Friday, October 26, 2018

जयपुर की विरासतें–तीसरा भाग

इस यात्रा के बारे में शुरू से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें–

कल भानगढ़ और सरिस्का नेशनल पार्क की धुँआधार यात्रा हुई। रात में खाना खाने और सोने में 11 बज गये। थकान भी काफी हुई थी तो सोकर उठने में 7 बज गये। खूब आराम से उठने और नहा–धाेकर खाना खाने में 9.30 बज गये। मेरे एक घनिष्ठ मित्र ने मुझे फोन पर बताया था कि जयपुर पहुँचकर राज मंदिर में पिक्चर न देखी तो फिर जयपुर जाने का कोई मतलब नहीं। मैंने उसी वक्त निश्चय कर लिया कि राज मंदिर सिनेमाघर को बाहर से भले ही देख लूँ,पिक्चर तो कतई नहीं देखने वाला।
तो फिर 9.45 पर मैंने जयपुर रेलवे स्टेशन के सामने वाले बस स्टैण्ड से राज मंदिर सिनेमा जाने वाली सिटी बस पकड़ ली। बस के चलते ही बारिश शुरू हो गयी और वो भी मूसलाधार। अब राजस्थान की राजधानी में यात्रा और वो भी मूसलाधार बारिश में। आनन्द ही आनन्द। कहाँ तो लाेग तो कहते हैं कि राजस्थान में बहुत कम बारिश होती है और इधर हाल ये है कि जिस दिन से मैं यहाँ आया हूँ,रोज कुछ न कुछ बारिश हो रही है। अब सावन के अन्धे की भाँति,साल भर मैं तो यही कहूँगा कि राजस्थान भी खूब हरा–भरा है,खूब बारिश होती है। लेकिन इस बारिश के बारे में जयपुर के किसी बाशिन्दे से सवाल करें तो उसकी प्रतिक्रिया कुछ यूँ होती है मानो गर्म तवे पर पानी की कुछ बूँदे पड़ी हों। वैसे मुझे बारिश खूब जमकर दिख रही है।
बहरहाल बस चलती रही और साथ साथ बारिश  भी। और राज मंदिर सिनेमा वाले चौराहे पर जब मैं पहुँचा तो बारिश से बचने के लिए बस से उतर कर सड़क पर भरे पानी में छप–छप करते हुए दौड़ लगानी पड़ी। पन्द्रह–बीस मिनट से कुछ अधिक ही बारिश के बन्द होने का इन्तजार करना पड़ा। वैसे पूरी तरह बारिश बन्द हो जाने पर सड़क पर टहलने का मजा ही क्याǃ तो रिमझिम में ही मैं राज मंदिर सिनेमा के सामने जाकर खड़ा हो गया। सड़कों पर से पानी अभी धीरे–धीरे निकल रहा था। तो कपड़े भी बचाने पड़ रहे थे। बारिश भले ही मेरे लिए अच्छी थी लेकिन कैमरे के लिए तो कतई अच्छी नहीं थी।
राज मंदिर सिनेमा बना तो आधुनिक जमाने का है लेकिन बनावट शाही जमाने की है। और यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। इसके बारे में कहा जाता है कि यह एशिया का सबसे बड़ा सिनेमा हॉल है। इसके निर्माण में 10 वर्ष का समय लगा तथा यह 1976 में बनकर तैयार हुआ।
चूँकि मुझे मूवी नहीं देखनी थी तो अब मैं अपने अगले लक्ष्‍य अल्बर्ट हॉल म्यूजियम की ओर चल पड़ा। एक–दो ऑटो रिक्शा वालों से बात की तो उन्होंने कुछ अलग ही सोच लिया। ऐसा रेट बताया कि बन्दे ने पैदल ही चलने का निश्चय कर लिया। दो किमी की दूरी कोई बहुत अधिक नहीं होती।

अल्बर्ट हॉल पहुँचकर जब मैं उसके सामने खड़ा हुआ तो मेरी जुबान पर दो ही शब्द थे– 'भव्य और शानदार।' कुछ ही देर पहले हुई बारिश ने इसे धुल कर चमका दिया था। विशाल भवन के ऊपर कबूतरों की उड़ान इसे और भी भव्यता प्रदान कर रही थी। अल्बर्ट हॉल मेरे जयपुर के कॉम्बो टिकट में शामिल था लेकिन इस टिकट की वैधता अवधि अर्थात् दो दिन के अन्दर,समयाभाव के कारण मैं यहाँ नहीं पहुँच सका। तो अब अल्बर्ट हॉल के लिए मुझे अलग से टिकट लेना पड़ा। टिकट लेने के साथ ही एक और समस्या उत्पन्न हुई। मुझे बैग और कैमरा अन्दर ले जाने से मना कर दिया गया। बैग तो जमा हो गया लेकिन काउण्टर पर बैठे व्यक्ति ने कैमरा जमा करने से इन्कार कर दिया। बड़ी भारी मुसीबत खड़ी हो गयी। काफी पूछताछ के बाद स्पष्ट हुआ कि कैमरा अन्दर ले तो जा सकते हैं लेकिन फोटाे नहीं खींच सकते। "रहेंगे तो तेरे ही दिल में लेकिन तुम्हें प्यार नहीं करने देंगे।" मेरी समस्या का कुछ–कुछ समाधान हुआ। अब कैमरे के साथ हाेने वाला ये सौतेला व्यवहार संभवतः अगले कुछ वर्षाें तक जारी रहेगा जब तक कि मोबाइल के कैमरे तकनीकी दृष्टि से और भी उन्नत नहीं हो जाते। अन्दर जाने के बाद पता चला कि कैमरे से भले ही फोटो नहीं खींच सकते लेकिन कुछ जगहों पर लाेग मोबाइल से फोटो ले रहे थे। अब कोई रोक–टोक करने वाला था नहीं तो फोटो तो खींचे ही जा सकते हैं। लगभग एक घण्टे तक मैं अल्बर्ट हॉल के अन्दर भटकता रहा।
अल्बर्ट हॉल का निर्माण जयपुर के रामनिवास बाग में किया गया है। रामनिवास बाग का निर्माण महाराजा रामसिंह ने करवाया था। 1876 में प्रिंस ऑफ वेल्स,अल्बर्ट एडवर्ड सप्तम के भारत आगमन पर,स्मारक के रूप में इसी रामनिवास बाग में अल्बर्ट हॉल की आधारशिला रखी गयी। इस भवन के निर्माण के समय यह सुनिश्चित नहीं था कि इसका निर्माण किस उद्देश्य को ध्यान में रख कर किया जाय। 1880 में महाराजा सवाई माधो सिंह दि्वतीय ने स्थानीय कारीगरों के उत्पादों को प्रदर्शित करने के लिए,औद्योगिक कला संग्रहालय के रूप में इसे विकसित करने की सहमति प्रदान की। फलतः 1881 में यहाँ एक छोटा सा संग्रहालय स्थापित किया गया। वैसे अल्बर्ट हॉल का निर्माण कार्य पूरा होने में लगभग दस साल लगे और यह 1887 में बन कर तैयार हो सका। इस इमारत के वास्तुकार थे– सैमुएल स्विंटन जैकब। अल्बर्ट हॉल के बारे में कहा जाता है कि यह देश की एकमात्र ऐसी इमारत है जिसमें भारतीय,पाश्चात्य,मुगल इत्यादि कई स्थापत्य शैलियों का समावेश हुआ है। तो वास्तुकला के जानकारों के लिहाज से यह एक देखने लायक इमारत है। 1876 में ही,प्रिंस ऑफ वेल्स के आगमन के समय,उनके स्वागत में महाराजा द्वारा जयपुर को गुलाबी रंग में रँगवाया गया

अल्बर्ट हॉल के पास ही जयपुर का चिड़ियाघर है। अल्बर्ट हॉल से निकलकर मैं चिड़ियाघर के गेट पर पहुँचा। टिकट लेकर अन्दर प्रवेश करने का मन तो था लेकिन जब कैमरे के टिकट का रेट देखा तो प्लान बदल दिया। बहुत सारे चिड़ियाघर देख चुका हूँ। हाँ,चिड़ियाघर के गेट पर बिक रही कुल्फी खाने से अपने को नहीं रोक सका। अब जयपुर में मेरा एक ही लक्ष्‍य बाकी था और वो था जल महल की चौपाटी। जल महल तो दूर से मैं कई बार देख चुका था लेकिन लेकिन आज पास से देखने की प्रबल इच्छा थी और साथ ही इसकी चौपाटी पर टहलते हुए जयपुर को महसूस करने की भी। तो अल्बर्ट हाॅल से निकलकर मैं मुख्य सड़क या एम. आई. रोड या मिर्जा इस्माइल रोड की ओर बढ़ा जहाँ मुझे आमेर जाने वाली सिटी बस मिल गयी और कुछ ही देर में मैं जल महल के किनारे था।

लगभग दोपहर का समय था। आसमान में बादल थे। जलमहल की चौपाटी पर अभी पूरी तरह से रौनक आयी नहीं थी। लाेगों की भीड़ धीरे–धीरे बढ़ रही थी। मैं भी सिटी बस से उतरकर चौपाटी पर चहलकदमी करने लगा।
हर बीस कदम पर जयपुर की प्रसिद्ध कुल्फी तो कहीं भुट्टे की सोंधी सुगन्ध। फालूदा और मिल्क शेक का तो पूछना ही क्याǃ चाट और पानी–पूरी की तो महफिल ही सज रही थी। आइये आनन्द लीजिए। जयपुर की लाइव यादें घर ले जाना चाहते हैं तो जल–महल के सामने खड़े होकर राजस्थान की शाही पोशाक में फोटो भी खिंचवा सकते हैं,वो भी तलवार के साथ।
वैसे मैंने इनमें से कुछ भी नहीं किया। मैं मानसागर झील के किनारे बनी दीवार जैसी रेलिंग के सहारे कभी बैठकर तो कभी टहलते हुए जल–महल का दीदार करता रहा– बिना पलकें झपकाये। क्योंकि जल महल के ऊपर उड़ते कबूतर और झील के पानी में मस्ती करती बतखें,दोनों ही पलकों को नीचे गिरने से रोक देते हैं। अगर बारिश का मौसम है और फुहारें पड़नी लगें तो इधर–उधर भाग कर छ्पिने की जगह खोजने से बेहतर है कि बारिश में भीग कर जल महल को देखते हुए रोमांस का अनुभव किया जाय। क्योंकि छ्पिने की जगह बिल्कुल पास में तो शायद ही मिले। रूक–रूक कर आती फुहारें रोम–रोम को पुलकित कर रही थीं। तो मैं शाही अंदाज में उस रोमांच का अनुभव करता रहा जिसे कई सौ वर्षाें पहले जयपुर के शासकों ने महसूस किया होगा। क्या कल्पना रही होगीǃ छोटी–छोटी पहाड़ियों से घिरी शुष्क भूमि पर,पहाड़ियों से आती जलधाराओं को रोक कर बनी हुई एक कृत्रिम झील और झील के बीच फुर्सत के पलों को यादगार बनाने के लिए शाही अंदाज में शान से खड़ा एक महल। दोनों के मिलन से बना– जलमहल। पानी के बीच पत्थरों की इस निर्मिति में शायद भावनाएं छ्पिी हुई हैं जिन्हें इसके सामने खड़े होकर ही महसूस किया जा सकता है।

जल महल मानसागर नामक झील के बीचोबीच बना है। इस झील का निर्माण सोलहवीं शताब्दी में जयपुर के तत्कालीन शासकों ने अकाल की दशा में कराया था। इसके लिए एक बाँध बनाकर आस–पास की पहाड़ियों से आती जलधाराओं को रोककर एक झील का निर्माण किया गया। बाद में 17वीं सदी में इस बाँध का पुनर्निर्माण किया गया। इस पुनर्निर्माण का श्रेय सवाई जयसिंह दि्वतीय को दिया जाता है।
इसी झील के बीचोबीच सन् 1750 में सवाई माधोसिंह प्रथम द्वारा जलमहल का निर्माण कराया गया। जल महल का निर्माण एक महल के रूप में नहीं वरन एक शिकारगाह के रूप में कराया था। जल महल एक पाँच मंजिला इमारत है जिसके चार तल पानी के अन्दर हैं जबकि एक तल पानी के ऊपर दिखायी देता है। इसका निर्माण ज्यामितीय स्वरूप में किया गया है। इस वर्गाकार भवन के चारों कोनों पर चार बुर्जियां बनी हुई हैं। इसका निर्माण गुलाबी व लाल बलुआ पत्थर से किया गया है। जलमहल की दीवारों को काफी मोटा बनाया गया है ताकि इसके अन्दर पानी का रिसाव न हो सके। जल महल के अन्दर पर्यटकों के प्रवेश की अनुमति नहीं है। हाँ,सांत्वना पुरस्कार के रूप में झील में बोटिंग की जा सकती है।

जलमहल इतना तो सोचने पर बाध्य करता ही है कि राजस्थान के कछवाहा शासक श्रेष्ठ निर्माता रहे हैं।आमेर के निर्माता मिर्जा राजा जयसिंह हों या फिर जयपुर के साथ साथ नाहरगढ़ और जयगढ़ के निर्माता सवाई जयसिंह। भले ही अधिकांश निर्मितियों से जयसिंह का ही नाम जुड़ा हुआ है फिर भी अन्य शासकों ने भी परिस्थितियों और अपनी क्षमता के अनुसार निर्माण कार्याें में अवश्य ही रूचि प्रदर्शित की। सवाई जयसिंह के बारे में तो कहा जाता है कि वह 18वीं शताब्दी का सर्वश्रेष्ठ राजपूत शासक था। इन्हें सवाई की पदवी मुगल शासक फर्रूखशियर ने दी थी। जयसिंह एक विख्यात राजनेता,कानून निर्माता और सुधारक था परन्तु सबसे अधिक वह विज्ञान प्रेमी था। उसने 1722 में जयपुर शहर की स्थापना की। जयसिंह ने दिल्ली,जयपुर,उज्जैन,वाराणसी और मथुरा में वेधशालाओं की स्थापना की। उसने सारणियों का एक सेट भी तैयार किया जिससे लोगों को खगोल सम्बन्धी पर्यवेक्षण करने में सहायता मिले। उने यूक्लिड की पुस्तक "रेखागणित के तत्व" का संस्कृत में अनुवाद कराया। उसने त्रिकोणमिति की बहुत सारी कृतियों और लघुगणकों को बनाने और उनके इस्तेमाल सम्बन्धी नेपियर की रचना का अनुवाद संस्कृत में कराया।

जल महल को निहारते हुए मुझे डेढ़ बज गये। साढ़े तीन बजे मेरी ट्रेन थी। मेरी राजस्थान की यह यात्रा अब समाप्ति की ओर थी। अभी मुझे होटल पहुँचकर बैग भी लेना था तो मैंने भारी मन से जलमहल को अलविदा कहा और सिटी बस की प्रतीक्षा मे खड़ा हो गया। थोड़ी ही देर में बड़ी चौपड़ की बस मिली और फिर वहाँ से रेलवे स्टेशन के लिए। ट्रेन भी मुझे अधिक इन्तजार कराने के मूड में नहीं थी और ठीक 3.30 बजे मुझे लेने स्टेशन आ पहुँची।

अल्बर्ट हॉल–






जल महल–









अल्बर्ट हॉल म्यूजियम के अन्दर–














सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. जयपुर–गुलाबी शहर में
2. आमेर से नाहरगढ़
3. जयगढ़
4. जयपुर की विरासतें–पहला भाग
5. जयपुर की विरासतें–दूसरा भाग
6. भानगढ़–डरना मना हैǃ
7. सरिस्का नेशनल पार्क
8. जयपुर की विरासतें–तीसरा भाग

4 comments:

  1. You are explained them very well. Jaipur, was the stronghold of a clan of rulers whose three hill forts and series of palaces in the city are important attractions. Known as the Pink City because of the colors of the stone used exclusively in the walled city. Jaipur is known as much for its fascinating monuments and colorful markets as it is for its gorgeous handloom garments and wonderfully laid-out gardens. It is really not very difficult to fall in love with Jaipur the moment you land here.

    ReplyDelete
  2. भाई पाण्डे जी आपकी जयपुर यात्रा पढ़कर आनन्द आ गया आपने जितनी ईमानदारी से लिखा है ओ काबिले तारीफ है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद मिश्रा जी ब्लाॅग पर आने के लिए। आगे भी आते रहिए और उत्साहवर्द्धन करते रहिए।

      Delete

Top