Friday, January 4, 2019

मुन्स्यारी की ओर

कुमाऊँ कैलाश–मानसरोवर का प्रवेश द्वार है। अनादि काल से ही,भगवान शिव के निवास स्थान तक की यात्रा के लिए,कुमाऊँ मार्ग प्रदान करता रहा है। अब भोलेनाथ ने अपने घर तक,मुझे कभी नहीं बुलाया तो मैंने मार्ग को ही मंजिल बना दिया। और निकल पड़ा कुमाऊँ की खूबसूरत वादियों की ओर। कैलाश नहीं तो कुमाऊँ ही सही।
काठगोदाम कुमाऊँ का प्रवेश द्वार है। ट्रेन से कुमाऊँ आने के लिए काठगोदाम आना ही पड़ता है।
तो पिछले दो सालों की तरह ही,इस साल भी मैंने दीपावली के अगले दिन हावड़ा से आने वाली बाघ एक्सप्रेस पकड़ ली। शाम के 4.20 पर मिलने वाली ट्रेन 5.45 पर मिली। दीपावली की वजह से ट्रेन खाली–खाली थी। ट्रेन में घूमने वाले फेरीवालों का तो मानो देशनिकाला हो गया था। लेकिन अगले दिन सुबह के 9 बजे के आस–पास हल्द्वानी पहुँचने वाली ट्रेन जब 11 बजे पहुँची तो इसने मुझे निराश कर दिया। कारण कि उत्तराखण्ड के प्रवेश द्वारों से आन्तरिक भागों की ओर जाने वाली नियमित गाड़ियाँ भरसक सुबह के समय ही निकल पड़ती हैं। और देर हो जाने के बाद प्राइवेट गाड़ियों का सहारा लेना पड़ता है। साथ ही पूरी यात्रा टुकड़ों में करनी पड़ती है। सीधी गाड़ियां मिलने के अवसर कम हो जाते हैं। यही डर मुझे भी खाए जा रहा था।
हल्द्वानी का बस स्टैण्ड रेलवे स्टेशन से कोई खास दूर नहीं है। फिर भी जल्दबाजी में मैं एक ई–रिक्शा वाले से ब्लैकमेल होेने के लिए उसमें सवार हो गया। किराया 20 रूपए। ई–रिक्शा चला तो दो लाेग और सवार हो गए। लेकिन उन्होंने किराया पहले ही तय कर लिया– 10 रूपए। बस स्टैण्ड पर उतरकर 10 रूपए वाले तो किराया चुका कर चलते बने लेकिन मैं जब 10 रूपए देने लगा तो ई–रिक्शा वाला मुझसे भिड़ गया। मैंने बहस की तो उसने फि़लाॅसफी झाड़ दी–
"गाड़ी में आकर आप ही बैठे थे। गाड़ी तो आपके पास गयी नहीं थी।"
शायद अर्थशास्त्र का कोई सिद्धान्त ऐसा भी होता है। पर मेरे पास झगड़ने का टाइम नहीं था तो 20 रूपए चुकाकर बस स्टैण्ड में घुसा। लेकिन तब तक पिथौरागढ़ की कोई बस नहीं बची थी। पता चला कि पिथौरागढ़ के लिए शाम या रात में ही कोई बस मिलेगी। मेरे पास पिथौरागढ़,मुन्स्यारी या धारचूला जाने का विकल्प था। अब मैं प्राइवेट बसों के फेर में बस स्टेशन से बाहर निकला। अल्मोड़ा की एक बस मिल गयी। 88 किमी के 125 रूपये। लगभग दो घण्टे चलने के बाद जलपान के लिए बस एक जगह रूकी जहाँ एक–दो ढाबे दिखाई पड़ रहे थे। इस स्थान पर मैं पहले भी बस यात्रा के दौरान रूक चुका हूँ। सड़क के काफी नीचे एक छोटी सी नदी गुजरती है जिसका नाम कोसी है। रास्ता काफी हरा–भरा है। सब कुछ अच्छा है। बुराई बस इतनी सी है कि ट्रेन की वजह से थोड़ी सी देर हो चुकी है। बस इतनी ही देर रूकी कि केवल मैगी ही मिल पायी। कुमाऊँ में किसी मंजिल पर पहुँच जाने में ही आनन्द नहीं वरन स़ड़कों पर चलते रहना भी कम आनन्ददायक नहीं है। खाने के बारे में बाद में सोचेंगे। वैसे उत्तराखण्ड के रास्तों पर मैं कभी भी खाने के फेर में अधिक नहीं पड़ता। चलते रहेंगे तो खाना कहीं न कहीं मिल ही जायेगा। हरे–भरे रास्ते यूँ ही मन भर देते हैं।

शाम के 3.45 बजे बस अल्मोड़ा पहुँची। मैं काफी दुविधा में था। इस समय यहाँ उतरकर क्या करूँगाǃ अल्मोड़ा एक बार पहले भी आ चुका हूँ। दुविधा में ही कुछ कदम आगे बढ़ा कि रोडवेज की एक बस खड़ी दिखी। यह बागेश्वर जा रही थी। मुझे पिथौरागढ़ या फिर मुन्स्यारी जाना था। वैसे अल्मोड़ा में ठहरकर अगले दिन मुन्स्यारी या पिथौरागढ़ की गाड़ी खोजने से बेहतर लगा कि मैं बागेश्वर निकल जाऊँ। बागेश्वर से मुन्स्यारी पहुँचना संभवतः कुछ आसान रहेगा। मैं बिना समय गँवाए बस में सवार हो गया। बस तुरंत रवाना हो गयी। चाय पीने का भी समय नहीं मिल सका। बस अधिकांशतः खाली थी। सड़कें भी खाली। लोग–बाग अभी दीवाली की छुटि्टयां मना रहे थे। लगभग 70 किमी का किराया 140 रूपये। रास्ते में एक जगह चाय पीने के लिए रूकने के अलावा,सवारियों को चढ़ाती–उतारती बस लगभग चलती रही। पहाड़ों की छाती पर दोपहर से शाम तक हरे–भरे जंगलों के बदलते रंग को मैं निहारता रहा। बागेश्वर पहुॅंचने के लगभग एक घण्टे पहले ड्राइवर ने मेन रोड छोड़कर कोई दूसरा रास्ता रास्ता पकड़ लिया। बिल्कुल सँकरा। बस की स्पीड कम हो गयी। शाम के 7.30 बजे बस बागेश्वर पहुँची। लेकिन बस स्टेशन जाने के बजाय यह गोमती पुल पर ही खड़ी हो गयी। कण्डक्टर ने बताया कि यहाँ से आगे नहीं जाएंगे। वैसे बस से उतरने वाले गिने–चुने लोग ही रह गये थे। मुश्किल से 5-7 लोग। यहाँ से लगभग आधे किमी का पैदल मार्च करना पड़ा।
बस से उतरकर मैं बागेश्वर बस स्टेशन के लिए चल पड़ा। क्योंकि होटल वगैरह बस स्टेशन के पास ही हैं। यह मेरा बागेश्वर का दूसरा प्रवास होने जा रहा था। मन में एक बात का काफी डर भी था और वो ये कि बागेश्वर में पूर्णतः शाकाहारी रेस्टोरेण्ट नहीं हैं। इस समस्या को मैं अपने पिछले बागेश्वर प्रवास के दौरान झेल चुका था। हो सकता है कोई पूर्ण शाकाहारी रेस्टोरेण्ट हो भी,जो छुटि्टयों में बन्द हो जाता हो। इस समय छुटि्टयां ही चल रही थीं।
दीपावली का असर था। बागेश्वर की सड़कें बिल्कुल खाली थीं। दुकानें अधिकांशतः बंद थीं। बस स्टेशन के थोड़ा सा पहले एक होटल मिल गया। 250 में बिना टी.वी. वाला कमरा। होटल मैनेजर मुझे 300 में टी.वी. कमरा ही देना चाह रहा था। और मुझे टी.वी. की कोई जरूरत नहीं थी। अब समस्या भोजन की थी। होटल वाले ने भी बताया कि शाकाहारी भोजनालय नहीं मिलेगा। सड़क किनारे चाय–पकौड़ी बेचने वाले ठेले भी अनुपस्थित थे। मैं बस स्टेशन से गोमती नदी तक एक पूरा चक्कर लगा गया जिसमें मुझे दो–तीन रेस्टोरेण्ट ही खुले मिले जो सभी सर्वाहारी ही थे। उम्मीद थी कि नदी किनारे,मंदिरों के पास शायद काेई चाय–पकौड़े वाला ही मिल जाय,तो भी काम चल जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वहाँ तो बिल्कुल सन्नाटा पसरा हुआ था। तो मैं उसी कॉमन रेस्टोरेण्ट की ओर चल पड़ा जहाँ पिछले साल भी एक बार खाना खाया था। अधिकांश मेजों पर लोग बैठे थे। कोई भी मेज पूरी तरह से खाली नहीं मिली जहाँ मैं डेरा जमा सकूँ। वहाँ का माहौल देखकर मुझे बैठने की हिम्मत नहीं हुई। दिन भर भी ठीक से खाना न मिलने के कारण पेट में ऐंठन हो रही थी और रात में भी खाना मिलने का कोई जुगाड़ होता नहीं दिख रहा था। तो मैंने खाना पैक कराने का आर्डर दे दिया। यहाँ सर्वाहारियों के बीच बैठकर खाने से बेहतर होटल के कमरे में ही रहेगा। कम से कम आँख से कुछ दिखेगा तो नहीं। खाना पैक कराने से एक और फायदा हुआ। जाने या अन्जाने में पैक करने वाले ने एक रोटी अधिक पैक कर दिया। खाना लेकर लगभग 9 बजे तक मैं अपने होटल पहुँच गया लेकिन तबतक पूरे शहर को सन्नाटे ने निगल लिया था। दो नेपाली व्यक्ति कमरा खोजते हुए उसी होटल में पहुँचे थे। होटल मैनेजर आई.डी. प्रूफ माँग रहा था जो उनके पास नहीं थी। तर्क–वितर्क हो रहे थे। दो मिनट तक मैंने उनकी बहस सुनी और फिर अपने कमरे में चला गया।

10 नवम्बर
सुबह के समय मौसम कुछ ठण्डा था। जिस होटल में मैं रूका था,उसके ग्राउण्ड फ्लोर पर सिर्फ मैं ही मैं था। और ऊपर तो शायद कोई नहीं था। अर्थात यहाँ भी पूरी तरह सन्नाटा था। मेरे कमरे से निकलती छोटी सी आवाज भी पूरे होटल में गूँज रही थी। बाथरूम में पानी अत्यधिक ठण्डा था। फिर भी मैंने नहाने की औपचारिकता पूरी कर ली। क्या पता फिर आगे "नहाने का चांस" मिले न मिले। सुबह के 6 बजे बस स्टेशन पहुँचा तो दो–तीन बसें खड़ी मिलीं। पता चला कि मुन्स्यारी के लिए कोई बस नहीं है। यह भी पता चला कि 9.30-10 बजे के बीच मुन्स्यारी के लिए एक बस है जो दिल्ली से आती है। यह रोडवेज की वही बस है जो सुबह के 5.30 बजे अल्मोड़ा में मिलती है। इस बस से एक बार अल्मोड़ा से बागेश्वर तक की यात्रा कर चुका हूॅं। लेकिन इस बस के लिए 4 घण्टे इंतजार करना बेवकूफी होती। के.एम.ओ.यू. के स्टैण्ड पर गंगोलीहाट–पिथौरागढ़ के लिए एक बस लगी थी। कण्डक्टर ने उडियारी बैण्ड तक जाने की सलाह दी तो मैं बस में बैठ गया। 50 किमी के 70 रूपये। बस बागेश्वर से 6.30 बजे चली और 8.30 बजे उडियारी बैण्ड पहुँच गयी। उडियारी बैण्ड प्रसिद्ध हिल स्टेशन चौकोरी से थोड़ा सा आगे है। यह बैण्ड इसलिए है क्योंकि सड़क यहाँ बिल्कुल यू टर्न लेकर थल और नाचनी होते हुए मुन्स्यारी चली जाती है। इसके अलावा यहाँ दक्षिण से पिथौरागढ़ से गंगोलीहाट–बेरीनाग होते हुए आने वाली सड़क भी मिलती है। मेरी बस तो यहीं से मुड़ कर गंगोलीहाट–पिथौरागढ़ की ओर चली गयी और मैं उडियारी बैण्ड पर 10 रूपए वाली चाय पीने के लिए खड़ा हो गया। कुछ और लाेग भी गाड़ियों का इन्तजार कर रहे थे। इनमें एक बंगाली माँ–बेटे भी थे जो उत्तराखण्ड घूमने के लिए आए थे। फिलहाल वे मदमहेश्वर की यात्रा करके आ रहे थे। मदमहेश्वर में ही घोड़े से उतरते समय,पैर फिसल जाने की वजह से माँ के पैरों में चोट लग गयी थी। उडियारी बैण्ड पर पता चला कि यहाँ से थल की गाड़ी मिलेगी और वहाँ से मुन्स्यारी के लिए। 15 मिनट के अन्दर ही एक जीप थल के लिए मिल गयी और 9.30 बजे तक मैं थल पहुँच गया। थल में एक गाड़ीवाले ने तुरंत ही मुन्स्यारी के लिए बिठा लिया लेकिन एक रेस्टोरेण्ट के सामने काफी देर तक गाड़ी खड़ी कर दी। अच्छा ही हुआ। ड्राइवर के साथ साथ सवारियों ने भी नाश्ता कर लिया। 30 रूपए में चाऊमीन का बहुत ही स्वादिष्ट नाश्ता मिल गया। उत्तराखण्ड में मैंने जहाँ भी मैगी या चाऊमीन खाई थी,उनमें यह सबसे अच्छा था। इसी गाड़ी में वे बंगाली माँ–बेटे भी सवार हो चुके थे।

सवा दस बजे तक गाड़ी मुन्स्यारी के लिए रवाना हो गयी। लेकिन पौने बारह बजे तक ड्राइवर को भूख भी लग आयी। उसने क्वीटी में खाना खाने के लिए गाड़ी रोक दी। अच्छा ही हुआ। कोई झाँकी निकाली जा रही थी। मैंने मोबाइल से इस झाँकी का एक वीडियो भी बनाया। "वैसे इतना खाने वाला ड्राइवर तो पेट भरने में ही तबाह हो जाएगा" – ऐसा मैं सोच रहा था। 
2 बजे मैं मुन्स्यारी के बस या टैक्सी स्टैण्ड पर पहुँच गया। लेकिन आधे घण्टे पहले से ही बूँदाबाँदी शुरू हो गयी थी जो वहाँ पहुँचने के बाद भी जारी थी। ड्राइवर को गाड़ी रोककर ऊपर रखे सामान को प्लास्टिक से ढँकना पड़ा। इस बूँदाबाँदी में मुन्स्यारी और आस–पास की पहाड़ियों की सुन्दरता और भी निखर गयी थी। रास्ते में पड़ने वाले बिर्थी फाल और उसके चारों ओर फैली हरियाली का रंग बादलों की वजह से और भी गाढ़ा हो गया था।
मुन्स्यारी के स्टैण्ड पर थाेड़ी सी जगह है जहाँ दाहिनी तरफ छोटी गाड़ियाँ खड़ी होती हैं। कूड़ा–करकट भी पर्याप्त मात्रा में इकट्ठा रहता है। दिल्ली से आने वाली एकमात्र बस भी बायीं तरफ खड़ी होती है। आस–पास कई होटल व लॉज हैं जो काफी महँगे हैं। थोड़ा सा खोजने पर पास ही में 300 रूपए में एक कमरा मिल गया। बंगाली माँ–बेटे को फोन पर रहने–खाने के बारे में सारी जानकारियां मिल रही थीं। कोई परिचित व्यक्ति या ट्रैवेल एजेण्ट फोन पर ही उनकी सहायता कर रहा था।
बारिश की तीव्रता कुछ बढ़ गयी थी। मौसम रजाई ओढ़कर सोने लायक था या फिर रजाई में बैठे–बैठे पकाैड़ियाँ खाने लायक। लेकिन बारिश में मुन्स्यारी की सड़कों पर छाता लेकर टहलने में भी कम मजा नहीं था। होटल मैनेजर एक बहुत ही विनम्र व्यक्ति था। मैंने आस–पास घूमने लायक जगहों के बारे में पूछताछ की। उसने नंदादेवी मंदिर के बारे में बताया। साथ ही मुझे छाता भी दिया। तो मैं भी बारिश की परवाह न करते हुए उसके बताए रास्ते पर छाता लगाए नंदा देवी मंदिर की ओर चल पड़ा।
आसमान में घने बादल थे। बिल्कुल काले–काले। इन बादलों ने उस दृश्य को पूरी तरह ढक लिया था जिसके लिए मुन्स्यारी जाना जाता है। फिर भी मुन्स्यारी की भीगी सड़कों पर,रिमझिम बारिश में,शरीर में सिहरन पैदा करती हवा के साथ बिल्कुल अकेले चहलकदमी करना कितना रोमांचक है,बयां नहीं किया जा सकता।
2.45 पर होटल से चलकर मैं 3.15 तक नंदा देवी मंदिर पहुँच गया। अर्थात लगभग 2 किमी। आधे से कुछ कम का रास्ता मुन्स्यारी के बीच से होकर गुजरता है जबकि आधे से अधिक कस्बे से बाहर है। चारों तरफ पहाड़ी ढलानों पर हरियाली फैली थी। अगर बादल न होते बर्फ से ढकी चोटियां भी दिखायी पड़तीं। लेकिन रिमझिम बरसात में तो मौसम रोमांटिक हो उठा था। और बारिश की वजह से मैं रास्ते पर बिल्कुल अकेला था। कस्बे के अन्दर तो रास्ता पक्का है लेकिन बाहर निकलने के बाद कई जगह कच्चा हो गया है। आगे की सड़क पक्की भी है,कच्ची भी। किनारे–किनारे इक्के–दुक्के पेड़ भी हैं जो आगे चलकर जंगल में तब्दील हो जाते हैं।

पहाड़ी के किनारे पर,जंगल के बीच से गुजरता रास्ता कहीं और भी जा रहा था। रास्ते के दाहिनी तरफ एक जगह सीढ़ियां ऊपर की ओर जा रही थीं। बारिश में कोई रास्ता बताने वाला भी नहीं था। मैं सीढ़ियों से ऊपर चला गया। ऊपर पहुँचा तो पता चला कि मैं सही जगह आया हूँ। एक छोटा सा गेट बना है जिसके पास ही एक छोटा सा कमरा बना हुआ है। यहाँ मंदिर परिसर में प्रवेश करने के लिए टिकट मिलते हैं। मैंने उस कमरे के चारों ओर चक्कर लगाया लेकिन कोई भी टिकट देने वाला नहीं मिला। बारिश की वजह से वह भी कहीं और आराम फरमा रहा था। अब टिकट के लिए इन्तजार करने से बेहतर था कि मैं बिना टिकट ही अंदर प्रवेश कर जाऊॅं। सो मैंने वही किया।
मंदिर परिसर बिल्कुल खाली नजर आ रहा था। मुन्स्यारी की ठण्ड में,बारिश में कौन वहाँ भीगता। तभी कुछ छतरियों जैसी बनी पक्की संरचनाएं दिखीं। ये व्यू प्वाइंट हैं। एक लाइन में तीन छतरियां दिख रही थीं। तीनों में बारिश की वजह से लोग छ्पिे हुए थे। मैं आगे बढ़ता रहा। बायें हाथ नंदा देवी का छोटा सा मंदिर है जबकि दाहिनी तरफ गहरी घाटी। नंदा देवी का यह मंदिर पहाड़ी के कोने पर बना है जिसके सामने लम्बी और गहरी घाटी है। इस घाटी के उस पार हिमालय की हिमाच्छादित चोटियां दिखती हैं। इन चोटियों के दिखने का हल्का आभास हो रहा था क्योंकि ये अभी बादलों के पीछे छ्पिी हुई थीं। सबसे अंतिम व्यू प्वाइंट,जो बिल्कुल पहाड़ी के कोने पर स्थित है,वहाँ सबसे कम भीड़ थी तो मैं उधर ही चल पड़ा। लेकिन वहाँ पहुँचते ही मुझे पता चल गया कि मैंने बड़ी गलती कर दी है। फिर भी अब तो आ गया था।
उस छतरी के नीचे चारों पुरूषार्थ– धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष साक्षात खड़े थे। मेरा उनसे साक्षात अभी होने वाला था। वैसे उनके आठ हाथ और आठ पैर इतने वेग से गतिमान थे कि सूर्यदेव के सातों घोड़ों को भी मात देते लग रहे थे। पास ही पक्की बेंचों पर एक बैग व एक प्लास्टिक का थैला व एक पानी की बोतल रखी थी। मौसम काफी ठण्डा था तो संभवतः उनका शरीर भी कंपन कर रहा था। क्योंकि उनके शरीर पर टी–शर्ट और जींस के अलावा कुछ भी नहीं था। वहाँ मेरे पहुँचने भर की देर थी उन्होंने मेरा परिचय लेना और अपना परिचय देना शुरू कर दिया। मैंने छोटा सा परिचय दिया। मेरे पास अधिक कुछ बताने के लिए था नहीं। अलबत्ता उनके पास जमाने भर की बातें थीं। एक ने मेरी रेगिंग शुरू की–
"आप टीचर हैं? मेरे पापा भी टीचर हैं। और हाँ,हम लोग भी यूपी के ही हैं। अन्तर बस इतना है कि आप पूरब के हैं और हम लाेग पश्चिम के हैं। ये जो भाई साहब हैं,मेरे बड़े भाई की तरह हैं। इनका दिल्ली में बहुत बड़ा बिजनेस है। बॉलीवुड की बड़ी–बड़ी हीरोइनों की ड्रेस इनके यहाँ ही तो बनती है। वो कारीगरी होती है कि पूछो मत।"
मैंने मन ही मन सोचा– "मैं पूछ ही कहाँ रहा हूँ।"
"और ये जो दूसरे हैं,इन्हीं के असिस्टेंट हैं। इनके हाथ की सफाई के क्या कहनेǃ वो ड्रेस बनाते हैं कि हीरोइनें इनके पीछे भागी फिरती हैं। आप घूमने आए हैं? आपके ग्रुप के बाकी मेम्बर कहाँ हैं?"
बन्दे ने अब काम वाला सवाल दागा था।
"मैं अकेला हूँ।"
"आप तो बहुत डेंजरस आदमी हैं। इतनी दूर अकेले घूमने चले आए हैं। आप कहाँ–कहाँ घूम चुके हैं? हम तो कुल्लू–मनाली पन्द्रह बार जा चुके हैं। वो बर्फ है भाई साहब कि मन सफेद हो जाता है। यहाँ तो कुछ भी नहीं है। सिर्फ कीचड़ है कीचड़। लग रहा है कहाँ फँस गए।"
उसके धाराप्रवाह भाषण से मैं किसी तरह पिण्ड छुड़ाना चाह रहा था। लेकिन एक की जुबान बन्द हाेती तो दूसरे की चालू। मुझसे न रहते बन रहा था न भागते। बारिश हल्की–हल्की जारी थी। धीरे–धीरे उनकी इस वाचालता का कारण समझ में आने लगा।
तभी एक बन्दा प्लास्टिक के थैले में से एक और बोतल निकाल रहा था। वैसे यह पानी की बोतल नहीं थी वरन "दिव्य सोमरस" की बोतल थी। उसके साथ कुछ गिलासें भी थीं। अब तो मुझे लगने लगा कि मैं कहाँ फँस गया। और जब एक गिलास मुझे भी ऑफर की जाने लगी तो मुझे लगा कि आज मेरी घुमक्कड़ी सार्थक हो गयी। एक या दो पैग पहले के चल चुके थे। तभी इन महापुरूषों के हाथ–पैरों में वो अभूतपूर्व गति पैदा हो सकी थी। ठण्ड के हिसाब से इनके पास कपड़े अपर्याप्त थे। तो अगले पैग की भी जल्दी ही जरूरत पड़ गयी थी। मैंने हाथ–पैर जोड़ कर उस दिव्य–सोमरस से किसी तरह अपना जान बचायी। मेरे लिए अब वहाँ रूकना मुश्किल था। मैंने अपना छाता हवा में उठाया और उस व्यू प्वाइंट से दूसरी ओर चल पड़ा। अभी हल्की–हल्की बारिश जारी थी इसलिए उनके मेरे पीछे आने की कोई संभावना नहीं थी।
नंदा देवी मंदिर
नंदा देवी मंदिर के नीचे दिखती सुंदर घाटी
चोटी के ऊपर बादलों से गिरती बर्फ

और मुन्स्यारी में यह पतझड़ का मौसम भी है






अण्डों के बावजूद शाकाहारी होटल

अगला भाग ः खलिया टॉप

सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. मुन्स्यारी की ओर
2. खलिया टॉप
3. थमरी कुण्ड
4. पिथौरागढ़

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