इस यात्रा के बारे में शुरू से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें–
जयपुर का सिटी पैलेस जयपुर की शान है। अब अगर सिटी पैलेस के लिए भी अलग से टिकट है तो कोई बुरा नहीं। थोड़ा सा महँगा है– 130 रूपये। सिटी पैलेस भी मेरे कॉम्बो टिकट में शामिल नहीं था। लेकिन सिटी पैलेस के गेट के बाहर से ही सिटी पैलेस के नजारे देखकर यह लग रहा था कि टिकट के पैसे तो पूरी तरह से वसूल हो जायेंगे। सिटी पैलेस के मुख्य गेट के दाहिनी तरफ टिकट घर है। तो बिना समय गँवाये मैं टिकट लेकर सिटी पैलेस के अंदर दाखिल हो गया। सिटी पैलेस के अन्दर हम पूरब की ओर से प्रवेश करते हैं। मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही ठीक सामने मुबारक महल दिखाई पड़ता है। इस मुख्य द्वार को वीरेन्द्र पोल भी कहा जाता है।
मुबारक महल एक सुंदर इमारत है जिसका निर्माण राजा माधोसिंह दि्वतीय (1880-1922) के शासनकाल में हुआ। कालक्रम के आधार पर इसे आधुनिक समय में बनी इमारत कहा जा सकता है। संभवतः इसी वजह से यह काफी सुरक्षित दशा में है और देखकर नहीं लगता कि यह लगभग 100 साल पुरानी इमारत है।
मुबारक महल के बाहर पर्यटकों की भीड़ अधिक नहीं थी क्योंकि कुछ लोग तो इसके अंदर प्रवेश कर जा रहे थे जबकि अधिकांश दायीं या उत्तर तरफ बने गेट से सिटी पैलेस की अन्य इमारतों की ओर हमला बोल रहे थे। तो मेरे पास मुबारक महल की सुंदरता का निरीक्षण करने और फोटो खींचने का अच्छा अवसर था।
मुबारक महल के भूतल पर वस्त्रागार दीर्घा है जिसमें बीते समय की शाही पोशाकों को प्रदर्शित किया गया है। वस्त्रागार दीर्घा में प्रदर्शित कपड़ों में सांगानेरी छापा,बन्धेज,लहरिया,मलमल के कपड़े,महारानी की दीवाली की पोशाक व शॉल विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। दुखद पहलू यह है कि इस भवन में कैमरे पर प्रतिबन्ध है। पता नहीं कौन सी दुश्मनी है इनकी कैमरे से। ग्वालियर के जयविलास पैलेस में फीस लेकर ही सही,कैमरे को अन्दर जाने दिया जाता है। लेकिन यहाँ ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। मुबारक महल के ऊपरी तल पर सिटी पैलेस के कर्मचारियों का कार्यालय है।
मुबारक महल देखने के बाद मैं बाहर निकला तो फिर इसके ठीक पीछे बनी एक और इमारत की ओर बढ़ा। यह सिटी पैलेस का शस्त्रागार है। कैमरे को प्रवेश की अनुमति यहाँ भी नहीं है। शस्त्रागार का नाम यहाँ सिलहखाना अंकित है। जयपुर के शासकों का यह शस्त्रागार वास्तव में दर्शनीय है। यहाँ विभिन्न प्रकार के हथियार जैसे– तलवारें,शमशीर,कटारें,तीर व कमान,कुल्हाड़ी,तोड़ेदार,पत्थरकलां व टोपीदार बन्दूकें,ढाल,बारूददानी इत्यादि कलात्मक ढंग से प्रदर्शित किए गये हैंं। वैसे यहाँ प्रदर्शित सभी हथियारों का नाम और विवरण याद रख पाना संभव नहीं है और फोटो खींचने पर प्रतिबंध है ही। शस्त्रागार के पास ही एक कक्ष में दो उस्ताद तबले और शहनाई की जुगलबंदी में जुटे थे। विदेशी पर्यटकों के साथ फोटो खिंचवाना और धुनें बजाकर इनाम पाने का कार्यक्रम जोर–शोर से चल रहा था। मेरे सामने भी उन्होंने अपनी कला का प्रदर्शन शुरू किया लेकिन इनाम देने के डर से मैं केवल फोटो खींचकर चलता बना।
मुबारक महल के दाहिनी तरफ राजेन्द्र पोल है। राजेन्द्र पोल के दोनों तरफ संगमरमर के बने दो हाथी रखे गये हैं जिन्हें सन् 1931 में महाराजा सवाई भवानी सिंह के जन्मोत्सव के अवसर पर स्थापित किया गया था।इस गेट पर राजसी ठाट–बाट वाले गुजरे जमाने की वेशभूषा में पहरेदारों को नियुक्त किया गया है। वैसे लग तो यही रहा था कि ये पहरेदार,संभवतः पहरेदारी करने के लिए नहीं वरन फोटो खिंचवाने के लिए ही रखे गये है। वीरेन्द्र पोल से प्रवेश करने पर ठीक सामने 'सर्वतोभद्र' बना हुआ है। दाहिनी तरफ 'सभा निवास' तथा बायीं तरफ 'प्रीतम निवास' है। पीछे की तरफ एक काफी ऊँची– सात मंजिली इमारत दिखती है जो 'चंद्र भवन' है।
सर्वतोभद्र जयपुर के शासकों का दीवाने खास है। दीवाने खास में जयपुर के राजा अपने विशिष्ट अतिथियों से मुलाकात किया करते थे। सर्वतोभद्र का संगमरमर से बना फर्श और इसकी छत में लटके झूमर इसकी सुंदरता में चार चाँद लगाते हैं। वैसे सर्वतोभद्र का सबसे बड़ा आकर्षण यहाँ रखे चाँदी के दो घड़े हैं जिन्हें 'गंगाजली' कहा जाता है। इन घड़ों में से प्रत्येक का वजन 340 किलोग्राम,ऊँचाई 1.6 मीटर तथा क्षमता 4000 लीटर की है। इन घड़ों का निर्माण चाँदी के 14000 सिक्कों को पिघलाकर किया गया था। चाँदी के बने विशाल पात्रों की श्रेणी में इन घड़ों का नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स में शामिल है। इन घड़ों का निर्माण महाराज सवाई माधो सिंह दि्वतीय द्वारा कराया गया था जो इन घड़ों में,सन् 1902 में सम्राट एडवर्ड सप्तम के ताजपोशी समारोह में,अपने इंग्लैण्ड प्रवास के दौरान पीने के लिए गंगाजल भर कर ले गये थे।
सर्वतोभद्र के दाहिनी तरफ सभा निवास या दीवाने आम है। इस भवन में राजा अपने जागीरदार,ठाकुर व अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों से मिलने के अलावा जनसभा भी किया करते थे। सिटी पैलेस का दीवाने खास– सर्वतोभद्र तो चारों तरफ से खुला हुआ है तथा इसमें फोटो खींचने की भी मनाही नहीं है लेकिन दीवाने आम के रूप में बना सभा निवास कैमरे के लिए प्रतिबन्धित है। वैसे सभा निवास की दीवारों और छतों की सजावट इतनी सुंदर है कि फोटो न खींच पाने के कारण मेरा दिल टूट गया।
सर्वतोभद्र के बायीं या पश्चिम की तरफ प्रीतम निवास है जो संभवतः सिटी पैलेस का अंतःपुर है। इसके बीच में एक छोटा सा चौक है जिसमें चारों तरफ चार दरवाजे हैं। इन दरवाजों में की गयी कारीगरी दर्शनीय है। इन दरवाजों की चित्रकारी चार विभिन्न ऋतुओं– सर्दी,गर्मी,वर्षा और वसंत को प्रदर्शित करती है। प्रीतम निवास के इस चौक के उत्तर की ओर चंद्र महल है जो कि एक सात मंजिला इमारत है। चंद्र महल वर्तमान में जयपुर के राजघराने के उत्तराधिकारियों का निवास है। यह एक भव्य इमारत है जिसकी विभिन्न मंजिलों के अलग–अलग नाम रखे गये हैं।
सर्वतोभद्र के उत्तर–पूर्व की ओर राजघराने की शाही सवारियों और तोपों को प्रदर्शित किया गया है।
सिटी पैलेस का भ्रमण करने में मुझे 1.30 बज गये। यहाँ से निकला तो हवा की तरह हवा महल की ओर भागा। भूख पेट में हिलोरे मार रही थी। आस–पास कोई रेस्टोरेण्ट खोजना और वहाँ आराम से बैठकर खाना खाने में समय की बर्बादी दिखायी पड़ रही थी। हवा महल के पास ही एक जनरल स्टोर की दुकान पर मैगी बिक रही थी तो आर्डर कर इंतजार में कुछ देर खड़ा हो गया। और इस बीच जो मैंने देखा,उसे देखकर चौंके बिना नहीं रह सका। मैगी बेच रहा लड़का जयपुर घूमने आये विदेशी पर्यटकों से धड़ल्ले से अंग्रेजी में बातें कर रहा था। अब मुझे अंग्रेजी नहीं आती इसका मतलब ये तो है नहीं कि किसी को नहीं आयेगी– एक मैगी बेचने वाला भी अंग्रेजी में बात कर सकता है।
हवा महल में मेरा कॉम्बो टिकट काम कर रहा था तो इसका मतलब ये कि मुझे अलग से 50 रूपये का टिकट नहीं लेना था।
जयपुर के बड़ी चौपड़ इलाके में स्थित हवा महल का निर्माण महाराजा सवाई प्रताप सिंह (1778-1803) ने 1799 में कराया था। इसके वास्तुकार लालचन्द उस्ताद थे। हवा महल एक पाँच मंजिली इमारत है जिसमें दो चौक हैं। पूरी इमारत पिरामिड की आकृति में बनी है जिसकी ऊँचाई 87 फीट है। सम्पूर्ण भवन में 365 छोटी–छोटी खिड़कियाँ बनी हैं। इस इमारत के प्रथम तल पर शरद ऋतु के उत्सव मनाये जाते थे जिस कारण इसका नाम शरद् मंदिर है। दूसरी मंजिल जड़ाई के काम से सजी है। इस कारण इसे रतन मंदिर कहते हैं। तीसरी मंजिल का नाम विचित्र मंदिर है जिसमें महाराजा अपने आराध्य श्रीकृष्ण की पूजा करते थे। चौथी मंजिल का नाम प्रकाश मंदिर है। पाँचवीं मंजिल का नाम हवामंदिर है जिसके नाम पर यह पूरी इमारत हवा महल कहलाती है। दूर से देखने पर हवामहल का शीर्ष श्रीकृष्ण के मुकुट जैसा दिखता है। महाराजा प्रताप सिंह इसे इसी आकृति का बनवाना चाहते थे।
हवा महल का निर्माण लाल एवं गुलाबी बलुआ पत्थर से किया गया है। हवा महल के सामने वाले भाग,जो कि सड़क की ओर पड़ता है,में छोटी–छोटी खिड़कियाँ इतनी अधिक संख्या में हैं कि ये इसे मधुमक्खी के छत्ते जैसा स्वरूप प्रदान करती हैं। खास बात यह है कि सामने के भाग में कोई दरवाजा नहीं है और हवा महल के अन्दर प्रवेश करने के लिए इसके पीछे की ओर जाना पड़ता है। हवा महल के बाहरी प्रवेश द्वार को आनन्द पोल तथा भीतरी प्रवेश द्वार को चन्द्रपोल के नाम से जाना जाता है। भीतरी प्रवेश द्वार से आगे बढ़ने पर हम एक चौक में प्रवेश कर जाते हैं जहाँ एक बड़ा फव्वारा बना हुआ है। इसकी दाहिनी ओर महाराजा प्रताप सिंह का निजी कक्ष प्रतापमंदिर है जिसमें उनकी आदमकद प्रतिमा स्थापित है। बायीं तरफ भोजनशाला बनी हुई है। हवामहल और इसकी खिड़कियों का निर्माण महिलाओं की सहूलियत को ध्यान में रखकर किया गया था जो तीज–गणगौर वगैरह की सवारी देखने के लिए सिटी पैलेस से हवा महल आती थीं।
हवा महल की सीढ़ियां काफी सँकरी हैं जिनमें कभी–कभार तो अधिक भीड़ होने पर टकराने की नौबत आ जा रही थी। इसकी सबसे ऊपरी मंजिल हवा मंदिर तक पहुँचने वाली सीढ़ी तो सबसे सँकरी है और दुर्घटना को रोकने के लिए तथा इस सीढ़ी पर आवागमन को नियंत्रित करने के लिए एक सुरक्षा गार्ड भी तैनात था। इस सीढ़ी पर चढ़ने–उतरने का तरीका वन–वे रास्ते की तरह है अर्थात् एक बार में एक ही तरफ जाया जा सकता है। भीड़ की वजह से हवामंदिर के ऊपरी भाग पर भी जगह कम पड़ रही थी। वैसे इसके लिए सेलि्फस्टों का रवैया भी काफी हद तक जिम्मेदार था। इस भाग में हवा काफी तेज चल रही थी और शायद इसकी वजह जमीन से अधिक ऊँचाई का होना है।
हवा महल की सबसे ऊपरी मंजिल पर पहुँचने के बाद नीचे का नजारा काफी शानदार दिख रहा था। चारों तरफ सीधी दिशा में जाती सड़कें। किनारे–किनारे बनी गुलाबी इमारतें। शहर के चारों तरफ घेरा बनाती छोटी–छोटी पहाड़ियां। हवा महल की ऊँचाई से आस–पास दिखने वाली इमारतों के फोटो खींचने के बाद मैं नीचे उतरा। मेरे कॉम्बो टिकट में ईसरलाट नामक एक जगह थी। पूछताछ की तो पता चला कि यह हवा महल के पास ही है। रास्ता पूछ कर मैं आगे बढ़ चला। ईसरलाट पहुँचने के लिए बड़ी चौपड़ चौराहे से दाहिने मुड़कर पश्चिम की तरफ लगभग आधे किमी चलना था। तो मैंने बाइक को पार्किंग में ही आराम से छोड़ दिया और पैदल ही चल पड़ा। ईसरलाट पहुँचाने से पहले ही दाहिने हाथ त्रिपोलिया गेट पड़ता है। त्रिपोलिया गेट का निर्माण 1570 में कराया गया। यह गेट ही सिटी पैलेस और जंतर–मंतर पहुँचने का मुख्य मार्ग है। त्रिपोलिया गेट के नाम पर ही इसके पास त्रिपोलिया बाजार बसा हुआ है। वर्तमान में त्रिपोलिया गेट सिटी पैलेस में निवास करने वाले राजघराने के लिये मुख्य प्रवेश द्वार है।
त्रिपोलिया गेट से थोड़ा ही आगे ईसरलाट है। वैसे ईसरलाट के गेट तक पहुँचने के लिए मुझे कई जगह पूछताछ करनी पड़ी क्योंकि इसका प्रवेश द्वार मुख्य सड़क से न होकर अन्दर की तरफ से है। साथ ही गेट तक पहुॅंचकर भी,आस–पास बसे बाजार की वजह से यह नहीं लगता कि यहाँ कोई इतनी ऊँची इमारत बनी हुई है।
जयपुर नगर के निर्माता महाराजा सवाई जयसिंह दि्वतीय के ज्येष्ठ पुत्र सवाई ईश्वरी सिंह एवं दि्वतीय पुत्र सवाई माधोसिंह प्रथम के बीच जयपुर महाराजा के पद के लिए 1749 में युद्ध लड़ा गया। इस युद्ध में सवाई ईश्वरी सिंह के विजयी होने पर स्मारक के रूप में विजय स्तम्भ का निर्माण कराया गया जिसे ईसरलाट कहा जाता है। इसे सरगासूली के नाम से भी जाना जाता है। ईसरलाट की धरातल से ऊँचाई लगभग 140 फीट है। यह सात मंजिली मीनार जयपुर शहर के मध्य अष्टकोणीय आकृति में बनी हुई है। यह जयपुर की वास्तुकला की उत्कृष्ट कृति है। इसकी सर्वाेच्च मंजिल से जयपुर शहर का विहंगम नजारा काफी सुंदर दिखाई पड़ता है। वैसे 140 फीट की ऊँचाई चढ़कर ईसरलाट के शीर्ष तक पहुँचने के लिए अच्छा–खासा श्रम करना पड़ा।
ईसरलाट से बाहर निकलने में मुझे 3.30 बज गये। भागता हुआ सिटी पैलेस की पार्किंग तक पहुँचा जहाँ मेरी बाइक खड़ी थी। अब मेरा अगला लक्ष्य 'सिसोदिया रानी का बाग' था। मैंने गूगल मैप पर लोकेशन सेट की और बाइक दौड़ा दी। सबसे पहले हवा महल या बड़ी चौपड़ से सांगानेरी गेट तक और उसके बाद बायें मुड़कर आगरा रोड पर सीधे चलते हुए ट्रान्सपोर्ट नगर तक। फिर हाइवे छोड़कर अण्डरवे पुल से दूसरी सड़कर पकड़कर सिसोदिया रानी के बाग की ओर। कुल लगभग 6 किमी। 4.10 तक मैं सिसोदिया रानी के बाग में था।
सिसोदिया रानी के बाग परिसर में पूर्व की उन्मुख एक बहुत ही खूबसूरत महल बना हुआ है और इस महल के सामने एक बड़े क्षेत्र में एक खूबसूरत बाग बनाया गया है। इस बाग का निर्माण 1728 में हुआ। यह महल एवं बाग महाराजा सवाई जयसिंह दि्वतीय की पत्नी चन्द्रकुंवर ने बनवाया था जो उदयपुर की राजकुमारी थीं। विवाह की शर्ताें के अनुसार उन्हें पटरानी या प्रधान रानी का दर्जा प्राप्त था। कहा जाता है कि इसी महल में राजकुमार माधोसिंह का जन्म हुआ था जो 1750 में जयपुर के राजा बने।
बाग में जब मैं पहुँचा तो यहाँ पर्यटक टाइप का काेई भी व्यक्ति मौजूद नहीं था। दो सुरक्षा गार्ड एक बेंच पर बैठे ऊँघ रहे थे। एक युवा दम्पत्ति बाग में अपने आमोद–प्रमोद में व्यस्त था और सबसे आश्चर्य की बात यह कि बाग में बनी एक छतरी के नीचे चार विदेशी युवक–युवतियां ताश खेल रहे थे। और इनके अलावा इस बाग की टोह लेने पहुँचा हुआ एकमात्र व्यक्ति मैं था। अब राजघरानों के जमाने में यह बाग चाहे जैसा भी रहा हो लेकिन अपने वर्तमान में शहर की भीड़–भाड़ से दूर यह हरा–भरा बाग बहुत ही मनमोहक है। चारों तरफ अवस्थित हरी–भरी पहाड़ियां इसके सौन्दर्य में चार चाँद लगा देती हैं।
इस बीच कुछ बूँदाबाँदी भी होने लगी। तो सिसोदिया रानी के बाग से निकलकर मैं जयपुर शहर की ओर वापस लौटा। सिसोदिया रानी के बाग से कुछ ही पहले अर्थात जयपुर शहर की ओर कुछ ही दूर चलने एक और बाग दिखायी पड़ता है। यह है– विद्याधर बाग। लगभग पाँच मिनट में मैं विद्याधर बाग पहुॅंच गया। लेकिन इस समय तक पाँच बजने वाले थे और पाँच बजे तक यह बन्द हो जाता है। गेट पर तैनात गार्ड ने मुझे पाँच बजे की चेतावनी देते हुए जल्दी बाहर निकलने को कहा। वैसे मेरे अलावा कुछ स्थानीय लोगों का एक समूह पहले से ही बाग में चहलकदमी कर रहा था और जल्दी बाहर निकलने के मूड में नहीं दिख रहा था।
विद्याधर बाग का निर्माण विद्याधर भट्टाचार्य की स्मृति में कराया गया था। विद्याधर बंगाली मूल के एक वास्तुकार थे। जयपुर के संस्थापक सवाई जयसिंह ने जब आमेर से हटकर जयपुर शहर के निर्माण का कार्य आरम्भ किया तो इसके वास्तुशिल्प का निर्धारण करने में विद्याधर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। विद्याधर बाग के पीछे के भाग को होटल में बदल दिया गया है और संभवतः इस वजह से इसका सुंदरीकरण भी कर दिया गया है। आगे का भाग कुछ उपेक्षित सा है फिर भी इसकी डियाइनिंग काफी आकर्षक है। बीच में बना छोटा सा तालाब पानी के अभाव में सूखा पड़ा हुआ था। गेट के बायीं तरफ के भाग में मरम्मत कार्य चल रहा था। वैसे बायें भाग में बना छोटा सा पार्क हरा–भरा होने के कारण सुंदर दिख रहा था।
विद्याधर बाग के साथ ही आज का मेरा जयपुर भ्रमण पूरा हो चुका था। आज मैं जयपुर शहर के अन्दर ही घूमता रह गया था और कुल 24 किमी बाइक चलायी थी। वापस रेलवे स्टेशन के पास अपने लौटा तो अजमेरी गेट के पास वन–वे के चक्रव्यूह में फँस गया। फिर किसी तरह से रास्ता पूछते कमरे लौटा।
अगला भाग ः भानगढ़–डरना मना हैǃ
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. जयपुर–गुलाबी शहर में
2. आमेर से नाहरगढ़
3. जयगढ़
4. जयपुर की विरासतें–पहला भाग
5. जयपुर की विरासतें–दूसरा भाग
6. भानगढ़–डरना मना हैǃ
7. सरिस्का नेशनल पार्क
8. जयपुर की विरासतें–तीसरा भाग
जयपुर का सिटी पैलेस जयपुर की शान है। अब अगर सिटी पैलेस के लिए भी अलग से टिकट है तो कोई बुरा नहीं। थोड़ा सा महँगा है– 130 रूपये। सिटी पैलेस भी मेरे कॉम्बो टिकट में शामिल नहीं था। लेकिन सिटी पैलेस के गेट के बाहर से ही सिटी पैलेस के नजारे देखकर यह लग रहा था कि टिकट के पैसे तो पूरी तरह से वसूल हो जायेंगे। सिटी पैलेस के मुख्य गेट के दाहिनी तरफ टिकट घर है। तो बिना समय गँवाये मैं टिकट लेकर सिटी पैलेस के अंदर दाखिल हो गया। सिटी पैलेस के अन्दर हम पूरब की ओर से प्रवेश करते हैं। मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही ठीक सामने मुबारक महल दिखाई पड़ता है। इस मुख्य द्वार को वीरेन्द्र पोल भी कहा जाता है।
मुबारक महल एक सुंदर इमारत है जिसका निर्माण राजा माधोसिंह दि्वतीय (1880-1922) के शासनकाल में हुआ। कालक्रम के आधार पर इसे आधुनिक समय में बनी इमारत कहा जा सकता है। संभवतः इसी वजह से यह काफी सुरक्षित दशा में है और देखकर नहीं लगता कि यह लगभग 100 साल पुरानी इमारत है।
मुबारक महल के बाहर पर्यटकों की भीड़ अधिक नहीं थी क्योंकि कुछ लोग तो इसके अंदर प्रवेश कर जा रहे थे जबकि अधिकांश दायीं या उत्तर तरफ बने गेट से सिटी पैलेस की अन्य इमारतों की ओर हमला बोल रहे थे। तो मेरे पास मुबारक महल की सुंदरता का निरीक्षण करने और फोटो खींचने का अच्छा अवसर था।
मुबारक महल के भूतल पर वस्त्रागार दीर्घा है जिसमें बीते समय की शाही पोशाकों को प्रदर्शित किया गया है। वस्त्रागार दीर्घा में प्रदर्शित कपड़ों में सांगानेरी छापा,बन्धेज,लहरिया,मलमल के कपड़े,महारानी की दीवाली की पोशाक व शॉल विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। दुखद पहलू यह है कि इस भवन में कैमरे पर प्रतिबन्ध है। पता नहीं कौन सी दुश्मनी है इनकी कैमरे से। ग्वालियर के जयविलास पैलेस में फीस लेकर ही सही,कैमरे को अन्दर जाने दिया जाता है। लेकिन यहाँ ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। मुबारक महल के ऊपरी तल पर सिटी पैलेस के कर्मचारियों का कार्यालय है।
मुबारक महल देखने के बाद मैं बाहर निकला तो फिर इसके ठीक पीछे बनी एक और इमारत की ओर बढ़ा। यह सिटी पैलेस का शस्त्रागार है। कैमरे को प्रवेश की अनुमति यहाँ भी नहीं है। शस्त्रागार का नाम यहाँ सिलहखाना अंकित है। जयपुर के शासकों का यह शस्त्रागार वास्तव में दर्शनीय है। यहाँ विभिन्न प्रकार के हथियार जैसे– तलवारें,शमशीर,कटारें,तीर व कमान,कुल्हाड़ी,तोड़ेदार,पत्थरकलां व टोपीदार बन्दूकें,ढाल,बारूददानी इत्यादि कलात्मक ढंग से प्रदर्शित किए गये हैंं। वैसे यहाँ प्रदर्शित सभी हथियारों का नाम और विवरण याद रख पाना संभव नहीं है और फोटो खींचने पर प्रतिबंध है ही। शस्त्रागार के पास ही एक कक्ष में दो उस्ताद तबले और शहनाई की जुगलबंदी में जुटे थे। विदेशी पर्यटकों के साथ फोटो खिंचवाना और धुनें बजाकर इनाम पाने का कार्यक्रम जोर–शोर से चल रहा था। मेरे सामने भी उन्होंने अपनी कला का प्रदर्शन शुरू किया लेकिन इनाम देने के डर से मैं केवल फोटो खींचकर चलता बना।
मुबारक महल के दाहिनी तरफ राजेन्द्र पोल है। राजेन्द्र पोल के दोनों तरफ संगमरमर के बने दो हाथी रखे गये हैं जिन्हें सन् 1931 में महाराजा सवाई भवानी सिंह के जन्मोत्सव के अवसर पर स्थापित किया गया था।इस गेट पर राजसी ठाट–बाट वाले गुजरे जमाने की वेशभूषा में पहरेदारों को नियुक्त किया गया है। वैसे लग तो यही रहा था कि ये पहरेदार,संभवतः पहरेदारी करने के लिए नहीं वरन फोटो खिंचवाने के लिए ही रखे गये है। वीरेन्द्र पोल से प्रवेश करने पर ठीक सामने 'सर्वतोभद्र' बना हुआ है। दाहिनी तरफ 'सभा निवास' तथा बायीं तरफ 'प्रीतम निवास' है। पीछे की तरफ एक काफी ऊँची– सात मंजिली इमारत दिखती है जो 'चंद्र भवन' है।
सर्वतोभद्र जयपुर के शासकों का दीवाने खास है। दीवाने खास में जयपुर के राजा अपने विशिष्ट अतिथियों से मुलाकात किया करते थे। सर्वतोभद्र का संगमरमर से बना फर्श और इसकी छत में लटके झूमर इसकी सुंदरता में चार चाँद लगाते हैं। वैसे सर्वतोभद्र का सबसे बड़ा आकर्षण यहाँ रखे चाँदी के दो घड़े हैं जिन्हें 'गंगाजली' कहा जाता है। इन घड़ों में से प्रत्येक का वजन 340 किलोग्राम,ऊँचाई 1.6 मीटर तथा क्षमता 4000 लीटर की है। इन घड़ों का निर्माण चाँदी के 14000 सिक्कों को पिघलाकर किया गया था। चाँदी के बने विशाल पात्रों की श्रेणी में इन घड़ों का नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स में शामिल है। इन घड़ों का निर्माण महाराज सवाई माधो सिंह दि्वतीय द्वारा कराया गया था जो इन घड़ों में,सन् 1902 में सम्राट एडवर्ड सप्तम के ताजपोशी समारोह में,अपने इंग्लैण्ड प्रवास के दौरान पीने के लिए गंगाजल भर कर ले गये थे।
सर्वतोभद्र के दाहिनी तरफ सभा निवास या दीवाने आम है। इस भवन में राजा अपने जागीरदार,ठाकुर व अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों से मिलने के अलावा जनसभा भी किया करते थे। सिटी पैलेस का दीवाने खास– सर्वतोभद्र तो चारों तरफ से खुला हुआ है तथा इसमें फोटो खींचने की भी मनाही नहीं है लेकिन दीवाने आम के रूप में बना सभा निवास कैमरे के लिए प्रतिबन्धित है। वैसे सभा निवास की दीवारों और छतों की सजावट इतनी सुंदर है कि फोटो न खींच पाने के कारण मेरा दिल टूट गया।
सर्वतोभद्र के बायीं या पश्चिम की तरफ प्रीतम निवास है जो संभवतः सिटी पैलेस का अंतःपुर है। इसके बीच में एक छोटा सा चौक है जिसमें चारों तरफ चार दरवाजे हैं। इन दरवाजों में की गयी कारीगरी दर्शनीय है। इन दरवाजों की चित्रकारी चार विभिन्न ऋतुओं– सर्दी,गर्मी,वर्षा और वसंत को प्रदर्शित करती है। प्रीतम निवास के इस चौक के उत्तर की ओर चंद्र महल है जो कि एक सात मंजिला इमारत है। चंद्र महल वर्तमान में जयपुर के राजघराने के उत्तराधिकारियों का निवास है। यह एक भव्य इमारत है जिसकी विभिन्न मंजिलों के अलग–अलग नाम रखे गये हैं।
सर्वतोभद्र के उत्तर–पूर्व की ओर राजघराने की शाही सवारियों और तोपों को प्रदर्शित किया गया है।
सिटी पैलेस का भ्रमण करने में मुझे 1.30 बज गये। यहाँ से निकला तो हवा की तरह हवा महल की ओर भागा। भूख पेट में हिलोरे मार रही थी। आस–पास कोई रेस्टोरेण्ट खोजना और वहाँ आराम से बैठकर खाना खाने में समय की बर्बादी दिखायी पड़ रही थी। हवा महल के पास ही एक जनरल स्टोर की दुकान पर मैगी बिक रही थी तो आर्डर कर इंतजार में कुछ देर खड़ा हो गया। और इस बीच जो मैंने देखा,उसे देखकर चौंके बिना नहीं रह सका। मैगी बेच रहा लड़का जयपुर घूमने आये विदेशी पर्यटकों से धड़ल्ले से अंग्रेजी में बातें कर रहा था। अब मुझे अंग्रेजी नहीं आती इसका मतलब ये तो है नहीं कि किसी को नहीं आयेगी– एक मैगी बेचने वाला भी अंग्रेजी में बात कर सकता है।
हवा महल में मेरा कॉम्बो टिकट काम कर रहा था तो इसका मतलब ये कि मुझे अलग से 50 रूपये का टिकट नहीं लेना था।
जयपुर के बड़ी चौपड़ इलाके में स्थित हवा महल का निर्माण महाराजा सवाई प्रताप सिंह (1778-1803) ने 1799 में कराया था। इसके वास्तुकार लालचन्द उस्ताद थे। हवा महल एक पाँच मंजिली इमारत है जिसमें दो चौक हैं। पूरी इमारत पिरामिड की आकृति में बनी है जिसकी ऊँचाई 87 फीट है। सम्पूर्ण भवन में 365 छोटी–छोटी खिड़कियाँ बनी हैं। इस इमारत के प्रथम तल पर शरद ऋतु के उत्सव मनाये जाते थे जिस कारण इसका नाम शरद् मंदिर है। दूसरी मंजिल जड़ाई के काम से सजी है। इस कारण इसे रतन मंदिर कहते हैं। तीसरी मंजिल का नाम विचित्र मंदिर है जिसमें महाराजा अपने आराध्य श्रीकृष्ण की पूजा करते थे। चौथी मंजिल का नाम प्रकाश मंदिर है। पाँचवीं मंजिल का नाम हवामंदिर है जिसके नाम पर यह पूरी इमारत हवा महल कहलाती है। दूर से देखने पर हवामहल का शीर्ष श्रीकृष्ण के मुकुट जैसा दिखता है। महाराजा प्रताप सिंह इसे इसी आकृति का बनवाना चाहते थे।
हवा महल का निर्माण लाल एवं गुलाबी बलुआ पत्थर से किया गया है। हवा महल के सामने वाले भाग,जो कि सड़क की ओर पड़ता है,में छोटी–छोटी खिड़कियाँ इतनी अधिक संख्या में हैं कि ये इसे मधुमक्खी के छत्ते जैसा स्वरूप प्रदान करती हैं। खास बात यह है कि सामने के भाग में कोई दरवाजा नहीं है और हवा महल के अन्दर प्रवेश करने के लिए इसके पीछे की ओर जाना पड़ता है। हवा महल के बाहरी प्रवेश द्वार को आनन्द पोल तथा भीतरी प्रवेश द्वार को चन्द्रपोल के नाम से जाना जाता है। भीतरी प्रवेश द्वार से आगे बढ़ने पर हम एक चौक में प्रवेश कर जाते हैं जहाँ एक बड़ा फव्वारा बना हुआ है। इसकी दाहिनी ओर महाराजा प्रताप सिंह का निजी कक्ष प्रतापमंदिर है जिसमें उनकी आदमकद प्रतिमा स्थापित है। बायीं तरफ भोजनशाला बनी हुई है। हवामहल और इसकी खिड़कियों का निर्माण महिलाओं की सहूलियत को ध्यान में रखकर किया गया था जो तीज–गणगौर वगैरह की सवारी देखने के लिए सिटी पैलेस से हवा महल आती थीं।
हवा महल की सीढ़ियां काफी सँकरी हैं जिनमें कभी–कभार तो अधिक भीड़ होने पर टकराने की नौबत आ जा रही थी। इसकी सबसे ऊपरी मंजिल हवा मंदिर तक पहुँचने वाली सीढ़ी तो सबसे सँकरी है और दुर्घटना को रोकने के लिए तथा इस सीढ़ी पर आवागमन को नियंत्रित करने के लिए एक सुरक्षा गार्ड भी तैनात था। इस सीढ़ी पर चढ़ने–उतरने का तरीका वन–वे रास्ते की तरह है अर्थात् एक बार में एक ही तरफ जाया जा सकता है। भीड़ की वजह से हवामंदिर के ऊपरी भाग पर भी जगह कम पड़ रही थी। वैसे इसके लिए सेलि्फस्टों का रवैया भी काफी हद तक जिम्मेदार था। इस भाग में हवा काफी तेज चल रही थी और शायद इसकी वजह जमीन से अधिक ऊँचाई का होना है।
हवा महल की सबसे ऊपरी मंजिल पर पहुँचने के बाद नीचे का नजारा काफी शानदार दिख रहा था। चारों तरफ सीधी दिशा में जाती सड़कें। किनारे–किनारे बनी गुलाबी इमारतें। शहर के चारों तरफ घेरा बनाती छोटी–छोटी पहाड़ियां। हवा महल की ऊँचाई से आस–पास दिखने वाली इमारतों के फोटो खींचने के बाद मैं नीचे उतरा। मेरे कॉम्बो टिकट में ईसरलाट नामक एक जगह थी। पूछताछ की तो पता चला कि यह हवा महल के पास ही है। रास्ता पूछ कर मैं आगे बढ़ चला। ईसरलाट पहुँचने के लिए बड़ी चौपड़ चौराहे से दाहिने मुड़कर पश्चिम की तरफ लगभग आधे किमी चलना था। तो मैंने बाइक को पार्किंग में ही आराम से छोड़ दिया और पैदल ही चल पड़ा। ईसरलाट पहुँचाने से पहले ही दाहिने हाथ त्रिपोलिया गेट पड़ता है। त्रिपोलिया गेट का निर्माण 1570 में कराया गया। यह गेट ही सिटी पैलेस और जंतर–मंतर पहुँचने का मुख्य मार्ग है। त्रिपोलिया गेट के नाम पर ही इसके पास त्रिपोलिया बाजार बसा हुआ है। वर्तमान में त्रिपोलिया गेट सिटी पैलेस में निवास करने वाले राजघराने के लिये मुख्य प्रवेश द्वार है।
त्रिपोलिया गेट से थोड़ा ही आगे ईसरलाट है। वैसे ईसरलाट के गेट तक पहुँचने के लिए मुझे कई जगह पूछताछ करनी पड़ी क्योंकि इसका प्रवेश द्वार मुख्य सड़क से न होकर अन्दर की तरफ से है। साथ ही गेट तक पहुॅंचकर भी,आस–पास बसे बाजार की वजह से यह नहीं लगता कि यहाँ कोई इतनी ऊँची इमारत बनी हुई है।
जयपुर नगर के निर्माता महाराजा सवाई जयसिंह दि्वतीय के ज्येष्ठ पुत्र सवाई ईश्वरी सिंह एवं दि्वतीय पुत्र सवाई माधोसिंह प्रथम के बीच जयपुर महाराजा के पद के लिए 1749 में युद्ध लड़ा गया। इस युद्ध में सवाई ईश्वरी सिंह के विजयी होने पर स्मारक के रूप में विजय स्तम्भ का निर्माण कराया गया जिसे ईसरलाट कहा जाता है। इसे सरगासूली के नाम से भी जाना जाता है। ईसरलाट की धरातल से ऊँचाई लगभग 140 फीट है। यह सात मंजिली मीनार जयपुर शहर के मध्य अष्टकोणीय आकृति में बनी हुई है। यह जयपुर की वास्तुकला की उत्कृष्ट कृति है। इसकी सर्वाेच्च मंजिल से जयपुर शहर का विहंगम नजारा काफी सुंदर दिखाई पड़ता है। वैसे 140 फीट की ऊँचाई चढ़कर ईसरलाट के शीर्ष तक पहुँचने के लिए अच्छा–खासा श्रम करना पड़ा।
ईसरलाट से बाहर निकलने में मुझे 3.30 बज गये। भागता हुआ सिटी पैलेस की पार्किंग तक पहुँचा जहाँ मेरी बाइक खड़ी थी। अब मेरा अगला लक्ष्य 'सिसोदिया रानी का बाग' था। मैंने गूगल मैप पर लोकेशन सेट की और बाइक दौड़ा दी। सबसे पहले हवा महल या बड़ी चौपड़ से सांगानेरी गेट तक और उसके बाद बायें मुड़कर आगरा रोड पर सीधे चलते हुए ट्रान्सपोर्ट नगर तक। फिर हाइवे छोड़कर अण्डरवे पुल से दूसरी सड़कर पकड़कर सिसोदिया रानी के बाग की ओर। कुल लगभग 6 किमी। 4.10 तक मैं सिसोदिया रानी के बाग में था।
सिसोदिया रानी के बाग परिसर में पूर्व की उन्मुख एक बहुत ही खूबसूरत महल बना हुआ है और इस महल के सामने एक बड़े क्षेत्र में एक खूबसूरत बाग बनाया गया है। इस बाग का निर्माण 1728 में हुआ। यह महल एवं बाग महाराजा सवाई जयसिंह दि्वतीय की पत्नी चन्द्रकुंवर ने बनवाया था जो उदयपुर की राजकुमारी थीं। विवाह की शर्ताें के अनुसार उन्हें पटरानी या प्रधान रानी का दर्जा प्राप्त था। कहा जाता है कि इसी महल में राजकुमार माधोसिंह का जन्म हुआ था जो 1750 में जयपुर के राजा बने।
बाग में जब मैं पहुँचा तो यहाँ पर्यटक टाइप का काेई भी व्यक्ति मौजूद नहीं था। दो सुरक्षा गार्ड एक बेंच पर बैठे ऊँघ रहे थे। एक युवा दम्पत्ति बाग में अपने आमोद–प्रमोद में व्यस्त था और सबसे आश्चर्य की बात यह कि बाग में बनी एक छतरी के नीचे चार विदेशी युवक–युवतियां ताश खेल रहे थे। और इनके अलावा इस बाग की टोह लेने पहुँचा हुआ एकमात्र व्यक्ति मैं था। अब राजघरानों के जमाने में यह बाग चाहे जैसा भी रहा हो लेकिन अपने वर्तमान में शहर की भीड़–भाड़ से दूर यह हरा–भरा बाग बहुत ही मनमोहक है। चारों तरफ अवस्थित हरी–भरी पहाड़ियां इसके सौन्दर्य में चार चाँद लगा देती हैं।
इस बीच कुछ बूँदाबाँदी भी होने लगी। तो सिसोदिया रानी के बाग से निकलकर मैं जयपुर शहर की ओर वापस लौटा। सिसोदिया रानी के बाग से कुछ ही पहले अर्थात जयपुर शहर की ओर कुछ ही दूर चलने एक और बाग दिखायी पड़ता है। यह है– विद्याधर बाग। लगभग पाँच मिनट में मैं विद्याधर बाग पहुॅंच गया। लेकिन इस समय तक पाँच बजने वाले थे और पाँच बजे तक यह बन्द हो जाता है। गेट पर तैनात गार्ड ने मुझे पाँच बजे की चेतावनी देते हुए जल्दी बाहर निकलने को कहा। वैसे मेरे अलावा कुछ स्थानीय लोगों का एक समूह पहले से ही बाग में चहलकदमी कर रहा था और जल्दी बाहर निकलने के मूड में नहीं दिख रहा था।
विद्याधर बाग का निर्माण विद्याधर भट्टाचार्य की स्मृति में कराया गया था। विद्याधर बंगाली मूल के एक वास्तुकार थे। जयपुर के संस्थापक सवाई जयसिंह ने जब आमेर से हटकर जयपुर शहर के निर्माण का कार्य आरम्भ किया तो इसके वास्तुशिल्प का निर्धारण करने में विद्याधर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। विद्याधर बाग के पीछे के भाग को होटल में बदल दिया गया है और संभवतः इस वजह से इसका सुंदरीकरण भी कर दिया गया है। आगे का भाग कुछ उपेक्षित सा है फिर भी इसकी डियाइनिंग काफी आकर्षक है। बीच में बना छोटा सा तालाब पानी के अभाव में सूखा पड़ा हुआ था। गेट के बायीं तरफ के भाग में मरम्मत कार्य चल रहा था। वैसे बायें भाग में बना छोटा सा पार्क हरा–भरा होने के कारण सुंदर दिख रहा था।
विद्याधर बाग के साथ ही आज का मेरा जयपुर भ्रमण पूरा हो चुका था। आज मैं जयपुर शहर के अन्दर ही घूमता रह गया था और कुल 24 किमी बाइक चलायी थी। वापस रेलवे स्टेशन के पास अपने लौटा तो अजमेरी गेट के पास वन–वे के चक्रव्यूह में फँस गया। फिर किसी तरह से रास्ता पूछते कमरे लौटा।
जयपुर की शान– हवामहल |
सिटी पैलेस का मुबारक महल |
सिटी पैलेस के शस्त्रागार में लगी एक पेंटिंग |
सिटी पैलेस के एक कक्ष में जमे उस्ताद |
राजेन्द्र पोल पर तैनात पहरेदार |
चन्द्र महल |
प्रीतम निवास के चौक के दरवाजे के ऊपर की गयी कारीगरी |
सर्वतोभद्र की सजावट |
चाँदी का विशाल घड़ा– गंगाजली |
सभा निवास |
सर्वतोभद्र |
हवामहल का रतन मंदिर |
हवामहल के ऊपर से |
हवामहल– अंदर के चौक से |
ईसरलाट की ऊँचाई से दिखता जयपुर |
ईसरलाट की ऊपरी मंजिल |
ईसरलाट |
त्रिपोलिया गेट |
सिटी पैलेस के सामने के ग्राउण्ड में कबूतरों का सम्मेलन |
सिसोदिया रानी के बाग में |
सिसोदिया रानी का बाग |
सिसोदिया रानी का महल |
विद्याधर बाग |
विद्याधर बाग |
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. जयपुर–गुलाबी शहर में
2. आमेर से नाहरगढ़
3. जयगढ़
4. जयपुर की विरासतें–पहला भाग
5. जयपुर की विरासतें–दूसरा भाग
6. भानगढ़–डरना मना हैǃ
7. सरिस्का नेशनल पार्क
8. जयपुर की विरासतें–तीसरा भाग
बहुत सुंदर जानकारी दी है आपने,पहले भी घूम चुका हूं में ये जगह मगर आपके नजरिये से देख कर आनन्द आया
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद महेश जी। आगे भी आते रहिये और उत्साहवर्द्धन करते रहिए।
Delete