Pages

Friday, December 7, 2018

केदारनाथ के पथ पर

इस यात्रा के बारे में शुरू से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें–

जय केदारǃ
भीमबली से 1 किमी चलकर रामबाड़ा पहुँचा तो मंदाकिनी की विनाशलीला की याद आ गयी। एक झोपड़ी में मैगी बन रही थी। जीभ पर पानी आ गया लेकिन समय नहीं था। मैंने दुकान वाले से पूछा– "रामबाड़ा किधर है?"
उसने हाथ से इशारा कर दिया। लेकिन उधर तो पत्थर ही पत्थर थे। समझते देर न लगी कि सबकुछ मंदाकिनी के गर्भ में समा गया। लेकिन शायद मंदाकिनी यहाँ जितनी सुंदर लग रही थी उतनी मुझे अब तक कहीं नहीं लगी थी। यह विनाश के बाद वाली मंदाकिनी है। शायद इसीलिए इतनी सुंदर है। क्योंकि विनाश के बाद ही सृजन का आरम्भ होता है और सृजन अवश्य ही सुंदर होता है।
2 बज रहे थे। रामबाड़ा के बाद अब रास्ता मंदाकिनी को पार कर इस पार से उस पार हो चुका था। मन में चिन्तन चल रहा था। "मंद–मंद प्रवाहित होने वाली नदी" अर्थात मंदाकिनी इतनी तीव्र क्यों हो गयी कि केदार भक्तों की जानें लील गयीǃ
रास्ता तेजी से ऊपर भी चढ़ रहा था। साँसें फूल गयीं। तेजी से चलने के कारण धौंकनी चलने लगी। फिर भी वह ऊमस वाली गर्मी महसूस नहीं हो रही थी जो नीचे लग रही थी। मौसम ठण्डा होता जा रहा था। बूँदाबाँदी शुरू हो गयी थी। ऊँचाई की तरफ घने बादल भी दिख रहे थे। मेरे पास बारिश से बचाव का कोई साधन नहीं था। रास्ते में लाेग भी मिलने शुरू हो गए थे। ये वे लोग थे जिन्होंने मुझसे काफी पहले ही चढ़ाई शुरू कर दी थी और अब मैं इन लोगों को धीरे–धीरे "ओवरटेक" करता जा रहा था। मेरा हल्का जैकेट,जो नीचे काफी भारी लग रहा था,अब धीरे–धीरे सुधार की ओर था अर्थात पहले से कुछ हल्का हो गया था।
रामबाड़ा से कुछ ही आगे बारिश की तीव्रता बढ़ने लगी। और अब मुझे अपनी मूर्खता पर पछतावा होने लगा कि मैंने गौरीकुण्ड में मिल रही 20 रूपये वाली रेनकोट नहीं खरीदी। छोटी लिनचोली के पहले तो बर्फ भी गिरने लगी। एक बाबाजी की कुटिया में घुसा जो अपने लिए खाना बनाने की तैयारी में थे। उन्होंने रेनकोट देने की पेशकश की। बदले में आपकी जो मर्जी दे दीजिए। यह वही साधारण वाली रेनकोट थी जो गौरीकुण्ड से लेकर केदारनाथ तक बिकती है। ऊँचाई के हिसाब से इसके रेट 20 रूपये से लेकर 100 रूपये तक भी हो सकते हैं। इसे सिर के ऊपर से पहना जा सकता है और यह घुटनों तक शरीर को सुरक्षा दे सकती है। मैं अच्छी क्वालिटी की रेनकोट खोज रहा था सो मैंने बाबाजी को इन्कार कर दिया। वैसे मेरी पसंद वाली रेनकोट इतनी ऊँचाई पर मिलनी मुश्किल थी। बर्फबारी की तीव्रता कुछ कम होने पर मैंने फिर से आगे कदम बढ़ाए। लेकिन बर्फबारी बिल्कुल बन्द नहीं हुई और लिनचोली में मुझे वही रेनकोट 40 रूपये में खरीदनी पड़ी।

शाम के लगभग 4 बज रहे थे। बड़ी लिनचोली से ठीक पहले बर्फबारी के साथ साथ तेज बारिश शुरू हो गयी। इतनी तेज कि उसे सँभालना मेरी रेनकोट के बस का नहीं रह गया। मैं दौड़कर एक झोपड़ी में घुसा जहाँ दर्शनार्थियों का एक बड़ा झुण्ड कुर्सियों पर बैठा गर्मागर्म मैगी का आनन्द ले रहा था। एक कुर्सी खाली थी जिस पर मैंने कब्जा कर लिया। मेरे बाद जो भी वहाँ आया उसे बैठने की जगह नहीं मिल सकी। अब मेरे पास अवसर था– कुछ खाने–पीने का और साथ ही शरीर को कुछ आराम देने का। मैगी का रेट धीरे धीरे बढ़ रहा था जो यहाँ तक 40 रूपये प्लेट पर आ पहुँचा था। फिर भी जरूरत थी। लगभग आधे घण्टे तक बारिश होती रही। बारिश का यह रवैया देखकर मन में घबराहट हो रही थी। हल्की–हल्की ठण्ड भी महसूस हो रही थी। मेरा जैकेट कुछ और भी हल्का हो गया था। बारिश की वजह से उस झोपड़ी में काफी भीड़ हो गयी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसी जिले के कुछ ग्रामीण बुजुर्ग पुरूष और महिलाएं भी वहाँ पहुँच गये। एक बुजुर्ग रेनकोट खरीदना चाह रहा था। दुकान रेनकोट तो दे रहा था लेकिन उसे खोलकर देखने के पहले पैसे माँग रहा था। बुजुर्ग उसे पहन कर देख लेने के बाद ही पैसे देने की बात कर रहा था। दोनों में काफी देर तक बकझक होती रही। आखिर में दुकानदार की शर्ताें पर ही उस बुजुर्ग को रेनकोट खरीदनी पड़ी। दुकानदार अधिक भीड़ इकट्ठी हो जाने की वजह से भी परेशान हो रहा था। वह भीड़ भी हटाना चाह रहा था। बारिश के धीमी होते ही मैं निकल पड़ा। चलते रहने का फायदा यह था कि शरीर में गर्मी आ रही थी।


थोड़ा सा ही आगे एक टिन शेड में झाड़ू लगा रहे बिजनौर के रहने वाले एक सफाई कर्मचारी ने बताया कि लिनचोली से आगे चढ़ाई कुछ आसान हो जाएगी। मन को कुछ सांत्वना मिली। रास्ते में बिहार से आए कुछ यात्रियों का एक समूह मिला। उन्होंने सुबह के नौ बजे के पहले ही चढ़ाई शुरू कर दी थी। और अब उनसे चला नहीं जा रहा था। वैसे छ्टिपुट बर्फबारी लगातार जारी थी। शरीर में थकान थी लेकिन मन में उत्साह भरपूर था। पहाड़ी वातावरण और सुन्दर भूदृश्यों के बीच बाबा केदार के दर्शनों की चाह मन में हिलोरें ले रही थी। लिनचोली में रास्ते में खड़ी एक महिला बुरी तरह काँप रही थी। उसे ठण्ड लग रही थी। कोई उसे काफी पीने की सलाह दे रहा था तो कोई गर्म कपड़े पहनने की। वह अपने सहयात्रियों से संभवतः बिछड़ गयी थी।
रास्ते में साथ चल रहे अन्य यात्रियों से आगे निकलने की अघोषित प्रतिस्पर्धा चल रही थी। मैं बहुत खुश था कि इस दौड़ में अन्तिम रूप से बाजी मेरे हाथ ही आ रही थी।
लिनचोली के बाद से केदारनाथ की बर्फीली चोटियां साफ दिखायी देने लगी थीं। उत्साह अपने चरम की ओर बढ़ रहा था। दिन ढल रहा था। कदम तेजी से चल रहे थे। शरीर थक रहा था। लक्ष्‍य के लगभग 2 किमी पहले से शाम का धुँधलका छाने लगा। इतना तो तय हो चुका कि अब बाबा के धाम पहुँचकर ही दम लेना है। भले ही रात हो जाय। लाइटें जल चुकी थीं। बारिश और बर्फबारी की वजह से रास्तों पर फिसलन बढ़ गयी थी। जल्दी पहुँचने की बजाय सुरक्षित पहुँचना आवश्यक था। एक किमी और बढ़ते–बढ़ते ठण्ड महसूस होने लगी। मेरा जैकेट अब तक अत्यधिक हल्का हो चुका था। एक दुकान में अँगीठी पर चाय बन रही थी। कुछ लोग उस पर हाथ भी सेंक रहे थे। मैं भी रूक गया। हाथ सेंकने के लिए नहीं वरन चाय पीने के लिए। चाय पीकर शरीर में कुछ जान आयी तो कदम आगे बढ़े। थोड़ी ही देर बाद केदारनाथ में यात्रियों की सुविधा के लिए बने गढ़वाल मण्डल विकास निगम के कॉटेज दिखायी पड़ने लगे।

लगभग आधे किमी पहले ही एक आदमी मेरे गले पड़ गया। उसे कमरा देना था। वह एक पण्डित जी महाराज थे। कमरा तो मुझे भी लेना था और थके होने व रात हो जाने की वजह से कमरा खोजना मुझे भारी लग रहा था। लेकिन अपनी इस समस्या को मैं जाहिर नहीं कर रहा था। अक्टूबर का महीना था और उत्तराखण्ड का चार धाम यात्रा सीजन अपनी समाप्ति की ओर था। सो गरज अब होटल वालों की थी। कमरे के रेट पर बात चली तो 200 पर आकर अँटक गयी। मैंने भी सहमति दे दी और उसके पीछे चल पड़ा। लेकिन उसके तेज कदमों से मैं कदम नहीं मिला पा रहा था– थके होने की वजह से। तो आवाज लगाकर उसे रोकना पड़ा। रास्ते में मैं उससे आस–पास दिख रही एक–एक चीज के बारे में सवाल कर रहा था–
"आपदा में ये पुल यहीं था?"
"ये रास्ता तो बह गया होगा?"
"ये घर बचे रह गये थे या नये बने हैं?" वगैरह–वगैरह और वह बड़े धैर्य से हर बात का लगभग एक ही जवाब दे रहा था– "ये सब खत्म हो गया था। बाद में नया बना है।"
6.40 हो रहे थे। अर्थात सात घण्टे पाँच मिनट की चढ़ाई। इसमें भी लगभग 1 घण्टे तो बारिश और बर्फबारी की भेंट चढ़ गये थे। भोजन के लिए तो मैंने एक मिनट समय बर्बाद नहीं किया था। स्ट्रीट लाइटों की पीली रोशनी में ठीक सामने बाबा केदारनाथ का मंदिर दिख रहा था। लेकिन आगे वाला एक गली में घुस गया। छोटी सी गली। रास्ते पर बर्फ जमी थी। पैर फिसल रहे थे। एक किनारे अँगीठी पर लोग हाथ सेंक रहे थे। ये दर्शनार्थी थे। बगल में ही संभवतः खाना भी बन रहा था। यह एक छोटा सा मकान था जिसमें ये लोग ठहरे हुए थे। दाहिने हाथ मेरा मकान था। अगले ने किसी को आवाज लगायी। एक लड़का बाहर निकला। सामने दिख रहे एक कमरे की चाबी मेरे हवाले की। साथ ही मुझे यह भी जानकारी दी कि सुबह नहाने के लिए एक बाल्टी गर्म पानी भी मिल जायेगा। पण्डित जी ने मुझे बताया कि मंदिर 7 बजे बन्द हो जाता है। तुरंत जाकर दर्शन कर लीजिए। और अगर दर्शन नहीं हो पाता है तो मैं यहीं रहूँगा,आपको पिछले गेट से दर्शन करा दूँगा।

मैंने बाथरूम में जाकर हाथ पैर धोने की कोशिश की। हाथ पर पानी डालते ही मानों करण्ट लग गया। मुझे महसूस हुआ कि हाथों में तो पहले से ही गलन हो रही है। इन्हें धोकर और कष्ट देने की क्या जरूरत है। मैं भागते हुए मंदिर पहुँचा। मुख्य दरवाजा बंद हो चुका था। बगल वाले गेट पर लाइन लगी थी। मैं अभी कुछ सोचने की मुद्रा में ही था कि पण्डित जी महाराज मेरे पास पहुँच गये और मेरी बाँह पकड़ कर लाइन में खड़ा करा दिया। मुझे जूते बाहर निकालने पड़े। दर्शन करने में दस मिनट का समय लगा। लेकिन इस दौरान मंदिर में गिरे पानी से मेरे मोजे भीग गये और अब मेरे पैरों में भी गलन होने लगी। मंदिर से बाहर निकला तो शरीर में कँपकँपी शुरू हो गयी। वही हल्का जैकेट,जो रास्ते में मुझे भारी लग रहा था,अब कागज जैसा हो गया था। मुझे भारी ऊनी कपड़ों की सख्त आवश्यकता महसूस हो रही थी जिनका मेरे पास नितान्त अभाव था। सारे कपड़े गौरीकुण्ड में छोड देने का निर्णय गलत साबित हो रहा था।

केदारनाथ मंदिर वातावरण की कठिन परिस्थितियों के कारण वर्ष में केवल 6 माह ही खुला रहता है। मोटे तौर पर अक्षय तृतीया के दिन मंदिर के कपाट खोले जाते हैं और दीपावली के दिन बन्द कर दिये जाते हैं। वैसे हर साल कपाट खोलने और बन्द करने का मुहूर्त निकाला जाता है। यात्रा काल में प्रातः मंदिर दर्शनार्थियों हेतु खुल जाता है। अपराह्न के तीन से पाँच बजे के बीच पूजा–अर्चना के बाद मंदिर को बन्द कर दिया जाता है। शाम के पाँच से सात बजे के बीच मंदिर को पुनः खोला जाता है। शीतकाल में जब मंदिर के कपाट बन्द कर दिये जाते हैं,उस समय केदारनाथ की पंचमुखी प्रतिमा को ऊखीमठ में रखा जाता है। मंदिर में एक त्रिकोणात्मक शिला की ही भगवान शिव के रूप में पूजा की जाती है।

मैं जल्दी से भागकर सामने दिख रहे एक रेस्टोरेण्ट में पहुँचा। उस समय यही एक रेस्टोरेण्ट दिख रहा था। खाने का आर्डर दिया। खाने में एक–एक पल की देरी पर मुझे गुस्सा आ रहा था। लेकिन काफी भीड़ थी। जल्दी–जल्दी खाना खाने में भी आठ बज गये। लेकिन मन कुछ मीठा खाने को कह रहा था। उसी रेस्टोरेण्ट में मिठाइयां भी बिक रही थीं। मैंने रेट पूछा।
"सोन पापड़ी 400 रूपये ओर मिल्क केक 600 रूपये।"
मैं उल्टे पाँव कमरे भागा। सोने से पहले कपड़े बदलने की तो कोई बात ही नहीं थी। गद्दाें पर बिछा बेडसीट काफी ठण्डा लग रहा था तो मैंने झटपट एक रजाई को गद्दा बना लिया और दो रजाइयों को अपने ऊपर डाल गठरी बन गया। लगभग 10-15 मिनट वैसे ही पड़े रहने के बाद शरीर में कुछ गर्मी आयी। तब मैं धीरे से उठकर बाथरूम गया लेकिन लघुशंका के दौरान ही फिर से ठण्ड लगने लगी और मैंने फिर से रजाई की राह पकड़ी। और अबकी रजाई में घुसा तो फिर सुबह ही बाहर निकला। वैसे मकान के बगल में नीचे की ओर रात भर जेसीबी मशीनें चलती रहीं और उनके अत्यधिक शोर की वजह से रात भर ठीक से नींद नहीं आयी। रात में रजाई सहित एक बार उठकर रोशनदान से बाहर झाँका तो पता चला कि कुछ निर्माण कार्य चल रहा था।
जय केदारǃ





ध्वस्त हुए रामबाड़ा का एक दृश्य
रामबाड़ा में मंदाकिनी को पार करता पुल

बर्फबारी की तैयारी करते घने बादल




अगला भाग ः केदारनाथ–बाबा के धाम में

सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. वाराणसी से गौरीकुण्ड
2. केदारनाथ के पथ पर
3. केदारनाथ–बाबा के धाम में
4. बद्रीनाथ
5. माणा–भारत का आखिरी गाँव

No comments:

Post a Comment