हिमालय घुमक्कड़ों के लिए स्वर्ग है। लेकिन दिसम्बर के महीने में जमा देने वाली ठण्ड में हिमालय की यात्रा तो अवश्य हो जायेगी पर घुमक्कड़ी का आनन्द तो शायद ही आये। हाँ,समन्दर के किनारे अवश्य ही आनन्ददायक होंगे। तो इस बार भारत के पश्चिमी हिस्से की ओर। घुमक्कड़ के लिए मौसम थोड़ा सा सहायता करता है तो घुमक्कड़ी कुछ आसान हो जाती है। अब दिसम्बर के अंतिम सप्ताह में उत्तर भारत ठण्ड से सिहर रहा है तो गुजरात में ठण्ड का रंग गुलाबी है। ऐसे ही मौसम में थर्मल इनर,स्वेटर,जैकेट,मफलर और कम्बल से लदे–फदे,भारी–भरकम शरीर को ढोते हुए मैं गुजरात के अहमदाबाद की ओर चल पड़ा।
अब ऐसे शरीर को ढाेने में मैं भले ही सक्षम था,लेकिन ट्रेन शायद डर गयी। नतीजे में उसकी चाल बदल गयी। बिहार के दरभंगा से चल कर अहमदाबाद को जाने वाली "साबरमती एक्सप्रेस" को डराने वाला कोई न था– न कुहरा,न धुंध। न बारिश न बाढ़। न आँधी न तूफां। था तो सिर्फ मैं। और मेरा भी प्रभाव इतना कि जिस ट्रेन को अहमदाबाद से दरभंगा शाम 7.15 बजे पहुँच जाना चाहिए था वह पहुँची अगले दिन सुबह के समय। अगला प्रभाव ये कि जिस ट्रेन को मुझे,मेरे स्टेशन पर दिन में 11.50 बजे मिलना चाहिए था वह मु्झे मिली रात के 11.50 पर। इसका दूरगामी प्रभाव ये कि दिन रात में और रात दिन में परिवर्तित हो गये। और तात्कालिक प्रभाव ये कि मेरी एक दिन की छुट्टी बच गयी। अब पूज्य बापू के आश्रम की ओर जाने वाली ट्रेन में इतना तो गुण होना ही चाहिए– यह भी सबको समभाव से देखती है। हर यात्री को। हर स्टेशन को। किसी की उपेक्षा करना इसकी फितरत में शामिल नहीं।
अब ऐसे शरीर को ढाेने में मैं भले ही सक्षम था,लेकिन ट्रेन शायद डर गयी। नतीजे में उसकी चाल बदल गयी। बिहार के दरभंगा से चल कर अहमदाबाद को जाने वाली "साबरमती एक्सप्रेस" को डराने वाला कोई न था– न कुहरा,न धुंध। न बारिश न बाढ़। न आँधी न तूफां। था तो सिर्फ मैं। और मेरा भी प्रभाव इतना कि जिस ट्रेन को अहमदाबाद से दरभंगा शाम 7.15 बजे पहुँच जाना चाहिए था वह पहुँची अगले दिन सुबह के समय। अगला प्रभाव ये कि जिस ट्रेन को मुझे,मेरे स्टेशन पर दिन में 11.50 बजे मिलना चाहिए था वह मु्झे मिली रात के 11.50 पर। इसका दूरगामी प्रभाव ये कि दिन रात में और रात दिन में परिवर्तित हो गये। और तात्कालिक प्रभाव ये कि मेरी एक दिन की छुट्टी बच गयी। अब पूज्य बापू के आश्रम की ओर जाने वाली ट्रेन में इतना तो गुण होना ही चाहिए– यह भी सबको समभाव से देखती है। हर यात्री को। हर स्टेशन को। किसी की उपेक्षा करना इसकी फितरत में शामिल नहीं।
तो मैं "एक्सप्रेस ऑफ साबरमती" का इन्तजार करता रहा। अब अर्द्धरात्रि की शुभ वेला में यह ट्रेन ग्रामीण भारत के एक छोटे से,अँधेरे में डूबे स्टेशन पर आयी तो "खाली दिमाग" या फिर "शैतान के घर" की भाँति खाली थी। लेकिन मेरा दिमाग खाली नहीं था। यह कल्पनाओं से भरा था– और कल्पनाएं पाटन के रानी की वाव की,मोढेरा के सूर्य मंदिर की,नलसरोवर और लोथल की या फिर अहमदाबाद के इतिहास की। खाली–खाली स्टेशन पर,बिल्कुल खुले में,अर्द्धरात्रि की वेला में,खाली–खाली बैठे मनुष्य को दिसंबर के अंत की ठण्ड,हडि्डयों में वैसे ही चुभ रही थी जैसे कि बरसात के मौसम में जहरीले मच्छर अपनी दुंदुंभि बजाते हुए,म्लेच्छ सेना की भाँति आक्रमण करके,अपने रक्त–चूषक यंत्र को मांस में चुभो देते हैं। और बेबसी में खाली बैठा मनुष्य अपने ही हाथ का करारा वार अपने ही शरीर पर कर देता है।
वैसे ट्रेन के आने के काफी पहले से मैं सम्मान प्रदर्शित करते हुए खड़ा हो चुका था,यद्यपि स्टेशन पर बैठने की पर्याप्त जगह खाली थी। ट्रेन आयी तो मैं प्लेटफार्म से अपनी जगह बदलकर बिना किसी बाधा के अन्दर प्रवेश कर गया ठीक उसी तरह से जैसे कोई नेता एक राजनीतिक दल छोड़कर दूसरे में प्रवेश कर जाता है।
सीट नम्बर 19 अर्थात ऊपर की सीट और साथ ही टायलेट के पर्याप्त नजदीक भी। टायलेट के नजदीक होने के कई फायदे होते हैं। जरूरत पड़ने पर अधिक दूरी नहीं तय करनी पड़ती। भीड़–भाड़ अधिक होने पर धक्का–मुक्की भी कम करनी पड़ती है। और सबसे बड़ा फायदा ये कि वहाँ से निकलने वाली सुगंध भी आसानी व शीघ्रता से आप तक पहुँचती रहती है और अकेले सीट पर पड़े–पड़े बोर नहीं होने पाते। तो मैं भी अपनी सीट पर शीघ्रता से सवार हो गया। परिस्थितियों को देखते हुए टी.टी.ई. महोदय के आने की धुँधली उम्मीद के चलते मैं निद्रा देवी की गोद में जाने का प्रयास करने लगा। अभी आधे घण्टे भी नहीं बीते होंगे और अच्छी नींद आनी अभी शुरू ही हुई थी कि किसी चीज की तीव्र गंध नथुने से टकराई। मैं चौंककर उठा। यह गाँजे की गंध थी। इतनी तेज कि नथुने फड़फड़ाने लगे। मेरी आधी–अधूरी नींद पूरी तरह से "उड़" चुकी थी। ये मेरे शरीर से गाँजे की गंध कहाँ से आने लगीǃ कहीं क्राइम ब्रांच वाले मेरे पास गांजा रखकर मुझे पकड़ने तो नहीं आ रहे। मैं थोड़ा सचेत हुआ तो पता चला कि एक महाशय अपने पैरों को कहीं टिकाते हुए मेरी सीट को दोनों हाथों से जकड़कर त्रिशंकु की भाँति लटके हुए थे। उनका कोई सगा–सम्बन्धी ट्रेन रूपी कुंभ के मेले में कहीं बिछड़ गया था और वो संभवतः सूँघ–सूँघ कर उसे खोज रहे थे। यह गाँजे की गंध उन्हीं के मुँह से आ रही थी। वैसे उनके मुँह से निकलती शुद्ध गाँजे की तीक्ष्ण गंध,रेलवे की सुप्रसिद्ध क्रांति– बायोटॉयलेट की गंध को भी चित्त कर रही थी। सीट पर लटके उन महाशय के काँपते हाथों को देखकर स्पष्ट हो रहा था कि अगर शरीर के अन्दर गाँजे की गर्मी न होती तो वे कभी के मेरी सीट को छोड़कर "फर्शशायी" हो चुके होते और उनका शरीर ट्रेन के फर्श पर लुढ़क रहा होता।
वैसे इस हरदिल अजीज खुशबू से प्रभावित होकर जबतक मैं कोई निर्णय लेता तब तक मेरे ठीक सामने की सीट पर सोया,उन महाशय का कन्फर्म सीट वाला मित्र सारा माजरा समझ चुका था और जल्दी से उन वेटिंग सीट वाले को पकड़ कर अपनी सीट पर ले गया। थोड़ी ही देर में गाँजे की खुशबू तीव्र से भीनी में बदल गयी और अब बायोटॉयलेट की गंध से होड़ लगाती जुराबों की खुशबू नीचे से ऊपर तक फैल कर मेरी अंतरात्मा को झकझरने लगी। मुँह से गाँजे की गंध निकालते महोदय ने अब अपने जूते भी उतार दिये थे। चारों तरफ सुगंध फैल गयी थी। पता चला कि मेरे ट्रेन में चढ़ने और नींद आने के सामयिक फासले के दौरान यह ट्रेन कहीं और भी रूकी थी और इसी बीच ये दोनों 'जय–वीरू' भी गाड़ी में सवार हो गये थे। हाँ जी जय–वीरू। क्योंकि अपनी कन्फर्म सीट पर किसी वेटिंग वाले को शरण देने वाला जय या वीरू में से ही कोई हो सकता है। अब ठण्ड से बचने के लिए इन जय–वीरू ने गाँजे की अनोखी तकनीक ईजाद की थी जो कि मुझे नहीं मालूम थी। मैं समझ गया कि अब अहमदाबाद तक रास्ते भर जब–जब इनको ठण्ड सतायेगी,तब–तब ये बायो की गंध से भरे टाॅयलेट में जाकर दम लगायेंगे और फिर सीट पर वापस आकर अपने साथ पड़ाेसियों का भी मन बहकायेंगे।
तो ट्रेन अपनी स्पीड से चलती रही। सुगंधों भरी रात बीतने को आयी। जय और वीरू बारी–बारी से गाँजे का दम लगाते रहे। ट्रेन मुझे मिली ही थी 12 घण्टे लेट। अब तो इसे और भी लेट होना था। सुबह होने तक ट्रेन में इतनी भीड़ हो चुकी थी जितनी कि एक स्लीपर बोगी में होनी चाहिए। अर्थात कुछ लोग गैलरी में सामान रखकर खड़े थे तो कुछ ने एक तरफ का दरवाजा बन्द कर उसे भी "स्लीपर सेल" बना लिया था। कुछ ने तो दो सीटों के बीच के फर्श को ही स्लीपर सीट बना लिया था। और मैं इन सारी विपदाओं से निश्चिन्त होकर अपनी ऊपर की सीट पर सीमेंट के बाेरे की तरह जम चुका था। बैग में पर्याप्त मात्रा में घर से लाया गया साग–सत्तू था आज की तो कोई चिन्ता ही नहीं थी। दिन चढ़ने के साथ ही मौसम में कुछ गर्मी आ रही थी लेकिन इतनी भी नहीं कि शरीर पर लदे कपड़े उतारने की नौबत आये। हाँ जय–वीरू के दम लगाने में कुछ कमी जरूर आ गयी थी।
जाड़े का दिन छोटा होता ही है। सो सुख के दिनों की तरह से जल्दी बीत गया। वैसे जब ट्रेन में ही चलना है तो रात क्या और दिन क्याǃ दिन भी सोकर ही गुजारना है और रात तो सोकर बीतनी ही है। गैलरी में जगह हो तो थोड़ी बहुत पैदल यात्रा भी की जा सकती है। भारतीय रेल में इसकी गुंजाइश कम ही होती है कि गैलरी में दौड़ लगाने या फिर कबड्डी खेलने की जगह मिल सके। वैसे दिन के बीतने के बाद जब रात गहरा गयी तो मुझे इस सत्य का अहसास होने लगा कि ट्रेन में भी दिन–रात बिताये जा सकते हैं। और अभी तो अहमदाबाद काफी दूर है तो संभव है कि अगला दिन भी "एक्सप्रेस ऑफ साबरमती" की भेंट चढ़ जाय। तब यह सिद्ध हो जायेगा कि केवल दिन–रात ही नहीं बल्कि जिंदगी का एक हिस्सा भी ट्रेन में गुजारा जा सकता है। यात्रा के तीसरे दिन जब घर से लायी गयी द्रौपदी की बटलोई ने भी जवाब दे दिया तो मोबाइल के एप के सहारे मैंने खाना मँगवाने की सोची। लेकिन एप्प ने टका सा जवाब दे दिया– "यह गाड़ी इस समय इस स्थान से नहीं गुजरती।" शायद एप्प को भी ट्रेन के 15-16 घण्टे की देरी से चलने की उम्मीद नहीं थी।
अपनी जिंदगी में इतनी लम्बी रेलयात्रा मैं पहली बार कर रहा था। कभी कभी तो ऐसा लगता कि मैं ट्रेन में नहीं वरन अपनी वास्तविक जिंदगी में हूँ। लेकिन तीसरे दिन शाम को 6.20 पर 43 घण्टे की यात्रा के बाद,14.30 घण्टे की देरी से जब यह ट्रेन अहमदाबाद स्टेशन के प्लेटफॉर्म से जा लगी तो लगा कि मैं ट्रेन में यात्रा कर रहा था। मेरे अलावा इस ट्रेन में अधिकांश लाेग संभवतः अहमदाबाद और आस–पास के शहरों में काम करने वाले कामगार ही थे जो इस तरह की यात्राओं के अभ्यस्त थे।
अहमदाबाद स्टेशन से निकलते हुए ऑटो ड्राइवरों ने पूछताछ तो काफी की लेकिन उस तरह का "तालिबानी" हमला उन्होंने नहीं किया जिसके लिए वे जाने जाते हैं। और इसकी वजह तो शायद ये थी कि स्टेशन परिसर में उनके खड़े होने की जगह निर्धारित है और होटल में कमरा दिलवाने वाला विशेषज्ञ तो काेई मिला ही नहीं। स्वामीनारायण मंदिर के स्वामी जी से सम्पर्क होने में कुछ देर हो गयी तो मुझे स्वयं ही हैरी पॉटर की तरह से "खोजी" बनना पड़ा। वैसे अहमदाबाद में रेलवे स्टेशन के आस–पास की गलियों में कमरा खोजना कोई बहुत कठिन टास्क नहीं। चार–पाँच दरवाजे खटखटाने के बाद एक खुला दरवाजा मिल ही गया। काउण्टर पर बैठे बन्दे ने सारी पूछताछ के बाद रेट बताया तो कुछ आशा बँधी। क्योंकि मैं काफी ऊँचाइयों से नीचे आया था। लाख सिर पटकने के बाद भी 400 पर अंगद के पैर की तरह जम गया। शाम के 7.15 बज चुके थे। मैंने भी हार मान लेने में ही भलाई समझी क्योंकि शरीर कुछ आराम चाह रहा था। इसी बीच यह भी पता चला कि 70 रूपये का,थाली वाला खाना भी कमरे में ही मिल जायेगा तो मैंने हाँ कर दी। खाने का समय निर्धारित हुआ 8 बजे।
समय कुछ अधिक था तो मैं थोड़ा टहलने के लिए बाहर निकल गया। दो दिन की ट्रेन यात्रा में लेटे–लेटे शरीर में छाले पड़ गये थे। पैर की हडि्डयाँ बाँस की तरह सीधी हो गयी थीं। बाहर निकला तो पास में दिख रहे सारंगपुर बस टर्मिनल से लेकर अहमदाबाद रेलवे स्टेशन तक आइसक्रीम खाते–खाते टहलने में मैं समय की मर्यादा भूल गया और 8.30 तक होटल पहुँचा। लेकिन होटल के कर्मचारी समय के बड़े पाबंद निकले। पता चला कि मेरे कमरे पर ताला लटका देख मेरी थाली बैरंग चिट्ठी की तरह वापस चली गयी थी। मैंने फिर से थाली के हाथ पैर जोड़े तो बिचारी आने को राजी हुई।
देर हो जाने की वजह से अगले दिन की यात्रा के बारे में मैं कुछ अधिक नहीं सोच सका। स्वामी जी ने फोन पर अहमदाबाद और उसके आस–पास के महत्वपूर्ण स्थलों के बारे में इतने अच्छे तरीके से जानकारी दी कि मैं उसी को आधार बनाकर अगले तीन दिनों तक भ्रमण करता रहा। साथ ही इस वार्ता और होटल वाले से पूछताछ के आधार पर यह निश्चित हो चुका था कि यहाँ से एक–डेढ़ किमी की दूरी पर,गीता मंदिर के पास स्थित अहमदाबाद के केन्द्रीय बस स्टेशन से प्रायः हर स्थान के लिए बसें जाती हैं और मुझे भी आसानी से मिल जायेंगी तो मैं निद्रादेवी की शरण में चला गया।
अगले कुछ दिनों में की गयी यात्रा की कुछ तस्वीरें–
अगला भाग ः रानी की वाव
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. एक्सप्रेस ऑफ साबरमती
2. रानी की वाव
3. मोढेरा का सूर्य मंदिर–समृद्ध अतीत की निशानी
4. नलसरोवर–परदेशियों का ठिकाना
5. लोथल–खण्डहर गवाह हैंǃ
6. विश्व विरासत शहर–अहमदाबाद (पहला भाग)
7. विश्व विरासत शहर–अहमदाबाद (दूसरा भाग)
सीट नम्बर 19 अर्थात ऊपर की सीट और साथ ही टायलेट के पर्याप्त नजदीक भी। टायलेट के नजदीक होने के कई फायदे होते हैं। जरूरत पड़ने पर अधिक दूरी नहीं तय करनी पड़ती। भीड़–भाड़ अधिक होने पर धक्का–मुक्की भी कम करनी पड़ती है। और सबसे बड़ा फायदा ये कि वहाँ से निकलने वाली सुगंध भी आसानी व शीघ्रता से आप तक पहुँचती रहती है और अकेले सीट पर पड़े–पड़े बोर नहीं होने पाते। तो मैं भी अपनी सीट पर शीघ्रता से सवार हो गया। परिस्थितियों को देखते हुए टी.टी.ई. महोदय के आने की धुँधली उम्मीद के चलते मैं निद्रा देवी की गोद में जाने का प्रयास करने लगा। अभी आधे घण्टे भी नहीं बीते होंगे और अच्छी नींद आनी अभी शुरू ही हुई थी कि किसी चीज की तीव्र गंध नथुने से टकराई। मैं चौंककर उठा। यह गाँजे की गंध थी। इतनी तेज कि नथुने फड़फड़ाने लगे। मेरी आधी–अधूरी नींद पूरी तरह से "उड़" चुकी थी। ये मेरे शरीर से गाँजे की गंध कहाँ से आने लगीǃ कहीं क्राइम ब्रांच वाले मेरे पास गांजा रखकर मुझे पकड़ने तो नहीं आ रहे। मैं थोड़ा सचेत हुआ तो पता चला कि एक महाशय अपने पैरों को कहीं टिकाते हुए मेरी सीट को दोनों हाथों से जकड़कर त्रिशंकु की भाँति लटके हुए थे। उनका कोई सगा–सम्बन्धी ट्रेन रूपी कुंभ के मेले में कहीं बिछड़ गया था और वो संभवतः सूँघ–सूँघ कर उसे खोज रहे थे। यह गाँजे की गंध उन्हीं के मुँह से आ रही थी। वैसे उनके मुँह से निकलती शुद्ध गाँजे की तीक्ष्ण गंध,रेलवे की सुप्रसिद्ध क्रांति– बायोटॉयलेट की गंध को भी चित्त कर रही थी। सीट पर लटके उन महाशय के काँपते हाथों को देखकर स्पष्ट हो रहा था कि अगर शरीर के अन्दर गाँजे की गर्मी न होती तो वे कभी के मेरी सीट को छोड़कर "फर्शशायी" हो चुके होते और उनका शरीर ट्रेन के फर्श पर लुढ़क रहा होता।
वैसे इस हरदिल अजीज खुशबू से प्रभावित होकर जबतक मैं कोई निर्णय लेता तब तक मेरे ठीक सामने की सीट पर सोया,उन महाशय का कन्फर्म सीट वाला मित्र सारा माजरा समझ चुका था और जल्दी से उन वेटिंग सीट वाले को पकड़ कर अपनी सीट पर ले गया। थोड़ी ही देर में गाँजे की खुशबू तीव्र से भीनी में बदल गयी और अब बायोटॉयलेट की गंध से होड़ लगाती जुराबों की खुशबू नीचे से ऊपर तक फैल कर मेरी अंतरात्मा को झकझरने लगी। मुँह से गाँजे की गंध निकालते महोदय ने अब अपने जूते भी उतार दिये थे। चारों तरफ सुगंध फैल गयी थी। पता चला कि मेरे ट्रेन में चढ़ने और नींद आने के सामयिक फासले के दौरान यह ट्रेन कहीं और भी रूकी थी और इसी बीच ये दोनों 'जय–वीरू' भी गाड़ी में सवार हो गये थे। हाँ जी जय–वीरू। क्योंकि अपनी कन्फर्म सीट पर किसी वेटिंग वाले को शरण देने वाला जय या वीरू में से ही कोई हो सकता है। अब ठण्ड से बचने के लिए इन जय–वीरू ने गाँजे की अनोखी तकनीक ईजाद की थी जो कि मुझे नहीं मालूम थी। मैं समझ गया कि अब अहमदाबाद तक रास्ते भर जब–जब इनको ठण्ड सतायेगी,तब–तब ये बायो की गंध से भरे टाॅयलेट में जाकर दम लगायेंगे और फिर सीट पर वापस आकर अपने साथ पड़ाेसियों का भी मन बहकायेंगे।
तो ट्रेन अपनी स्पीड से चलती रही। सुगंधों भरी रात बीतने को आयी। जय और वीरू बारी–बारी से गाँजे का दम लगाते रहे। ट्रेन मुझे मिली ही थी 12 घण्टे लेट। अब तो इसे और भी लेट होना था। सुबह होने तक ट्रेन में इतनी भीड़ हो चुकी थी जितनी कि एक स्लीपर बोगी में होनी चाहिए। अर्थात कुछ लोग गैलरी में सामान रखकर खड़े थे तो कुछ ने एक तरफ का दरवाजा बन्द कर उसे भी "स्लीपर सेल" बना लिया था। कुछ ने तो दो सीटों के बीच के फर्श को ही स्लीपर सीट बना लिया था। और मैं इन सारी विपदाओं से निश्चिन्त होकर अपनी ऊपर की सीट पर सीमेंट के बाेरे की तरह जम चुका था। बैग में पर्याप्त मात्रा में घर से लाया गया साग–सत्तू था आज की तो कोई चिन्ता ही नहीं थी। दिन चढ़ने के साथ ही मौसम में कुछ गर्मी आ रही थी लेकिन इतनी भी नहीं कि शरीर पर लदे कपड़े उतारने की नौबत आये। हाँ जय–वीरू के दम लगाने में कुछ कमी जरूर आ गयी थी।
जाड़े का दिन छोटा होता ही है। सो सुख के दिनों की तरह से जल्दी बीत गया। वैसे जब ट्रेन में ही चलना है तो रात क्या और दिन क्याǃ दिन भी सोकर ही गुजारना है और रात तो सोकर बीतनी ही है। गैलरी में जगह हो तो थोड़ी बहुत पैदल यात्रा भी की जा सकती है। भारतीय रेल में इसकी गुंजाइश कम ही होती है कि गैलरी में दौड़ लगाने या फिर कबड्डी खेलने की जगह मिल सके। वैसे दिन के बीतने के बाद जब रात गहरा गयी तो मुझे इस सत्य का अहसास होने लगा कि ट्रेन में भी दिन–रात बिताये जा सकते हैं। और अभी तो अहमदाबाद काफी दूर है तो संभव है कि अगला दिन भी "एक्सप्रेस ऑफ साबरमती" की भेंट चढ़ जाय। तब यह सिद्ध हो जायेगा कि केवल दिन–रात ही नहीं बल्कि जिंदगी का एक हिस्सा भी ट्रेन में गुजारा जा सकता है। यात्रा के तीसरे दिन जब घर से लायी गयी द्रौपदी की बटलोई ने भी जवाब दे दिया तो मोबाइल के एप के सहारे मैंने खाना मँगवाने की सोची। लेकिन एप्प ने टका सा जवाब दे दिया– "यह गाड़ी इस समय इस स्थान से नहीं गुजरती।" शायद एप्प को भी ट्रेन के 15-16 घण्टे की देरी से चलने की उम्मीद नहीं थी।
अपनी जिंदगी में इतनी लम्बी रेलयात्रा मैं पहली बार कर रहा था। कभी कभी तो ऐसा लगता कि मैं ट्रेन में नहीं वरन अपनी वास्तविक जिंदगी में हूँ। लेकिन तीसरे दिन शाम को 6.20 पर 43 घण्टे की यात्रा के बाद,14.30 घण्टे की देरी से जब यह ट्रेन अहमदाबाद स्टेशन के प्लेटफॉर्म से जा लगी तो लगा कि मैं ट्रेन में यात्रा कर रहा था। मेरे अलावा इस ट्रेन में अधिकांश लाेग संभवतः अहमदाबाद और आस–पास के शहरों में काम करने वाले कामगार ही थे जो इस तरह की यात्राओं के अभ्यस्त थे।
अहमदाबाद स्टेशन से निकलते हुए ऑटो ड्राइवरों ने पूछताछ तो काफी की लेकिन उस तरह का "तालिबानी" हमला उन्होंने नहीं किया जिसके लिए वे जाने जाते हैं। और इसकी वजह तो शायद ये थी कि स्टेशन परिसर में उनके खड़े होने की जगह निर्धारित है और होटल में कमरा दिलवाने वाला विशेषज्ञ तो काेई मिला ही नहीं। स्वामीनारायण मंदिर के स्वामी जी से सम्पर्क होने में कुछ देर हो गयी तो मुझे स्वयं ही हैरी पॉटर की तरह से "खोजी" बनना पड़ा। वैसे अहमदाबाद में रेलवे स्टेशन के आस–पास की गलियों में कमरा खोजना कोई बहुत कठिन टास्क नहीं। चार–पाँच दरवाजे खटखटाने के बाद एक खुला दरवाजा मिल ही गया। काउण्टर पर बैठे बन्दे ने सारी पूछताछ के बाद रेट बताया तो कुछ आशा बँधी। क्योंकि मैं काफी ऊँचाइयों से नीचे आया था। लाख सिर पटकने के बाद भी 400 पर अंगद के पैर की तरह जम गया। शाम के 7.15 बज चुके थे। मैंने भी हार मान लेने में ही भलाई समझी क्योंकि शरीर कुछ आराम चाह रहा था। इसी बीच यह भी पता चला कि 70 रूपये का,थाली वाला खाना भी कमरे में ही मिल जायेगा तो मैंने हाँ कर दी। खाने का समय निर्धारित हुआ 8 बजे।
समय कुछ अधिक था तो मैं थोड़ा टहलने के लिए बाहर निकल गया। दो दिन की ट्रेन यात्रा में लेटे–लेटे शरीर में छाले पड़ गये थे। पैर की हडि्डयाँ बाँस की तरह सीधी हो गयी थीं। बाहर निकला तो पास में दिख रहे सारंगपुर बस टर्मिनल से लेकर अहमदाबाद रेलवे स्टेशन तक आइसक्रीम खाते–खाते टहलने में मैं समय की मर्यादा भूल गया और 8.30 तक होटल पहुँचा। लेकिन होटल के कर्मचारी समय के बड़े पाबंद निकले। पता चला कि मेरे कमरे पर ताला लटका देख मेरी थाली बैरंग चिट्ठी की तरह वापस चली गयी थी। मैंने फिर से थाली के हाथ पैर जोड़े तो बिचारी आने को राजी हुई।
देर हो जाने की वजह से अगले दिन की यात्रा के बारे में मैं कुछ अधिक नहीं सोच सका। स्वामी जी ने फोन पर अहमदाबाद और उसके आस–पास के महत्वपूर्ण स्थलों के बारे में इतने अच्छे तरीके से जानकारी दी कि मैं उसी को आधार बनाकर अगले तीन दिनों तक भ्रमण करता रहा। साथ ही इस वार्ता और होटल वाले से पूछताछ के आधार पर यह निश्चित हो चुका था कि यहाँ से एक–डेढ़ किमी की दूरी पर,गीता मंदिर के पास स्थित अहमदाबाद के केन्द्रीय बस स्टेशन से प्रायः हर स्थान के लिए बसें जाती हैं और मुझे भी आसानी से मिल जायेंगी तो मैं निद्रादेवी की शरण में चला गया।
होटल में मिली 70 रूपये वाली थाली |
इसको भी कैमरे में कैद कर लिया |
अर्द्धरात्रि में ठण्ड से लड़ता सिपाही |
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. एक्सप्रेस ऑफ साबरमती
2. रानी की वाव
3. मोढेरा का सूर्य मंदिर–समृद्ध अतीत की निशानी
4. नलसरोवर–परदेशियों का ठिकाना
5. लोथल–खण्डहर गवाह हैंǃ
6. विश्व विरासत शहर–अहमदाबाद (पहला भाग)
7. विश्व विरासत शहर–अहमदाबाद (दूसरा भाग)
wahhhh maza hi aa gaya....... kaya sundar or mazedar likhate hai aap....... bahut maza aaya... plz.. or likhate rahiye..... sach me padhane me itani ruchi aai ki ek hi bar me 30 minit me padha... 2bar padha..... bahut maza aaya sir ji
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद किशोर जी ब्लॉग पर आने और प्रोत्साहित करने के लिए। आप यूँ ही पढ़ते रहिए,हम लिखते रहेंगे।
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