Friday, November 16, 2018

अंजनेरी–हनुमान की जन्मस्थली

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11 बज रहे थे और मैं अंजनेरी की चढ़ाई की ओर चल पड़ा। इस समय मैं समुद्रतल से लगभग 2500 फीट की ऊँचाई पर था। एक भेड़ चरवाहे से पता चला कि शुरू में तीन किमी का लगभग सीधा रास्ता है लेकिन उसके बाद अगले तीन किमी सीढ़ियां चढ़नी पड़ेंगी। शुरू में लगभग आधे किमी के बाद ही एक जैन मंदिर का निर्माण कार्य चल रहा है। मूर्ति का निर्माण तो हो चुका है लेकिन मंदिर का निर्माण अभी चल रहा है। पास ही एक छोटा सा आश्रम भी है जहाँ से मंदिर निर्माण का संचालन किया जा रहा है। मुझे प्यास लगी थी सो मैंने आश्रम में पानी पिया और आगे बढ़ गया। रास्ते के दोनों तरफ गायों व बकरियों के झुण्ड के साथ चरवाहे यहाँ–वहाँ दिखायी पड़ रहे थे। पहाड़ी पर चारों तरफ बिखरी हुई हरी–भरी घासें और पेड़ अत्यन्त मनमोहक दृश्य का सृजन कर रहे थे।
जैन मंदिर के थोड़ा सा ही आगे अंजनेरी गाँव है। यह एक छोटा सा गाँव है जहाँ अधिकांश घर झोपड़ियों के रूप में ही दिखायी पड़ते हैं। गाँव के पास ही एक प्रवेश द्वार बना हुआ है जिसे देखकर समझ में आ जाता है कि हम एक संरक्षित क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं। रास्ते में जगह–जगह बोर्ड लगे हुए हैं जिन पर मराठी भाषा में संरक्षित क्षेत्र होने से सम्बन्धित सूचनाएं लिखी गयी हैं। इन्हें पढ़कर यह भी पता चलता है कि यह गिद्ध संरक्षण क्षेत्र है। रास्ते के किनारे यत्र–तत्र छोटी–छोटी जलधाराएं मिलती रहती हैं जिनमें पानी कम और पत्थर अधिक हैं।
हरे–भरे रास्ते पर लगभग तीन किमी चलने के बाद मैं ऐसी जगह जा पहुँचा जहाँ रास्ता ही खत्म हो गया अथवा एक पगडण्डी में बदल गया। पगडण्डी तो पहले भी थी लेकिन उसका अस्तित्व बिल्कुल स्पष्ट था जो अब धुँधला हो रहा था। टिन शेड और प्लास्टिक की शीट के अन्दर बनी हुई दो–तीन दुकानें दिखायी पड़ रही थीं। इस समय मैं लगभग 3000 फीट की ऊँचाई पर था। मैंने पूछताछ की तो पता चला कि ऊपर अभी तीन किमी का रास्ता बाकी है अर्थात मैं लगभग तीन किमी की दूरी तय कर चुका था। दुकान चला रहे एक बुजुर्गवार ने ऊपर की ओर इशारा कर दिया। मैंने ऊपर देखा तो कुछ सीढ़ियां दिखायी पड़ रही थीं लेकिन उनके ऊपर कुछ नहीं दिखायी पड़ रहा था। मुझे इतना तो समझ में आ ही गया था कि इस पहाड़ी के एक तल की चढ़ाई पूरी हो चुकी है और अब दूसरे तल पर चढ़ना होगा। इस समय मैं हिमालय की पहाड़ियों में नहीं वरन दक्षिण के पठार पर था। और अपने भूगोल ज्ञान के आधार पर कह सकता हूँ कि पठार की संरचना ऐसी ही होती है। इसमें चोटियां नहीं होतीं वरन समतल शीर्ष होता है और एक के ऊपर एक कई समतल शीर्ष भी हो सकते हैं।
मैं दुकान में बैठ गया। दुकान में कुछ बिस्कुट के पैकेट दिखायी पड़ रहे थे। नीबू–पानी का सामान दिख रहा था। चाय की संभावना भी दिखायी पड़ रही थी लेकिन इस समय मुझे चाय से अधिक पानी की आवश्यकता थी। मैंने नीबू–पानी का आर्डर दे डाला क्योंकि गला सूख रहा था। गिलास होठों से लगाया तो यह नीबू–पानी कम और शरबत अधिक लग रहा था। वैसे मुझे यह बहुत पसंद आया। कीमत केवल दस रूपये। इस तेज धूप वाले मौसम में पैदल चढ़ाई करते यात्री के लिए चीनी और पानी की ही सबसे अधिक जरूरत थी। जब मैं ऊपर चलने को तत्पर हुआ तो मेरे गले में लटके कैमरे को देख बुजुर्ग ने कुछ ताकीद की। जितना मुझे समझ आया वो ये कि ऊपर दो सिक्योरिटी वाले हैं जो फोटो नहीं खींचने देंगे और मेरा कैमरा भी छीन सकते हैं। मुझे भी कुछ ऐसा ही लगा क्योंकि यह एक संरक्षित एरिया है और अगर ऐसा है तो फोटो खींचना जरूर प्रतिबंधित हो सकता है। लेकिन चारों तरफ दिखने वाला दृश्य ऐसा था कि मैं फोटो खींचने का लोभ संवरण नहीं कर सका और कैमरा गले में लटकाये सीढ़ियां चढ़ता गया।

कुछ दूर तक तो सीढ़ियां मिलीं लेकिन उसके ऊपर सीढ़ियों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया। इधर–उधर लुढ़के पत्थर दिखायी पड़ रहे थे। इन्हें देखकर यह लग रहा था कि पत्थरों को सँजो कर सीढ़ियां तो बनायी गयी थीं लेकिन ये पुनः अपने प्राकृतिक रूप में आ गये थे। और एक मोड़ पर तो पहुँचकर ऐसा लगा कि मुझे अलग से एक गट्ठर "हिम्मत" लानी चाहिए थी। कारण दोनों तरफ से सीधी दीवारनुमा खड़ी शिलाओं के बीच बिल्कुल खड़ी और सँकरी सीढ़ियां दिखायी पड़ रही थीं जिनपर ऊपर की ओर से धीरे–धीरे पानी रिस रहा था। लेकिन असली डर की वजह कुछ और ही थी और वो थे बन्दर। अगर बन्दरों ने हमला किया तो कहीं भी भागने की जगह नहीं है। भागमभाग में अगर रिसते पानी पर पैर फिसला तो भगवान ही मालिक है। मैंने कैमरा बैग के हवाले किया और सीढ़ियों पर कदम बढ़ा दिया। मन में सोच रहा था कि कहीं उस नीबू पानी वाले बुजु्र्ग ने इन्हीं के बारे में तो नहीं बताया थाǃ फिर भी बन्दरों की कृपा से एक–दो मोड़ पार करने के बाद मैंने अंजनेरी पहाड़ी के दूसरे तल की चढ़ाई पार कर ली। और इस सँकरे रास्ते को पार कर जब मैं बाहर निकला तो सामने चारों तरफ फैला,हिमालय के बुग्यालों जैसा हरा–भरा विशाल मैदान नजर आ रहा था। नजरें खुली की खुली रह गयीं। ऐसे नजारे की मैंने कल्पना भी नहीं की थी। साथ ही पहाड़ी की तलहटी में एक बहुत सुंदर झील भी दिख रही थी। यह झील दिख तो बहुत पहले से रही थी लेकिन ऊँचाई से यह और भी सुंदर दिख रही थी। और सबसे बड़ी बात ये कि इस विस्तृत भूदृश्य में यात्री के रूप में मैं अकेला था। बहुत ही शानदार अनुभव था। मैंने बैग में से कैमरा निकाल लिया। सिक्योरिटी वाले पकड़ेंगे तो देखा जाएगा। दो–चार बार उछल–कूद करके अपनी खुशी जाहिर की और दूर सामने दिख रहे,सिंगल कमरे वाले एक मंदिर की ओर बढ़ चला।
हरी–भरी घासों से ढके चट्टानी टीले और दूर तक फैली हुई ढलान के बीच चलती पतली सी पगडण्डी। घासों में यत्र–तत्र खिले कहीं सफेद तो कहीं पीले फूल। दूर से दिखता गुलाबी रंग में रंगा एक छोटा सा मंदिर। मंदिर के पास एक छोटी सी झोपड़ी। ऐसे दृश्य तो बचपन में कहीं पोस्टरों में देखे थे। काश कि ये रास्ता कुछ और लम्बा होताǃ
लेकिन तभी एक टीले की आड़ से निकलता एक स्थानीय आदमी दिखा। मेरे गले में लटके कैमरे को देखकर उसने वही चेतावनी दुहरायी जो मुझे नीचे मिली थी। उसने यह भी बताया कि मंदिर के पास ही दो गार्ड हैं जो कैमरा चेक कर सकते हैं। उसने मुझे सांत्वना भी दी कि इस स्थान से आगे कोई दिक्कत नहीं होगी। मैंने कैमरे को फिर से छ्पिा लिया। मंदिर के पास पगडंडी के दोनों तरफ दो झोपड़ियां दिखायी पड़ रही थीं। पास पहुँचा तो पता चला कि ये भी वही नीबू–पानी की दुकानें हैं। सच बात तो यह कि ये बहुत ही सही जगह पर हैं। क्योंकि फिर से गला सूख रहा था। मेरे पास बोतल में पानी था लेकिन मैं उसे बचा कर रख रहा था। दाहिनी तरफ की दुकान में कुर्सी पर बैठ गया। इस समय मैं लगभग 3600 फीट की ऊॅंचाई पर था। बायीं तरफ वाली दुकान में,वो तथाकथित गार्ड घनघोर निद्रा में पड़े हुए,इस संरक्षित क्षेत्र की रखवाली कर रहे थे।

एक कमरे वाला यह मंदिर,अंजनी माता का मंदिर है। मंदिर दर्शन के लिए या फिर अंजनेरी पहाड़ी की ट्रेकिंग के लिए आने वाले यात्रियों की सुविधा के लिए मंदिर के पास ये दुकानें चल रही हैं। और इन्हें चलाने वाली हैं अंजनेरी गाँव की महिलाएं। मैंने उस दुकान में मेरे लिए नीबू पानी बना रही महिला से कुछ बातें करने की कोशिश की। वैसे ज्यादा कुछ बताने के लिए उसके पास था नहीं। घर के पुरूष काम करने के लिए चले जाते हैं और वो नीबू पानी,कुछ बिस्कुट और नमकीन के पैकेटों के साथ यहाँ दुकान में आ जाती है। यहाँ भी ग्राहकों की संख्या सीमित ही है। मंगलवार या शनिवार के दिन कुछ ग्राहक बढ़ जाते हैं। मैं मन में अनुमान लगा रहा था– आखिर कितने ग्राहक बढ़ जाते होंगे और इस नीबू पानी की गिलास पर इसे कितना फायदा होता होगाǃ मेरे पास समय अधिक नहीं था। तो मैंने पाँच रूपये का बिस्कुट खरीदा। दस की नोट का उसके पास फुटकर नहीं था तो मैंने पाँच रूपये की टाफियां खरीद लीं।
अंजनी माता मंदिर के पास से मैं आगे बढ़ा तो कुछ ही दूरी पर दाहिने हाथ एक और दुकान दिख रही थी। दुकान के सामने बायीं ओर एक छोटा सा तालाब भी दिख रहा था। यह तालाब आदमी के बायें पैर की आकृति का है। पेड़–पौधों से घिरा बिल्कुल स्वच्छ जल का यह तालाब बहुत ही सुन्दर है। और यहाँ से पहाड़ी के तीसरे तल की चढ़ाई शुरू हो रही थी। मैं बिना रूके चलता रहा,चढ़ाई वाली सीढ़ियों पर। रास्ता कठिन तो नहीं है लेकिन अगर थोड़ी सी भी बारिश हो जाती तो बहुत कठिन हो जाता। फिसलन बढ़ जाती। सिर छुपाने की कोई जगह नहीं मिलती। वैसे यह स्थान पश्चिमी घाट के वृष्टि छाया क्षेत्र में पड़ता है और बारिश बहुत अधिक नहीं होती। उस पर भी यह सितम्बर का महीना चल रहा था।
मुझे पता चला था कि यहाँ से लगभग 1.5 किमी ऊपर हनुमान जन्म स्थल तथा अंजनी माता का तपस्थल भी है। तो तेजी से कदम बढ़ाते,पसीने से तरबतर,हाँफते हुए मैं ऊपर पहुँच गया। नीचे से देखने पर तो यही लग रहा था कि ऊपर अधिक जगह नहीं होगी और पहाड़ी की चोटी दिखायी पड़ेगी क्योंकि रास्ता काफी सँकरा था। ऊपर अर्थात अंजनेरी पहाड़ी के सबसे ऊपर। लेकिन सबसे ऊपर वाले शीर्ष पर जब मैं पहुँचा तो इस बार पहले से भी सुंदर नजारा मेरे सामने था। पठार का चौरस लहरदार शीर्ष। इससे ऊपर कोई शीर्ष नहीं दिख रहा था। इस पर थोड़ी–बहुत चढ़ाई–उतराई के साथ चलते जाना था। हरी–भरी घासें अब और भी हरी हो गयी थीं। घासों में खिले पीले फूल और भी सघन हो गये थे। पठार की ऊँचाई पर,बिल्कुल निर्जन स्थान पर,हरियाली के बीच बिल्कुल अकेले टहलना कितना आनन्ददायक लग रहा था,इसे बयां करने लायक शब्द मेरे पास नहीं हैं।

अब मैं अंजनेरी पहाड़ी के शीर्ष पर हूँ। इस शीर्ष पर थोड़ा ही आगे चलने के बाद एक और छोटा सा,एक कमरे का मंदिर दिखता है। यह हनुमान जन्म स्थल पर बना मंदिर है। इस स्थान की समुद्रतल से ऊँचाई लगभग 1300 मीटर या 4200 फीट है। धूप है लेकिन उतनी अधिक गर्मी महसूस नहीं हो रही है। इस मंदिर के पास भी एक नीबू पानी वाली झोपड़ी बनी हुई है। यहाँ भी एक एक महिला अपनी डयूटी पर तैनात है। लेकिन उसके पास नीबू का शरबत तैयार करने का संसाधन नहीं है। केवल बिस्कुट है। और नीबू के शरबत पीने का लालच मेरे मन में ही रह जाता है। बैग में रखा पानी का बोतल,जो अब गर्म हो गया है,निकालकर मैं गला तर कर लेता हूँ। मंदिर में स्थापित हनुमान जी की सिंदूरी मूर्ति के पास दो लड़के नारियल फोड़ कर कोई साधना करना चाहते हैं। मुझे देखकर ठिठक जाते हैं। मैं किनारे हट जाता हूँ। और जब ये समझ में आता है कि इनकी पूजा में कुछ समय लगेगा तो मैं आगे बढ़ जाता हूँ।
मंदिर के आस–पास और आगे भी बिल्कुल चौरस पथरीला धरातल दिख रहा था। दस मिनट चलने के बाद  मैं पहाड़ी की कगार पर पहुँच गया। कगार के किनारे पर बैठी हुई दो महिलाएं बिल्कुल निश्चल होकर नीचे की घाटी को निहार रही थीं। इस 6 किमी की चढ़ाई ने संभवतः उनकी सारी ऊर्जा सोख ली थी। मैं भी कुछ देर तक खड़ा रहा। दूर–दूर तक नीचे फैली घाटी और पठार के कटक दिखाई पड़ रहे थे। बारिश का मौसम होने की वजह से चारों तरफ हरियाली की चादर फैली हुई थी।
2 बज रहे थे। मैं वापस लौटा। मुझे अभी हनुमान जन्मस्थल पर बने मंदिर में दर्शन करना था। वो नारियल वाले लड़के अभी भी जमे हुए थे। मैं उनकी परवाह न करते हुए मंदिर के अन्दर प्रवेश कर गया। बहुत थोड़ी सी जगह है। बजरंग बली को प्रणाम कर मैं वापस लौटकर नीचे उतरा। मंजिल तो छोटी सी ही थी लेकिन रास्तों की खूबसूरती का क्या कहना। पहाड़ी के तीसरे तल या सबसे ऊँचे वाले तल से नीचे उतरते समय तालाब के पास दाहिनी तरफ एक आश्रम जैसा कुछ दिखा तो नीचे उतरकर मैं उधर ही मुड़ गया। वास्तव में एक आश्रम था जहाँ कुछ गायें विश्राम कर रही थीं। लेकिन आदमी नाम के जीव का कोई अता–पता नहीं था। आश्रम के आस–पास टहलते हुए मैंने तालाब की एक परिक्रमा करने की सोची लेकिन तालाब के किनारे चर रहे एक भैंसे ने दौड़ा लिया। मैं जान बचा कर भागा। तालाब के पास वाली नीबू–पानी की दुकान में रूका। जाते समय यहाँ नहीं रूका था। यहाँ दो–तीन महिलाएं पहुँची थीं। जिन्हें ऊपर जाना था। लेकिन उनकी दशा देखकर लग नहीं रहा था कि वे ऊपर पहुँच पाएंगी। उन्होंने मुझसे जानकारी माँगी। मैंने वो सारी जानकारी उन्हें दी जो मेरे पास थी।

यहाँ नीबू–पानी पीने के बाद अब मुझे केवल नीचे उतरना था। तो मैं नीचे उतरता रहा। अंजनी माता मंदिर के पास सोए गार्ड अब शायद जग चुके थे लेकिन अभी भी लेटे हुए थे। अब उनसे मेरा कोई मतलब नहीं रह गया था। सीढ़ियां उतरते हुए इतनी सुंदर जगह को छोड़कर जाने का दुख हो रहा था। 
लगभग 4.30 बजे तक मैं सड़क पर पहुँच चुका था। और अब नासिक के लिए बस का इंतजार था। आधे घण्टे के इंतजार के बाद मुझे नासिक की बस मिली और पौने छः बजे मैं नासिक के केन्द्रीय बस स्टैण्ड पहुँचा और वहाँ से ऑटो से पंचवटी।
शाम हो रही थी। खाना खाने में अभी कुछ समय था तो मैं गोदावरी किनारे पहुँच गया। कल सोमवार के दिन शिव जी की सवारी निकली थी। काफी भीड़ थी लेकिन आज गोदावरी के घाट पूरी तरह खाली थे। आइसक्रीम वाला कल की ही तरह मेरा इंतजार कर रहा था। पितृ–तर्पण वाली इमारत पीली रोशनी में जगमगा रही थी। घाटों पर दुकान लगाने वाले अपनी दुकान समेट चुके थे। मेरी तरह के निठल्ले इक्का–दुक्का लोग घाटों पर पैर फैलाये अलसा रहे थे। वो गाड़ियाँ जिन्हें शायद अपने घर में पैर रखने की जगह नहीं थी,घाटों पर ही पड़ी थीं। और वे लोग जिनकी कोई छत नहीं थी,माँ गोदावरी की गोद में,पक्के फर्श पर लुढ़ककर एक चादर से अपना बदन ढकने की कोशिश में लगे थे। इनकी संख्या संभवतः सैकड़ों में होगी। और मैं इन सबकी लाचारी की तस्वीर कैमरे में कैद कर 100 रूपये वाली राइस प्लेट की तलाश में निकल पड़ा।


अंजनेरी पहाड़ी पर दिखता एक पठारी शीर्ष
निर्माणाधीन जैन मंदिर की मूर्ति











अंजनी माता मंदिर










अगला भाग ः ब्रह्मगिरि–गोदावरी उद्गम


सम्बन्धित यात्रा विवरण–
4. ब्रह्मगिरि–गोदावरी उद्गम

2 comments:

  1. आपका ये वाला अंजनेरी वाला यात्रा वृतांत पूरा पढ़ा....काफी अच्छी लगा पढ़कर ..... आपने अच्छी भाषा शैली का उपयोग किया है और चित्र भी अच्छे लगाये है ..... लेख से जान पड़ रहा है की अंजनेरी हनुमान जी की जन्मस्थली है ...ऐसे अपवाद देश में कई जगह है .. पर हकीकत किसी को नहीं पता..... वैसे पठारों की चढ़ाई बहुत कठीन होती है ...और ये बात अच्छी लगी की इनकी चोटिया नहीं होती बल्कि ऊपर सपाट मैदान होता है...तभी तो ये पठार कहलाये जाते है ............. कुल मिला. बढ़िया यात्रा वृतांत...

    रीतेश गुप्ता.
    www.safarhaisuhana.com

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    1. धन्यवाद रितेश जी। आपने बिल्कुल सटीक और समुचित विश्लेषण किया है। बारिश के मौसम में पठार वाकई बहुत सुंदर होता है। और पठार की ट्रेकिंग उससे भी अधिक सुंदर लगती है। ब्लॉग पर आने और पूरा लेख पढ़ने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

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