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अगला भाग ः सरिस्का नेशनल पार्क
आज जयपुर में मेरा चौथा दिन था। पिछली रात भी मेरी किराये की बाइक,होटल के सामने,सड़क के किनारे खड़ी रही और मैं होटल के कमरे में चैन की नींद सोता रहा। जयपुर के अन्दर लगभग सभी प्रमुख जगहों पर जा चुका था और आज जाने–माने,सुप्रसिद्ध,भानगढ़ के किले पर चढ़ाई करनी थी और वहाँ के भूतों से लड़ना था। वैसे तो भानगढ़ को एक किला होने की वजह से ही प्रसिद्ध होना चाहिए था लेकिन यह अपने किला होने की वजह से कम और भुतहा होने की वजह से अधिक जाना जाता है।
उस पर भी यह भुतहा है या नहीं,इस बारे में कोई भी निश्चित प्रमाण के साथ कुछ नहीं कह सकता। मेरे मन में भी इस किले के प्रति,इसकी भुतहा छवि की वजह से ही अधिक उत्सुकता थी। इतना अवश्य था कि मैं भी इसके भुतहा होने की जाँच करने नहीं जा रहा था।
बाइक मेरे पास पहले से थी और मुझे अधिक दूरी तय करनी थी तो मुझे काफी सुबह निकल जाना चाहिए था,फिर भी कमरे से निकलने में 7.15 हो गये। लाेगों से पूछताछ करके ली गयी जानकारी के अनुसार भानगढ़ जाने के लिए सबसे पहले मुझे जयपुर–आगरा राजमार्ग पर,जयपुर से 49 किमी पूरब में दौसा तक जाना था। फिर यहाँ से बायें हाथ मुड़ जाना था। रास्ते में कनौता,बस्सी और भंड़ाना नामक छोटे–छोटे कस्बे मिलते हैं। दौसा को बाई–पास करने के लिए राजमार्ग पर एक ओवरब्रिज बना है। लेकिन जानकारी न होने के कारण मैं इस पुल पर चढ़ गया जबकि मुझे नीचे से ही बायें या उत्तर की ओर मुड़ना था। फलतः पुल पार कर मुझे फिर वापस आना पड़ा। इस रास्ते में मुझे ऊँटगाड़ी भी दिखी जैसे कि हमारे उत्तर प्रदेश में बैलगाड़ियाँ दिखती हैं।
दौसा से लगभग 14 किमी आगे सड़क पर कुछ निर्माण कार्य चल रहा था। इस स्थान पर जयपुर से आकर एक दूसरी सड़क भी मिलती है। वैसे दौसा होकर आने का फायदा यह है कि फाेरलेन का राजमार्ग मिलता है। इस स्थान से आगे बढ़ने पर बायें हाथ सैंथल डैम दिखायी पड़ता है। दौसा से लगभग 25 किमी की दूरी पर गोला का बास नाम कस्बा पड़ता जो कि भानगढ़ का सर्वाधिक निकटवर्ती कस्बा है। गोला का बास से 1 किमी पश्चिम में भानगढ़ का किला अवस्थित है। भानगढ़ के रास्ते के लिए बहुत अधिक पूछताछ नहीं करनी पड़ी। गोला का बास कस्बे को लगभग पूरा पार करने के बाद मुख्य मार्ग छोड़कर एक पतली सड़क भानगढ़ किले की ओर जाती है। लगभग 1 किमी लम्बी इस सड़क के किनारे गोला का बास से काफी आगे तक घर व दुकानें बने हुए हैं। एक–दो होटल भी हैं। मैं काफी आश्चर्य में था कि जब इतना खतरनाक किला पास में है तो इसके इतने नजदीक तक ये लोग क्यों बसे हुए हैंǃ हो सकता है कि किले के भूत किले के बाहर हमला न करते हों। इसी रास्ते में चरवाहे अपनी बकरियों के झुण्ड को ले जाते दिखे। किले की सीमा के बिल्कुल सटे हुए खेत भी दिखायी पड़ रहे थे। हाँ किले के गेट के आस–पास खाने–पीने की दुकानें नहीं हैं। वाटर कूलर जरूर लगा हुआ है। तो मैंने बोतल में ठण्डा पानी यहीं से भर लिया। बिस्कुट और कुछ और खाने की चीजें मैं पहले से लेकर आया था।
हनुमान गेट से किले में प्रवेश करने के बाद एक पतला रास्ता,टेढ़े–मेढ़े रास्ते से होते हुए,रास्ता भटकता हुआ भानगढ़ राजमहल की ओर जाता है। इस रास्ते के दोनों ओर लगातार क्रम में इमारतों के डरावने खण्डहर फैले हुए हैं। इनमें से किसी की छत नहीं है। दायीं ओर केवल खण्डहर हैं जबकि बायीं ओर खण्डहरों के साथ जंगल–झाड़ भी फैले हुए हैं। इस मुख्य रास्ते में से दोनों ओर कुछ और रास्ते भी निकले हैं जिन्हें पुरातत्व विभाग ने पक्का कर दिया है। वैसे इस रास्ते पर पर्यटकों की इतनी संख्या तो थी ही कि डर न लगे। अन्यथा अकेले रहने पर तो दिन के उजाले में भी डर लगता। अब जबकि गाँव के किसी किनारे पर स्थित किसी खण्डहर में लोगबाग अकेले नहीं जाना चाहते तो फिर जहाँ इतने खण्डहर एक साथ हों,अकेले कौन जाना चाहेगा। थोड़ा ही आगे दायीं ओर एक रास्ता निकला हुआ है जिधर कुछ खण्डहर दिख रहे थे। मैं उधर मुड़ गया। कुछ ऊँची इमारतें दिख रही थीं लेकिन ये भी पूरी तहर खण्डहर हैं। यहाँ से वापस आकर मैंने फिर से सीधा रास्ता पकड़ लिया। किले में अधिकांश भीड़ स्थानीय लोगों की ही थी। इसमें भी ग्रामीणों की ही अधिक संख्या दिख रही थी। इन ग्रामीणों में भी बच्चे,बूढ़े और महिलाओं की संख्या काफी थी। इस प्रकार के पर्यटकों को देखकर मैं काफी हैरत में था। वैसे भी लग नहीं रहा था कि भानगढ़ पर्यटन स्थल के रूप में अधिक प्रसिद्ध हो पाया है। हो सकता है इसकी भुतहा वाली छवि इसके लिए नकारात्मक साबित होती हो।
अधिकांश लाेग सीधे रास्ते पर चलते हुए पश्चिम की ओर बने हुए राजमहल की ओर चले जा रहे थे। रास्ते के दोनों ओर बने दुकान जैसे कक्षों को जौहरी बाजार के नाम से जाना जाता है। एक स्थान पर 'नर्तकियों की हवेली' का बोर्ड भी लगा हुआ है। लेकिन मैं इनसे अलग,राजमहल से कुछ ही पहले,बायीं ओर जा रही एक पगडण्डी पर मुड़ गया बिना ये सोचे कि ये मुझ किधर लेकर जायेगी। इतना तो निश्चित था कि इस पगडण्डी पर मेरे अलावा कोई नहीं जा रहा था। जगह–जगह रास्ते को काँटेदार झड़ियों ने अवरूद्ध कर रखा था क्योंकि अगस्त के महीने में उन्हें बारिश ने नवजीवन प्रदान किया था। मन में थोड़ा थोड़ा डरते हुए मैं आगे बढ़ता रहा। अब तक हनुमान चालीसा पढ़ने की नौबत नहीं आयी थी कि इसी बीच खजुराहो शैली में बना एक छोटा सा मंदिर दिखा। मंदिर कुछ ऊँचाई पर है इसलिए दूर से ही दिख गया। मैं जल्दी–जल्दी सीढ़ियां चढ़ते हुए मंदिर के प्रवेश द्वार तक पहुँच गया। पास ही मंगला देवी मंदिर के नाम का ,पुरातत्व विभाग का एक बोर्ड लगा हुआ था। इसके अलावा और कोई सूचना अंकित नहीं मिली। नागर शैली के हिसाब से यह एक त्रिरथ मंदिर है। मंदिर के गर्भगृह में कोई प्रतिमा स्थापित नहीं दिखी। हो सकता है प्रतिमा की स्थापना की गयी हो लेकिन समय ने उसे अपने गर्त में छ्पिा लिया हो या फिर किसी म्यूजियम में रखी हो। मंगला देवी मंदिर से कुछ ही दूरी पर एक और मंदिर दिखा तो मैं वहाँ जाने से अपने को नहीं रोक सका। यह केशव राय मंदिर है। इस मंदिर के चारों ओर एक चारदीवारी जैसी संरचना के अवशेष दिखायी पड़े। संरचना के दृष्टिकोण से इस मंदिर के दाे ही भाग हैं– गर्भगृह एवं मण्डप। मैं मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश कर गया। इतना तो स्पष्ट लग रहा था कि कोई मूर्ति जरूर रही होगी। वहाँ से अभी मैं बाहर निकल ही रहा था कि घण्टियों की आवाज सुन मेरे दोनों कान खड़े हो गये। मैं वहीं का वहीं खड़ा रह गया। अब अगले सेकेण्ड मैं हनुमान चालीसा पढ़ना शुरू करने ही वाला था कि एक भैंस गर्दन हिलाती सामने प्रकट हो गयी। जान में जान आयी तो पगडण्डी पर फिर से आगे बढ़ गया।
थोड़ी–थोड़ी दूरी पर कुछ–एक और खण्डहर दिख रहे थे। वैसे कोई महत्वपूर्ण इमारत नहीं दिख रही थी। तो काँटेदार झड़ियों से बचते–बचाते मैं राजमहल को दूर से देखते हुए उसकी दिशा में आगे बढ़ता रहा। वैसे मेरे रास्ते में राजमहल की दक्षिण दिशा में अभी एक और मंदिर दिख रहा था। इस मंदिर से पहले पुरोहित जी की हवेली भी बनी हुई है। यह मंदिर सोमेश्वर मंदिर है। यह एक त्रिरथ मंदिर है। इसके पास एक छोटा सा तालाब भी बना हुआ है। तालाब में कुछ लोग स्नान कर रहे थे। यह मंदिर भानगढ़ किले का संभवतः सबसे बड़ा मंदिर है। इसमें सफेद रंग का एक बड़ा शिवलिंग भी स्थापित है। अब यह किस प्रकार के पत्थर का बना है,ये मुझे नहीं पता। शिवलिंग के सामने मंदिर के वाह्य भाग में नन्दी की मूर्ति स्थापित है।
मंदिर से बाहर निकलकर मैं भानगढ़ के राजमहल की ओर बढ़ा। जो कि भानगढ़ किले का सबसे बड़ा खण्डहर है। महल से पहले एक और सुरक्षा दीवार बनी हुई है। महल की निचली मंजिलें तो कुछ सलामत हैं लेकिन ऊपर के भाग पूरी तरह खण्डहर में बदल चुके हैं। वैसे इन खण्डहरों में रहस्य है,आकर्षण है,भय है,रोमांच है। और सब मिलाकर एक इतिहास छ्पिा हुआ है जो किसी भी व्यक्ति को अपने आकर्षण में बांध सकता है या फिर डरा भी सकता है। महल के मुख्य प्रवेश द्वार के बाद एक गैलरी के अन्दर बनी सीढ़ियां ऊपरी मंजिलों की ओर ले जाती हैं। तेज धूप में चलने के बाद इक्का–दुक्का लोग छाये में बैठकर सुस्ता रहे थे। एक–दो उत्साही युवा सबसे ऊपर के खण्डहर में अलग–अलग मुद्राओं में सेल्फी ले रहे थे। पत्थरों की बनी दीवारों और छोटे–छोटे कक्षों में लगे लोहे के दरवाजों को देखकर तो महल कम और जेल का अधिक आभास हो रहा था। सबसे ऊपरी मंजिल से चारों तरफ बिखरी,हरी–भरी पहाड़ियों को नजारा काफी सुंदर लग रहा था। एक नजर में नहीं लग रहा था कि हम किसी भुतहे या डरावने किले के बीच खड़े हैं।
राजमहल के सामने एक और छोटा सा लेकिन सुंदर मंदिर बना हुआ है। यह गोपीनाथ मंदिर है। यह एक त्रिरथ मंदिर है। भानगढ़ के चारों मंदिरों में यह मंदिर सबसे सुंदर है। इस मंदिर के गर्भगृह में भी कोई प्रतिमा उपस्थित नहीं है। इस मंदिर को देखकर लगता है कि भानगढ़ के किले में खजुराहो अवतरित हो गया है।
इस मंदिर के दर्शन के बाद अब मुझे बाहर निकलना था। दिन के समय तो भूतों से मुलाकात नहीं हुई लेकिन भानगढ़ के बंदरों से बचना बहुत जरूरी है। दरअसल सैकड़ों सालों से उपेक्षित पड़े खण्डहर किले के बारे में तमाम कहानियां प्रचलित हैं जिन्होंने इस खूबसूरत किले को डरावना बना दिया है। यहाँ के स्थानीय निवासी भले ही भूतों की तमाम कहानियां कहते हों,डरते तो शायद ही होंगे। मेरी समझ से बाहरी लोग ही अधिक डरते होंगे।
भानगढ़ की इमारतों के बारे में एक और बात जो मैंने नोटिस की,वो ये कि यहाँ का राजमहल और अन्य इमारतें तो पूरी तरह या अधिकांशतः खण्डहर हो चुकी हैं लेकिन चारों मंदिर सही सलामत हैं। इन मंदिरों की छतों में काफी दरारें हैं जो आसानी से दिखती हैं। दीवारों में भी कहीं–कहीं दरारें दिखती हैं। अब इसके पीछे क्या रहस्य है,मैं नहीं समझ सका। हो सकता है अतीत में आये किसी भूकम्प ने किले और उसके भवनों की यह दशा की हो। अब कुछ बातें भानगढ़ के इतिहास के बारे में। राजस्थान के अलवर जिले में स्थित भानगढ़ के प्राचीन कस्बे की स्थापना आमेर के शासक राजा भगवन्त दास ने सोलहवीं सदी के उतरार्द्ध में की,जिसे बाद में राजा मानसिंह के भाई माधो सिंह की रियासत की राजधानी बना दिया गया। माधो सिंह मुगल सम्राट अकबर (1556-1605) के दरबार में दीवान थे। माधोसिंह के पौत्र अजब सिंह ने भानगढ़ से कुछ ही दूरी पर अपने नाम पर अजबगढ़ की स्थापना की। अजब सिंह की अगली पीढ़ी में,उनके एक पुत्र ने अजबगढ़ को अपना निवास बनाया जबकि दूसरे ने भानगढ़ को। मुगल शासक औरंगजेब के समय में भानगढ़ के शासकों ने मुस्लिम धर्म अपना लिया। बाद में मुगलों के पतन के समय जयपुर के संस्थापक सवाई जयसिंह ने 1720 में इन्हें हराकर भानगढ़ को अपने अधिकार में ले लिया। ऐसा माना जाता है कि इसके बाद से ही भानगढ़ का पतन आरम्भ हो गया। ऐसा माना जाता है पानी की कमी और 1783 में पड़े अकाल की वजह से भानगढ़ उजड़ गया। वर्तमान में भानगढ़ के मुख्य अवशेषों में इसका मुख्य द्वार व प्राचीर,बाजार,हवेलियां,मंदिर,शाही महल,छतरियां,मकबरे आदि हैं। किला परिसर में नागर शैली में बने गोपीनाथ मंदिर,केशवराय मंदिर,सोमेश्वर मंदिर व मंगला देवी मंदिर भी दर्शनीय हैं। किले के शाही महल काे सात मंजिला माना जाता है जिसमें से वर्तमान में खण्डहर अवस्था में चार मंजिलें ही बची हैं। भानगढ़ की पूरी बस्ती एक के बाद एक तीन प्राचीरों से सुरक्षित की गयी थी। वाह्य प्राचीर में प्रवेश हेतु पाँच द्वार बने हैं जिन्हें उत्तर से दक्षिण तक क्रमशः अजमेरी,लाहौरी,हनुमान,फूलबारी एवं दिल्ली द्वार के नाम से जाना जाता है।
वैसे तो भानगढ़ के पतन के बारे प्रामाणिक कारण उपलब्ध नहीं हैं लेकिन कई किंवदंतियां प्रचलित हैं। ये किंवदंतियां इण्टरनेट के अलावा यहाँ के लोगों के मुँह से भी सुनने को भी मिल जाएंगी। एक कहानी यह है कि भानगढ़ में एक तपस्वी बालूनाथ की कुटिया थी। महल के निर्माण के समय तपस्वी ने तत्कालीन राजा को चेतावनी दी कि महल की की ऊँचाई इतनी न हो कि उसकी छाया उनके तपस्थल पर पड़े। लेकिन राजा ने उनकी चेतावनी की अवहेलना की। परिणास्वरूप बालूनाथ ने शाप दे दिया और भानगढ़ का विनाश हो गया। दूसरी किंवदंती के अनुसार भानगढ़ में एक समय एक तांत्रिक रहता था जो वहाँ की राजकुमारी रत्नावती से एकतरफा प्रेम करता था और उसे पाना चाहता था। एक दिन जब राजकुमारी की एक सेविका बाजार में इत्र खरीदने गयी तो तांत्रिक ने उस इत्र पर जादू कर दिया। राजकुमारी को सच्चाई पता चल गयी और उसने एक पत्थर की सहायता से तांत्रिक को मार दिया। लेकिन मरने से पहले तांत्रिक ने भानगढ़ को शापित कर दिया और उसके बाद भानगढ़ उसके बाद अधिक समय तक अस्तित्व में नहीं रह सका।
वैसे इतना तो तय है कि जब तक भानगढ़ के विनाश के पुख्ता सबूत नहीं मिल जाते,इस तरह की किंवदंतियां कही और सुनी जाती रहेंगी और भानगढ़ की भुतहा वाली छवि बनी रहेगी।
भानगढ़ के किले से निकलकर वापस गोला का बास पहुँचा तो 12 बज रहे थे। साथ ही सुबह से बिना कुछ खाये–पिये तेज धूप में चलते रहने से चेहरे पर भी बारह बज रहे थे। पेट खाने की बजाय पानी की ही अधिक उम्मीद कर रहा था तो उसकी बात मानते हुए मैंने ज्यादा कुछ खाने से परहेज किया और पीने पर अधिक जोर दिया। वैसे गोला का बास में एक सामान्य उत्तर भारतीय कस्बे की तरह से हर तरह की खाने पीने की चीजें उपलब्ध हैं। एक बात और। जिस समय मैं भानगढ़ जाने के लिए गोला का बास पार कर रहा था तो मुझे मूर्तियों की कुछ दूकानें दिखीं। मैं भानगढ़ से लौट कर वापस उन दुकानों तक गया। सड़क की दूसरी तरफ से ज्योंही मैंने उन दुकानों की ओर कैमरा फोकस किया,दुकानों के अन्दर काम कर रहे कारीगर और दुकानदार बाहर निकल पड़े। इस उम्मीद में कि शायद कोई बड़ा पत्रकार या फिर कोई बड़ा खरीदार आया है। वैसे मैं इनमें से कुछ भी नहीं था,ये बात तो सिर्फ मैं ही जान रहा था। परिचय का आदान–प्रदान हुआ। लगे हाथ मैंने कुछ मूर्तियों की कीमत की जानकारी भी ले ली। एक जोड़ी शेर की मूर्तियों की कीमत सिर्फ 30000 रूपये पता चली। मैंने उन्हें दुबारा आने का आश्वासन देकर विदा ली और अपनी बाइक गोला का बास से सीधे मुख्य मार्ग पर सरिस्का नेशनल पार्क की ओर बढ़ा दी।
उस पर भी यह भुतहा है या नहीं,इस बारे में कोई भी निश्चित प्रमाण के साथ कुछ नहीं कह सकता। मेरे मन में भी इस किले के प्रति,इसकी भुतहा छवि की वजह से ही अधिक उत्सुकता थी। इतना अवश्य था कि मैं भी इसके भुतहा होने की जाँच करने नहीं जा रहा था।
बाइक मेरे पास पहले से थी और मुझे अधिक दूरी तय करनी थी तो मुझे काफी सुबह निकल जाना चाहिए था,फिर भी कमरे से निकलने में 7.15 हो गये। लाेगों से पूछताछ करके ली गयी जानकारी के अनुसार भानगढ़ जाने के लिए सबसे पहले मुझे जयपुर–आगरा राजमार्ग पर,जयपुर से 49 किमी पूरब में दौसा तक जाना था। फिर यहाँ से बायें हाथ मुड़ जाना था। रास्ते में कनौता,बस्सी और भंड़ाना नामक छोटे–छोटे कस्बे मिलते हैं। दौसा को बाई–पास करने के लिए राजमार्ग पर एक ओवरब्रिज बना है। लेकिन जानकारी न होने के कारण मैं इस पुल पर चढ़ गया जबकि मुझे नीचे से ही बायें या उत्तर की ओर मुड़ना था। फलतः पुल पार कर मुझे फिर वापस आना पड़ा। इस रास्ते में मुझे ऊँटगाड़ी भी दिखी जैसे कि हमारे उत्तर प्रदेश में बैलगाड़ियाँ दिखती हैं।
दौसा से लगभग 14 किमी आगे सड़क पर कुछ निर्माण कार्य चल रहा था। इस स्थान पर जयपुर से आकर एक दूसरी सड़क भी मिलती है। वैसे दौसा होकर आने का फायदा यह है कि फाेरलेन का राजमार्ग मिलता है। इस स्थान से आगे बढ़ने पर बायें हाथ सैंथल डैम दिखायी पड़ता है। दौसा से लगभग 25 किमी की दूरी पर गोला का बास नाम कस्बा पड़ता जो कि भानगढ़ का सर्वाधिक निकटवर्ती कस्बा है। गोला का बास से 1 किमी पश्चिम में भानगढ़ का किला अवस्थित है। भानगढ़ के रास्ते के लिए बहुत अधिक पूछताछ नहीं करनी पड़ी। गोला का बास कस्बे को लगभग पूरा पार करने के बाद मुख्य मार्ग छोड़कर एक पतली सड़क भानगढ़ किले की ओर जाती है। लगभग 1 किमी लम्बी इस सड़क के किनारे गोला का बास से काफी आगे तक घर व दुकानें बने हुए हैं। एक–दो होटल भी हैं। मैं काफी आश्चर्य में था कि जब इतना खतरनाक किला पास में है तो इसके इतने नजदीक तक ये लोग क्यों बसे हुए हैंǃ हो सकता है कि किले के भूत किले के बाहर हमला न करते हों। इसी रास्ते में चरवाहे अपनी बकरियों के झुण्ड को ले जाते दिखे। किले की सीमा के बिल्कुल सटे हुए खेत भी दिखायी पड़ रहे थे। हाँ किले के गेट के आस–पास खाने–पीने की दुकानें नहीं हैं। वाटर कूलर जरूर लगा हुआ है। तो मैंने बोतल में ठण्डा पानी यहीं से भर लिया। बिस्कुट और कुछ और खाने की चीजें मैं पहले से लेकर आया था।
हनुमान गेट से किले में प्रवेश करने के बाद एक पतला रास्ता,टेढ़े–मेढ़े रास्ते से होते हुए,रास्ता भटकता हुआ भानगढ़ राजमहल की ओर जाता है। इस रास्ते के दोनों ओर लगातार क्रम में इमारतों के डरावने खण्डहर फैले हुए हैं। इनमें से किसी की छत नहीं है। दायीं ओर केवल खण्डहर हैं जबकि बायीं ओर खण्डहरों के साथ जंगल–झाड़ भी फैले हुए हैं। इस मुख्य रास्ते में से दोनों ओर कुछ और रास्ते भी निकले हैं जिन्हें पुरातत्व विभाग ने पक्का कर दिया है। वैसे इस रास्ते पर पर्यटकों की इतनी संख्या तो थी ही कि डर न लगे। अन्यथा अकेले रहने पर तो दिन के उजाले में भी डर लगता। अब जबकि गाँव के किसी किनारे पर स्थित किसी खण्डहर में लोगबाग अकेले नहीं जाना चाहते तो फिर जहाँ इतने खण्डहर एक साथ हों,अकेले कौन जाना चाहेगा। थोड़ा ही आगे दायीं ओर एक रास्ता निकला हुआ है जिधर कुछ खण्डहर दिख रहे थे। मैं उधर मुड़ गया। कुछ ऊँची इमारतें दिख रही थीं लेकिन ये भी पूरी तहर खण्डहर हैं। यहाँ से वापस आकर मैंने फिर से सीधा रास्ता पकड़ लिया। किले में अधिकांश भीड़ स्थानीय लोगों की ही थी। इसमें भी ग्रामीणों की ही अधिक संख्या दिख रही थी। इन ग्रामीणों में भी बच्चे,बूढ़े और महिलाओं की संख्या काफी थी। इस प्रकार के पर्यटकों को देखकर मैं काफी हैरत में था। वैसे भी लग नहीं रहा था कि भानगढ़ पर्यटन स्थल के रूप में अधिक प्रसिद्ध हो पाया है। हो सकता है इसकी भुतहा वाली छवि इसके लिए नकारात्मक साबित होती हो।
अधिकांश लाेग सीधे रास्ते पर चलते हुए पश्चिम की ओर बने हुए राजमहल की ओर चले जा रहे थे। रास्ते के दोनों ओर बने दुकान जैसे कक्षों को जौहरी बाजार के नाम से जाना जाता है। एक स्थान पर 'नर्तकियों की हवेली' का बोर्ड भी लगा हुआ है। लेकिन मैं इनसे अलग,राजमहल से कुछ ही पहले,बायीं ओर जा रही एक पगडण्डी पर मुड़ गया बिना ये सोचे कि ये मुझ किधर लेकर जायेगी। इतना तो निश्चित था कि इस पगडण्डी पर मेरे अलावा कोई नहीं जा रहा था। जगह–जगह रास्ते को काँटेदार झड़ियों ने अवरूद्ध कर रखा था क्योंकि अगस्त के महीने में उन्हें बारिश ने नवजीवन प्रदान किया था। मन में थोड़ा थोड़ा डरते हुए मैं आगे बढ़ता रहा। अब तक हनुमान चालीसा पढ़ने की नौबत नहीं आयी थी कि इसी बीच खजुराहो शैली में बना एक छोटा सा मंदिर दिखा। मंदिर कुछ ऊँचाई पर है इसलिए दूर से ही दिख गया। मैं जल्दी–जल्दी सीढ़ियां चढ़ते हुए मंदिर के प्रवेश द्वार तक पहुँच गया। पास ही मंगला देवी मंदिर के नाम का ,पुरातत्व विभाग का एक बोर्ड लगा हुआ था। इसके अलावा और कोई सूचना अंकित नहीं मिली। नागर शैली के हिसाब से यह एक त्रिरथ मंदिर है। मंदिर के गर्भगृह में कोई प्रतिमा स्थापित नहीं दिखी। हो सकता है प्रतिमा की स्थापना की गयी हो लेकिन समय ने उसे अपने गर्त में छ्पिा लिया हो या फिर किसी म्यूजियम में रखी हो। मंगला देवी मंदिर से कुछ ही दूरी पर एक और मंदिर दिखा तो मैं वहाँ जाने से अपने को नहीं रोक सका। यह केशव राय मंदिर है। इस मंदिर के चारों ओर एक चारदीवारी जैसी संरचना के अवशेष दिखायी पड़े। संरचना के दृष्टिकोण से इस मंदिर के दाे ही भाग हैं– गर्भगृह एवं मण्डप। मैं मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश कर गया। इतना तो स्पष्ट लग रहा था कि कोई मूर्ति जरूर रही होगी। वहाँ से अभी मैं बाहर निकल ही रहा था कि घण्टियों की आवाज सुन मेरे दोनों कान खड़े हो गये। मैं वहीं का वहीं खड़ा रह गया। अब अगले सेकेण्ड मैं हनुमान चालीसा पढ़ना शुरू करने ही वाला था कि एक भैंस गर्दन हिलाती सामने प्रकट हो गयी। जान में जान आयी तो पगडण्डी पर फिर से आगे बढ़ गया।
थोड़ी–थोड़ी दूरी पर कुछ–एक और खण्डहर दिख रहे थे। वैसे कोई महत्वपूर्ण इमारत नहीं दिख रही थी। तो काँटेदार झड़ियों से बचते–बचाते मैं राजमहल को दूर से देखते हुए उसकी दिशा में आगे बढ़ता रहा। वैसे मेरे रास्ते में राजमहल की दक्षिण दिशा में अभी एक और मंदिर दिख रहा था। इस मंदिर से पहले पुरोहित जी की हवेली भी बनी हुई है। यह मंदिर सोमेश्वर मंदिर है। यह एक त्रिरथ मंदिर है। इसके पास एक छोटा सा तालाब भी बना हुआ है। तालाब में कुछ लोग स्नान कर रहे थे। यह मंदिर भानगढ़ किले का संभवतः सबसे बड़ा मंदिर है। इसमें सफेद रंग का एक बड़ा शिवलिंग भी स्थापित है। अब यह किस प्रकार के पत्थर का बना है,ये मुझे नहीं पता। शिवलिंग के सामने मंदिर के वाह्य भाग में नन्दी की मूर्ति स्थापित है।
मंदिर से बाहर निकलकर मैं भानगढ़ के राजमहल की ओर बढ़ा। जो कि भानगढ़ किले का सबसे बड़ा खण्डहर है। महल से पहले एक और सुरक्षा दीवार बनी हुई है। महल की निचली मंजिलें तो कुछ सलामत हैं लेकिन ऊपर के भाग पूरी तरह खण्डहर में बदल चुके हैं। वैसे इन खण्डहरों में रहस्य है,आकर्षण है,भय है,रोमांच है। और सब मिलाकर एक इतिहास छ्पिा हुआ है जो किसी भी व्यक्ति को अपने आकर्षण में बांध सकता है या फिर डरा भी सकता है। महल के मुख्य प्रवेश द्वार के बाद एक गैलरी के अन्दर बनी सीढ़ियां ऊपरी मंजिलों की ओर ले जाती हैं। तेज धूप में चलने के बाद इक्का–दुक्का लोग छाये में बैठकर सुस्ता रहे थे। एक–दो उत्साही युवा सबसे ऊपर के खण्डहर में अलग–अलग मुद्राओं में सेल्फी ले रहे थे। पत्थरों की बनी दीवारों और छोटे–छोटे कक्षों में लगे लोहे के दरवाजों को देखकर तो महल कम और जेल का अधिक आभास हो रहा था। सबसे ऊपरी मंजिल से चारों तरफ बिखरी,हरी–भरी पहाड़ियों को नजारा काफी सुंदर लग रहा था। एक नजर में नहीं लग रहा था कि हम किसी भुतहे या डरावने किले के बीच खड़े हैं।
राजमहल के सामने एक और छोटा सा लेकिन सुंदर मंदिर बना हुआ है। यह गोपीनाथ मंदिर है। यह एक त्रिरथ मंदिर है। भानगढ़ के चारों मंदिरों में यह मंदिर सबसे सुंदर है। इस मंदिर के गर्भगृह में भी कोई प्रतिमा उपस्थित नहीं है। इस मंदिर को देखकर लगता है कि भानगढ़ के किले में खजुराहो अवतरित हो गया है।
इस मंदिर के दर्शन के बाद अब मुझे बाहर निकलना था। दिन के समय तो भूतों से मुलाकात नहीं हुई लेकिन भानगढ़ के बंदरों से बचना बहुत जरूरी है। दरअसल सैकड़ों सालों से उपेक्षित पड़े खण्डहर किले के बारे में तमाम कहानियां प्रचलित हैं जिन्होंने इस खूबसूरत किले को डरावना बना दिया है। यहाँ के स्थानीय निवासी भले ही भूतों की तमाम कहानियां कहते हों,डरते तो शायद ही होंगे। मेरी समझ से बाहरी लोग ही अधिक डरते होंगे।
भानगढ़ की इमारतों के बारे में एक और बात जो मैंने नोटिस की,वो ये कि यहाँ का राजमहल और अन्य इमारतें तो पूरी तरह या अधिकांशतः खण्डहर हो चुकी हैं लेकिन चारों मंदिर सही सलामत हैं। इन मंदिरों की छतों में काफी दरारें हैं जो आसानी से दिखती हैं। दीवारों में भी कहीं–कहीं दरारें दिखती हैं। अब इसके पीछे क्या रहस्य है,मैं नहीं समझ सका। हो सकता है अतीत में आये किसी भूकम्प ने किले और उसके भवनों की यह दशा की हो। अब कुछ बातें भानगढ़ के इतिहास के बारे में। राजस्थान के अलवर जिले में स्थित भानगढ़ के प्राचीन कस्बे की स्थापना आमेर के शासक राजा भगवन्त दास ने सोलहवीं सदी के उतरार्द्ध में की,जिसे बाद में राजा मानसिंह के भाई माधो सिंह की रियासत की राजधानी बना दिया गया। माधो सिंह मुगल सम्राट अकबर (1556-1605) के दरबार में दीवान थे। माधोसिंह के पौत्र अजब सिंह ने भानगढ़ से कुछ ही दूरी पर अपने नाम पर अजबगढ़ की स्थापना की। अजब सिंह की अगली पीढ़ी में,उनके एक पुत्र ने अजबगढ़ को अपना निवास बनाया जबकि दूसरे ने भानगढ़ को। मुगल शासक औरंगजेब के समय में भानगढ़ के शासकों ने मुस्लिम धर्म अपना लिया। बाद में मुगलों के पतन के समय जयपुर के संस्थापक सवाई जयसिंह ने 1720 में इन्हें हराकर भानगढ़ को अपने अधिकार में ले लिया। ऐसा माना जाता है कि इसके बाद से ही भानगढ़ का पतन आरम्भ हो गया। ऐसा माना जाता है पानी की कमी और 1783 में पड़े अकाल की वजह से भानगढ़ उजड़ गया। वर्तमान में भानगढ़ के मुख्य अवशेषों में इसका मुख्य द्वार व प्राचीर,बाजार,हवेलियां,मंदिर,शाही महल,छतरियां,मकबरे आदि हैं। किला परिसर में नागर शैली में बने गोपीनाथ मंदिर,केशवराय मंदिर,सोमेश्वर मंदिर व मंगला देवी मंदिर भी दर्शनीय हैं। किले के शाही महल काे सात मंजिला माना जाता है जिसमें से वर्तमान में खण्डहर अवस्था में चार मंजिलें ही बची हैं। भानगढ़ की पूरी बस्ती एक के बाद एक तीन प्राचीरों से सुरक्षित की गयी थी। वाह्य प्राचीर में प्रवेश हेतु पाँच द्वार बने हैं जिन्हें उत्तर से दक्षिण तक क्रमशः अजमेरी,लाहौरी,हनुमान,फूलबारी एवं दिल्ली द्वार के नाम से जाना जाता है।
वैसे तो भानगढ़ के पतन के बारे प्रामाणिक कारण उपलब्ध नहीं हैं लेकिन कई किंवदंतियां प्रचलित हैं। ये किंवदंतियां इण्टरनेट के अलावा यहाँ के लोगों के मुँह से भी सुनने को भी मिल जाएंगी। एक कहानी यह है कि भानगढ़ में एक तपस्वी बालूनाथ की कुटिया थी। महल के निर्माण के समय तपस्वी ने तत्कालीन राजा को चेतावनी दी कि महल की की ऊँचाई इतनी न हो कि उसकी छाया उनके तपस्थल पर पड़े। लेकिन राजा ने उनकी चेतावनी की अवहेलना की। परिणास्वरूप बालूनाथ ने शाप दे दिया और भानगढ़ का विनाश हो गया। दूसरी किंवदंती के अनुसार भानगढ़ में एक समय एक तांत्रिक रहता था जो वहाँ की राजकुमारी रत्नावती से एकतरफा प्रेम करता था और उसे पाना चाहता था। एक दिन जब राजकुमारी की एक सेविका बाजार में इत्र खरीदने गयी तो तांत्रिक ने उस इत्र पर जादू कर दिया। राजकुमारी को सच्चाई पता चल गयी और उसने एक पत्थर की सहायता से तांत्रिक को मार दिया। लेकिन मरने से पहले तांत्रिक ने भानगढ़ को शापित कर दिया और उसके बाद भानगढ़ उसके बाद अधिक समय तक अस्तित्व में नहीं रह सका।
वैसे इतना तो तय है कि जब तक भानगढ़ के विनाश के पुख्ता सबूत नहीं मिल जाते,इस तरह की किंवदंतियां कही और सुनी जाती रहेंगी और भानगढ़ की भुतहा वाली छवि बनी रहेगी।
भानगढ़ के किले से निकलकर वापस गोला का बास पहुँचा तो 12 बज रहे थे। साथ ही सुबह से बिना कुछ खाये–पिये तेज धूप में चलते रहने से चेहरे पर भी बारह बज रहे थे। पेट खाने की बजाय पानी की ही अधिक उम्मीद कर रहा था तो उसकी बात मानते हुए मैंने ज्यादा कुछ खाने से परहेज किया और पीने पर अधिक जोर दिया। वैसे गोला का बास में एक सामान्य उत्तर भारतीय कस्बे की तरह से हर तरह की खाने पीने की चीजें उपलब्ध हैं। एक बात और। जिस समय मैं भानगढ़ जाने के लिए गोला का बास पार कर रहा था तो मुझे मूर्तियों की कुछ दूकानें दिखीं। मैं भानगढ़ से लौट कर वापस उन दुकानों तक गया। सड़क की दूसरी तरफ से ज्योंही मैंने उन दुकानों की ओर कैमरा फोकस किया,दुकानों के अन्दर काम कर रहे कारीगर और दुकानदार बाहर निकल पड़े। इस उम्मीद में कि शायद कोई बड़ा पत्रकार या फिर कोई बड़ा खरीदार आया है। वैसे मैं इनमें से कुछ भी नहीं था,ये बात तो सिर्फ मैं ही जान रहा था। परिचय का आदान–प्रदान हुआ। लगे हाथ मैंने कुछ मूर्तियों की कीमत की जानकारी भी ले ली। एक जोड़ी शेर की मूर्तियों की कीमत सिर्फ 30000 रूपये पता चली। मैंने उन्हें दुबारा आने का आश्वासन देकर विदा ली और अपनी बाइक गोला का बास से सीधे मुख्य मार्ग पर सरिस्का नेशनल पार्क की ओर बढ़ा दी।
हनुमान गेट से अन्दर |
भानगढ़ किले का मानचित्र |
दूर से दिखता भानगढ़ का राजमहल |
रास्ते के दोनों ओर बनी दुकानों के खण्डहर |
रास्ते को अवरूद्ध करती कँटीली झाड़ियां |
मंगला देवी मंदिर |
मंगला देवी मंदिर के मण्डप की छत |
मंगला देवी मंदिर |
केशव राय मंदिर |
सोमेश्वर मंदिर |
सोमेश्वर मंदिर के गर्भगृह में स्थापित शिवलिंग |
सोमेश्वर मंदिर के मण्डप की छत |
गोपीनाथ मंदिर |
भानगढ़ राजमहल की छत से विहंगम दृष्टि |
राजमहल का एक दृश्य |
छत का ऊपरी भाग |
अगला भाग ः सरिस्का नेशनल पार्क
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
जीवंत वृतांत लिखते हो भाई। पढ़ के मजा आजाता है
ReplyDeleteधन्यवाद भाई। आगे भी आते रहिए।
Deleteशानदार
ReplyDeleteप्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद जी।
DeleteBhaia mai to socha tha k sach me bhutha hai jane ki bhi socha tha plan cancel
ReplyDeleteभूतों से मिलना चाहते हैं क्या भई
Deleteबहुत बढ़िया जानकारी एकदम जीवंत🥁
ReplyDeleteधन्यवाद जी। आगे भी आते रहिए।
Deleteभानगढ़ जाने के लिए क्या पुरातत्व विभाग से अनुमति लेनी पड़ती है ?
ReplyDeleteकिसी की तरह की कोई अनुमति नहीं लेनी पड़ती। निश्चिंत होकर जाइए।
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