अवसर मिल गया। बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा।
इस बीच एक और घटना घटित हुई। एक साथी को कुछ विशेष जरूरत पड़ गयी थी सो वह दो स्टेशन पहले ही ट्रेन पकड़ने के लिए पहुँच गया था। उस भाई से फोन पर चर्चा हुई–
"मैं फलां एसी बोगी में सवार हो गया हूँ।"
सुनकर गुस्से के मारे खून खौल उठा। बेवकूफ अपनी रिजर्व सीट छोड़कर ए.सी. का मजा ले रहा है। इधर अपनी सीट टी.टी.ई. ने किसी और के हवाले कर दी तो हो गयी यात्रा।
फोन पर फिर से आपातकालीन चर्चा हुई–
"इतनी चालाकी किसलिये की भाई?"
"किसी भी बोगी का गेट नहीं खुल रहा है। प्लेटफार्म की दूसरी तरफ अर्थात उल्टी साइड में आ जाना। मैं सिटकनी खोल दूँगा।"
मानो कोई प्रेमिका रात में अपने किसी बिछड़े प्रेमी को बुला रही हो। अब तो अपने हाथों के सारे तोते–मैना उड़ गये।
लेकिन थोड़ी गहराई से सोचा तो लगा कि देवताओं ने शायद हमारी प्रार्थना,आंशिक रूप से ही सही,कबूल कर ली थी। दुर्भाग्य बस इतना सा था कि उस स्टेशन पर भी,जहाँ हमारा मित्र पहुँचा था,एक्सप्रेस ट्रेन की किसी बोगी का गेट नहीं खुला। हम अधिकांश भारतीयों की मनःस्थिति शायद एक जैसी ही होती है। हम जगह पा लिये तो ठीक। तुमको नहीं पाने देंगे। देवताओं की कृपा ये कि ट्रेन की एक एसी बोगी से कुछ जी.आर.पी. के जवान उतरे और उस मित्र को उसमें घुसने का अवसर मिल गया। बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा।
हम हक्के–बक्के रह गये। अगर ट्रेन में नहीं चढ़ पाये तो हमारी फ्लाइट का क्या होगाǃ रात के डेढ़ बजे इस ठण्ड में कौन सी गाड़ी मिलेगीǃ भीषण ठण्ड के मौसम में ठण्डे पानी से नहाने के बाद जिस तरह मुँह से बेसाख्ता हनुमान चालीसा निकल पड़ता है,उसी तरह से हमारे मन में भी रामनाम की लहरियाँ गूँजने लगीं। ताकि प्रभु की कृपा हो जाय और हमारी बोगी का दरवाजा खुल जाय।
अपने नियत समय से केवल आधे घण्टे की देरी से ट्रेन की सीटी सुनाई पड़ी लेकिन उसके भी आधे घण्टे पहले हम चोरों की तरह से सामने वाले प्लेटफार्म पर जा लगे थे। ताकि ट्रेन के आते ही पिछले दरवाजे से "मसक समान रूप धरकर" हम भी स्लीपर की बजाय एसी बोगी में प्रवेश कर सकें। ट्रेन के आते ही प्लेटफार्म पर कुम्भ की भगदड़ फिर से मच गयी लेकिन हमने मसक रूप धर लिया था सो अन्दर से सिटकनी खुलते ही चोर दरवाजे से दाखिल हो गये। कुम्भ का लोभी कोई भी प्राणी गाड़ी में प्रवेश नहीं कर सका लेकिन हम अपने पूर्व जन्म के पुण्यों के बल पर दरवाजे के उस पार पहुँच चुके थे। लेकिन इस स्वर्ग के स्वर्गिक दृश्य अभी सामने आने बाकी थे। यहाँ भी कम जूतमपैजार नहीं थी। यहाँ भी वेटिंग चल रही थी और हमें "शरीर को पवित्र करने वाले" शौचालयों के ठीक सामने जगह मिल सकी। अहोभाग्य हमारेǃ मुझे एक पुरानी रेलयात्रा की याद आ रही थी जब कि सुबह के समय निपटने के लिए पानी नहीं मिल सका था और हमें शुष्क पद्धति से निपटान करना पड़ा। लेकिन यहाँ तो दोनाें शौचालय दोनों तरफ से बाहें फैलाये बेसब्री से हमारा स्वागत कर रहे थे। हमारा पुण्यलाभ साक्षात दर्शन दे रहा था।
अर्द्धरात्रि की साधना शुरू हो चुकी थी। कुछ देर तक तो गैलरी में जगह बनाने के लिए रस्साकशी होती रही। फिर नींद के नशे में शरीर ने झूला झूलना शुरू कर दिया। गैलरी की दीवारों और गैलरी में भरे मानव शरीरों से हमारा शरीर टकराने लगा। आहुतियाँ पड़ने लगी थीं। टी.टी.ई. के लिए गालियों से भरे मंत्र पढ़े जाने लगे। इस शुभ मौके पर अगर उस बिचारे से मुलाकात हो जाती तो यहीं कुंभस्नान करा दिया जाता। लेकिन शायद टी.टी.ई. को इस यज्ञ का आभास पहले ही चुका था सो वह प्रसाद लेने भी नहीं आया। ब्रह्ममुहुर्त में इस यज्ञ की पूर्णाहुति होनी थी। निद्रा में झूलते शरीर को सँभालना कठिन हो रहा था। वैसे आठ भेड़–बकरियों का मिमियाना निद्रा को भी दूर भगा रहा था। चूँकि ये सारे प्राणी एक ही झुण्ड के थे तो शोरगुल पर भी सर्वाधिक हक इन्हीं का बनता था। अकेले वाले जीव तो चुपचाप पड़े हुए थे।
फिर भी यज्ञ तो पूर्ण होना ही था। गाड़ी सुबह के 4.35 पर पहुँचनी थी। एक घण्टे देर से ही पहुँची तो हमें कोई गिला–शिकवा नहीं था। यज्ञ पूर्ण हुआ। रात के सम–वातावरण और ए.सी. बोगी के "वात–अनुकूलन" ने सारे गिले शिकवे दूर कर दिये थे। ट्रेन से उतरने के लिए वाराणसी कैण्ट से बेहतर हमें वाराणसी सिटी ही लगा तो वहीं उतर गये। कैण्ट पर अत्यधिक भीड़ होगी। सिटी बिल्कुल खाली था। आराम से चाय पीने और नित्यकर्म करने की पूरी छूट मिली। नहाने की कोई खास आवश्यकता थी नहीं। तो घर से लाये हुए छप्पन भाेग का नाश्ता किया गया। इस छप्पन भाेग का सदुपयोग करना भी अति आवश्यक था। क्या पता हवाई अड्डे की मशीनें इसे बम समझकर कहीं बवाल न खड़ा कर दें। स्टेशन से बाहर निकलकर हमने एक "जादू–गाड़ी" जिसे मैजिक भी कहते हैं,को अपना सारा बुद्धि–विवेक लगाकर किराये पर लिया और वाराणसी के बाबतपुर हवाई अड्डे के लिए चल पड़े।
2
आज यात्रा दूसरे दिन में प्रवेश कर चुकी थी। जानकारी के लिए बता दें कि इस झुण्ड की ये यात्रा केवल इसीलिए खास नहीं थी कि ये हवाई यात्रा थी,वरन इसलिए भी इन्होंने पहले कभी हवाई अड्डा देखा ही नहीं था। सो हवाई अड्डे पर पहुँचते ही माहौल "सेल्फियाना" हो गया। अभी कुछ प्राणी अवशेष थे जो कि कल शाम को ही काशी की धरती पर पदार्पण कर चुके थे तो सेल्फियों का दौर चलने के लिये अभी पर्याप्त समय था।
एरोप्लेन ऊर्फ हवाई जहाज अभी अपने दड़बे में था। कुछ विदेशज प्राणी भी हवाई अड्डे के अन्दर प्रवेश कर रहे थे। उन्हें देखकर पूर्वी उत्तर प्रदेश ये लट्ठमार जीव आज गदगद थे कि आज हम विदेशियों के साथ यात्रा करेंगे। अलबत्ता अपन तो एक बार खजुराहो जाते समय ट्रेन की स्लीपर बोगी में विदेशी यात्रियों के साथ "देह–रगड़" यात्रा कर चुके थे और अंग्रेजी के दो–चार शब्द बोलकर उनकी मदद भी कर चुके थे तो कुछ सेलेब्रिटी वाली फीलिंग तो मन में पहले से ही थी।
ज्यों–ज्यों समय गुजर रहा था,देर से आने वाले प्राणियों पर गुस्सा आ रहा था। वैसे 9 बजे के आस–पास सारे प्राणी इकट्ठे हो गये। और जब 14 के झुण्ड ने मुख्य द्वार से प्रवेश किया तो पता चला कि हवाई अड्डे के अन्दर इतना बड़ा झुण्ड दूसरा कोई नहीं था। प्रवेश द्वार पर टिकट की माँग हुई और ऐन वक्त पर इण्डिगो के मोबाइल एप्प ने धोखा दे दिया। वो तो टिकटों की एक प्रिण्टेड कापी थी जिसके सहारे अन्दर घुसने का रास्ता साफ हुआ। यात्रा की शुरूआत ही गलत हुई थी सो हर कदम पर डर लग रहा था। मन में यह भी आशंका आई कि एप्प की तरह कहीं रास्ते में प्लेन ने ही धोखा दे दिया तो? लेकिन ऐसा होना संभव नहीं था क्योंकि हमने पूर्वजन्म में ढेर सारे पुण्य संचित कर रखे थे।
अगला चरण था लगेज की जाँच और बोर्डिंग पास प्राप्त करना। दोनों ही काम आसानी से हो गये। इतना बड़ा झुण्ड कहीं भी इकट्ठे खड़ा होता तो हवाई अड्डे के कर्मचारियों के लिए मुसीबत खड़ी हो जा रही थी तो उन्होंने आगे बढ़कर जल्दी–जल्दी सारी औपचारिकताएं पूरी करायीं। टिकट की बुकिंग तो वाराणसी से चेन्नई तक के लिये नान–स्टाप फ्लाइट की,की गयी थी। लेकिन किन्हीं वजहों से इण्डिगो ने इसे "वन स्टाप" में बदल दिया था और हमारी फ्लाइट वाराणसी से दिल्ली और फिर दिल्ली से चेन्नई हो गयी थी। इस फैसले पर हमारे झुण्ड में काफी खुशी थी। सहमति तो यहाँ तक थी कि विमान चार–छः और स्टाप ले ले और चेन्नई पहुँचने से पहले हमें पूरा भारत घुमा डाले,हमें कोई आपत्ति नहीं होगी। लेकिन पूर्वजन्म में शायद हमने इतने भी अधिक पुण्य नहीं किये थे। सो हमें इतने से ही संतोष करना पड़ा। अब अगला चरण था हमारे केबिन बैग और शरीर की जाँच। हमारे सारे मोबाइल,पर्स वगैरह और यहाँ तक कि जैकेट भी उतरवा लिये गये। डर लगा कि कहीं पैण्ट–शर्ट भी न उतारने पड़े। लेकिन इसकी नौबत नहीं आयी। सब कुछ स्कैन होने के बाद अब हम हवा की सवारी करने के काबिल हो चुके थे। कुछ ही मिनटों के अन्दर हम विमान के अन्दर थे। खूबसूरत इन्टीरियर,खूबसूरत सीटें और सबसे खूबसूरत एयर होस्टेस,जिन्हें हम पहली बार देख रहे थे,हमारे सामने थीं। ये देशी घुमक्कड़ सपनों की दुनिया में थे।
निर्धारित समयानुसार हमारी फ्लाइट सुबह के 10.20 बजे रवाना हुई। हमारे हवाई जहाज ने जब दौड़ना शुरू किया तो पहले तो लगा कि जैसे हम हवाई जहाज में नहीं वरन किसी इक्के की सवारी कर रहे हैं लेकिन जैसे ही सिर चकराना शुरू हुआ,कानों में सनसनाहट शुरू हुई और शरीर ने हिलना बन्द कर दिया,समझ में आ गया कि हवाई जहाज ने जमीन छोड़ दिया है। अब अपनी जान पूर्व जन्म के पुण्यों के भरोसे ही थी। किसी एक ने भी अधिक पाप किये होंगे तो सबको ले डूबेगा।
वैसे अब शहर सिकुड़ रहा था। खेत और मकान छोटे होते जा रहे थे। और आदमी तो गायब ही हो गया। अब आदमी केवल हवाई जहाज के अन्दर ही दिख रहे थे। कुछ ही मिनटों के बाद खिड़कियों से बाहर रूई के बड़े बड़े गट्ठर दिखायी पड़ने लगे ठीक उसी तरह से जैसे हॉलीवुड की बहुचर्चित फिल्म "अवतार" में पहाड़ भी हवा में लटकते दिखायी देते हैं। जल्दी ही समझ में आ गया कि ये रूई के गट्ठर न होकर बादल हैं। विमान वाराणसी से दिल्ली जा रहा था और मैं बायीं तरफ बैठा था तो दायीं तरफ के दृश्य नहीं देख सका। दायीं तरफ की खिड़कियों से हिमालय की बर्फ की ढकी चोटियां साफ दिखायी पड़ रही थीं। अलौकिक नजारा था। वैसे काफी ऊँचाई पर चले जाने के बाद यही महसूस हो रहा था कि हमारा विमान ठहरा हुआ है। क्योंकि गति भी सापेक्ष होती है। विमान में गति तो बहुत थी लेकिन ट्रेन के बाहर दिखते पेड़ों की तरह से यहाँ विमान के बाहर ऐसा कुछ नहीं था जिसके सापेक्ष गति महसूस हो सके।
दिल्ली में हमारे पहुँचने का समय तो 12.05 बजे था लेकिन जब हमारे विमान की स्पीड साढ़े ग्यारह बजे ही काफी धीमी हो गयी तो लगा कि किसी स्पेशल ट्रेन की तरह यह भी "बिफोर टाइम" पहुँचेगा लेकिन धीरे–धीरे नई दिल्ली हवाई अड्डे के टर्मिनल 1 पर लैण्ड करने और हमारे बाहर निकलने में वास्तविक समय पूरा हो गया। दिल्ली से चेन्नई की हमारी फ्लाइट शाम के 4.20 बजे थी तो अभी बाहर निकल कर खाना खाने के लिये पर्याप्त समय था। क्योंकि उड़ते जहाज में खाने–पीने की चीजों के रेट इतने थे कि हमारे झुण्ड ने फ्री में मिलने वाले एकाध गिलास पानी के अलावा और किसी चीज के बारे में सोचने की हिम्मत ही नहीं की।
हमारी चेन्नई की फ्लाइट टर्मिनल 2 से थी तो फ्री के कूपन के सहारे बस द्वारा हम टी1 से टी2 पहुँचे। अब तक हम हवाई यात्रा के लिए अनजान न होकर पुराने मँजे हुए यात्री बन चुके थे। लगभग तीन घण्टे की रोमांचक यात्रा के बाद हम चेन्नई एयर पोर्ट पहुँचे। हमारी यह फ्लाइट भी समय से काफी पहले चेन्नई के आसमान में पहुँच गयी और विमान काफी देर तक आसमान में ही चक्कर काटता रहा। चेन्नई में शाम के 7.15 बजे तक जब हमारी फ्लाइट पहुँची तो शाम का धुँधलका गहराने लगा था। बत्तियां जल चुकी थीं। और आसमान से दिखता जगमगाता चेन्नई ऐसा दिख रहा था मानो आज दीवाली की रात हो।
अगला भाग ः बालाजी दर्शन
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. जब मैं उड़ चला
2. बालाजी दर्शन
3. जय वेंकटेश्वर
4. तिरूमला टु मदुरई
5. मदुरई
6. रामेश्वरम
7. कन्याकुमारी
8. महाबलिपुरम
फिर भी यज्ञ तो पूर्ण होना ही था। गाड़ी सुबह के 4.35 पर पहुँचनी थी। एक घण्टे देर से ही पहुँची तो हमें कोई गिला–शिकवा नहीं था। यज्ञ पूर्ण हुआ। रात के सम–वातावरण और ए.सी. बोगी के "वात–अनुकूलन" ने सारे गिले शिकवे दूर कर दिये थे। ट्रेन से उतरने के लिए वाराणसी कैण्ट से बेहतर हमें वाराणसी सिटी ही लगा तो वहीं उतर गये। कैण्ट पर अत्यधिक भीड़ होगी। सिटी बिल्कुल खाली था। आराम से चाय पीने और नित्यकर्म करने की पूरी छूट मिली। नहाने की कोई खास आवश्यकता थी नहीं। तो घर से लाये हुए छप्पन भाेग का नाश्ता किया गया। इस छप्पन भाेग का सदुपयोग करना भी अति आवश्यक था। क्या पता हवाई अड्डे की मशीनें इसे बम समझकर कहीं बवाल न खड़ा कर दें। स्टेशन से बाहर निकलकर हमने एक "जादू–गाड़ी" जिसे मैजिक भी कहते हैं,को अपना सारा बुद्धि–विवेक लगाकर किराये पर लिया और वाराणसी के बाबतपुर हवाई अड्डे के लिए चल पड़े।
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आज यात्रा दूसरे दिन में प्रवेश कर चुकी थी। जानकारी के लिए बता दें कि इस झुण्ड की ये यात्रा केवल इसीलिए खास नहीं थी कि ये हवाई यात्रा थी,वरन इसलिए भी इन्होंने पहले कभी हवाई अड्डा देखा ही नहीं था। सो हवाई अड्डे पर पहुँचते ही माहौल "सेल्फियाना" हो गया। अभी कुछ प्राणी अवशेष थे जो कि कल शाम को ही काशी की धरती पर पदार्पण कर चुके थे तो सेल्फियों का दौर चलने के लिये अभी पर्याप्त समय था।
एरोप्लेन ऊर्फ हवाई जहाज अभी अपने दड़बे में था। कुछ विदेशज प्राणी भी हवाई अड्डे के अन्दर प्रवेश कर रहे थे। उन्हें देखकर पूर्वी उत्तर प्रदेश ये लट्ठमार जीव आज गदगद थे कि आज हम विदेशियों के साथ यात्रा करेंगे। अलबत्ता अपन तो एक बार खजुराहो जाते समय ट्रेन की स्लीपर बोगी में विदेशी यात्रियों के साथ "देह–रगड़" यात्रा कर चुके थे और अंग्रेजी के दो–चार शब्द बोलकर उनकी मदद भी कर चुके थे तो कुछ सेलेब्रिटी वाली फीलिंग तो मन में पहले से ही थी।
ज्यों–ज्यों समय गुजर रहा था,देर से आने वाले प्राणियों पर गुस्सा आ रहा था। वैसे 9 बजे के आस–पास सारे प्राणी इकट्ठे हो गये। और जब 14 के झुण्ड ने मुख्य द्वार से प्रवेश किया तो पता चला कि हवाई अड्डे के अन्दर इतना बड़ा झुण्ड दूसरा कोई नहीं था। प्रवेश द्वार पर टिकट की माँग हुई और ऐन वक्त पर इण्डिगो के मोबाइल एप्प ने धोखा दे दिया। वो तो टिकटों की एक प्रिण्टेड कापी थी जिसके सहारे अन्दर घुसने का रास्ता साफ हुआ। यात्रा की शुरूआत ही गलत हुई थी सो हर कदम पर डर लग रहा था। मन में यह भी आशंका आई कि एप्प की तरह कहीं रास्ते में प्लेन ने ही धोखा दे दिया तो? लेकिन ऐसा होना संभव नहीं था क्योंकि हमने पूर्वजन्म में ढेर सारे पुण्य संचित कर रखे थे।
अगला चरण था लगेज की जाँच और बोर्डिंग पास प्राप्त करना। दोनों ही काम आसानी से हो गये। इतना बड़ा झुण्ड कहीं भी इकट्ठे खड़ा होता तो हवाई अड्डे के कर्मचारियों के लिए मुसीबत खड़ी हो जा रही थी तो उन्होंने आगे बढ़कर जल्दी–जल्दी सारी औपचारिकताएं पूरी करायीं। टिकट की बुकिंग तो वाराणसी से चेन्नई तक के लिये नान–स्टाप फ्लाइट की,की गयी थी। लेकिन किन्हीं वजहों से इण्डिगो ने इसे "वन स्टाप" में बदल दिया था और हमारी फ्लाइट वाराणसी से दिल्ली और फिर दिल्ली से चेन्नई हो गयी थी। इस फैसले पर हमारे झुण्ड में काफी खुशी थी। सहमति तो यहाँ तक थी कि विमान चार–छः और स्टाप ले ले और चेन्नई पहुँचने से पहले हमें पूरा भारत घुमा डाले,हमें कोई आपत्ति नहीं होगी। लेकिन पूर्वजन्म में शायद हमने इतने भी अधिक पुण्य नहीं किये थे। सो हमें इतने से ही संतोष करना पड़ा। अब अगला चरण था हमारे केबिन बैग और शरीर की जाँच। हमारे सारे मोबाइल,पर्स वगैरह और यहाँ तक कि जैकेट भी उतरवा लिये गये। डर लगा कि कहीं पैण्ट–शर्ट भी न उतारने पड़े। लेकिन इसकी नौबत नहीं आयी। सब कुछ स्कैन होने के बाद अब हम हवा की सवारी करने के काबिल हो चुके थे। कुछ ही मिनटों के अन्दर हम विमान के अन्दर थे। खूबसूरत इन्टीरियर,खूबसूरत सीटें और सबसे खूबसूरत एयर होस्टेस,जिन्हें हम पहली बार देख रहे थे,हमारे सामने थीं। ये देशी घुमक्कड़ सपनों की दुनिया में थे।
निर्धारित समयानुसार हमारी फ्लाइट सुबह के 10.20 बजे रवाना हुई। हमारे हवाई जहाज ने जब दौड़ना शुरू किया तो पहले तो लगा कि जैसे हम हवाई जहाज में नहीं वरन किसी इक्के की सवारी कर रहे हैं लेकिन जैसे ही सिर चकराना शुरू हुआ,कानों में सनसनाहट शुरू हुई और शरीर ने हिलना बन्द कर दिया,समझ में आ गया कि हवाई जहाज ने जमीन छोड़ दिया है। अब अपनी जान पूर्व जन्म के पुण्यों के भरोसे ही थी। किसी एक ने भी अधिक पाप किये होंगे तो सबको ले डूबेगा।
वैसे अब शहर सिकुड़ रहा था। खेत और मकान छोटे होते जा रहे थे। और आदमी तो गायब ही हो गया। अब आदमी केवल हवाई जहाज के अन्दर ही दिख रहे थे। कुछ ही मिनटों के बाद खिड़कियों से बाहर रूई के बड़े बड़े गट्ठर दिखायी पड़ने लगे ठीक उसी तरह से जैसे हॉलीवुड की बहुचर्चित फिल्म "अवतार" में पहाड़ भी हवा में लटकते दिखायी देते हैं। जल्दी ही समझ में आ गया कि ये रूई के गट्ठर न होकर बादल हैं। विमान वाराणसी से दिल्ली जा रहा था और मैं बायीं तरफ बैठा था तो दायीं तरफ के दृश्य नहीं देख सका। दायीं तरफ की खिड़कियों से हिमालय की बर्फ की ढकी चोटियां साफ दिखायी पड़ रही थीं। अलौकिक नजारा था। वैसे काफी ऊँचाई पर चले जाने के बाद यही महसूस हो रहा था कि हमारा विमान ठहरा हुआ है। क्योंकि गति भी सापेक्ष होती है। विमान में गति तो बहुत थी लेकिन ट्रेन के बाहर दिखते पेड़ों की तरह से यहाँ विमान के बाहर ऐसा कुछ नहीं था जिसके सापेक्ष गति महसूस हो सके।
दिल्ली में हमारे पहुँचने का समय तो 12.05 बजे था लेकिन जब हमारे विमान की स्पीड साढ़े ग्यारह बजे ही काफी धीमी हो गयी तो लगा कि किसी स्पेशल ट्रेन की तरह यह भी "बिफोर टाइम" पहुँचेगा लेकिन धीरे–धीरे नई दिल्ली हवाई अड्डे के टर्मिनल 1 पर लैण्ड करने और हमारे बाहर निकलने में वास्तविक समय पूरा हो गया। दिल्ली से चेन्नई की हमारी फ्लाइट शाम के 4.20 बजे थी तो अभी बाहर निकल कर खाना खाने के लिये पर्याप्त समय था। क्योंकि उड़ते जहाज में खाने–पीने की चीजों के रेट इतने थे कि हमारे झुण्ड ने फ्री में मिलने वाले एकाध गिलास पानी के अलावा और किसी चीज के बारे में सोचने की हिम्मत ही नहीं की।
हमारी चेन्नई की फ्लाइट टर्मिनल 2 से थी तो फ्री के कूपन के सहारे बस द्वारा हम टी1 से टी2 पहुँचे। अब तक हम हवाई यात्रा के लिए अनजान न होकर पुराने मँजे हुए यात्री बन चुके थे। लगभग तीन घण्टे की रोमांचक यात्रा के बाद हम चेन्नई एयर पोर्ट पहुँचे। हमारी यह फ्लाइट भी समय से काफी पहले चेन्नई के आसमान में पहुँच गयी और विमान काफी देर तक आसमान में ही चक्कर काटता रहा। चेन्नई में शाम के 7.15 बजे तक जब हमारी फ्लाइट पहुँची तो शाम का धुँधलका गहराने लगा था। बत्तियां जल चुकी थीं। और आसमान से दिखता जगमगाता चेन्नई ऐसा दिख रहा था मानो आज दीवाली की रात हो।
अगला भाग ः बालाजी दर्शन
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. जब मैं उड़ चला
2. बालाजी दर्शन
3. जय वेंकटेश्वर
4. तिरूमला टु मदुरई
5. मदुरई
6. रामेश्वरम
7. कन्याकुमारी
8. महाबलिपुरम
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