अहमदाबाद और इसके आस–पास की यात्रा में मेरे सामने कई लक्ष्य थे। सबसे नजदीकी था अहमदाबाद शहर के अन्दर की ऐतिहासिक इमारतों का दर्शन। दूसरा था अहमदाबाद के उत्तर–पूर्व में लगभग 138 किमी की दूरी पर पाटन शहर में स्थित विश्व विरासत स्थल रानी की वाव और इससे कुछ दूरी पर मोढेरा का सूर्य मंदिर। तीसरा लक्ष्य था अहमदाबाद के दक्षिण–पश्चिम में नलसरोवर पक्षी अभयारण्य और सिंधु घाटी सभ्यता के बन्दरगाह शहर लोथल का भ्रमण।
अपनी पूछताछ से लोगों को परेशान और नाराज करते हुए मैंने इतना तो अनुमान लगा ही लिया था कि एक साथ नलसरोवर और लोथल की ओर जाने के लिए सार्वजनिक वाहन उपलब्ध तो हैं लेकिन आसानी से उपलब्ध होंगे,इसकी कोई गारण्टी नहीं है। तो मैंने सबसे पहले नलसरोवर ही जाने का निश्चय किया।
अपनी पूछताछ से लोगों को परेशान और नाराज करते हुए मैंने इतना तो अनुमान लगा ही लिया था कि एक साथ नलसरोवर और लोथल की ओर जाने के लिए सार्वजनिक वाहन उपलब्ध तो हैं लेकिन आसानी से उपलब्ध होंगे,इसकी कोई गारण्टी नहीं है। तो मैंने सबसे पहले नलसरोवर ही जाने का निश्चय किया।
गुजरात भारत के पश्चिमी भाग में अवस्थित है। तो मध्य भारत के भागों की तुलना में यहाँ लगभग एक घण्टे देर से सूर्याेदय व सूर्यास्त होता है। रात में लाइट बुझा कर सोने के बाद मैं आलस्यवश,रोशनदान से बाहर की रोशनी आने की प्रतीक्षा में सुबह देर तक सोता रहा। पहली गलती यहीं हो गयी। कमरे से बाहर निकला तो सात बज रहे थे। अब मुझे गीता मंदिर के पास स्थित अहमदाबाद के केन्द्रीय बस स्टेशन जाना था और वहाँ से नलसरोवर की बस पकड़नी थी। सड़कों पर ट्रैफिक अभी नहीं था। इक्का–दुक्का ऑटो दौड़ रहे थे। मेरे होटल के पास के सारंगपुर लोकल बस टर्मिनल में बसें अभी आँखें मलती हुई,अपने कान फड़फड़ा रही थीं। तो मैंने पैदल ही गीता मंदिर के लिए दौड़ लगा दी। लगभग एक किमी की दूरी है। वहाँ पहुँचा तो गधे की सींग की तरह बस स्टेशन कहीं दिख ही नहीं रहा था। सड़कों के किनारे बने बस–स्टेशनों को देखने का अभ्यस्त यूपी का आदमी बस स्टेशन को सामने न पाकर हैरान–परेशान हो गया। पूछताछ कर अंदर पहुँचा तो विशाल बस स्टेशन परिसर सामने था।
यहाँ पहुँचकर एक और भारी समस्या खड़ी हो गयी। और वह समस्या थी भाषा की। वैसे भाषा की समस्या कल मैं शाम को अहमदाबाद पहुँचने के बाद से ही महसूस कर रहा था। गुजराती लिपि इतनी दुरूह नहीं है कि कोई पढ़ा–लिखा हिन्दी भाषी थोड़ा बहुत प्रयास करने के बाद इसे काम चलाने भर का पढ़ न ले। समस्या यह भी नहीं थी कि हिन्दी बोलने–समझने वाले लोग नहीं मिल रहे थे। समस्या यह लग रही थी कि इस मेट्रो सिटी में गुजराती भाषा,हिन्दी पर तो हावी है ही,अंग्रेजी पर भी पूरी तरह हावी है। दुकानों के बोर्ड या अन्य संकेतक अधिकांशतः गुजराती में ही है। और बसों की समय–सारणी तो पूरी तरह गुजराती में है। अंग्रेजी और हिन्दी तो भरसक गायब ही हैं। पूछताछ काउण्टर पर पता चला कि नलसरोवर की बस 5 नम्बर प्लेटफार्म से मिलेगी। प्लेटफार्म पर भी छोटे–छोटे पूछताछ काउण्टर बने थे लेकिन वहाँ पहुँचा तो यह बताने वाला कोई नहीं था कि नलसरोवर की बस कितने बजे मिलेगी। समय सारिणी पर कुछ दिमाग खर्च किया तो पता चला कि पहली बस 7.15 पर है जो कि मेरे देर से आने के कारण निकल चुकी थी। अब अगली बस 8.55 पर थी और कुछ कण्डक्टर भाइयों के अनुसार आज ये निश्चित नहीं था कि वो बस जायेगी या नहीं। मैं समय सारिणी के जाल में उलझ कर रह गया। पाटन के लिए बसों की कोई समस्या नहीं थी। तो मैंने भ्रम जाल से बाहर निकलते हुए पाटन की बस पकड़ने का निश्चय किया।
अहमदाबाद से पाटन की दूरी 138 किमी है तथा किराया 99 रूपये। दूरी और किराये का यह अनुपात,अन्य किसी राज्य के परिवहन निगम की तुलना में मुझे कुछ सस्ता लगा। मैंने बिना किसी मेहनत के खिड़की वाली सीट हासिल कर ली। इसलिए नहीं कि रास्ते भर उल्टियां करूंगा वरन इसलिए कि खिड़की से बाहर गुजरात का जनजीवन देखता चलूँगा। बस चली तो रास्ते में कहीं भी देर तक नहीं रूकी। मैं बिना कुछ खाये–पिये ही चला था। तो बस में बैठकर दो ही काम थे– दस रूपये में बिक रही मूँगफली चबाना और रास्ते में जहाँ कहीं भी गुजराती में कुछ लिखा हुआ मिले,उसे पढ़ने की कोशिश करना। इन दोनों कामों में मैं काफी हद तक सफल रहा। लगभग तीन घण्टे की यात्रा के बाद 12 बजे के आस–पास मैं पाटन के जूना बस स्टैण्ड पहुँचा। जूना अर्थात पुराना। एक नये शब्द का ज्ञान हुआ। पाटन में एक नया बस स्टैण्ड भी है जो कि हाइवे पर बना है। जूना बस स्टैण्ड शहर के अन्दर है। यहाँ उतरकर पूछताछ करने से पता चला कि रानी की वाव बहुत अधिक दूर तो नहीं है लेकिन मेरे पास समय की कमी इस दूरी को बढ़ा रही थी। जब लगभग 15 घण्टे का समय ट्रेन ही निगल जाये तो समय की कमी होनी स्वाभाविक है। मैंने एक ऑटो वाले से 50 रूपये में रानी की वाव का समझौता किया और बिना किसी शारीरिक श्रम के रानी की वाव पहुँचा गया। समय बचाना है तो पैसे खर्च करने ही पड़ेंगे।
सड़क के किनारे या स्मारक की चारदीवारी के बाहर से किसी बड़ी इमारत जैसा कुछ आभास नहीं हो रहा था। होता भी कैसेǃ वाव या बावड़ी जमीन के ऊपर तो होगी नहीं। 40 रूपये का टिकट लेकर अंदर पहुँचा तो मुख्य संरचना के इर्द–गिर्द बने हरे–भरे पार्क में यत्र–तत्र इक्का–दुक्का लोग मस्ती कर रहे थे लेकिन उसके कई गुना लाेग और विशेष रूप से "सेल्फिस्ट",वाव के अन्दर घुसे थे। अगर वाव में पानी होता तो ये लाेग उसका सारा पानी उलीच जाते। लेकिन वो तो इस बावड़ी में पानी ही नहीं था।
गुजराती में बावड़ी को "वाव" कहते हैं। अंग्रेजी में इसके लिए "स्टेपवेल" शब्द का प्रयोग किया जाता है। "रानी की वाव" का मतलब कि यह भी एक बावड़ी है। गुजरात की बावड़ियाँ या वाव जल संरक्षण की अनोखी मिसाल हैं। इस भव्य बावड़ी का निर्माण भीमदेव प्रथम (1022-1063 ई0) की रानी उदयमती ने 11वीं शताब्दी के अंतिम भाग में कराया था। भीमदेव प्रथम अनहिलवाड़ (पाटन) के सोलंकी वंश के संस्थापक मूलराज के उत्तराधिकारियों में से एक थे।
इस वाव की लम्बाई 64 मीटर,चौड़ाई 20 मीटर और गहराई 27 मीटर है। वाव में स्तम्भयुक्त बहुमंजिला मण्डप,कुआँ और अतिरिक्त पानी इकट्ठा करने हेतु एक बड़ा कुण्ड भी बनाया गया है। पूर्व–पश्चिम दिशा में निर्मित इस वाव का कुआँ पश्चिमी छोर पर स्थित है। वाव की दीवारों और स्तम्भों पर की गयी नक्काशियाँ दर्शनीय हैं। वाव की दीवारों पर महिषासुरमर्दिनी,पार्वती,शैव प्रतिमाएं,भैरव,गणेश,सूर्य,कुबेर,अष्टदिक्पाल,लक्ष्मीनारायण इत्यादि की प्रतिमाएं उकेरी गयी हैं। अप्सराओं,नाग कन्या,योगिनी आदि का भी विभिन्न मुद्राओं में चित्रण किया गया है। सबसे निचली सतह पर शेषनाग की कलाकृति देखने को मिलती है। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात रानी की वाव को भारतीय पुरातत्व संरक्षण के अधीन राष्ट्रीय महत्व का स्मारक घोषित किया गया तथा 2014 में इसे यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया। 2018 में रानी की वाव के चित्र को भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा 100 रूपये की नोट पर अंकित किया गया।
सरस्वती नदी में आयी बाढ़ और उपेक्षा के कारण इस वाव को काफी क्षति पहुँची। सरस्वती नदी के लुप्त हो जाने के बाद कई सदियों तक यह वाव मिट्टी के नीचे उपेक्षित रूप से दबी पड़ी रही। बीसवीं सदी के छठें दशक तक इस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्मारक के अस्तित्व के बारे में किसी को जानकारी नहीं थी क्योंकि इसके ऊपरी भाग को छोड़कर यह अधिकांशतः रेत और मिट्टी से ढक चुकी थी। 1958 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा कराये गये उत्खनन कार्य के फलस्वरूप इसका अस्तित्व सामने आया।
कुएँ या बावड़ियाँ, वैसे तो पूरे भारत में पाये जाते हैं लेकिन जिस सुरूचि और कलात्मकता के साथ गुजरात में इन्हें सजा कर नया स्वरूप प्रदान किया गया है,वह अन्यत्र दुर्लभ है। रानी की वाव भी एक बावड़ी या कुआँ है जिसमें प्रवेश करने के लिए सीढ़ियाँ बनायी गयी हैं। बारीक कारीगरी की वजह से पूरी बावड़ी एक खूबसूरत भूमिगत इमारत में रूपान्तरित हो गयी है। यह एक सात मंजिला बावड़ी है जिसमें पाँच निकास द्वार हैं। संभवतः 800 से अधिक मूर्तियाँ इस बावड़ी में आज भी मौजूद हैं। इन मूर्तियों में से अधिकांश विष्णु के दशावतारों से सम्बन्धित हैं। वाव की दीवारों पर सघन कारीगरी की गयी है। वाव की वास्तु–शैली को मरू–गुर्जर शैली कहा जाता है। कहते हैं कि वाव के नीचे से कोई गुप्त सुरंग भी बनी है जिसे वर्तमान में बंद कर दिया गया है। रानी की वाव जल प्रबंधन का बेहतरीन उदाहरण है। रानी की वाव यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल भारत की एकमात्र बावड़ी है।
वाव से बाहर निकल कर मैंने 10 रूपये वाला नीबू पानी पिया और वाव के पास अन्य किसी ऐतिहासिक स्थल के बारे में पूछताछ की। पता चला कि आधे किमी की दूरी पर सहस्त्रलिंग ताल है। सहस्त्रलिंग ताल भी काफी प्रसिद्ध स्थल है लेकिन शायद यह किसी उद्धारक की बाट जोह रहा है। यहाँ तक पहुँचने के लिए सीधा रास्ता है तो,लेकिन फिलहाल में दिख नहीं रहा था। वजह यह थी कि रानी की वाव परिसर और सहस्त्रलिंग ताल परिसर के बीच से एक रेलवे लाइन बनी हुई है और वर्तमान में इस लाइन के आर–पार एक अण्डरपास का निर्माण कार्य चल रहा है। इस अण्डरपास के निर्माण के बाद दोनों ऐतिहासिक स्थलों के बीच आवागमन आसान हो जायेगा। वैसे मुझे रास्ते की कोई खास आवश्यकता नहीं थी और मैं भी बाकी सब की तरह ही रेलवे लाइन के ऊपर से उस पार सहस्त्रलिंग ताल की ओर चला गया।
सहस्त्रलिंग ताल काफी बड़े क्षेत्र में फैला हुआ है। इस ताल के चारों ओर एक सहस्त्र शिवलिंग बने हुए थे। संभवतः इसी कारण से इसे सहस्त्रलिंग ताल कहा जाता है। इस ताल का निर्माण तत्कालीन पाटन नरेश सिद्धराज जयसिंह द्वारा कराया गया था। इस तालाब में सरस्वती नदी के पानी को इकट्ठा किया जाता था। कालान्तर में मुस्लिम आक्रमणकारियों के कई आक्रमणों के फलस्वरूप यह सुन्दर तालाब खण्डहर में तब्दील हो गया। सहस्त्रलिंग ताल के आस–पास कॅंटीली झाड़ियाँ अपनी इच्छानुसार फैली हुई हैं। और ताल के किनारे मोटरसाइकिलों से उड़ान भरने वाले "पिकनिकहे युवा" मस्ती में किलोलें कर रहे थे। गले में कैमरा और पीठ पर बैग लादे मेरी शक्ल उन्हें कुछ अजीब सी लग रही थी। उन्हें शायद यह महसूस हो रहा था कि इस फालतू सी जगह पर कौन इतनी तैयारी के साथ आ गया है।
इन दोनों स्थलों से जब मैं बाहर निकला तो पाटन शहर में स्थित एक जैन मंदिर के बारे में जानकारी मिली। समस्या फिर वही थी– समयाभाव की। मैं फिर से ऑटो वालों के शरणागत हो गया। यहाँ ये स्पष्ट हो गया कि ये सिर्फ 50 का पहाड़ा ही जानते हैं। अर्थात रानी की वाव से जैन मंदिर के लिए 50 रूपये। और फिर जैन मंदिर से नये वाले बस स्टैण्ड के लिए भी 50 रूपये। मुझे नये वाले बस स्टैण्ड ही जाना था क्योंकि मुझे मोढेरा की बस पकड़नी थी और मोढेरा की बस इसी बस स्टैण्ड से मिलनी थी।
तो पहले जैन मंदिर। इस जैन मंदिर का नाम पंचासरा पार्श्वनाथ जैन डेरासर है। जैन मंदिर में मरम्मत का काम चल रहा था। पुराने को नया बनाया जा रहा था। नया भी ऐसा कि देख कर लगता ही नहीं कि यह पुराना मंदिर है। मंदिर का फर्श संगमरमर का बना हुआ है। दीवारों पर बारीक नक्काशी की गयी है। छत में की गयी कारीगरी को पेण्ट से उकेरा गया है। वर्तमान में पूरे मंदिर को सफेद रंग से रंगा जा रहा था। वैसे मुझे तो अपने वास्तविक स्वरूप में दिखती पत्थर की दीवारें ही सुंदर लग रही थीं। पाटन में जैन धर्म से सम्बन्धित बहुत सारे मंदिर हैं।
रानी की वाव–
सहस्रलिंग ताल–
डेरासर जैन मंदिर–
अगला भाग ः मोढेरा का सूर्य मंदिर–समृद्ध अतीत की निशानी
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. एक्सप्रेस ऑफ साबरमती
2. रानी की वाव
3. मोढेरा का सूर्य मंदिर–समृद्ध अतीत की निशानी
4. नलसरोवर–परदेशियों का ठिकाना
5. लोथल–खण्डहर गवाह हैंǃ
6. विश्व विरासत शहर–अहमदाबाद (पहला भाग)
7. विश्व विरासत शहर–अहमदाबाद (दूसरा भाग)
यहाँ पहुँचकर एक और भारी समस्या खड़ी हो गयी। और वह समस्या थी भाषा की। वैसे भाषा की समस्या कल मैं शाम को अहमदाबाद पहुँचने के बाद से ही महसूस कर रहा था। गुजराती लिपि इतनी दुरूह नहीं है कि कोई पढ़ा–लिखा हिन्दी भाषी थोड़ा बहुत प्रयास करने के बाद इसे काम चलाने भर का पढ़ न ले। समस्या यह भी नहीं थी कि हिन्दी बोलने–समझने वाले लोग नहीं मिल रहे थे। समस्या यह लग रही थी कि इस मेट्रो सिटी में गुजराती भाषा,हिन्दी पर तो हावी है ही,अंग्रेजी पर भी पूरी तरह हावी है। दुकानों के बोर्ड या अन्य संकेतक अधिकांशतः गुजराती में ही है। और बसों की समय–सारणी तो पूरी तरह गुजराती में है। अंग्रेजी और हिन्दी तो भरसक गायब ही हैं। पूछताछ काउण्टर पर पता चला कि नलसरोवर की बस 5 नम्बर प्लेटफार्म से मिलेगी। प्लेटफार्म पर भी छोटे–छोटे पूछताछ काउण्टर बने थे लेकिन वहाँ पहुँचा तो यह बताने वाला कोई नहीं था कि नलसरोवर की बस कितने बजे मिलेगी। समय सारिणी पर कुछ दिमाग खर्च किया तो पता चला कि पहली बस 7.15 पर है जो कि मेरे देर से आने के कारण निकल चुकी थी। अब अगली बस 8.55 पर थी और कुछ कण्डक्टर भाइयों के अनुसार आज ये निश्चित नहीं था कि वो बस जायेगी या नहीं। मैं समय सारिणी के जाल में उलझ कर रह गया। पाटन के लिए बसों की कोई समस्या नहीं थी। तो मैंने भ्रम जाल से बाहर निकलते हुए पाटन की बस पकड़ने का निश्चय किया।
अहमदाबाद से पाटन की दूरी 138 किमी है तथा किराया 99 रूपये। दूरी और किराये का यह अनुपात,अन्य किसी राज्य के परिवहन निगम की तुलना में मुझे कुछ सस्ता लगा। मैंने बिना किसी मेहनत के खिड़की वाली सीट हासिल कर ली। इसलिए नहीं कि रास्ते भर उल्टियां करूंगा वरन इसलिए कि खिड़की से बाहर गुजरात का जनजीवन देखता चलूँगा। बस चली तो रास्ते में कहीं भी देर तक नहीं रूकी। मैं बिना कुछ खाये–पिये ही चला था। तो बस में बैठकर दो ही काम थे– दस रूपये में बिक रही मूँगफली चबाना और रास्ते में जहाँ कहीं भी गुजराती में कुछ लिखा हुआ मिले,उसे पढ़ने की कोशिश करना। इन दोनों कामों में मैं काफी हद तक सफल रहा। लगभग तीन घण्टे की यात्रा के बाद 12 बजे के आस–पास मैं पाटन के जूना बस स्टैण्ड पहुँचा। जूना अर्थात पुराना। एक नये शब्द का ज्ञान हुआ। पाटन में एक नया बस स्टैण्ड भी है जो कि हाइवे पर बना है। जूना बस स्टैण्ड शहर के अन्दर है। यहाँ उतरकर पूछताछ करने से पता चला कि रानी की वाव बहुत अधिक दूर तो नहीं है लेकिन मेरे पास समय की कमी इस दूरी को बढ़ा रही थी। जब लगभग 15 घण्टे का समय ट्रेन ही निगल जाये तो समय की कमी होनी स्वाभाविक है। मैंने एक ऑटो वाले से 50 रूपये में रानी की वाव का समझौता किया और बिना किसी शारीरिक श्रम के रानी की वाव पहुँचा गया। समय बचाना है तो पैसे खर्च करने ही पड़ेंगे।
सड़क के किनारे या स्मारक की चारदीवारी के बाहर से किसी बड़ी इमारत जैसा कुछ आभास नहीं हो रहा था। होता भी कैसेǃ वाव या बावड़ी जमीन के ऊपर तो होगी नहीं। 40 रूपये का टिकट लेकर अंदर पहुँचा तो मुख्य संरचना के इर्द–गिर्द बने हरे–भरे पार्क में यत्र–तत्र इक्का–दुक्का लोग मस्ती कर रहे थे लेकिन उसके कई गुना लाेग और विशेष रूप से "सेल्फिस्ट",वाव के अन्दर घुसे थे। अगर वाव में पानी होता तो ये लाेग उसका सारा पानी उलीच जाते। लेकिन वो तो इस बावड़ी में पानी ही नहीं था।
गुजराती में बावड़ी को "वाव" कहते हैं। अंग्रेजी में इसके लिए "स्टेपवेल" शब्द का प्रयोग किया जाता है। "रानी की वाव" का मतलब कि यह भी एक बावड़ी है। गुजरात की बावड़ियाँ या वाव जल संरक्षण की अनोखी मिसाल हैं। इस भव्य बावड़ी का निर्माण भीमदेव प्रथम (1022-1063 ई0) की रानी उदयमती ने 11वीं शताब्दी के अंतिम भाग में कराया था। भीमदेव प्रथम अनहिलवाड़ (पाटन) के सोलंकी वंश के संस्थापक मूलराज के उत्तराधिकारियों में से एक थे।
इस वाव की लम्बाई 64 मीटर,चौड़ाई 20 मीटर और गहराई 27 मीटर है। वाव में स्तम्भयुक्त बहुमंजिला मण्डप,कुआँ और अतिरिक्त पानी इकट्ठा करने हेतु एक बड़ा कुण्ड भी बनाया गया है। पूर्व–पश्चिम दिशा में निर्मित इस वाव का कुआँ पश्चिमी छोर पर स्थित है। वाव की दीवारों और स्तम्भों पर की गयी नक्काशियाँ दर्शनीय हैं। वाव की दीवारों पर महिषासुरमर्दिनी,पार्वती,शैव प्रतिमाएं,भैरव,गणेश,सूर्य,कुबेर,अष्टदिक्पाल,लक्ष्मीनारायण इत्यादि की प्रतिमाएं उकेरी गयी हैं। अप्सराओं,नाग कन्या,योगिनी आदि का भी विभिन्न मुद्राओं में चित्रण किया गया है। सबसे निचली सतह पर शेषनाग की कलाकृति देखने को मिलती है। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात रानी की वाव को भारतीय पुरातत्व संरक्षण के अधीन राष्ट्रीय महत्व का स्मारक घोषित किया गया तथा 2014 में इसे यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया। 2018 में रानी की वाव के चित्र को भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा 100 रूपये की नोट पर अंकित किया गया।
सरस्वती नदी में आयी बाढ़ और उपेक्षा के कारण इस वाव को काफी क्षति पहुँची। सरस्वती नदी के लुप्त हो जाने के बाद कई सदियों तक यह वाव मिट्टी के नीचे उपेक्षित रूप से दबी पड़ी रही। बीसवीं सदी के छठें दशक तक इस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्मारक के अस्तित्व के बारे में किसी को जानकारी नहीं थी क्योंकि इसके ऊपरी भाग को छोड़कर यह अधिकांशतः रेत और मिट्टी से ढक चुकी थी। 1958 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा कराये गये उत्खनन कार्य के फलस्वरूप इसका अस्तित्व सामने आया।
कुएँ या बावड़ियाँ, वैसे तो पूरे भारत में पाये जाते हैं लेकिन जिस सुरूचि और कलात्मकता के साथ गुजरात में इन्हें सजा कर नया स्वरूप प्रदान किया गया है,वह अन्यत्र दुर्लभ है। रानी की वाव भी एक बावड़ी या कुआँ है जिसमें प्रवेश करने के लिए सीढ़ियाँ बनायी गयी हैं। बारीक कारीगरी की वजह से पूरी बावड़ी एक खूबसूरत भूमिगत इमारत में रूपान्तरित हो गयी है। यह एक सात मंजिला बावड़ी है जिसमें पाँच निकास द्वार हैं। संभवतः 800 से अधिक मूर्तियाँ इस बावड़ी में आज भी मौजूद हैं। इन मूर्तियों में से अधिकांश विष्णु के दशावतारों से सम्बन्धित हैं। वाव की दीवारों पर सघन कारीगरी की गयी है। वाव की वास्तु–शैली को मरू–गुर्जर शैली कहा जाता है। कहते हैं कि वाव के नीचे से कोई गुप्त सुरंग भी बनी है जिसे वर्तमान में बंद कर दिया गया है। रानी की वाव जल प्रबंधन का बेहतरीन उदाहरण है। रानी की वाव यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल भारत की एकमात्र बावड़ी है।
वाव से बाहर निकल कर मैंने 10 रूपये वाला नीबू पानी पिया और वाव के पास अन्य किसी ऐतिहासिक स्थल के बारे में पूछताछ की। पता चला कि आधे किमी की दूरी पर सहस्त्रलिंग ताल है। सहस्त्रलिंग ताल भी काफी प्रसिद्ध स्थल है लेकिन शायद यह किसी उद्धारक की बाट जोह रहा है। यहाँ तक पहुँचने के लिए सीधा रास्ता है तो,लेकिन फिलहाल में दिख नहीं रहा था। वजह यह थी कि रानी की वाव परिसर और सहस्त्रलिंग ताल परिसर के बीच से एक रेलवे लाइन बनी हुई है और वर्तमान में इस लाइन के आर–पार एक अण्डरपास का निर्माण कार्य चल रहा है। इस अण्डरपास के निर्माण के बाद दोनों ऐतिहासिक स्थलों के बीच आवागमन आसान हो जायेगा। वैसे मुझे रास्ते की कोई खास आवश्यकता नहीं थी और मैं भी बाकी सब की तरह ही रेलवे लाइन के ऊपर से उस पार सहस्त्रलिंग ताल की ओर चला गया।
सहस्त्रलिंग ताल काफी बड़े क्षेत्र में फैला हुआ है। इस ताल के चारों ओर एक सहस्त्र शिवलिंग बने हुए थे। संभवतः इसी कारण से इसे सहस्त्रलिंग ताल कहा जाता है। इस ताल का निर्माण तत्कालीन पाटन नरेश सिद्धराज जयसिंह द्वारा कराया गया था। इस तालाब में सरस्वती नदी के पानी को इकट्ठा किया जाता था। कालान्तर में मुस्लिम आक्रमणकारियों के कई आक्रमणों के फलस्वरूप यह सुन्दर तालाब खण्डहर में तब्दील हो गया। सहस्त्रलिंग ताल के आस–पास कॅंटीली झाड़ियाँ अपनी इच्छानुसार फैली हुई हैं। और ताल के किनारे मोटरसाइकिलों से उड़ान भरने वाले "पिकनिकहे युवा" मस्ती में किलोलें कर रहे थे। गले में कैमरा और पीठ पर बैग लादे मेरी शक्ल उन्हें कुछ अजीब सी लग रही थी। उन्हें शायद यह महसूस हो रहा था कि इस फालतू सी जगह पर कौन इतनी तैयारी के साथ आ गया है।
इन दोनों स्थलों से जब मैं बाहर निकला तो पाटन शहर में स्थित एक जैन मंदिर के बारे में जानकारी मिली। समस्या फिर वही थी– समयाभाव की। मैं फिर से ऑटो वालों के शरणागत हो गया। यहाँ ये स्पष्ट हो गया कि ये सिर्फ 50 का पहाड़ा ही जानते हैं। अर्थात रानी की वाव से जैन मंदिर के लिए 50 रूपये। और फिर जैन मंदिर से नये वाले बस स्टैण्ड के लिए भी 50 रूपये। मुझे नये वाले बस स्टैण्ड ही जाना था क्योंकि मुझे मोढेरा की बस पकड़नी थी और मोढेरा की बस इसी बस स्टैण्ड से मिलनी थी।
तो पहले जैन मंदिर। इस जैन मंदिर का नाम पंचासरा पार्श्वनाथ जैन डेरासर है। जैन मंदिर में मरम्मत का काम चल रहा था। पुराने को नया बनाया जा रहा था। नया भी ऐसा कि देख कर लगता ही नहीं कि यह पुराना मंदिर है। मंदिर का फर्श संगमरमर का बना हुआ है। दीवारों पर बारीक नक्काशी की गयी है। छत में की गयी कारीगरी को पेण्ट से उकेरा गया है। वर्तमान में पूरे मंदिर को सफेद रंग से रंगा जा रहा था। वैसे मुझे तो अपने वास्तविक स्वरूप में दिखती पत्थर की दीवारें ही सुंदर लग रही थीं। पाटन में जैन धर्म से सम्बन्धित बहुत सारे मंदिर हैं।
रानी की वाव–
सहस्रलिंग ताल–
डेरासर जैन मंदिर–
अगला भाग ः मोढेरा का सूर्य मंदिर–समृद्ध अतीत की निशानी
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. एक्सप्रेस ऑफ साबरमती
2. रानी की वाव
3. मोढेरा का सूर्य मंदिर–समृद्ध अतीत की निशानी
4. नलसरोवर–परदेशियों का ठिकाना
5. लोथल–खण्डहर गवाह हैंǃ
6. विश्व विरासत शहर–अहमदाबाद (पहला भाग)
7. विश्व विरासत शहर–अहमदाबाद (दूसरा भाग)
wahhhhh bahut maza aaya sir ji.. magar aap ne ek bat ki nainsafi ki... ham gujaratio ke sath........ ham gujarati... sabhi bhasa (leng.) jante hai... or aap ne jo jikra geeta mandir central bus stope ka kiya ki vaha koi hindi nahi janta yah sarasar galat bat hai... gujarat ke aakhir se aakhari gav me bhi aap jaye..... hindi - gujarati samajnewala or tuta-futa hi sahi bolanewala mil jayega.... magar aap ke pradesh me gujarati bol sakata hai koi? or gujarat ke road & bus services jesi sayad kahi nahi milegi... yah Narendra modi ji ki den hai sir ji.... vikas kiya hai.. ham mante hai..... jay jay garavi gujarat
ReplyDeleteपहले तो आपको बहुत सारा धन्यवाद। और हाँ भाई मैंने ये कहीं नहीं कहा कि मुझे हिन्दी बोलने वाले नहीं मिले। हिन्दी बोलने वाले तो मुझे गुजरात में मैं जहाँ भी गया वहाँ वहाँ मिले। मैंने सिर्फ ये कहा है कि बस स्टेशन में लिखे बोर्ड या सूचनाओं में हिन्दी या अंग्रेजी का प्रयोग बिल्कुल भी नहीं किया गया है। गुजरात की सड़कें बहुत अच्छी हैं। इसी सीरीज में मैंने गुजरात की सड़कों के बारे में भी लिखा है।
Deletethanks.... sir ji
Deleteधन्यवाद आपको भी। आगे भी ब्लॉग पर आपके विचारों का स्वागत रहेगा।
Delete