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Friday, December 28, 2018

माणा–भारत का आखिरी गाँव

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20 अक्टूबर
भारत सेवाश्रम संघ में 200 रूपये में तीन बेड का कमरा मिला था। तीन रजाइयाँ भी मिली थीं। उधर केदारनाथ में दो बेड पर चार "हैवी रजाइयाँ" मिलीं थीं। संभवतः ठण्ड को देखते हुए। इतनी ठण्ड थी कि एक रजाई को ही गद्दा बनाकर गद्दे के ऊपर बिछाना पड़ा। वैसे यहाँ ऐसी बात नहीं थी। रजाइयाँ बहुत भारी नहीं थीं फिर भी ठण्ड महसूस नहीं हुई। भरपूर नींद आई। थकान भी उतारनी थी। केदारनाथ में एक बाल्टी गरम पानी का जुगाड़ होने के बाद भी नहाने की हिम्मत नहीं हुई थी तो फिर यहाँ ठण्डे पानी से कौन नहाता है।

Friday, December 21, 2018

बद्रीनाथ

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19 अक्टूबर
रात को ही बद्रीनाथ की ओर जाने के विकल्पों के बारे में पता कर आया था। गुप्तकाशी से वापस रूद्रप्रयाग जाकर वहाँ से गोपेश्वर जाने का विकल्प भी खुला था। लेकिन सूत्रों से पता चला कि सुबह के 6.30 बजे सीधे गोपेश्वर की बस मिल जायेगी। तो फिर रूद्रप्रयाग जाने की क्या जरूरत। मैं 6 बजे ही स्टैण्ड पर पहुँच गया। बस तो लगी थी लेकिन बस में यात्रा करने वाला कोई न था। तो आराम से मैंने पास की दुकान में चाय पी। 6.45 पर बस चल पड़ी। 85 किमी के 140 रूपये। गुप्तकाशी के बगल में ही ऊखीमठ है। हवाई दूरी तो कुछ भी नहीं है। मंदाकिनी दोनों को अलग कर देती है।

Friday, December 14, 2018

केदारनाथ–बाबा के धाम में

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18 अक्टूबर
सुबह के साढ़े पाँच बजे सोकर उठा और आधे घण्टे में बाहर निकल गया। शायद सफेद चोटियों पर सूरज की पीली रोशनी पड़ रही हो। लेकिन अभी तो बाहर रास्ते के किनारे पीली लाइटें जल रही थीं। सफेद चोटियों पर कालिमा छाई हुई थी। मंदिर बिल्कुल खाली था। सामने के प्रांगण में एक स्थान पर अँगीठी जल रही थी जहाँ कुछ लोग ठण्ड से दो–दो हाथ कर रहे थे। वो भी मेरी तरह यूँ ही टहलते हुए आ गये थे। यहाँ तो कोई "बेघर" शायद जीवन संघर्ष में सफल नहीं हो सकता। मेरे हाथों में भी गलन हो रही थी क्योंकि दस्ताने नहीं थे। चेहरा और होठ सुन्न हो रहे थे। सूरज उजले पहाड़ों की ओट में था। कुछ ही मिनटों में मैं काँपने लगा। एक चाय वाले की अँगीठी के पास मैं भी खड़ा हुआ।

Friday, December 7, 2018

केदारनाथ के पथ पर

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जय केदारǃ
भीमबली से 1 किमी चलकर रामबाड़ा पहुँचा तो मंदाकिनी की विनाशलीला की याद आ गयी। एक झोपड़ी में मैगी बन रही थी। जीभ पर पानी आ गया लेकिन समय नहीं था। मैंने दुकान वाले से पूछा– "रामबाड़ा किधर है?"
उसने हाथ से इशारा कर दिया। लेकिन उधर तो पत्थर ही पत्थर थे। समझते देर न लगी कि सबकुछ मंदाकिनी के गर्भ में समा गया। लेकिन शायद मंदाकिनी यहाँ जितनी सुंदर लग रही थी उतनी मुझे अब तक कहीं नहीं लगी थी। यह विनाश के बाद वाली मंदाकिनी है। शायद इसीलिए इतनी सुंदर है। क्योंकि विनाश के बाद ही सृजन का आरम्भ होता है और सृजन अवश्य ही सुंदर होता है।

Friday, November 30, 2018

वाराणसी से गौरीकुण्ड

16 अक्टूबर
इस बार की यात्रा कुछ विशेष थी। क्योंकि उद्देश्य कुछ विशेष था। उद्देश्य था बाबा केदारनाथ के दर्शनों का। अवसर था दशहरे की छुटि्टयों का फायदा उठाने का। तो माध्यम बनी एक रेलगाड़ी जिसका नाम है– हरिहर एक्सप्रेस। इसका नाम भले ही हरिहर एक्सप्रेस है लेकिन यह "हरि के द्वार" अर्थात हरिद्वार के बगल से गुजर जाती है। वहाँ से अन्दर प्रवेश करने के लिए दूसरे जतन करने पड़ते हैं।

Friday, November 23, 2018

ब्रहमगिरि–गोदावरी उद्गम

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चौथा दिन–
आज मेरा नासिक में चौथा दिन था। कल की थकान की वजह से आज उठने में देर हो गयी। कई जगहें घूमने से छूट गयी थीं। समय कम रह गया था। पाण्डवलेनी या पाण्डव गुफाएं भी मैं नहीं जा सका था। हरिहर फोर्ट भी जाने के लिए मैं उत्सुक था। वैसे ये दोनों जगहें बहुचर्चित हैं। कई बार इनका नाम सुन चुका था सो तय किया कि यहाँ बाद में चलेंगे। अभी तो वहीं चलेंगे जहाँ से नासिक और आस–पास के क्षेत्र को जीवन देने वाली माँ गोदावरी का जन्म स्थल है। गोदावरी का उद्गम अर्थात ब्रह्मगिरि।

Friday, November 16, 2018

अंजनेरी–हनुमान की जन्मस्थली

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11 बज रहे थे और मैं अंजनेरी की चढ़ाई की ओर चल पड़ा। इस समय मैं समुद्रतल से लगभग 2500 फीट की ऊँचाई पर था। एक भेड़ चरवाहे से पता चला कि शुरू में तीन किमी का लगभग सीधा रास्ता है लेकिन उसके बाद अगले तीन किमी सीढ़ियां चढ़नी पड़ेंगी। शुरू में लगभग आधे किमी के बाद ही एक जैन मंदिर का निर्माण कार्य चल रहा है। मूर्ति का निर्माण तो हो चुका है लेकिन मंदिर का निर्माण अभी चल रहा है। पास ही एक छोटा सा आश्रम भी है जहाँ से मंदिर निर्माण का संचालन किया जा रहा है। मुझे प्यास लगी थी सो मैंने आश्रम में पानी पिया और आगे बढ़ गया। रास्ते के दोनों तरफ गायों व बकरियों के झुण्ड के साथ चरवाहे यहाँ–वहाँ दिखायी पड़ रहे थे। पहाड़ी पर चारों तरफ बिखरी हुई हरी–भरी घासें और पेड़ अत्यन्त मनमोहक दृश्य का सृजन कर रहे थे।

Friday, November 9, 2018

त्र्यंबकेश्वर

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पंचवटी घूमने में 11 बज गये। सूत्रों से पता चला था कि नासिक–इगतपुरी रोड पर एक नया जैन मंदिर बना है जिसकी वास्तुकला दर्शनीय है। तो सबसे पहले ऑटो के सहारे मैं नासिक के केन्द्रीय बस स्टैण्ड पहुँचा। नासिक के केन्द्रीय बस स्टैण्ड से जैन मंदिर की दूरी तो केवल 15 किमी है लेकिन कौन सी बस जाएगी,ये पता करना भी काफी कठिन काम था। इस काम में भाषा सबसे बड़ी बाधा है। किसी ने बताया कि वडीवर्हे जाने वाली बस उधर होकर ही जाएगी। आधे घण्टे तक स्टेशन परिसर में बेवकूफों की तरह भागदौड़ करने के बाद एक बस मिली।

Friday, November 2, 2018

नासिक

सितम्बर का महीना। ऊमस भरी गर्मी। घुमक्कड़ ऐसे में चल पड़ा उस स्थान की ओर,जहाँ भगवान राम ने अपनी पर्णकुटी बनाई थी अर्थात् नासिक। सोचा था,एक दिन पर्णकुटी के बगल में किसी झोपड़ी में विश्राम करूँगा। जंगल में भगवान राम के चरण जहाँ पड़े होंगे,उन स्थानों का दर्शन करूँगा। उस गुफा में मैं भी एक दिन गुजारूँगा जहाँ राम ने माँ सीता को सुरक्षित रखा था। उस जगह को भी देखने की कोशिश करूँगा जहाँ मारीच का वध हुआ था। शायद मुझे ध्यान नहीं आया कि उस समय से अब तक कई युग बीत चुके हैं। अब तक तो वहाँ वृक्षों के जंगल की जगह कंक्रीट की इमारतों का जंगल खड़ा हो गया होगा।

Friday, October 26, 2018

जयपुर की विरासतें–तीसरा भाग

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कल भानगढ़ और सरिस्का नेशनल पार्क की धुँआधार यात्रा हुई। रात में खाना खाने और सोने में 11 बज गये। थकान भी काफी हुई थी तो सोकर उठने में 7 बज गये। खूब आराम से उठने और नहा–धाेकर खाना खाने में 9.30 बज गये। मेरे एक घनिष्ठ मित्र ने मुझे फोन पर बताया था कि जयपुर पहुँचकर राज मंदिर में पिक्चर न देखी तो फिर जयपुर जाने का कोई मतलब नहीं। मैंने उसी वक्त निश्चय कर लिया कि राज मंदिर सिनेमाघर को बाहर से भले ही देख लूँ,पिक्चर तो कतई नहीं देखने वाला।

Friday, October 19, 2018

सरिस्का नेशनल पार्क

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12.30 बजे मैं गोला का बास से सरिस्का के लिये रवाना हो गया। गोला का बास तक तो सड़क काफी कुछ ठीक थी लेकिन इसके बाद इसकी दशा किसी बीमार बुजुर्ग की तरह क्रमशः खराब होने लगी। गड्ढों का आकार और संख्या महँगाई की तरह बढ़ने लगी। लेकिन इसके साथ ही एक और परिवर्तन हुआ– और वो ये कि सड़क के किनारे का भूदृश्य भी बदलकर पथरीला और जंगली होने लगा। आबादी कम दिखने लगी। और ऐसे दृश्य काफी मनमोहक होते हैं। बारिश के मौसम की वजह से पहाड़ियां काफी हरी–भरी दिख रही थीं। पथरीला धरातल भी शायद ही कहीं ऐसा था जो हरियाली से न ढका हो।

Friday, October 12, 2018

भानगढ़–डरना मना हैǃ

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आज जयपुर में मेरा चौथा दिन था। पिछली रात भी मेरी किराये की बाइक,होटल के सामने,सड़क के किनारे खड़ी रही और मैं होटल के कमरे में चैन की नींद सोता रहा। जयपुर के अन्दर लगभग सभी प्रमुख जगहों पर जा चुका था और आज जाने–माने,सुप्रसिद्ध,भानगढ़ के किले पर चढ़ाई करनी थी और वहाँ के भूतों से लड़ना था। वैसे तो भानगढ़ को एक किला होने की वजह से ही प्रसिद्ध होना चाहिए था लेकिन यह अपने किला होने की वजह से कम और भुतहा होने की वजह से अधिक जाना जाता है।

Friday, October 5, 2018

जयपुर की विरासतें–दूसरा भाग

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जयपुर का सिटी पैलेस जयपुर की शान है। अब अगर सिटी पैलेस के लिए भी अलग से टिकट है तो कोई बुरा नहीं। थोड़ा सा महँगा है– 130 रूपये। सिटी पैलेस भी मेरे कॉम्बो टिकट में शामिल नहीं था। लेकिन सिटी पैलेस के गेट के बाहर से ही सिटी पैलेस के नजारे देखकर यह लग रहा था कि टिकट के पैसे तो पूरी तरह से वसूल हो जायेंगे। सिटी पैलेस के मुख्य गेट के दाहिनी तरफ टिकट घर है। तो बिना समय गँवाये मैं टिकट लेकर सिटी पैलेस के अंदर दाखिल हो गया। सिटी पैलेस के अन्दर हम पूरब की ओर से प्रवेश करते हैं। मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही ठीक सामने मुबारक महल दिखाई पड़ता है। इस मुख्य द्वार को वीरेन्द्र पोल भी कहा जाता है।

Friday, September 28, 2018

जयपुर की विरासतें-पहला भाग

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आज जयपुर में मेरा तीसरा दिन था। और किराये की बाइक से मैं दूसरे दिन की यात्रा करने जा रहा था। वैसे तो जयपुर और हवामहल एक दूसरे के पर्याय हैं लेकिन पहले दिन का मेरा भ्रमण आमेर,नाहरगढ़ और जयगढ़ के नाम रहा और आज मैं राजस्थान की कुछ ऐतिहासिक विरासतों जैसे हवामहल,जंतर–मंतर इत्यादि की ओर जा रहा था। मौसम ने भी मेरा साथ दिया था। कल तो इन्द्रदेव ने प्रसन्न होकर सूर्यदेव को बादलों की ओट में कर दिया था ताकि मुझे राजस्थान की तेज धूप न लगे,सड़कों को धुल दिया था और हरियाली के रंग को और गाढ़ा कर दिया था जिससे की राजस्थान भी मुझे पूरी तरह से हरा–भरा दिखे।

Friday, September 21, 2018

जयगढ़

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दिन के 2 बज रहे थे। नाहरगढ़ का किला फतह होने के बाद अब जयगढ़ की बारी थी। आज इन्द्रदेव मेरे ऊपर प्रसन्न थे ही। आमेर और नाहरगढ़ के बीच उन्होंने मुझे अपने प्रेमरस से सराबोर कर दिया था और संभावना लग रही थी कि अब मुझ पर सोम–रस भी बरसाएंगे। जयगढ़ किले के बाहरी गेट के बाहर ही,मैंने बिना पर्ची के बाइक खड़ी कर दी और अन्दर प्रवेश कर गया। हेलमेट कुछ–कुछ भीग गया था तो उसे उल्टा करके बाइक के हैण्डल में लटका दिया क्योंकि धूप खिलने के आसार नजर आ रहे थे। जयपुर शहर की प्रमुख ऐतिहासिक इमारतों को दिखाने वाले मेरे कॉम्बो टिकट में जयगढ़ शामिल नहीं था। इसी धरती पर बसी हुई काशी नगरी,जिस तरह से इस धरती से अलग शिव के त्रिशूल पर बसी हुई मानी जाती है,संभवतः उसी तरह से यह किला भी भारतीय पुरातत्व विभाग के  कॉम्बो टिकट के अधिकार क्षेत्र से बाहर था।

Friday, September 14, 2018

आमेर से नाहरगढ़

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11.30 बज रहे थे। तेज धूप में आमेर महल की चढ़ाई–उतराई ने शरीर का पानी सोख लिया था। उस जमाने के राजे–महाराजे कैसे महल में आते–जाते होंगे,सो तो वही जाने। शायद छत्र लगाने और हवा करने के लिए भी सेवक लगे रहते थे। पर अपनी किस्मत में यह सब कहाँǃ तो फिर बाहर निकल कर पहले मिल्क शेक के ठेले पर शरीर की जलापूर्ति बहाल की और फिर बाइक लेकर जयगढ़ और नाहरगढ़ के रास्ते पर निकल पड़ा।
आमेर से वापस जयपुर की ओर लगभग 2 किमी चलने पर एक त्रिमुहानी से दाहिने एक सड़क जयगढ़ व नाहरगढ़ की ओर निकलती है।

Friday, September 7, 2018

जयपुर–गुलाबी शहर में

गुलाबी इसलिए नहीं कि वहाँ गुलाबों की खेती होती है वरन गुलाबी इसलिए कि वहाँ के दर–ओ–दीवार का रंग गुलाबी है। जी हाँ,रेगिस्तान का प्रवेश द्वार गुलाबी ही तो है। और रेगिस्तान भी कितना हरा–भराǃ आश्चर्य है। क्योंकि मुझे तो हरा–भरा ही दिखाई पड़ा। अगस्त के महीने में जयपुर के अास–पास की धरती इतनी हरी–भरी थी कि मैंने सोचा भी न था। वैसे तो जेठ की भीषण गर्मी के बाद बरसात,रेगिस्तान तो क्या,पत्थर को भी नर्मदिल बना देती है। गुलाबी नगरी इस समय हरियाली से घिरी हुई थी। तो फिर राजघरानों की शान–ओ–शौकत के साथ मौसम की नजाकतों का लुत्फ उठाने मैं जयपुर की ओर निकल पड़ा।

Friday, August 31, 2018

अनजानी राहों पर–अधूरी यात्रा (पाँचवा भाग)

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एक मोड़ पर हमारी बाइक फिर से खड़ी हो गई। खड़ी क्या हो गई,पीछे सरकने लगी। हमें संघर्ष करते देख हमारे पीछे आ रहे एक बोलेरो के ड्राइवर ने समझदारी दिखाते हुए अपनी गाड़ी चढ़ाई से पहले ही रोक ली,नहीं तो कुछ भी हो सकता था। बाइक पर पीछे बैठे मेरे मित्र को नीचे उतरकर धक्का लगाना पड़ा। तब जाकर हमारी बाइक ऊपर चढ़ सकी। लेकिन इस बार ऊपर चढ़ने के बाद मैंने बाइक किनारे खड़ी कर दी। कई बार इस तरह की स्थिति उत्पन्न होने के बाद अब हम चिन्तन की दशा में पहुँच गए थे।

Friday, August 24, 2018

अनजानी राहों पर–मुक्तिनाथ की ओर (चौथा भाग)

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1 जून
अाज अपने सपने को पूरा करने के लिए हम मुक्तिनाथ के रास्ते पर निकल रहे थे। तो फिर विचार यह था कि जितनी सुबह निकल लिया जाय उतना ही अच्छा। सुबह के समय अधिक दूरी तय कर लेंगे। लेकिन मौसम रात से ही अपनी वाली कर रहा था। हम अपनी वाली करने पर तुले थे। लेकिन प्रकृति के आगे कौन टिक सकता है। सुबह के समय बारिश कुछ तेज थी। तो हम अपनी तैयारियों में लगे थे कि बारिश बन्द होते ही निकल लेंगे। रात के समय होटल वालों ने बाइक को अन्दर कर दिया था। तो बारिश हल्की होते ही उसे बाहर निकाला गया। अब बारी थी बैगबन्धन की।

Friday, August 17, 2018

अनजानी राहों पर–पोखरा (तीसरा भाग)

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दोपहर के 1 बजे हम विश्व शांति स्तूप से उतरकर वापस पोखरा शहर और फेवा लेक की ओर चल पड़े। लगभग आधे घण्टे में ही हम फेवा लेक के किनारे थे। और पोखरा की विश्व प्रसिद्ध,सपने सरीखी झील हमारी आँखों के सामने थी। बाइक खड़ी करते ही स्टैण्ड वाला पर्ची लिए सामने हाजिर हो गया। कुछ घण्टे पहले ही हम यहाँ 20 रूपए भुगत कर गए थे। सो हमने दिमाग दौड़ाया और उससे शिकायत की तो उसने बाकायदा पर्ची की जाँच की और पर्ची पर उसी दिन की तारीख देखकर हमें अपने प्रकोप से मुक्त कर दिया।

Friday, August 10, 2018

अनजानी राहों पर–वालिंग टु पोखरा (दूसरा भाग)

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पोखरा अभी वालिंग से 2 घण्टे की दूरी पर था। शाम होने को आ रही थी सो हमने यहीं रूकने का फैसला किया। हमने वहीं खड़े–खड़े ही आस–पास नजर दौड़ाई तो सड़क के दोनों किनारों पर कुछ होटल दिखाई पड़े। कुछ देर तक हम दोनों तरफ के होटलों की ओर बारी–बारी से ललचाई निगाहों से देखते रहे,ताकि किसी हाेटल का कोई एजेण्ट हमारे पास आए और हम उससे मोल–भाव करने के साथ साथ कुछ जानकारी भी हासिल कर सकें। लेकिन हायǃ किसी ने इन अभागों को घास नहीं डाली। हार मानकर हम खुद ही एक होटल के दरवाजे तक पहुँचे।

Friday, August 3, 2018

अनजानी राहों पर–नेपाल की ओर (पहला भाग)

30 मई
राहें अनजान हों तो अधिक सुंदर लगती हैं। तो क्यों न कुछ अनजान राहों पर चला जाए। भाग्यवादी लोग तो यही मानते हैं कि सब कुछ पहले से निश्चित है। मैं ऐसा नहीं मानता। और यात्रा के बारे में तो ऐसा बिल्कुल ही नहीं है। यात्रा की फुलप्रूफ प्लानिंग पहले से नहीं की जा सकती। पेशेवर टूरिज्म की बात अलग है। वैसे तो यात्रा की कुछ न कुछ प्लानिंग हर बार मेरे दिमाग में जरूर बनी रहती है,लेकिन इस बार यात्रा का साधन मोटरसाइकिल थी,तो सब कुछ अनिश्चित था। गाड़ियों के हिसाब से बहुत कुछ प्लान करना पड़ता है। तो जब गाड़ी अपनी हो और उसपर भी मोटरसाइकिल,तो बहुत अधिक सोचने–समझने की जरूरत नहीं थी। रात को रहने का कैसा भी ठिकाना मिल जाए तो दिन पर सड़कों को नापते रहेंगे। तो इस बार नेपाल हिमालय फतह करने का इरादा था।

Friday, July 6, 2018

यही है जिंदगी

जीवन एक यात्रा है। अनवरत यात्रा। यह तभी रूकती है जब मृत्यु से साक्षात् होता है। मनुष्य की जिजीविषा मृत्यु जैसे शाश्वत सत्य को भी भुला देती है। मृत्यु की वास्तविकता को जानते हुए भी वह उससे पहले विराम लेने को तैयार नहीं होता। और मनुष्य का यही हठ जीवन के सौन्दर्य का सृजन करता है। अन्यथा मृत्यु का भय मृत्यु से पहले ही सृष्टि के सृजन को सीमित कर देता। मानव जीवन की इसी विशेषता में सृष्टि का गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है और गहराई तक सोचने पर लगता है कि शायद यही है जिन्दगी

Friday, June 29, 2018

धार–तलवार की धार पर

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माण्डव से धार के लिए बस रवाना हुई तो मैं माण्डव की वादियों में खो गया। माण्डव मुझे कुछ वैसे स्थानों में से एक लगा जहाँ चले जाने के बाद वापस लौटने का मन नहीं करता। लेकिन यह तो यात्रा का एक पड़ाव था। और यात्रा तो अनवरत–अविराम चलती रहती है। इस अनन्त यात्रा का एक छोटा सा हिस्सा अभी गुजरा था– कुछ ऐसी यादों को लिए हुए जो बार–बार दोहराए जाने की जिद करती हैं। लेकिन ऐसी यादों के साथ जीने की तो आदत पड़ चुकी है। तो फिर ऐसी ही मनोदशा में मैं बस में बैठा खिड़की से बाहर के संसार को आँखों के रास्ते आत्मसात करने की कोशिश करते हुए इतिहास प्रसिद्ध धारा नगरी की ओर बढ़ा चला जा रहा था।

Friday, June 22, 2018

माण्डू–सिटी ऑफ जॉय (दूसरा भाग)

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अब किले की दक्षिण दिशा में दो मुख्य इमारतें बची थीं– बाज बहादुर का महल एवं रानी रूपमती का मण्डप। माण्डव का नाम सम्भवतः इन्हीं दो इमारतों के साथ सर्वाधिक जाना जाता रहा है। रानी रूपमती का महल माण्डव की पहाड़ी की ऊँची कगार पर बना है जबकि बाजबहादुर का महल पहाड़ी की ढलान पर नीचे की ओर बना है। पहले बाज बहादुर के महल में चलते हैं। लाल पत्थरों से बनी इस इमारत का निर्माण 1508 में नासिर शाह खिलजी के द्वारा कराया गया था। इस इमारत के चारों ओर किले जैसी संरचना बनी थी जिसके अवशेष वर्तमान में भी दिखाई पड़ते हैं।

Friday, June 15, 2018

माण्डू–सिटी ऑफ जॉय (पहला भाग)

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आज मेरी मंजिल माण्डू या माण्डव थी। मेरी जानकारी में तो इसका नाम माण्डू ही था लेकिन स्थानीय रूप से इसका नाम माण्डव है। महेश्वर बस स्टैण्ड पर पता लगा कि माण्डव के लिए कोई सीधी बस नहीं है और इसके लिए धामनोद जाना पड़ेगा। जैसे ही मैं स्टैण्ड पहुँचा सुबह 8.15 पर मुझे धामनोद की बस मिल गयी। महेश्वर से धामनोद की दूरी 13 किमी और किराया 15 रूपये। अब चूँकि धामनोद,इन्दौर–महू–सेंधवा होकर महाराष्ट्र के धुले जाने वाले मुख्य मार्ग पर अवस्थित है तो इस वजह से यह एक महत्वपूर्ण जंक्शन है।

Friday, June 8, 2018

महेश्वर

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अपराह्न के 3 बजे मैं महेश्वर बस स्टैण्ड पर बस से उतरा। ओंकारेश्वर से महेश्वर के रास्ते में बस ने बहुत समय लिया। अगर गर्मी न होती तो छुक–छुक रेल का सा मजा आता। गूगल पर टेंपरेचर चेक किया तो 41 डिग्री था। मैंने बोतल में पानी भरकर रख लिया था। भले ही गर्म हो जाएगा,पास में रहेगा तो गले को सूखने से बचाने के काम आएगा। रास्ते में पथरीले धरातल के बीच कहीं–कहीं गेहूँ की फसल कट चुकी थी तो कहीं खेतों में ही खड़ी थी। बस अपने स्टैण्ड पर रूकी तो लगा कि बस स्टैण्ड के लिए जरूरी नहीं कि लम्बी–चौड़ी इमारत बनी हो और वहाँ दुनिया भर की बसें लगीं हों। सड़क किनारे बस खड़ी होती है तो उसे भी स्टैण्ड माना जा सकता है।

Friday, June 1, 2018

ओंकारेश्वर–शिव सा सुंदर

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आॅटो वाले को 20 रूपये चुकाकर मैं 3.15 बजे ओंकारेश्वर में नर्मदा पुल के पहले उतर गया। मोर्टक्का से ओंकारेश्वर बस स्टैण्ड का किराया 10 रूपये है लेकिन शहर में अन्दर जाने के लिए दस रूपये और भुगतना पड़ता है। ऑटो में सवार अन्य लोग पूरी तरह दर्शनार्थी थे और इसी जगह उतरने वाले थे क्योंकि उन्हें नर्मदा में स्नान कर ओंकार जी के दर्शन करना था। ओंकार जी का दर्शन तो मु्झे भी करना था लेकिन मुझे इसके अलावा भी बहुत कुछ देखना सुनना था। इसलिए मैं भी इसी स्थान पर ऑटो से उतरा। ऑटो से उतरने से पहले ही होटल व लॉज वाले गले पड़ना शुरू हो गये थे।

Friday, May 25, 2018

बुरहानपुर–यहाँ कुछ खो गया है

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27 मार्च
आज मुझे बुरहानपुर घूमना था। सो 7 बजते–बजते कमरे से निकल पड़ा। पुराने बसे बुरहानपुर की गलियों से होते हुए मुझे तापी नदी के किनारे बने बुरहानपुर किले की ओर जाना था। तापी के किनारे भी टहलना था और बन सके तो कलेजा कड़ा करके कुछ भुतहे खण्डहरों की टोह भी लेनी थी। पूछते–पूछते किले की ओर चल पड़ा। लगभग दो किलोमीटर की दूरी है। मन उछल रहा था कि इठलाती तापी से मुलाकात होगी। क्योंकि ओरछा में बेतवा ने मन को सम्मोहित कर लिया था। वही उम्मीद आज बुरहानपुर में तापी से भी थी।

Friday, May 18, 2018

असीरगढ़–रहस्यमय किला

युधिष्ठिर ने सिर्फ आधा झूठ बोला था– "अश्वत्थामा हतः।" "नरो वा कुंजरो" को तो श्रीकृष्ण की शंखध्वनि ने छ्पिा लिया था। इस आधे झूठ के कारण जीवन भर कभी भी मिथ्या भाषण न करने वाले युधिष्ठिर को नरक के दर्शन करने का दण्ड मिला था। खैर,यह तो बहुत बड़े धार्मिक विश्लेषण का विषय है और मेरी इतनी पहुँच नहीं है। मेरे तो इस धार्मिक चिन्तन का कारण सिर्फ यह मान्यता है कि असीरगढ़ के किले में स्थित शिव मन्दिर में आज भी अश्वत्थामा पूजा करने आते हैं। अब किसी स्थान का वर्तमान किसी रहस्यमय अतीत से जुड़ा है तो कौन ऐसे स्थान पर नहीं जाना चाहेगा।

Friday, May 11, 2018

अजयगढ़

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अपनी इस खजुराहो यात्रा में खजुराहो के मंदिर और खजुराहो के निर्माणकर्ता चंदेल शासकों की प्राचीन राजधानी कालिंजर घूम लेने के बाद आज मैं खजुराहो के पास स्थित एक और किले अजयगढ़ की ओर निकल रहा था। वैसे तो कल कालिंजर जाते समय मैं अजयगढ़ होकर ही गया था लेकिन रास्ते में इतना समय नहीं था कि अजयगढ़ की भी हाल–चाल ली जा सके। केवल कालिंजर घूम कर आने में ही नानी याद आ गयी थी। हाँ,आज अजयगढ़ से ही घूमकर लौटना था तो समय की समस्या नहीं होनी थी।

Friday, May 4, 2018

कालिंजर

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आज खजुराहो में मेरा तीसरा दिन था। वैसे तो खजुराहो आने वाले पर्यटक एक या दो दिन यहाँ ठहरने के बाद यहीं से वापस लौट जाते हैं अर्थात खजुराहो आने का मतलब यहाँ मंदिरों की दीवारों पर बनी बहुचर्चित मूर्तियों का दर्शन और फिर जल्दी से खजुराहो से पलायन,लेकिन मेरा कार्यक्रम कुछ और ही था। खजुराहो आने का मतलब ही क्या जब तक कि चंदेलों के इतिहास को अच्छी तरह से न खंगालें। चूँकि कालिंजर अतीत में चंदेलों की राजधानी रहा है और एक ऐसा भी दौर गुजरा जबकि कालिंजर का किला सत्ता का केन्द्र रहा। तो बिना कालिंजर की यात्रा किये खजुराहो यात्रा अधूरी रहती।

Friday, April 27, 2018

खजुराहो–एक अलग परम्परा (चौथा भाग)

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कल दिन भर मैंने खजुराहो की सड़कों पर डांडी मार्च किया था। दिन भर बिना कहीं बैठे लगातार खड़े रहने व चलते रहने की वजह से थक गया था। खजुराहो के पश्चिमी मंदिर समूह तो कस्बे के बिलकुल पास में ही हैं,इसलिए इन तक पहुँचने के लिए ग्यारह नम्बर की जोड़ी ही पर्याप्त है। लेकिन पूर्वी मंदिर समूह तथा दक्षिणी मंदिर समूह तक पहुँचने के लिए कोई न कोई छोटा–मोटा साधन जरूरी है। हालाँकि दूरी इनकी भी बहुत अधिक नहीं है लेकिन व्यस्त जिंदगी में से किसी तरह बचा कर निकाला हुआ समय बहुत ज्यादा खर्च हो जायेगा। आज मैं इसी थ्योरी पर सोच रहा था। थोड़ा–बहुत घूमना शेष रह गया है। ऑटो वाले 'ऑटोमैटिकली' पूरा किराया वसूलेंगे। कल वाला युवक जो मोटरसाइकिल दे रहा था उसे भी मैंने फोन पर ही मना कर दिया था। फोन काटते समय उसने एक बहुत अजीब सा कमेंट किया जिस पर मैं काफी देर तक सोचता रहा– 'सिंगल परसन।'

Friday, April 20, 2018

खजुराहो–एक अलग परम्परा (तीसरा भाग)

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पश्चिमी मंदिर समूह के पास से लगभग 15 मिनट चलने के बाद मैं चौंसठ योगिनी मंदिर पहुँचा तो रास्ते में और मंदिर के आस–पास मुझे कोई भी आदमी नहीं दिखा। केवल मंदिर के पास एक सुरक्षा गार्ड धूप से बचने के लिए बनाये गये टीन शेड के नीचे बैठा पेपर पढ़ रहा था। अास–पास चर रही बकरियां उसे परेशान किये हुए थीं। बिचारा मंदिर में अनधिकृत रूप से प्रवेश कर रही बकरियों को जब तक भगाने गया तब तक उसका पेपर हवा उड़ा ले गयी। दोहरी मारǃ

Friday, April 13, 2018

खजुराहो–एक अलग परम्परा (दूसरा भाग)

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टिकट और बैग चेकिंग की सारी औपचारिकताएं पूरी करने और बैग चेक करने वाले सुरक्षाकर्मी से बैग में रखा खाने–पीने का सामान मंदिर परिसर के अंदर प्रयोग न करने का वादा करने के बाद मैं पश्चिमी मंदिर समूह के मंदिरों का बारीक निरीक्षण करने में लग गया। परिसर के अंदर बहुत अधिक भीड़ नहीं थी लेकिन जो भी थी आश्चर्यजनक थी। क्योंकि अधिकांश दर्शनार्थी,जो कि पूजार्थी न होकर केवल पर्यटक थे,विदेशी थे। अब हिन्दू मंदिरों के अधिकांश दर्शक विदेशी हों तो थोड़ा सा आश्चर्य तो पैदा होगा ही।

Friday, April 6, 2018

खजुराहो–एक अलग परम्परा (पहला भाग)

खजुराहो का नाम सामने आते ही एक अजीब सी धारणा मन में उत्पन्न होती है। जो हमने इसके बारे में पहले से ही मन में बना रखी है। एक ऐसी जगह जहाँ उन्मुक्त कामकला की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। एक ऐसी क्रिया और भावना को व्यक्त करती सजीव मूर्तियाँ जो हमारे भारत में सदा से ही वर्जित फल रही है। लेकिन खजुराहो के बारे में सिर्फ यही सत्य नहीं है वरन खजुराहो के सम्पूर्ण सत्य का एक छोटा सा अंश मात्र ही है।और इससे बड़ा सत्य यह है कि खजुराहो,मंदिर निर्माण की दृष्टि से भारतीय इतिहास की वास्तुकला की सर्वाेत्कृष्ट कृतियों का पालना है।

Friday, March 30, 2018

औरंगाबाद की सड़कों पर

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26 दिसम्बर
आज हमारी इस यात्रा का अंतिम दिन था। अर्थात औरंगाबाद की यात्रा का अंतिम दिन,क्योंकि यात्रा का अंत तो कभी हो ही नहीं सकता। हमारी जीवन यात्रा के साथ ये छोटी–मोटी यात्राएं तो चलती ही रहेंगी आैर जीवन यात्रा में नयी–नयी कहानियां जुड़ती रहेंगी। फिर भी एक बड़े चक्र का छोटा सा भाग पूर्ण होने वाला था। औरंगाबाद से बाहर निकल कर घूमने का काम पूरा हो चुका था और अब औरंगाबाद शहर की सड़कें ही बची थीं। काम कम था और समय पर्याप्त। ऐसे में थोड़ा अधिक सोया जा सकता है। अब छोटी कक्षाओं में कभी पढ़ी गयी संस्कृत की उस सूक्ति– "दीर्घसूत्री विनश्यति" काे भूलकर हम भी सुबह के पौने सात बजे तक सोते रहे।

Friday, March 23, 2018

देवगिरि उर्फ दौलताबाद

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2 बजे हम दौलताबाद किले पहुँचे। दौलताबाद अपने इतिहास,महत्व और विशेषताआें की वजह से कम और मुहम्मद तुगलक के अदूरदर्शी फैसलों की वजह से अधिक जाना जाता है। दौलताबाद का किला औरंगाबाद से एलोरा जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 52 के किनारे स्थित है। मुख्य सड़क छोड़कर किले की ओर बढ़ने पर बायें हाथ टिकट काउण्टर है।किले का प्रवेश शुल्क 15 रूपये है यानी अजंता या एलोरा का आधा। वैसे प्रवेश शुल्क कम या अधिक होने से इसके महत्व में कोई अंतर नहीं आता। इसके बाद दाहिनी तरफ मुड़कर आगे बढ़ने पर बायें हाथ किले का मुख्य प्रवेश द्वार है। मुख्य द्वार से प्रवेश करने पर एक लम्बा पथरीला रास्ता मिलता है।

Friday, March 16, 2018

एलोरा–धर्माें का संगम (दूसरा भाग)

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गुफा संख्या 29 घूम लेने के बाद अब हमें गुफा संख्या 30-34 में जाना था। इसके लिए हमें पुनः तिराहे तक वापस आकर सड़क पकड़नी पड़ती। मैंने वहाँ तैनात सुरक्षा गार्ड से पूछा तो उसने शार्टकट बता दिया। चट्टानों और झाड़ियों के बीच से होकर जाने वाली पगडण्डी पर हम चलते बने। बसें भी दूर से दिख रही थीं। ऊँचे–नीचे रास्ते पर चलते हुए संगीता कुढ़ रही थी और साथ ही मुझे कोस भी रही थी। दूर पक्की सड़क पर चलती बसों को देखकर यह कुढ़न और भी बढ़ जा रही थी। वैसे यह दूरी आधा किमी से अधिक नहीं है। जल्दी ही हम भी अपनी मंजिल तक पहुँच गये। अर्थात गुफा संख्या 30-34 में।

Friday, March 9, 2018

एलोरा–धर्माें का संगम (पहला भाग)

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25 दिसम्बर
कल देर शाम हम अजंता से लौटे थे। अच्छा और शुद्ध शाकाहारी होटल खोजने में थोड़ा समय गँवाया। औरंगाबाद सेन्ट्रल बस स्टेशन के आस–पास कुछ देर तक टहलते रहे। तो सोने में थोड़ी देर होनी ही थी। और दिन भर भागदौड़ करने के बाद रात में थोड़ी देर से सोयेंगे तो उठने में भी थोड़ी देर होनी ही थी। और देर का मतलब सुबह उठने में पौने सात बज गये। आज एलोरा की तैयारी थी। कल अजंता में थे। वैसे तो औरंगाबाद से एलोरा की दूरी अजंता की तुलना में काफी कम है लेकिन कल रविवार के दिन अजंता में मनुष्यों की भीड़ और भीड़ के सेल्‍िफयाना अंदाज ने हमें अंदर तक हिला दिया था और हम जल्दी निकलने के लिये तैयार होेने में काफी तेजी दिखा रहे थे।

Friday, March 2, 2018

अजंता–हमारी ऐतिहासिक धरोहर (दूसरा भाग)

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अजंता की गुफाएं महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में औरंगाबाद से लगभग 100 किमी की दूरी पर अवस्थित हैं। अपने स्वर्णिम काल के इतिहास की परतों में गुम हाे जाने के बाद 1819 में मद्रास सेना के कुछ यूरोपीय सैनिकों ने अनजाने में ही इन गुफाओं का पता लगाया। बाद में सन 1824 में जनरल सर जेम्स अलेक्जेण्डर ने राॅयल एशियाटिक सोसायटी की पत्रिका में सर्वप्रथम अजंता गुफाओं पर लेख प्रकाशित कर इन्हें शेष विश्व की नजर में लाया।
ये गुफाएँ वाघोरा नदी की घाटी में निकटवर्ती धरातल से 76 मीटर की ऊँचाई पर घोड़े की नाल के आकार में खोदी गयीं हैं। अजंता गुफाओं की समुद्रतल से ऊँचार्इ 439 मीटर या 1440 फुट है।

Friday, February 23, 2018

अजंता–हमारी ऐतिहासिक धरोहर (पहला भाग)

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24 दिसम्बर
औरंगाबाद आने का मतलब है हमारी ऐतिहासिक धरोहरों अजंता और एलोरा से मुलाकात। आज रविवार था। सोमवार के दिन अजंता की गुफाएं बन्द रहतीं हैं जबकि मंगलवार के दिन एलोरा की। और हमारे पास कुल तीन दिन ही थे। भारत जैसे विशाल देश के दूर–दराज के किसी गाँव में रहने का मतलब होता है कि देश के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुँचने में ही कई दिन लग जायेंगे। हम भी जब ऐसे ही अपने गाँव से एक सप्ताह की यात्रा पर निकलते हैं तो चार या तीन दिन तो अपनी मंजिल वाली जगह तक पहुँचने और वापस घर लौटने में रास्ते में ही बीत जाते हैं। ट्रेनों की लेटलतीफी और भी बुरा हाल कर देती है। यहाँ भी वही हाल था। दो दिन तो पहुँचने में भी लग गये। दो दिन वापस जाने में लग जायेंगे। बचे तीन दिन। उसमें भी कोई जगह किसी दिन खुलती है तो कोई किसी दिन। तो आज हमने अजंता जाने का फैसला किया।

Friday, February 16, 2018

औरंगाबाद बाई ट्रेन

प्रकृति का भौतिक स्वरूप आकर्षण का केन्द्र होता है। लेकिन इसके इस स्वरूप का भविष्य अनिश्चित है। इसके अतीत को जानने के लिए हमें किसी भूगोलवेत्ता या भूगर्भवेत्ता की शरण में जाना पड़ेगा। वैसे इतिहास में यदि हमारी रूचि हो तो इतिहास की किताबों से कुछ न कुछ इसके बारे में हम जान ही जाते हैं। और अगर इतिहास का वर्तमान हमारे सामने दृश्य हो तो यह भी आकर्षण का केन्द्र होता है। मेरी आत्मा इतिहास और भूगोल दोनों में बसती है। तो इस बार मैं आत्मा की शांति के लिए निकल पड़ा महाराष्ट्र के ऐतिहासिक शहर औरंगाबाद की ओर। लेकिन अकेले नहीं वरन अपनी चिरसंगिनी संगीता के साथ।

Friday, February 9, 2018

कौसानी–गाँधी जी के साथ एक रात

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24 अक्टूबर
आज बागेश्वर से कौसानी की यात्रा पर था। सुबह 7.30 मैंने होटल से चेकआउट कर लिया। बस स्टैण्ड पहुँचा तो बस पहले से ही मेरा इन्तजार कर रही थी। यह बस बागेश्वर से बैजनाथ,गरूड़,कौसानी,सोमेश्वर होते हुए अल्मोड़ा जा रही थी। अब पूछना क्या थाǃ मैं बस में सवार हो गया। बागेश्वर से कौसानी की दूरी 39 किमी है। लेकिन 8.15 बजे बस चली तो कौसानी पहुँचने में 10.15 बज गये। यानी 39 किमी की दूरी तय करने में दो घण्टे लग गये। लेकिन ये दो घण्टे उबाऊ न होकर बड़े ही आनन्ददायक रहे।
उत्तराखण्ड का सौन्दर्य अगर देखना है तो तीव्र पहाड़ी मोडों से होकर धीमी गति से गुजरती गाड़ी में बैठकर ही देखा जा सकता है। तो मैं देखता रहा।

Friday, February 2, 2018

बागेश्वर

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23 अक्टूबर
अल्मोड़ा में आज मेरा तीसरा दिन और दूसरी सुबह थी। आज मुझे बागेश्वर के लिए निकलना था। मैं पिछली रात में ही अल्मोड़ा के रोडवेज बस स्टेशन से बागेश्वर की बस के बारे में पता कर आया था। पता चला था कि 6 बजे बागेश्वर के लिए बस है। अल्मोड़ा का रोडवेज बस स्टेशन सड़क पर ही अवस्थित है। इसका कार्यालय सड़क के नीचे एक बड़े हाॅल में बना हुआ है लेकिन बसों के खड़े होने की जगह सड़क पर ही है। सड़क के नीचे मतलब अण्डरग्राउण्ड नहीं। वरन सड़क के बगल में नीचे हटकर है क्योंकि पहाड़ में सबकुछ या तो ऊपर होता है या फिर नीचे।

Friday, January 26, 2018

जागेश्वर धाम

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22 अक्टूबर
आज मैं जागेश्वर धाम जा रहा था। रात में जल्दी सो गया था फिर भी घर से काठगोदाम तक की यात्रा और कटारमल के सूर्य मन्दिर तक की भागदौड़ में इतना थक गया था कि सुबह उठने में साढ़े पाँच गये। अल्मोड़ा के इस होटल में,जिसमें मैं ठहरा था,पानी की सप्लाई आज भी नहीं आ रही थी। शायद पानी भी दीपावली की छुट्टी पर था या फिर गुलाबी ठण्ड के आगमन की तैयारी कर रहा था। मैंने होटल मैनेजर से पूछा तो उसने बताया कि दो–दो कनेक्शन हैं और दोनाें में पानी नहीं आ रहा है। उसने यह भी जानकारी दी कि मैंने कल कटारमल जाने के लिए जहाँ से चढ़ाई शुरू की थी अर्थात कोसी,उसी कोसी से उसकी पानी की सप्लाई आती है।

Friday, January 19, 2018

अल्मोड़ा

20 अक्टूबर
त्योहारों का आनन्द घर पर तो सभी लेते हैं। लेकिन ट्रेन में इसका मजा ही कुछ और होता है। और उस पर भी जब दुनिया घूमने का जुनून सिर पर सवार हो तो फिर कहाँ का त्योहार और कहाँ की व्यस्तता। ये तो वो तराना है जो नींद में भी सपने बनकर गूँजता रहता है। घुमक्कड़ी में त्योहार मनाने से कम मजा आता है क्याǃ तो मेरे मन में भी घुमक्कड़ी का तराना ऐसा गूँजा कि दीपावली के दिये जलाने के बाद अगले दिन मैं उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध शहर अल्मोड़ा के लिये निकल पड़ा।
वैसे प्लानिंग तो काफी पहले की थी। अल्मोड़ा जाने के लिए मैंने हावड़ा से काठगोदाम जाने वाली बाघ एक्सप्रेस में रिजर्वेशन कराया था। मेरा रिजर्वेशन देवरिया से था। दीपावली के अगले दिन का समय था। रास्ते में बस या अन्य गाड़ियां मिलने में दिक्कत होने का अंदेशा था तो घर से देवरिया तक की 75 किमी की दूरी मैंने बाइक से ही नाप दी।

Friday, January 12, 2018

दतिया–गुमनाम इतिहास

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छठा दिन–
आज मेरी इस यात्रा का छठा और अन्तिम दिन था। रात में झाँसी से मुझे बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस पकड़नी थी। इस यात्रा का मेरा अन्तिम पड़ाव था– दतिया। यहाँ आने से पहले मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि दतिया जाऊँगा लेकिन पीताम्बरा पीठ तथा वीर सिंह पैलेस का आकर्षण मुझे यहाँ खींच लाया। सुबह 7 बजे होटल से चेकआउट करके अपना बैग मैंने होटल में ही जमा कर दिया और झाँसी बस स्टेशन के लिए निकल पड़ा। दतिया के लिए मुझे बस मिली 7.45 पर। 30 किमी की दूरी लगभग एक घण्टे में पूरी हो गयी। दतिया का बस स्टेशन शहर से कुछ बाहर की तरफ ही है। बस से उतर कर मैं पैदल ही चल पड़ा।

Friday, January 5, 2018

झाँसी–बुन्देले हरबोलों से सुनी कहानी

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दिन के 1.45 बज रहे थे। अब मेरी ओरछा गाथा समाप्त होने को थी। मैं किसी स्वप्नलोक से बाहर निकल रहा था। यात्रा वास्तविकता में ही हो सकती है,सपने में नहीं। अब मैं बुन्देले हरबोलों से कहानी सुनने झाँसी जा रहा था। होटल से बैग लेकर बाहर निकला तो बिना मेहनत के झाँसी के लिए ऑटो मिल गयी। आधे घण्टे में ही झाँसी बस स्टेशन पहुँच गया। पहले रात में रूकने की व्यवस्था करनी थी क्योंकि बैग भी वहीं सुरक्षित रहेगा। इसे हाथ में टाँगकर कहाँ मारा–मारा फिरूंगा। वैसे तो ओरछा में भी रूककर झाँसी घूमा जा सकता है लेकिन थोड़ा झाँसी के बारे में जानने के लिए यहाँ भी रूकना जरूरी है।