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Friday, March 15, 2019

विश्व विरासत शहर–अहमदाबाद (दूसरा भाग)

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भद्र किले से 10 मिनट से कुछ कम की ही पैदल दूरी पर सीदी सैयद मस्जिद बनी हुई है। मैं रास्ता पूछता हुआ वहाँ पहुँच गया। सीदी सैयद की मस्जिद में बनी जालियां काफी प्रसिद्ध हैं। सीदी सैयद की मस्जिद एक छोटी सी इमारत है। लेकिन इसके खम्भे और इसकी दीवारों में बनी जालियाँ सर्वाधिक दर्शनीय हैं। मैं जब यहाँ पहुँचा तो इन जालियों का कद्रदान कोई नहीं था। एक मौलवी साहब मस्जिद में सफाई कर रहे थे।
सीदी सैयद की मस्जिद का निर्माण 1572 में सीदी सैयद नामक एक अबीसिनियन (वर्तमान इथियोपिया) मूल के एक व्यक्ति द्वारा कराया गया था।
वह अबीसीनिया से यमन होते हुए गुजरात आया और सुल्तान नसीरूद्दीन मुहम्मद तृतीय की सेवा में लग गया। उसने गुजरात सल्तनत के अंतिम शासक मुजफ्फर शाह तृतीय के शासन के दौरान इस शानदार इमारत का निर्माण कराया। यह मस्जिद पत्थर की बनी अपनी बारीक जालियों के लिए प्रसिद्ध है। इमारत में कुल 10 जालियां हैं जिनमें से 7 में वृक्ष एवं पत्तियों की नक्काशी की गयी है जबकि 3 खुली जालियों के रूप में हैं। मस्जिद में 12 स्तम्भ एवं 15 गुम्बद बने हुए हैं। जीवनरूपी वृक्ष को प्रदर्शित करती ये जालियां वर्तमान में अहमदाबाद शहर की पहचान बन चुकी हैं। ब्रिटिश काल में इस इमारत का उपयोग सरकारी कार्यालय के रूप में किया जाता रहा। 1880 में इमारत की जालियों की डिजाइन को पेपर पर उतारा गया और लंदन व न्यूयार्क के संग्रहालयों के लिए दो लकड़ी के मॉडल भी बनाए गये। इस परिसर में ही सीदी सैयद की कब्र भी बनी हुई है। मैंने भी मस्जिद की जालियों का दर्शन किया और सीधा रास्ता पकड़ते हुए आगे बढ़ गया।

थोड़ा ही आगे एक और ऐतिहासिक इमारत है– रानी रूपमती की मस्जिद। अब रानी रूपमती हैं तो मस्जिद कैसे बन गयी,पता नहीं। लेकिन दूर से एक झटके में देखकर कहीं से भी नहीं लगता कि यह कोई मुस्लिम इमारत होगी। मैं कुछ देर के लिए इस इमारत के सामने खड़ा हो गया। एक नौजवान बन्दा हाथ में कोई किताब लिये इमारत के सामने के खाली परिसर में इधर से उधर टहलते कुछ पढ़ रहा था। वह किताब मेरी समझ से बाहर की चीज थी। मैंने उस बन्दे को बचाते हुए अगल–बगल से इमारत के कई फोटो खींचे। काफी देर तक मैं इमारत में की गयी कारीगरी को देखता रहा और सोचता रहा कि रानी रूपमती ने अपने लिये महल की बजाय मस्जिद क्यों बनवायी। वैसे इस मस्जिद का निर्माण 1430-1440 के बीच सुल्तान महमूद बेगड़ा द्वारा कराया गया। मस्जिद की सबसे बड़ी विशेषता इसके ऊपर बने तीन गुम्बद व इसके स्तम्भ हैं। इसके स्तम्भों पर बारीक कारीगरी की गयी है।

रानी रूपमती की मस्जिद के बाद मेरा अगला पड़ाव था हठीसिंह जैन मंदिर। यहाँ से मंदिर की दूरी लगभग 1 किमी है तो मैंने एक ऑटो पकड़ लिया और पाँच मिनट में हठीसिंह जैन मंदिर पहुँच गया। हठीसिंह जैन मंदिर बहुत ही सुंदर तरीके से बना है और मंदिर के प्रत्येक हिस्से में सघन कारीगरी की गयी है। मुख्य मंदिर के चारों तरफ बने बरामदे भी काफी सुंदर बनाये गये हैं।
इस जैन मंदिर का निर्माण 1848 में पूर्ण हुआ। एक सम्पन्न जैन व्यापारी सेठ हठीसिंह केसरीसिंह ने इस मंदिर की नींव डाली। लेकिन 49 वर्ष की अल्पायु में निधन हो जाने के कारण मंदिर निर्माण का कार्य सम्पूर्ण नहीं हो सका। ऐसी परिस्थिति में सेठ हठीसिंह की तृतीय पत्नी सेठानी हरकुंवर ने इसकी जिम्मेदारी अपने कन्धों पर उठायी।
मंदिर की दीवारों पर की गयी नक्काशी अत्यंत आकर्षक है। मंदिर परिसर में एक 78 फीट ऊँचा स्तम्भ भी बना है जो चित्तौड़ के कीर्तिस्तम्भ की प्रतिकृति प्रतीत होता है।
मंदिर के बाहर बने जूता स्टैण्ड में जूते निकाल जब मैं अन्दर प्रवेश करने लगा तो गेट पर बैठे चौकीदार ने कैमरा देखकर फोटो खींचने से मना किया। लेकिन जब कैमरे को अंदर प्रवेश की अनुमति मिल गयी तो मैं कहाँ मानने वाला था। लेकिन वह चौकीदार भी कम नहीं था और अंदर आकर एक खम्भे के पीछे से छ्पिकर मेरी गतिविधियां देखने लगा। ये और बात है कि मैं उसकी गतिविधियों से वाकिफ हो चुका था और चोरी से कुछ फोटो खींच ही लिया।

हठीसिंह मंदिर के आस–पास अब मेरे लिए और कोई दर्शनीय स्थान नहीं था। अब मैं अहमदाबाद शहर से बाहर निकलकर कुछ दूर जाने के बारे में सोच रहा था। यह स्थान था अदालज। अदालज पहुँचने पर मेरे दो लक्ष्‍य पूरे होते। एक तो अदालज की वाव देखनी थी और दूसरे स्वामीनारायण समाज के स्वामी जी से मुलाकात भी करनी थी। स्वामी जी से फोन द्वारा सम्पर्क तो मुझसे अहमदाबाद पहुँचने के पहले दिन ही हो गया था लेकिन समयाभाव के कारण मुलाकात नहीं हो पायी। मैंने फोन से सम्पर्क कर रास्ते के बारे में जानकारी ली। पता चला कि स्वामी जी का निवास अदालज से भी कुछ आगे है। उन्होंने व्हाट्सएप के माध्यम से अपनी लोकेशन भेजी और मैं उसकी सहायता से आगे चल पड़ा। पता चला कि कोई सीधी बस उपलब्ध नहीं है। एक व्यक्ति ने ऑटो पकड़ने की सलाह दी और मैंने उसकी सलाह पर अमल किया। ऑटो वाले ने मुझे साबरमती नदी पर बने सुभाष ब्रिज तक छोड़ने का जिम्मा लिया। किराया 20 रूपये। अब बीस का पहाड़ा शुरू होने जा रहा था। मैं सुभाष ब्रिज पार कर थोड़ी देर में ऑटो से उतर गया। पता चला कि यहाँ से अदालज की ऑटो पकड़नी पड़ेगी। सो पकड़ी। आटो में बैठे एक यात्री से मैंने अपनी इच्छित जगह अर्थात स्वामी के मंदिर की जानकारी ली। उसने उस मंदिर के बारे में मुझे बिल्कुल सटीक जानकारी दी जबकि गाड़ी के ड्राइवर को उस मंदिर के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। उसने मुझे अदालज चौराहे के पास उतार दिया। बीस का पहाड़ा उसने भी पढ़ रखा था। अब मुझे स्वामी जी के आश्रम के लिए अंतिम गाड़ी पकड़नी थी। अधिक इंतजार नहीं करना पड़ा। कुछ ही मिनट में एक "जादू गाड़ी" या मैजिक मिल गयी। किराया 20 रूपये पहले ही तय कर लिया। उसने मुझे मेरी इच्छित जगह से थोड़ा सा आगे बढ़कर उतार दिया। मुझे वापस लौट कर आना पड़ा।

आश्रम परिसर में प्रवेश किया तो हनुमान जी का एक आकर्षक मंदिर दिखायी पड़ रहा था। मैंने स्वामी जी से फोन पर संपर्क किया। स्वामी जी 2 से 3 मिनट के अंदर सामने आ गये। वैसे इस बीच मुझे हनुमान जी के दर्शन करने का अवसर मिल गया। स्वामी से जब मेरी मुलाकात हुई तो लगा ही नहीं कि हम दो आभासी दुनिया के मित्रों की मुलाकात पहली बार हो रही है। स्वामी जी ने बड़े ही प्रेमपूर्वक चाय पिलायी,मंदिर के दर्शन कराये और जानकारी दी। गौशाला में ले जाकर गाय माता के दर्शन भी कराये। और तो और चारपहिया गाड़ी में बिठाकर मुझे अदालज की वाव तक छोड़ने भी आये। मैं धन्य हो गया। वैसे तो साेशल मीडिया प्रायः नकारात्मक बातों के लिये ही जाना जाता है लेकिन सोशल मीडिया का ये बहुत बड़ा सकारात्मक पक्ष था।
अदालज की वाव जब मैं पहुँचा तो वहाँ मानो जनसमुद्र हिलोरें ले रहा था। वाव के मुख्य गेट के बाहर टूरिस्ट बसों की लाइन लगी थी। वाव का इंच–इंच संभवतः अति–इतिहासप्रेमी मनुष्यों के पैरों तले रौंदा जा रहा था। कोई खम्भे के सहारे आड़ा–तिरछा हुआ जा रहा था तो कोई झरोखे में सवार था। कोई सीढ़ियों पर कब्जा किए था तो कोई छत पर। हर एक स्पॉट पर खड़े होकर फोटो खींचने के लिए लाइन लगी थी। बच्चों के स्कूलों की छुट्टी हो चुकी थी तो उनके लिए अच्छा–खासा पिकनिक का अवसर था। वैसे बच्चे,जो इस ऐतिहासिक स्थल का महत्व शायद ही समझ सकें,उछल–कूद कर ऊधम मचाये हुए थे। और इस सारे परिदृश्य को एक कोने में खड़े होकर देखता मैं,जो कि इन स्थलों की ऐतिहासिकता को समझने की गरज से आया हुआ था,इस बन्दरकूद को देखकर पूरी तरह से हताश हुआ जा रहा था।
शाम ढल रही थी तो मुझे कुछ उम्मीद थी कि वापसी की तेजी में कुछ देर में भीड़ कम हो सकती है। और कुछ देर में अंशतः ही सही लेकिन भीड़ में कुछ कमी आयी। बहुत अधिक उम्मीद नहीं थी तो एन्ड्रायड फोन के फ्रण्ट कैमरे को कोसते हुए मैं भी उसी भीड़ में जूतम–पैजार करने आगे बढ़ गया।

अदालज की वाव,अहमदाबाद के केन्द्रीय बस स्टेशन से लगभग 20 किमी की दूरी पर,कलोल की ओर जाने वाली सड़क पर स्थित है। सीढ़ीदार बावड़ियाँ गुजरात के इतिहास और परम्परा में शामिल रही हैं। पश्चिमी भारत में विशेष रूप से गुजरात और राजस्थान के अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में इस तरह की बावड़ियाँ बड़ी संख्या में बनायी गयी थीं। मानसूनी बारिश को संग्रहीत करके बाद में उपयोग किये जाने के लिए ये बावड़ियाँ अत्यन्त उपयोगी थीं। अदालज की वाव भी इसी परम्परा का हिस्सा है। साथ ही यह भी तथ्य है कि बावड़ियों के निर्माण में राजघराने की रानियों की भूमिका भी अहम रही है। अदालज की वाव का निर्माण गुजरात के बाघेला सरदार वीरसिंह की पत्नी रूदा द्वारा 1498 में कराया गया। इस तथ्य को उद्घाटित करता एक लेख वाव की पहली मंजिल पर लगा हुआ है। वाव उत्तर से दक्षिण की ओर लम्बाई में विस्तृत है जिसमें तीन ओर– पूरब,पश्चिम और दक्षिण से प्रवेश द्वार बने हुए हैं। मुख्य प्रवेश द्वार से प्रवेश करने पर सीढ़ियाँ एक चबूतरे पर उतरती हैं जहाँ से मुख्य बावड़ी में प्रवेश के लिए,उत्तर की ओर जाता गलियारा बना हुआ है। इस चबूतरे के चारों कोनों पर चार छोटे–छोटे कमरे बने हुए हैं। इन कमरों में झरोखेनुमा खिड़कियाँ बनी हुई हैं जिनमें बैठकर या खड़े होकर फोटो खिंचवाने के लिए मारामारी हो रही थी। गलियारे से होकर सीढ़ियाँ उतरते हुए वाव के कुएँ तक पहुँचा जा सकता है। उत्तर–दक्षिण लम्बाकार रूप में विस्तृत वाव के बीच में बना मुख्य कुआँ अष्टकोणीय है और 16 स्तम्भों पर आधारित है। इस कुएँ की गहराई 5 मंजिल की है। वाव के भीतरी भागों में सूर्य का प्रकाश नहीं पहुँच पाता और इस कारण इसके भीतरी भाग का तापमान बाहर की तुलना में काफी कम रहता है। वाव की दीवारों और स्तम्भाें पर फूल–पत्तियों और चिड़ियों के अलावा ज्यामितीय आकृतियाँ भी उकेरी गयी हैं। कुछ देवी–देवताओं और जानवरों की आकृतियाँ भी उत्कीर्ण की गयी हैं। वाव के प्रवेश द्वार के पास,बिल्कुन सटे हुए एक छोटा सा अम्बे माता मंदिर भी बना हुआ है।
कहा जाता है कि बाघेला सरदार वीरसिंह जिस समय इस वाव का निर्माण करा रहे थे उसी समय गुजरात सल्तनत के सुल्तान महमूद बेगड़ा ने उन पर आक्रमण किया जिसमें बाघेला सरदार की मृत्यु हो गयी। सरदार की रानी बहुत रूपवती थी। जिनपर मोहित होकर बेगड़ा ने निकाह का प्रस्ताव भेजा। इसके उत्तर में रानी ने सुल्तान के सामने इस वाव का निर्माण कार्य पूरा करने की शर्त रखी। वाव के पूर्ण हो जाने पर रानी ने इसकी ऊपरी मंजिल से छलांग लगा कर अपने प्राण त्याग दिये।
वाव के पास ही इसे बनाने वाले कारीगरों की कब्र भी बनी हुई है। महमूद बेगड़ा को शक था कि ये कारीगर ऐसी दूसरी वाव भी बना सकते हैं,सो उसने उन सभी की हत्या करवा दी।

अदालज की वाव से मैं बाहर निकला तो शाम के 5.15 हो रहे थे। चूँकि यहाँ सूरज कुछ देर से डूबता है तो अभी कुछ समय शेष था। मैंने चौराहे पर आकर गाँधीनगर की ऑटो पकड़ी। मेरा अगला लक्ष्‍य अक्षरधाम मंदिर था। एक ऑटो वाले ने मेरी मंशा जानकर मुझे अक्षरधाम मंदिर का दर्शन कराने का ऑफर देना शुरू किया। उसे शायद नहीं पता था कि ऑटोवालों पर से मेरा भरोसा बहुत पहले का उठ चुका है। 10 रूपये चुकाकर मैं स्टैण्ड पर उतरा। वहाँ से अक्षरधाम मंदिर के नाम पर एक ऑटो पकड़ी। उसने भी 10 रूपये लेकर एक सर्कल पर मुझे उतार दिया। वहाँ से फिर एक ऑटो वाले को 10 रूपये देकर अक्षरधाम मंदिर पहुँचा। यहाँ मेरी उम्मीद के विपरीत अजीब स्थिति थी। मंदिर के सामने मानो मनुष्यों का महासागर लहरा रहा था। लाइनें लगी हुई थीं। मंदिर में प्रवेश करने के लिए अलग और सामान जमा करने के लिए अलग। बैग,कैमरा सब कुछ जमा करना था। अपनी फोटो की पूजा कराने वाले भगवान को अपनी फोटो लिए जाने पर ही ऐतराज है। वैसे अलग–अलग मंदिरों में इस बारे में अलग–अलग नियम हैं। और इन नियमों पर बहस न करना ही बेहतर है। और जहाँ तक मेरी बात है,मंदिर के बाहर चप्पलों को निराश्रित छोड़ कर मंदिर में जाने वाले भक्तों का मन जिस तरह चप्पल में ही अटका रहता है वैसे ही मेरा मन कैमरे में ही अटका रहता है। तो फिर जैसे–तैसे दर्शन कर बाहर निकला। बाहर निकला तो मन में अभी उम्मीद बाकी थी कि समय मिला तो अहमदाबाद जाते समय साबरमती आश्रम के दर्शन कर लूँगा। 
लेकिन अक्षरधाम मंदिर के बाहर उधर को जाने वाला कोई भी ऑटो वाला तैयार नहीं था। पैदल की दूरी बहुत अधिक है तो मैंने तेजी से गाड़ी वालों से सम्पर्क करने का प्रयास करना शुरू कर दिया। लेकिन कोई फायदा नहीं। सारे प्रयास विफल हुए। अब मैंने टुकड़ों में पहुँचने की सोची– एक सर्कल से दूसरे सर्कल तक ऑटो में उछलते हुए। फिर भी मैंने पैदल चलना जारी रखा और आगे बढ़ता रहा। एक ऑटो वाला मिला जिसने कुछ दूर चलने के बाद 10 रूपये लेकर एक सर्कल पर मुझे उतार दिया। सोच रखा था कि ऐसे ही एक–एक सर्कल पार करते हुए आगे बढ़ता रहूँगा लेकिन ऐसा संभव नहीं था।

उस वक्त जिस चौराहे पर मैं उतरा था वहाँ दो–चार ऑटो वाले तो थे लेकिन सवारियाँ नहीं थीं। मैं हैरान–परेशान। ऑटो वाले अपनी ही भाषा बोल रहे थे। ऐसे में एक आशा की एक किरण चमकी। एक कार वाले ने मुझे ऑटो वालों से पूछताछ व बहस करते देख अपनी गाड़ी रोकी और मुझे बिठा लिया। उसे भी अहमदाबाद जाना था। मुझे बहुत अच्छा लगा। लगा कि धरती पर अभी भी इन्सानियत बाकी है। गाड़ी में अकेला आदमी था सो उसे किसी ऐसे आदमी की जरूरत थी जो उससे बातें कर सके। कुछ देर तक तो सब कुछ काफी ठीक था। परिचयों का दौर चलता रहा। कार चला रहा बन्दा धाराप्रवाह बोलता रहा। कुछ ही मिनट बाद कार वाला,रोड पर बैरियर लगाये पुलिस वालों से उलझ गया। "माँ–बहन" सब कुछ हो गयी। बात आगे बढ़ती तो पुलिस उस बन्दे के साथ मुझे भी ले जाती। मैं मन ही मन हनुमान चालीसा पढ़ने लगा।
मैं अभी चुपचाप मुँह बन्द किये,ऊहापोह में ही था कि बन्दे ने कार के लॉकर की ओर इशारा किया। मैंने उसे खोला तो शराब की बोतल निकली। अब इशारों से जो कुछ भी मुझे पता लगा वो ये कि अब मुझे गिलास में शराब डालकर उसे देनी थी। मन में सोचा चलो ये अनुभव भी ले लेते हैं। कुछ ही देर में कोबा सर्कल पार हो गया। मैं मोबाइल में मैप पर नजरें गड़ाए हुए था कि कब मुझे रास्ता मिले और मैं गाड़ी से उतरकर पिण्ड छुड़ाऊँ। कहीं भी उतरना ठीक नहीं था क्योंकि कोई साधन नहीं मिलता। इधर बन्दे पर चढ़ गयी थी। रास्ते भर पुलिस वालों को गाली देता रहा। अपने को गुजरात के किसी जिले का एस.पी. बताता रहा जो कि गाँधीनगर में किसी मंत्रालय के सचिव को,कोई चिट्ठी पहुँचाने आया था। आखिर जैसे ही गाड़ी साबरमती पर बने सुबास ब्रिज तक पहुँची और पुलिस वालों से रास्ता पूछने के लिए जैसे ही उसने गाड़ी रोकी,मैं गेट खोल कर नीचे उतर पड़ा और तेजी से अहमदाबाद की ओर भाग खड़ा हुआ। अब कहाँ की इन्सानियत। एक–डेढ़ किमी पैदल चलने के बाद एक ऑटो वाला मिला। अहमदाबाद रेलवे स्टेशन के लिए वह मुझसे 50 रूपये माँग रहा था और मैं 40 देने पर अड़ा था। तभी ऑटो वाले को रोड पर गिरी एक 10 रूपये की नोट मिल गयी। और इसके बाद वह खुशी–खुशी मुझे 40 रूपये में ही अहमदाबाद रेलवे स्टेशन तक लाया। जल्दी से होटल पहुँचकर मैंने खाना खाया और चेकआउट कर रेलवे स्टेशन पहुँच गया। रात के 11 बजे मुझे वाराणसी के लिए ओखा–वाराणसी एक्सप्रेस ट्रेन पकड़नी थी।

सीदी सैयद मस्जिद और उसकी जालियाँ–









रानी रूपमती की मस्जिद


रानी रूपमती की मस्जिद के स्तम्भ पर की गयी कारीगरी

हठीसिंह जैन मंदिर में बना स्तम्भ
हठीसिंह मंदिर का प्रवेश द्वार
हठीसिंह मंदिर का एक बरामदा
हठीसिंह मंदिर
हनुमान मंदिर
अदालज की वाव–











सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. एक्सप्रेस ऑफ साबरमती
2. रानी की वाव
3. मोढेरा का सूर्य मंदिर–समृद्ध अतीत की निशानी
4. नलसरोवर–परदेशियों का ठिकाना
5. लोथल–खण्डहर गवाह हैंǃ
6. विश्व विरासत शहर–अहमदाबाद (पहला भाग)
7. विश्व विरासत शहर–अहमदाबाद (दूसरा भाग)

2 comments:

  1. wahh sir ji.. yah dono lekh me bahut maza aaya.. magar..... अपनी फोटो की पूजा कराने वाले भगवान को अपनी फोटो लिए जाने पर ही ऐतराज है। ....yah to aapne esa tamacha mara hai ki bat hi kuch or hai... or reality bhi hai.... yah sab ban bethe bhagwan hai... aajkal yahi chalata hai... santo-mahanto ko hi bhagwan bana diya.. or dukane chala rahe hai.....

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    1. हाँ भाई यह सब पण्डे–पुजारियों की दादागिरी होती है नहीं तो भगवान को फोटो खींचे जाने से कोई ऐतराज होने से रहा। पैसे लेकर बिना लाइन के दर्शन कराने की व्यवस्था भी काफी परेशान करने वाली होती है।

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