Friday, January 11, 2019

खलिया टॉप

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कुछ देर में बारिश कुछ हल्की हो गयी। बादल भी छँटने शुरू हो गये थे। हिमालय की चोटियों के होने का कुछ–कुछ एहसास होना शुरू हो गया था। ये भी एहसास हो रहा था कि अगर बादल नहीं होते तो नजारा कैसा होताǃ
मंदिर परिसर में एक–दो चक्कर लगाने के बाद 5 बजे मैं वापस लौट पड़ा। वो चारों सतयुगी बन्दे भी मंदिर छोड़कर बाहर निकल चुके थे लेकिन मैं उनसे दूरी बनाए हुए था।
5.30 बजे तक मैं अपने होटल पहुँच गया। रास्ते भर मैं रेस्टोरेण्टों में झाँकता आ रहा था। लेकिन शुद्ध शाकाहारी भोजनालय कोई नहीं दिखा। मैंने होटल वाले के सामने अपनी समस्या रखी। उसने झट समाधान बताया। साथ ही मुझे वहाँ पहुँचाने का वादा भी किया। साथ ही सचेत भी किया कि अधिक देर किया तो भोजनालय बन्द भी हो जाएंगे।
मैंने भी उसकी बात का समर्थन किया। मुन्स्यारी वास्तव में एक गाँव है। पर्यटकों ने इसे कस्बा बना दिया है। वैसे इस समय भीड़–भाड़ कम है। तो कई सारे भोजनालय बन्द हैं। उस पर भी आज मौसम काफी ठण्डा हो गया है। इसलिए जल्दी बन्दी हो जानी स्वाभाविक है।
6 बजे के आस–पास मैं अपने होटल इंचार्ज के साथ भोजनालय के दरवाजे पर था। एक महिला उस छोटे से रेस्टोरण्ट का संचालन कर रही थी। उसका पति भी हाथ बँटा रहा था। मुझे वहाँ होटल वाला छोड़कर वापस लौट गया। खाने के विकल्प अधिक नहीं थे। सीधी–सादी 70 रूपये वाली थाली स्वागत करने को तैयार थी। लेकिन उससे पहले मुझे अण्डे दिख गए। मैंने अपनी आशंका जाहिर कर दी। महिला ने सफाई दी कि मांसाहारी भोजन वाे भी नहीं खाती। उसकी समझ से अण्डा भी शाकाहारी ही है। अब मेरे जैसे बेवकूफ तो अण्डों को भी मांसाहारी ही समझ बैठते हैं।
महिला ने पूछा– "सब्जी हरी वाली लेंगे या पीली वाली।" मेरा तो दिमाग ही चकरा गया। रंगों के आधार पर सब्जी का वर्गीकरण अब तक मैंने नहीं सुना था। लगा कि मेरा तो जीना ही बेकार हो गया जो इतना भी नहीं मालूम। मेरी दुविधा समझकर खुद ही उसने समस्या का समाधान किया। पीली सब्जी का मुखिया आलू होगा। हरी सब्जी में साग वगैरह हो सकते हैं। मैंने हरी सब्जी को ही वरीयता दी। कुछ ही मिनटों के अन्दर थाली मेरे सामने थी।

मैं खाना खाता रहा और महिला से बातचीत भी करता रहा। पता चला कि यहाँ मुन्स्यारी में अनाज नहीं पैदा होता। सब नीचे से मँगवाना पड़ता है। थोड़ी बहुत सब्जियाँ पैदा हो जाती हैं। आज उन्हीं सब्जियों में से एक राई का साग मुझे खाने को मिला था। महिला ने बताया कि यहाँ की राई मैदानों में पैदा होने वाली राई से अलग होती है। महिला की बातों से पहाड़ की जिन्दगी का पहाड़ जैसा संघर्ष झलक रहा था। उसने बताया कि जाड़ों में पर्यटकों का आना काफी कम हो जाता है। मैं ध्यान से देख रहा था कि पर्यटकों के कम आने का उसे बहुत दुःख है। दरअसल पर्यटकों की आमद ही उसकी आमदनी का जरिया है। वह मुझसे अगली बार परिवार और बच्चों के साथ जाड़े में आने का निवेदन कर रही थी। क्योंकि उस समय काफी बर्फ मिलेगी। मैं मन ही मन चिन्तन कर रहा था। हम लाेग जो सुकून के पल खोजने और मन के आनन्द के लिए इन पहाड़ों में जो समय बिताते हैं,वही यहाँ के निवासियों के लिए आजीविका का साधन बनता है।
तभी कुछ लोग खाना पैक कराने आ गए। वे सभी शाकाहारी थे। शाकाहारी रेस्टोरेण्ट ढूँढ़ते हुए यहाँ तक पहुँचे थे,लेकिन उनके पास खाना ले जाने लायक कोई बर्तन नहीं था। महिला के पास भी कोई अस्थायी पैकिंग करने का उपाय नहीं था और वह अपना टिफिन उनको देने को तैयार नहीं थी। पता नहीं कैसे लोग होंगे। कहीं टिफिन ही लेकर चलते बने तो ......। वैसे उस टिफिन के बदले वे पाँच सौ या हजार जमा करने को भी तैयार थे। और अंत में इसी फार्मूले पर उन्हें खाना मिला। दुकान में रखे अण्डे देखकर तो वे लाेग भी हिचक रहे थे लेकिन मेरी सलाह के बाद अण्डों को उन्होंने भी शाकाहारी मान लिया।
शाकाहारी भोजन के लिए इतनी मगजमारी। हे नगराजǃ हे हिमालयǃ कैसी विडम्बना हैǃ तुम जीवन के स्रोत होǃ तुम न होते तो असंख्य मानवों को जीवन का सार तत्व "जल" उपलब्ध कराने वाली ये सदानीरा नदियाँ न होतीं। भारतवर्ष की धरती पर मेघों को बरसने के लिए बाध्य करने वाले हे महापुरूषǃ दोष तुम्हारा नहीं। मिलता तो वही है,जिसे हम खोजते हैं।

मुन्स्यारी शाम को जल्दी सो जाता है। दिन तो छोटे होते ही हैं। उस पर भी अगर ठण्ड अधिक हो या मौसम खराब हो तो पूछना ही क्याǃ और नींद भी ऐसी कि साँसों की आवाज भी शायद ही सुनाई दे। रात के 8 बजे तक तो मुन्स्यारी के रात्रिचर जीव–जन्तु और कीड़े–मकोड़े भी सो गये थे। अगर कोई बर्फीला पहाड़ी ट्रेक होता तो अलग बात थी लेकिन एक गाँव में इतनी शान्ति या निःस्तब्धता,वास्तव में आश्चर्यजनक है। ऐसे वातावरण में रात गुजारने का भी अपना ही रोमांच है।

11 नवम्बर
रात में जल्दी सो गया था तो सुबह जल्दी उठ गया। बाथरूम में गीजर लगा था लेकिन नहाने की इच्छा का मैं परित्याग कर चुका था। मेरा होटल काफी ऊँचाई पर था तो बाहर हिमालय की चोटियाँ और मुन्स्यारी कस्बा आसानी से दिखाई पड़ रहा था। कुछ मिनट तक इस नजारे का दीदार करने के बाद 6 बजे तक मैं बस स्टैण्ड पर था। आज मेरा लक्ष्‍य मुन्स्यारी की प्रसिद्ध खलिया टॉप पर ट्रेकिंग करने का था। इसके लिए मुझे मुन्स्यारी से वापस थल की ओर जाने वाली रोड पर 8 किमी तक जाना था। और इसके लिए उधर जाने वाली कोई गाड़ी पकड़नी थी। हल्द्वानी जाने के लिए गाड़ियों की लाइन लगी थी। पता नहीं इतने लोग कहाँ से आ गए थे। ये सारे के सारे दीपावली की छुटि्टयाँ बिताने आए थे। अब ये मुन्स्यारी के रहने वाले हों या मुन्स्यारी के बाहर के। ये सारी गाड़ियाँ नीचे की ओर मुन्स्यारी बाजार से आकर यहाँ स्टैण्ड पर खड़ी हो रही थीं और चाय की गिलासों में डुबकी लगा रही थीं। हल्द्वानी जाने वाले ही बड़ी संख्या में थे तो 8 किमी जाने वाले को कौन जगह देताǃ मैं पीठ पर बैग लादे बेचैनी से इधर से उधर दौड़–भाग करता रहा। एकमात्र बस जो दिल्ली से अल्मोड़ा–बागेश्वर होकर मुन्स्यारी आती है,अभी खड़ी थी। पता चला कि इसके यहाँ से छूटने का समय 7.30 बजे है। मैंने तय कर लिया था कि और कोई गाड़ी नहीं तो यह बस तो है ही। समय का नुकसान तो हो ही रहा था। 7 बजे तक बस के ड्राइवर महोदय हाजिर हो चुके थे। लेकिन अभी बस की सफाई का काम चल रहा था।
मैं कई सारे गाड़ी वालों से पूछ चुका था लेकिन कोई मुझे बिठाने को तैयार नहीं था। एक गाड़ी वाला जो केवल थल तक जा रहा था,मुझे भी साथ ले चलने को तैयार हुआ। बस अभी भी खड़ी थी। 7.40 पर वह गाड़ी चली और आठ बजे मैं वहाँ पहुँच गया जहाँ खलिया टॉप ट्रेल शुरू होता है। वैसे जीप वाले ने इस आठ किमी के 30 रूपए मुझसे वसूल लिये। मैंने उस गाड़ी वाले से ही ट्रेक का रास्ता पूछा और पहाड़ी पगडण्डियों पर चल पड़ा। चिड़ियों की सुरीली आवाज पहाड़ पर बसे जंगल में गूँज रही थी। पगडण्डी को एक–दो बिना पानी वाले झरने काट रहे थे। अगर इनमें एक–दो फुट तक भी पानी होता तो इन्हें पार करना मुश्किल होताǃ वैसे इनमें बारिश के मौसम में ही अधिक पानी होता होगा। बाकी खलिया टॉप पर संभवतः इतनी बर्फ नहीं होती जिससे कोई सदाबहार धारा निकल सके। थोड़े बहुत रास्ते को छोड़कर अधिकांशतः बहुत तेज चढ़ाई है। पेड़ और पत्थर तो दिख ही रहे थे लेकिन मैं चाह रहा था कि कोई आदमी भी दिखे। लेकिन इधर–उधर कोई नहीं था।

पूरे ट्रेक पर दो–तीन जगह पेड़ों की शाखाओं पर दूरियाँ बताते प्लास्टिक के बैनर लगे हैं जो कहीं–कहीं चिथड़ों में परिवर्तित हो गये हैं। फिर भी दूरियों का अनुमान तो लगता ही रहता है। अगर ये न हों तो यही महसूस होगा कि हमने तो चाँद तक की दूरी तय कर ली। एक घण्टे से कुछ अधिक समय तक मैं बिल्कुल अकेले चलता रहा। अब तक कोई साथ था तो बस जंगल और पंछ्यिों की आवाज। ये पंछी भी पता नहीं किस गुफा में छ्पिे हुए थे जहाँ से केवल आवाजें ही आ रही थीं। जगह–जगह पगडण्डी के मोड़ों से,जहाँ पेड़ नदारद थे,पंचाचूली की चोटियाँ चमकती हुई दिखायी दे रही थीं और ये इस ट्रेक के सबसे हसीन पल थे। कुछ ही देर में हँसने–खिलखिलाने की सुरीली आवाजें कानों में पड़नी शुरू हुईं। लेकिन बिल्कुल अकेली आवाज। अब इस निर्जन वन में कोई कोमल सुंदरी अकेले तो आने से रही। इतना तो तय हो गया कि अब मैं अकेले इस जंगल का मालिक नहीं हूँ। कोई और भी है। फिर भी मेरी चढ़ाई की गति इतनी तो थी ही कि कोई मुझे ओवरटेक न कर पाये। वैसे मुझे रूक–रूककर फोटो लेने में भी कुछ समय जाया हो रहा था। अब इतने सुंदर स्थान का फोटो छोड़ भी नहीं सकते। अब तक मैं एक धार या कटक के शीर्ष पर पहुँच चुका था जहाँ से दाहिनी तरफ,नीचे की ओर हरा–भरा छोटा सा बुग्याल नजर आ रहा था। यह बालान्ती फार्म का दृश्य था। यह एक सरकारी फार्म है। यहाँ पास ही पं. नैनसिंह रावत के नाम पर बना एक पर्वतारोहण प्रशिक्षण संस्थान भी है।

अब तक रात की पड़ी बर्फ भी दिखायी देनी शुरू हो गयी थी। दिखायी ही नहीं दे रही थी वरन इसने अपना रंग भी दिखाना शुरू कर दिया था। अर्थात पगडण्डी के दोनों तरफ पड़ी बर्फ तो दिखने में सुंदर लग रही थी लेकिन पगडण्डी पर पड़ी बर्फ में खतरनाक फिसलन थी। एक–दो जगह तो इतनी तेज फिसलन थी कि रास्ते किनारे के पेड़ों की टहनियां पकड़कर आगे बढ़ना पड़ा। 10 बजे तक मैं खलिया टॉप से कुछ नीचे बने एक रेस्टोरेण्ट तक पहुँच गया। यहाँ मुझसे पहले पहुँचने वाला तो कोई नहीं था,हाँ मेरे साथ ही एक युगल पहुँचा जिसने मुझसे काफी पहले ट्रेकिंग शुरू की होगी। 
इस ट्रेक पर यह अकेला रेस्टोरण्ट है। यहाँ एक रेस्टरूम भी है लेकिन इसका किराया इतना महँगा है कि कोई शौकीन किस्म का आदमी ही यहाँ रूकेगा। वैसे भी इस एक दिन के ट्रेक पर रात में रूकने की कोई जरूरत नहीं है। एक कमरे के रेस्टोरण्ट में दो लोग काम करते हैं। इस समय ट्रेकर्स की कोई बड़ी भीड़ नहीं है। हो सकता है कभी होती होगी। तेज पहाड़ी ढलान पर थोड़ी सी समतल जगह निकल आयी है तो खूबसूरत हिमाच्छादित चोटियों की पृष्ठभूमि में यह रेस्टोरेण्ट यात्रियों की सेवा कर रहा है। रात में बरफ पड़ी है। जगह–जगह जमी हुई है। सीढ़ियाँ बर्फ से ढकी हुई हैं। इस स्थान से दूर सामने की ओर पंचाचूली की चोटियाँ बिल्कुल साफ चमकती हुई दिखायी पड़ रही हैं। बादलों के टुकड़े उन्हें ढकने की कोशिश में लगे हुए हैं। नीचे की ओर फैली हुई घाटी दिखायी पड़ रही है।
बर्फ पर मेरे साधारण किस्म के जूते फिसलने लगे। मैं परेशान हो उठा। पाँव जमाने के लिए काफी कसरत करनी पड़ रही थी। मेरे हाथ में डण्डा भी नहीं था। फिर भी रेस्टोरेण्ट के पास तक पहुँच जाने के बाद लगता है कि मेहनत सफल हाे गयी। बर्फ से ढकी पंचाचूली चोटियों के ऊपर घुमड़ते बादल उन्हें अपने आगोश में लेने के लिए बेकरार थे। मैंने 50 रूपए वाले आलू परांठे का आर्डर दे दिया। रेस्टोरेण्ट के सामने के खुले आँगन में लगी कुर्सियों और मेज पर,मेरे साथ आया युगल कब्जा कर चुका था। मैंने भी एक कुर्सी पर अपने बैग को स्थापित किया और कैमरा लेकर बादलों में खो गया।
थोड़ी ही देर में 5 लोगो का एक और समूह भी यहाँ पहुँच गया जिसमें दो जोड़े लैला–मज़नूं के थे और रेस्टोरेण्ट में भीड़ हो गयी। रेस्टोरेण्ट के आस–पास का नजारा कुछ वैसा ही था जैसे लम्बी दूरी की हाइक पर कोई समूह पहुँच गया हो। खलिया टाॅप अभी यहाँ से भी 1 किमी की चढ़ाई पर है। अधिकांश लाेग यहीं से ही वापस लौट रहे थे। लेकिन तीन लोग जो दो बाइकों पर आए थे,ऊपर जाने को तैयार थे और वे मेरे अकेले सहयात्री थे।
खलिया टॉप 3500 मीटर या 11480 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। सड़क के पास से आरम्भ होकर यह कुल लगभग 5 किमी लम्बा ट्रेक है। जाड़ों में यह बर्फ से ढक जाता है। लेकिन इस समय नवम्बर के महीने में केवल इसके ऊपरी भागों में ही थोड़ी सी बर्फ पड़ी है। 
11.15 बजे मैं वापस हो लिया। लौटते समय रास्ते में बहुत मजा आ रहा था। ऊपर के हिस्से में तो उतरते समय कोई नहीं मिला लेकिन निचले हिस्से में काफी लाेग मिले जो ऊपर जा रहे थे। वैसे इन लोगों की दशा और हिम्मत देखकर लग नहीं रहा था कि ये ऊपर पहुँच पाएंगे। कुछ तो इतने बुजुर्ग थे कि उनके लिए ये ट्रेक असम्भव था। तो कुल लोग काफी छोटे–छोटे बच्चों के साथ आए थे। कुछ बर्डवाॅचर भी थे और काफी लम्बे–चौड़े कैमरे लेकर आए हुए थे। सबसे नीचे एक बड़ा समूह मिला जो अपने पूरे लाव–लश्कर अर्थात बच्चों और बूढ़ों के साथ था। वैसे ऊपर जाने वाले इन सभी लोगों को रास्ता और दूरियाँ बताने की जिम्मेदारी अब मेरे कन्धों पर आन पड़ी थी जिसे मैं बखूबी निभा रहा था। एक बड़ा समूह एक छोटी सी घास से ढकी जगह पर पिकनिक मना रहा था और ऊपर जाने का उनका कोई इरादा नहीं था। यहाँ इस समय पता नहीं कहाँ से बड़ी संख्या में बन्दर इकट्ठे हो गए थे जो मुझे जाते समय नहीं मिले थे। बन्दरों की भीड़ देखकर मुझे नासिक के पास के अंजनेरी और ब्रह्मगिरि के ट्रेक याद आने लगे। वैसे यहाँ मनुष्यों की इतनी भीड़ थी कि बन्दरों से डरने की कोई जरूरत नहीं थी। पौने एक बजे तक ट्रेक पूरा कर मैं सड़क पर आ चुका था और अब थमरी कुण्ड जाने की तैयारी में था।









पतझड़



पंचाचूली की चोटियाँ
खलिया टॉप पर बना इकलौता रेस्टोरेण्ट
रास्ते पर बिछी बर्फ की हल्की परत

अगला भाग ः थमरी कुण्ड

सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. मुन्स्यारी की ओर
2. खलिया टॉप
3. थमरी कुण्ड
4. पिथौरागढ़

4 comments:

  1. मजेदार पोस्ट-इस ट्रिप की पुरानी यादें ताजा हो गई।

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    1. जी धन्यवाद। मैं जिस समय गया था,मौसम बहुत खराब था और बारिश हो रही थी। कुछ दृश्य नहीं दिख पाये लेकिन कुछ नये दृश्यों की रचना हो गयी।

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