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एक तिराहे पर सारी तिपहिया,चारपहिया गाड़ियां खड़ी हो रही थीं। मैं कुछ ठिठका तो समझ में आया कि दुपहिया तो आगे भी जा सकती है। गड्ढों और पत्थरों पर सरकती स्कूटी बन्दरों जैसी उछल रही थी। बिना नीचे पैर रखे चलना मुश्किल था। लगभग आधे किमी इसी तरह चलने के बाद कुछ झोंपड़ियों में बनी कुछ दुकानें मिलीं। लगा कि यहाँ से स्कूटी आगे नहीं जा पायेगी। एक झोपड़ी के बगल में मैंने भी स्कूटी खड़ी कर दी। एक बिस्कुट का पैकेट खरीदा,साथ ही एक छोटा सा चने का पैकेट भी और पैण्ट की जेब में रख लिया। आगे वैसी ही पगडण्डी पर कुछ दूर चलते जाना था। अर्थात स्कूटी अभी कुछ दूर और आगे जा सकती थी। पाँच मिनट के बाद एक और स्टॉप मिला। काफी अधिक संख्या में दुकानें दिखायी पड़ रही थीं। एक–दो मिनट खड़े होकर ध्यान से विश्लेषण करने के बाद नक्शा समझ में आ गया। मैं चौराहे पर खड़ा था। बायीं तरफ की सीढ़ियां त्रिंबक कस्बे की ओर नीचे उतरती हैं जबकि वही सीढ़ियां दायीं तरफ पहाड़ी के ऊपर की ओर चली जाती हैं। यहाँ ऊपर की ओर गंगा द्वार,ऋषि गौतम–अहिल्या की गुफा,गुप्तगंगा,नीलकंठ महादेव आदि के छोटे–छोटे मंदिर हैं जो सँकरी गुफाओं में बने हुए हैं। पीछे की ओर से त्रिंबक कस्बे के बाहर से मैं स्कूटी से परिक्रमा करते हुए आया था जबकि वही पगडण्डी सीधे आगे की ओर ब्रह्मगिरि की चढ़ाई की ओर जा रही थी। यहाँ तक आकर चढ़ाई का एक लेवल पूरा हो चुका था और अब अगले लेवल पर जाना था।
आज मेरा नासिक में चौथा दिन था। कल की थकान की वजह से आज उठने में देर हो गयी। कई जगहें घूमने से छूट गयी थीं। समय कम रह गया था। पाण्डवलेनी या पाण्डव गुफाएं भी मैं नहीं जा सका था। हरिहर फोर्ट भी जाने के लिए मैं उत्सुक था। वैसे ये दोनों जगहें बहुचर्चित हैं। कई बार इनका नाम सुन चुका था सो तय किया कि यहाँ बाद में चलेंगे। अभी तो वहीं चलेंगे जहाँ से नासिक और आस–पास के क्षेत्र को जीवन देने वाली माँ गोदावरी का जन्म स्थल है। गोदावरी का उद्गम अर्थात ब्रह्मगिरि।
इस जगह का चुनाव कर मन बहुत प्रसन्न था। वैसे मन प्रसन्न होने के साथ साथ कुछ खुराफात भी करता रहता है। मन ने यह कहा कि अगर आज स्कूटी किराये पर ले लेते हैं तो ब्रह्मगिरि के साथ साथ कहीं और भी भटक लेंगे। तो जैसा कि मैं स्कूटी देने वाली ट्रैवेल एजेंसी से दो दिन पहले ही बात कर चुका था,उसकी शर्ताें को मन में दुहराते हुए,सुबह के साढ़े आठ बजे मुम्बई नाका बस स्टॉप की ओर चल पड़ा। ट्रैवेल एजेंसी की पहली शर्त यह थी कि ऑफिस 10 बजे ही खुलेगा। मेरे लिए यही सबसे बड़ी समस्या थी। मुझे बस पकड़नी होती तो मैं 7 बजे ही पकड़ लेता। तो स्कूटी लेने के चक्कर में मेरे ये तीन घण्टे व्यर्थ ही जाएंगे। फिर भी "अपनी गाड़ी" के त्वरित लाभों को ध्यान में रखते हुए मैं ट्रैवेल एजेंसी में इस हिसाब से पहुँचा कि मेरा एक मिनट भी नुकसान न हो। फिर भी कागजी कार्यवाही होने में 10.15 हो गये।
इस जगह का चुनाव कर मन बहुत प्रसन्न था। वैसे मन प्रसन्न होने के साथ साथ कुछ खुराफात भी करता रहता है। मन ने यह कहा कि अगर आज स्कूटी किराये पर ले लेते हैं तो ब्रह्मगिरि के साथ साथ कहीं और भी भटक लेंगे। तो जैसा कि मैं स्कूटी देने वाली ट्रैवेल एजेंसी से दो दिन पहले ही बात कर चुका था,उसकी शर्ताें को मन में दुहराते हुए,सुबह के साढ़े आठ बजे मुम्बई नाका बस स्टॉप की ओर चल पड़ा। ट्रैवेल एजेंसी की पहली शर्त यह थी कि ऑफिस 10 बजे ही खुलेगा। मेरे लिए यही सबसे बड़ी समस्या थी। मुझे बस पकड़नी होती तो मैं 7 बजे ही पकड़ लेता। तो स्कूटी लेने के चक्कर में मेरे ये तीन घण्टे व्यर्थ ही जाएंगे। फिर भी "अपनी गाड़ी" के त्वरित लाभों को ध्यान में रखते हुए मैं ट्रैवेल एजेंसी में इस हिसाब से पहुँचा कि मेरा एक मिनट भी नुकसान न हो। फिर भी कागजी कार्यवाही होने में 10.15 हो गये।
यहाँ से त्र्यंबकेश्वर जाने के लिए मैंने ट्रैवेल एजेंसी में ही रास्ता पूछा। नासिक के नाके बड़े ही फेमस हैं। पता चला कि मुम्बई नाका से त्रिंबक नाका और वहाँ से त्र्यंबकेश्वर जाने वाली मुख्य सड़क मिल जायेगी। तो मैं इसी के अनुसार भागता रहा। त्रिंबक से कुछ ही पहले अंजनेरी की पहाड़ी मिली जहाँ से मैं कल ही घूम कर आया था। तो मैंने मन ही मन अंजनी माता को प्रणाम किया और त्रिंबक की ओर बढ़ गया। स्कूटी पास में थी तो ब्रह्मगिरि जाने के लिए त्रिंबक कस्बे के अन्दर जाने की कोई जरूरत नहीं। बल्कि कस्बे के बाहर से ही मुख्य सड़क पर आगे बढ़ जाना है। तो मैं आगे बढ़ गया और स्कूटी के मीटर से दूरियां भी नापता रहा। त्रिंबक गेट से लगभग पौने चार किमी मुख्य सड़क पर चलने के बाद एक पतली सड़क पर बायें हाथ मुड़ जाना है। यह पतली सड़क पूरी तरह से पहाड़ी है। इस पर दुपहिया दौड़ाने का अपना अलग ही आनन्द है। क्रमशः यह ब्रह्मगिरि की ऊॅंचाइयों पर चढ़ती जाती है। हरियाली के बीच हिमालय के बुग्यालों जैसा दृश्य दिखायी पड़ता है। इस पतली सड़क में से एक–दो जगह शाखाएं भी निकली हुई हैं लेकिन यह बताने वाला कोई नहीं है कि किधर जाना है। दिशा को ध्यान में रखते हुए चलते जाना है। अनुमान गलत हुआ तो रास्ता भटकने का भी डर है। वैसे मेरे सामने रास्ता भटकने की नौबत नहीं आई। 4 किमी तक चलने के बाद ऐसा लगा कि सड़क भी खत्म होने जा रही है। अब यह सड़क कम और गड्ढों के रूप में अधिक दिखाई दे रही थी। यह इसकी मजबूरी भी है। वजह ये कि बारिश के मौसम में ये रास्ते जल प्रवाह का मार्ग बन जाते होंगे। तो यहाँ पक्की सड़क बनाना भी उतना आसान नहीं है।
एक तिराहे पर सारी तिपहिया,चारपहिया गाड़ियां खड़ी हो रही थीं। मैं कुछ ठिठका तो समझ में आया कि दुपहिया तो आगे भी जा सकती है। गड्ढों और पत्थरों पर सरकती स्कूटी बन्दरों जैसी उछल रही थी। बिना नीचे पैर रखे चलना मुश्किल था। लगभग आधे किमी इसी तरह चलने के बाद कुछ झोंपड़ियों में बनी कुछ दुकानें मिलीं। लगा कि यहाँ से स्कूटी आगे नहीं जा पायेगी। एक झोपड़ी के बगल में मैंने भी स्कूटी खड़ी कर दी। एक बिस्कुट का पैकेट खरीदा,साथ ही एक छोटा सा चने का पैकेट भी और पैण्ट की जेब में रख लिया। आगे वैसी ही पगडण्डी पर कुछ दूर चलते जाना था। अर्थात स्कूटी अभी कुछ दूर और आगे जा सकती थी। पाँच मिनट के बाद एक और स्टॉप मिला। काफी अधिक संख्या में दुकानें दिखायी पड़ रही थीं। एक–दो मिनट खड़े होकर ध्यान से विश्लेषण करने के बाद नक्शा समझ में आ गया। मैं चौराहे पर खड़ा था। बायीं तरफ की सीढ़ियां त्रिंबक कस्बे की ओर नीचे उतरती हैं जबकि वही सीढ़ियां दायीं तरफ पहाड़ी के ऊपर की ओर चली जाती हैं। यहाँ ऊपर की ओर गंगा द्वार,ऋषि गौतम–अहिल्या की गुफा,गुप्तगंगा,नीलकंठ महादेव आदि के छोटे–छोटे मंदिर हैं जो सँकरी गुफाओं में बने हुए हैं। पीछे की ओर से त्रिंबक कस्बे के बाहर से मैं स्कूटी से परिक्रमा करते हुए आया था जबकि वही पगडण्डी सीधे आगे की ओर ब्रह्मगिरि की चढ़ाई की ओर जा रही थी। यहाँ तक आकर चढ़ाई का एक लेवल पूरा हो चुका था और अब अगले लेवल पर जाना था।
एक गिलास नीबू–पानी पीने के बाद मैं दाहिनी ओर की सीढ़ियों पर चल पड़ा। कुछ और लाेग भी ऊपर जा रहे थे। लेकिन इनमें से अधिकांश स्थानीय ग्रामीण थे। शरीर पर सफेद कुरता–धोती या पायजामा और सिर पर सफेद मराठी टोपी। मैंने भी बैग में से टोपी निकाल ली– धूप से बचने के लिए। ऊपर से तेज धूप,नीचे पत्थर,सीढ़ियों की तेज चढ़ाई। पसीने छूट गये। श्रद्धालुओं की श्रद्धा के कारण बन्दरों की भी पौ–बारह थी। अगर आपके पास दान करने लायक कुछ सामान है या मन में दान की भावना है तो बन्दरों को दान कर दीजिए अन्यथा वो अपने–आप आपसे छीन लेंगे। ये बात मुझे तब समझ में आयी जब एक बन्दर मेरे पैण्ट की जेब पकड़ कर झूल गया और मेरे लाख छुड़ाने के बावजूद चने का पैकेट निकालकर भाग गया। मैं मुँह ताकता रह गया।
सामने दिख रही सारी गुफाओं के दर्शन करने में एक घण्टे लग गये। नीचे उतरा तो 1 बज रहे थे। अब ब्रह्मगिरि की चढ़ाई करनी थी। नीबू–पानी की तलब लगी थी। पेट को पूरी तरह से पानी से भर लिया। दुकान पर ही मैंने ब्रह्मगिरि का रास्ता पूछा। नीबू–पानी वाले ने हाथ से इशारा कर दिया लेकिन पास बैठा एक आदमी शुद्ध हिन्दी में मुझे रास्ते के बारे में बताने लगा–
"बहुत लम्बा रास्ता है। बहुत चढ़ाई है। सीढ़ियां ही सीढ़ियां हैं। सीढ़ियों पर बहते पानी के कारण बहुत फिसलन है। इतने बन्दर हैं कि अकेला आदमी जा ही नहीं पाएगा। सब कुछ छीन लेते हैं।"
मेरे तो देवता ही कूच कर गए। मैं हैरान होकर उसका मुँह देखने लगा। उसने आगे मुझे समझाया–
"आप चाहें तो मैं साथ चल सकता हूँ।"
आधे मिनट के अन्दर ही स्पष्ट हो गया कि वह एक गाइड है। मेरे सिर से पैर तक जैसे आग लग गई। मैंने चारों हाथ–पैर जोड़कर उसे नमस्कार किया। अपनी राम–पोटरिया पीठ पर लादी और माँ गोदावरी का नाम लेकर ब्रह्मगिरि की पगडण्डी पर चल पड़ा। 1.20 बज रहे थे। मैं लगभग 3000 फीट की ऊँचाई पर था। कुछ ही देर में पगडण्डी खत्म हो गयी और सीढ़ियां शुरू हो गयीं तो मुझे गाइड की कही बातें याद आने लगीं। लेकिन देखा तो रास्ते पर एक–दो महिलाएं भी जा रही थीं तो फिर तो मेरी हिम्मत कुलांचे भरने लगी और मैं सबसे आगे नजर आने लगा। अधिक उछलने–कूदने की जरूरत नहीं थी क्योंकि उसके लिए तो बन्दर थे ही। इनसे डर भी लग रहा था क्योेकि रास्ता ऐसा था कि भागने की भी कहीं जगह नहीं थी। हिमालय की तरह से यहाँ बर्फ तो नहीं थी लेकिन इसके अलावा सब कुछ था। ऊॅंचा–नीचा रास्ता,फिसलन भरी सीढ़ियां,दोनों तरफ पेड़ व झाड़ियां,खड़ी पगडण्डी,दो खड़ी पहाड़ियों के बीच सँकरी सीढ़ियां,और ऐसे ही रास्तों पर सिर के ऊपर पूँछ लटकाए बन्दर। दाँत किटकिटाते अंदाज में,हाथ भर की दूरी पर,दोनों आँखों के ठीक सामने कई सारे बन्दरों को बैठे देखना,कितना रोमांचकारी हो सकता है,यह ऐसी जगह पर पहुँच कर ही जाना जा सकता है।
आधे घण्टे चलने के बाद तो एक जगह पर सीढ़ियाें ने चलने से इन्कार कर दिया और बिल्कुल ही सीधी खड़ी हो गयीं। कुछ लोग इन सीढ़ियों पर जा रहे थे। दूर से देख कर लग रहा था मानो एक के ऊपर एक खड़े हैं। और जब एक मोड़ से,सीढ़ियां दो खड़ी कगारों के बीच के सँकरे रास्ते पर मुड़ीं तो मन पीपल के पत्ते सरीखा डोलने लगा। सीढ़ियों पर लगातार रिसता हुआ पानी बह रहा था। गनीमत यही थी कि सीढ़ियों के बीच में,उन्हें दो भागों में बाँटते हुए,रेलिंग लगा दी गयी है। इसका फायदा यह है कि चढ़ने व उतरने के रास्ते अलग–अलग हो गये हैं तथा फिसलन से बचने के लिए सहारा भी हो गया है। इन सीढ़ियों से गुजरते हुए किसी गुफा से होकर गुजरने जैसा एहसास होता है।
लगभग आधे घण्टे तक सीढ़ियों के जंगल में भटकने के बाद इनसे मुक्ति मिली। और बाहर निकलने के बाद बिल्कुल खुला आसमान दिख रहा था। ऊपर छ्टिपुट बादलों के बीच नीला–नीला आकाश और नीचे हरी–भरी धरती। मानो मैं इन्हीं की तलाश में आया था।
ब्रह्मगिरि की चढ़ाई का दूसरा लेवल पूरा हो चुका था। अब मैं लगभग 3500 फीट की ऊँचाई पर था। चारों तरफ केवल ढलानें दिख रही थीं। गोदावरी उद्गम तक जाने के लिए इन्हीं ढलानों पर चढ़ना था। यहाँ पर जमीन पीली दिख रही थी और यह पीलापन पत्थरों के कारण नहीं वरन मिट्टी के कारण था। नीबू–पानी अभी भी पहले की तरह ही मिल रहा था। एक नीबू–पानी की दुकान में रेडियो या फिर टेपरिकार्डर पर बहुत ही पुराने हिन्दी फिल्मी गाने बज रहे थे। लेकिन सुनने का समय नहीं था। थोड़ा–बहुत जाेर लगाने के अलावा अब टहलते हुए ही जाना था। ब्रह्मगिरि का अन्तिम शीर्ष बाकी था। थोड़ी सी चढ़ाई और फिर शीर्ष पर। थोड़ी सी मेहनत के बाद मैं शीर्ष पर पहुँच गया। इस शीर्ष पर चढ़ जाने के बाद दोनों तरफ दो मंदिर दिखायी पड़ रहे थे। बायीं तरफ ब्रह्मगिरि का मुख्य मंदिर दिख रहा था। इसके पास ही गौमुख नामक स्थान है जहाँ से गोदावरी का उद्गम होता है। कुछ ग्रामीण माँ गोदावरी के दर्शन करने आए थे। मैं भी उनके पीछे लग गया। फूल और प्रसाद की एक दुकान देखकर मैं हैरत में पड़ गया। वैसे मुझे इसकी कोई जरूरत नहीं थी। यहाँ दर्शन के उपरान्त दाहिनी तरफ के मंदिर की तरफ भी कुछ लोग जा रहे थे तो मैं भी चल पड़ा। अधिकांश लोग पहले मंदिर के पास से ही वापस हो जा रहे थे। पास जाकर पता चला कि यह जटा मंदिर है। दोनों ही मंदिर केवल एक कमरे के हैं। जटा मंदिर के पुजारी जी बाहर टहल रहे थे।
इस समय 3 बज रहे थे। मैं भी प्रणाम कर वापस लौट चला। इस समय मैं लगभग 4000 फीट या अधिक की ऊॅंचाई पर था। इस ऊँचाई पर पहा़ड़ियों की कगार और ढलानों पर फैली हरी घास नयनाभिराम दृश्य उपस्थित कर रही थी। लौटते समय रास्ते में मध्य प्रदेश के बुरहानपुर के एक बुजुर्ग मिल गये। उन्होंने मुझे बातचीत में इतना उलझा दिया कि मैं उनके साथ ही त्र्यंबकेश्वर की ओर सीढ़ियां उतर गया। नीचे उतरते ही मुझे समझ में आ गया कि मैं कहाँ चला आया हूॅं। यह समझ में आते ही मैं फिर से हाँफते हुए ऊपर की ओर भागा जहाँ कि मेरी स्कूटी खड़ी थी। इस भागदौड़ में मैं लगभग आधा घण्टा लेट हो गया और स्कूटी तक पहुँचने में पौने पाँच बज गये। सुबह स्कूटी लेने के चक्कर में बिताये गये तीन घण्टे और इस समय रास्ता भटकने से नुकसान हुआ समय,अब मुझे भारी लग रहा था। इतना तो मैं नासिक से बस द्वारा आकर आसानी से घूम सकता था। फिर भी मैं हार मानने के मूड में नहीं था। अब मेरा अगला लक्ष्य था सोमश्वर मंदिर और उसके पास गिरता झरना। साथ ही समय मिलने पर सुला वाइनयार्ड भी जाने का विचार मन में था। इसके लिए त्र्यंबकेश्वर से चलने के बाद त्र्यंबकेश्वर नासिक रोड पर 15 किमी की दूरी के बाद मैं बायीं तरफ मुड़ गया। यहाँ से कुछ ही किलोमीटर पर सुला वाइनयार्ड है। मेरे पास समय अधिक नहीं था क्योंकि शाम हो रही थी। तो सड़क किनारे अंगूर की बागानों पर एक नजर डालते हुए मैं साेमेश्वर मंदिर की ओर चल पड़ा।
सोमेश्वर मंदिर एक छोटा सा ही मंदिर है लेकिन गोदावरी के किनारे इसकी अवस्थिति बहुत ही सुंदर है। मंदिर की सीढ़ियों से नीचे उतरते ही बायीं ओर सोमेश्वर झरना दिखाई पड़ता है। शाम की लाली में यहाँ का दृश्य अद्भुत दिखाई पड़ रहा था। इस लाली की पृष्ठभूमि में दौड़ती नावें अद्भुत दृश्य का सृजन कर रही थीं। लेकिन इस बीच यह लाली यह भी बता रही थी कि स्कूटी वाले को स्कूटी भी लौटानी है और उसके ऑफिस पहुँचने से पहले शहर में दौड़ रहे शाम के वक्त के ट्रैफिक को भी पार करना है। दस मिनट बाद ही उसका फोन भी आना शुरू हो गया। मैं सिर पर स्कूटी रखकर भागा। एक अनजान शहर में शाम के समय रास्ता पूछते–पूछते ट्रैवेल एजेंसी के ऑफिस पहुँचने में 7.30 बज गये। मैंने जल्दी से उसका हिसाब कराया लेकिन पेट्रोल के मामले में उसने मुझे बेवकूफ बना दिया। उसने अपनी साइट पर रिव्यू देने के लिए मुझसे रिक्वेस्ट भी किया लेकिन मैंने इन्कार कर दिया। मैं लाल–पीला–नीला होता हुआ उसके ऑफिस से बाहर निकला और ऑटो पकड़कर पंचवटी पहुँचा गया। अगले दिन मुझे नासिक रोड से घर के लिए ट्रेन पकड़नी थी।
सोमेश्वर मंदिर एक छोटा सा ही मंदिर है लेकिन गोदावरी के किनारे इसकी अवस्थिति बहुत ही सुंदर है। मंदिर की सीढ़ियों से नीचे उतरते ही बायीं ओर सोमेश्वर झरना दिखाई पड़ता है। शाम की लाली में यहाँ का दृश्य अद्भुत दिखाई पड़ रहा था। इस लाली की पृष्ठभूमि में दौड़ती नावें अद्भुत दृश्य का सृजन कर रही थीं। लेकिन इस बीच यह लाली यह भी बता रही थी कि स्कूटी वाले को स्कूटी भी लौटानी है और उसके ऑफिस पहुँचने से पहले शहर में दौड़ रहे शाम के वक्त के ट्रैफिक को भी पार करना है। दस मिनट बाद ही उसका फोन भी आना शुरू हो गया। मैं सिर पर स्कूटी रखकर भागा। एक अनजान शहर में शाम के समय रास्ता पूछते–पूछते ट्रैवेल एजेंसी के ऑफिस पहुँचने में 7.30 बज गये। मैंने जल्दी से उसका हिसाब कराया लेकिन पेट्रोल के मामले में उसने मुझे बेवकूफ बना दिया। उसने अपनी साइट पर रिव्यू देने के लिए मुझसे रिक्वेस्ट भी किया लेकिन मैंने इन्कार कर दिया। मैं लाल–पीला–नीला होता हुआ उसके ऑफिस से बाहर निकला और ऑटो पकड़कर पंचवटी पहुँचा गया। अगले दिन मुझे नासिक रोड से घर के लिए ट्रेन पकड़नी थी।
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