दिन के 2 बज रहे थे। नाहरगढ़ का किला फतह होने के बाद अब जयगढ़ की बारी थी। आज इन्द्रदेव मेरे ऊपर प्रसन्न थे ही। आमेर और नाहरगढ़ के बीच उन्होंने मुझे अपने प्रेमरस से सराबोर कर दिया था और संभावना लग रही थी कि अब मुझ पर सोम–रस भी बरसाएंगे। जयगढ़ किले के बाहरी गेट के बाहर ही,मैंने बिना पर्ची के बाइक खड़ी कर दी और अन्दर प्रवेश कर गया। हेलमेट कुछ–कुछ भीग गया था तो उसे उल्टा करके बाइक के हैण्डल में लटका दिया क्योंकि धूप खिलने के आसार नजर आ रहे थे। जयपुर शहर की प्रमुख ऐतिहासिक इमारतों को दिखाने वाले मेरे कॉम्बो टिकट में जयगढ़ शामिल नहीं था। इसी धरती पर बसी हुई काशी नगरी,जिस तरह से इस धरती से अलग शिव के त्रिशूल पर बसी हुई मानी जाती है,संभवतः उसी तरह से यह किला भी भारतीय पुरातत्व विभाग के कॉम्बो टिकट के अधिकार क्षेत्र से बाहर था।
तो बाहर ही टिकट काउण्टर पर जयगढ़ किले के लिए मैंने अलग से 50 रूपए का टिकट लिया। अन्दर प्रवेश करते ही पता चल गया कि बाइक यहाँ तक अन्दर आ सकती थी और पर्ची भी यहीं मिल जाती। बाहर की तुलना में यहाँ कुछ सुरक्षित रहती। मौसम को देखते हुए बाहर लौटने और कुछ समय गँवाने की इच्छा नहीं कर रही थी। अब बाइक की चिन्ता छोड़कर मैं आगे एक और गेट लाँघ गया। वहीं पास ही,दायीं तरफ जयबाण तोप के बारे सूचना देता एक बोर्ड लगा था।
जयबाण तोप की कीर्ति मेरे राजस्थान पहुँचने से पहले ही मेरे पास पहुँच चुकी थी तो जयबाण तोप का नाम देख उधर ही बढ़ गया। जयबाण तोप पहियों पर रखी विश्व की सबसे बड़ी तोप है। किले की दीवार के नीचे बने रास्ते पर चलते हुए पुरानी इमारतों के खण्डहर फ्री में दिख रहे थे। दूर एक काफी ऊँची चारदीवारी और उसके पीछे बना एक टिन–शेड भी दिख रहा था। ऊँची चारदीवारी के बिल्कुल पास से एक तीखी चढ़ाई वाला,छोटा सा रास्ता ऊपर की ओर गया है। यह रास्ता उस प्रांगण के पास पहुँचा देता है जहाँ टिन–शेड के नीचे जयबाण तोप रखी है। चढ़ाई वाले रास्ते से ऊपर चढ़ने पर तोप तो दिखी लेकिन वहाँ का माहौल देखकर मूड खराब हो गया। बुरा हो इस एन्ड्रायड फोन के फ्रण्ट कैमरे का। मेरा वश चलता तो इसके फ्रण्ट कैमरे में इसी जयबाण तोप को फिट कर देता। "सेल्िफस्टों" ने बुरी तरीके से तोप को घेर रखा था। मैं भी तोप के पास पहुँच गया और उसकी गणेश परिक्रमा करते हुए उसके रूप–रंग का निरीक्षण करने लगा। एक गाइडनुमा व्यक्ति ने कुछ मुल्ले पकड़ रखे थे। वह उन्हें तोप से जुड़े भाँति–भाँति के किस्से सुना रहा था। मैंने भी कुछ सेकेण्ड खड़े होकर उसकी कहानियां सुनने की कोशिश की लेकिन जब मुझसे सहन नहीं हुआ तो आगे बढ़ गया।
वैसे इस तोप के बारे में तमाम जानकारियां एक बोर्ड पर उल्लिखित हैं। यह तोप किले की चारदीवारी के एक कोने पर रखी गयी है जहाँ से कई दिशाओं में गोले दागे जा सकते थे। इस तोप का निर्माण महाराजा सवाई जयसिंह दि्वतीय के शासन काल में सन् 1720 में,जयगढ़ किले में ही स्थित तोप निर्माण कारखाने में हुआ। इस विशाल तोप की नाल की लम्बाई 20 फीट,गोलाई 8 फीट 7.5 इंच तथा वजन 50 टन है। इस तोप से 11 इंच व्यास के गोले दागे जाते थे। इस ताेप को भरने के लिए एक बार में 100 किलोग्राम बारूद की आवश्यकता होती थी। इस तोप की मारक क्षमता 22 मील पायी गयी है। इस तोप की नाल को दुबारा पहियों पर रखवाने का कार्य महाराजा सवाई रामसिंह दि्वतीय के शासन काल (1835-1880) में किया गया। इन्हीं के द्वारा इसके ऊपर टिन–शेड का निर्माण भी कराया गया। तोप के पहियों की ऊँचाई 9 फीट तथा धुरे की मोटाई 1 फीट है। पीछे के पहियों और उनके पास लगी रोलिंग पिन की सहायता से इसे आवश्यकतानुसार किसी भी दिशा में घुमाया जा सकता है। अपने निर्माण के बाद परीक्षण के तौर पर यह तोप एक बार ही चलायी गयी और इसके बाद इसे दुबारा चलाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। अपने विशाल आकार और अत्यधिक विध्वंसक क्षमता के साथ ही यह तोप आमेर के तत्कालीन कारीगरों की कार्यकुशलता और कला–प्रेम का भी नमूना है। तोप की नाल पर कारीगरों द्वारा कलाकृतियां उकेरी गयी हैं जो दर्शनीय है।
तो बाहर ही टिकट काउण्टर पर जयगढ़ किले के लिए मैंने अलग से 50 रूपए का टिकट लिया। अन्दर प्रवेश करते ही पता चल गया कि बाइक यहाँ तक अन्दर आ सकती थी और पर्ची भी यहीं मिल जाती। बाहर की तुलना में यहाँ कुछ सुरक्षित रहती। मौसम को देखते हुए बाहर लौटने और कुछ समय गँवाने की इच्छा नहीं कर रही थी। अब बाइक की चिन्ता छोड़कर मैं आगे एक और गेट लाँघ गया। वहीं पास ही,दायीं तरफ जयबाण तोप के बारे सूचना देता एक बोर्ड लगा था।
जयबाण तोप की कीर्ति मेरे राजस्थान पहुँचने से पहले ही मेरे पास पहुँच चुकी थी तो जयबाण तोप का नाम देख उधर ही बढ़ गया। जयबाण तोप पहियों पर रखी विश्व की सबसे बड़ी तोप है। किले की दीवार के नीचे बने रास्ते पर चलते हुए पुरानी इमारतों के खण्डहर फ्री में दिख रहे थे। दूर एक काफी ऊँची चारदीवारी और उसके पीछे बना एक टिन–शेड भी दिख रहा था। ऊँची चारदीवारी के बिल्कुल पास से एक तीखी चढ़ाई वाला,छोटा सा रास्ता ऊपर की ओर गया है। यह रास्ता उस प्रांगण के पास पहुँचा देता है जहाँ टिन–शेड के नीचे जयबाण तोप रखी है। चढ़ाई वाले रास्ते से ऊपर चढ़ने पर तोप तो दिखी लेकिन वहाँ का माहौल देखकर मूड खराब हो गया। बुरा हो इस एन्ड्रायड फोन के फ्रण्ट कैमरे का। मेरा वश चलता तो इसके फ्रण्ट कैमरे में इसी जयबाण तोप को फिट कर देता। "सेल्िफस्टों" ने बुरी तरीके से तोप को घेर रखा था। मैं भी तोप के पास पहुँच गया और उसकी गणेश परिक्रमा करते हुए उसके रूप–रंग का निरीक्षण करने लगा। एक गाइडनुमा व्यक्ति ने कुछ मुल्ले पकड़ रखे थे। वह उन्हें तोप से जुड़े भाँति–भाँति के किस्से सुना रहा था। मैंने भी कुछ सेकेण्ड खड़े होकर उसकी कहानियां सुनने की कोशिश की लेकिन जब मुझसे सहन नहीं हुआ तो आगे बढ़ गया।
वैसे इस तोप के बारे में तमाम जानकारियां एक बोर्ड पर उल्लिखित हैं। यह तोप किले की चारदीवारी के एक कोने पर रखी गयी है जहाँ से कई दिशाओं में गोले दागे जा सकते थे। इस तोप का निर्माण महाराजा सवाई जयसिंह दि्वतीय के शासन काल में सन् 1720 में,जयगढ़ किले में ही स्थित तोप निर्माण कारखाने में हुआ। इस विशाल तोप की नाल की लम्बाई 20 फीट,गोलाई 8 फीट 7.5 इंच तथा वजन 50 टन है। इस तोप से 11 इंच व्यास के गोले दागे जाते थे। इस ताेप को भरने के लिए एक बार में 100 किलोग्राम बारूद की आवश्यकता होती थी। इस तोप की मारक क्षमता 22 मील पायी गयी है। इस तोप की नाल को दुबारा पहियों पर रखवाने का कार्य महाराजा सवाई रामसिंह दि्वतीय के शासन काल (1835-1880) में किया गया। इन्हीं के द्वारा इसके ऊपर टिन–शेड का निर्माण भी कराया गया। तोप के पहियों की ऊँचाई 9 फीट तथा धुरे की मोटाई 1 फीट है। पीछे के पहियों और उनके पास लगी रोलिंग पिन की सहायता से इसे आवश्यकतानुसार किसी भी दिशा में घुमाया जा सकता है। अपने निर्माण के बाद परीक्षण के तौर पर यह तोप एक बार ही चलायी गयी और इसके बाद इसे दुबारा चलाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। अपने विशाल आकार और अत्यधिक विध्वंसक क्षमता के साथ ही यह तोप आमेर के तत्कालीन कारीगरों की कार्यकुशलता और कला–प्रेम का भी नमूना है। तोप की नाल पर कारीगरों द्वारा कलाकृतियां उकेरी गयी हैं जो दर्शनीय है।
जयबाण तोप के पास ही जयगढ़ किले के एक कोने पर किले की दो दीवारें मिलती हैं और इस कोने पर खड़े होकर नीचे देखने पर पहाड़ी के नीचे की घाटी और दूर झील में बना जलमहल सुंदर दृश्य उपस्थित करते हैं।
बादल घिरते जा रहे थे। मन मयूर नृत्य करने की सोच रहा था। लेकिन साथ में इस बात की चिन्ता भी थी कि अगर बादल लम्बी दूरी चलने की सोच लेंगे तो मन मयूर एक ही जगह पर नृत्य करता रह जाएगा। जयबाण तोप से फिर मैं नीचे उतरा और किले के और अन्दर की ओर बढ़ा। जयबाण तोप के पास ही,कुछ ही दूरी पर एक वाच टॉवर है जिस पर तिरंगा लहरा रहा था।
जयगढ़ किले का निर्माण सन 1726 में राजा जयसिंह द्वारा कराया गया। अरावली श्रेणी में बना यह किला जिस पहाड़ी पर बना है उसे चील का टीला कहते हैं। जयगढ़ किले का निर्माण आमेर महल की सुरक्षा के दृष्टिकोण से कराया गया था। आरम्भ में तो आमेर के शासक इसे अपने निवास के रूप में प्रयोग में लाते थे लेकिन बाद में इसका इस्तेमाल सैनिक उद्देश्यों से होने लगा। अपने इतिहास,महत्व और जयबाण तोप के अतिरिक्त यह किला एक और बात के कारण भी काफी प्रसिद्ध है। और वह है इस किले में छ्पिा खजाना। पर्यटकों के एक समूह के साथ चल रहे एक गाइड की बातें मैं ध्यान से सुन रहा था। पता चला कि आमेर के शासकों ने इस किले के तहखाने में बेशकीमती सम्पत्ति छ्पिा रखी थी जिसकी जानकारी न मिल पाने या किसी अन्य वजह से वह खजाना इस किले में ही छ्पिा रह गया। खजाने के नाम पर मेरे भी कान खड़े हो गये। स्वतंत्र भारत के इतिहास में इंदिरा गाँधी के शासन के दौरान जब आपातकाल लगा तो इस खजाने की खोज में सेना की मदद ली गयी और किले में महीनों खुदाई चलती रही। इतना ही नहीं,इस दौरान संजय गाँधी भी जयपुर पहुँचे। बाद में इंदिरा गाँधी ने ट्रकों में भर–भरकर सारा खजाना दिल्ली मँगवा लिया। सच क्या है,यह तो कोई नहीं जानता लेकिन जयगढ़ किले के गुप्त खजाने की यह कहानी मुझे बहुत रोचक लगी।
थोड़ा सा आगे बढ़ा तो ठीक सामने एक गेट दिखा जिस पर जलेब चौक लिखा है। लेकिन गेट से थोड़ा सा पहले बायीं तरफ कुछ पुरानी संरचनाएं दिखीं तो मैं थोड़ा सा ठहर गया। दरअसल ये पुराने जमाने के जल संग्रह करने वाले टांके या छोटे–छोटे तालाब हैं जिनमें किले में निवास करने लोगों की आवश्यकता पूर्ति हेतु जल का संचय किया जाता था। इन टांकों के बारे में एक बोर्ड पर सूचनाएं दी गयी हैं।
यहाँ तीन टांके बने हुए हैं जिनमें सबसे बड़ा टांका ढका हुआ है। इस टांके की लम्बाई 158 फीट,चौड़ाई 138 फीट तथा गहराई 40 फीट है। इस टांके का पानी किले में पीने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। इसकी दीवारों में हवा आने के लिए खिड़कियां बनी हुई हैं। टांके की जल भराव क्षमता 60 लाख गैलन है। टांके में 81 खम्भे बने हुए हैं जिन पर इसकी छत टिकी हुई है। भारत सरकार द्वारा 1976 में खजाने की तलाश में,इस टांके को ही खाली करके इसके फर्श की खुदाई की गयी। इस टांके के पीछे दायीं ओर एक छोटा टांका है जो 69 फीट लम्बा,52 फीट चौड़ा तथा 52 फीट गहरा है। इसकी छत में नौ सूराख हैं और प्रत्येक सूराख के नीचे एक कमरा है। इन्हीं कमरों में सवाई जयसिंह के शासन के पूर्व तक शाही खजाना रखा जाता था। सवाई जयसिंह द्वारा 1728 में इस खजाने से धन निकालकर जयपुर शहर बसाया गया। 1976 में इस टांके में भी खजाने की तलाश की गयी। इस टांके की बगल में तीसरा टांका है जो 61 फीट लम्बा,52 फीट चौड़ा तथा 27 फीट गहरा है। इस टांके का पानी नहाने व कपड़ा धोने के काम आता था। इन टांकों को देखने और सारी जानकारी लेने के बाद मुझे लगा कि ये टांके ही संभवतः इस किले के सर्वाधिक रहस्यमय स्थल रहे होंगे।
जलेब चौक गेट के पास ही जलपान की एक–दो दुकानें भी हैं। लेकिन दुकानों पर रूकने का समय नहीं था क्योंकि इन्द्रदेव ने मुस्कराना शुरू कर दिया था और आसमानी लक्षण देखकर लग रहा था कि अब ठहाके भी लगाएंगे। जलेब चौक से आगे बायीं तरफ जयगढ़ का शस्त्रागार है। मौका देखकर मैं अन्दर प्रवेश कर गया और इसके साथ ही कुछ ही सेकेण्डों में धुँआधार बारिश शुरू हो गयी। अब शस्त्रागार में संग्रहीत अस्त्र–शस्त्रों की बारीकियों को जानने–समझने का अच्छा अवसर था। वैसे बारिश के चलते काफी लाेग शस्त्रागार में घुस गए थे और उस पर कब्जे की फिराक में लगे थे। वैसे दिमाग का एक कोना बाहर खड़ी बाइक और उस पर टँगे हेलमेट को भी याद कर रहा था क्योंकि बाइक तक तो ठीक था लेकिन इस तेज बारिश में हेलमेट भी सम्पूर्ण स्नान कर रहा होगा। और जब मैं अपने सिर पर इसे रखूँगा तो यह सारी नमी मेरे सिर में उड़ेल देगा। वैसे इस समस्या का कोई समाधान नहीं दिख रहा था।
बारिश की वजह से शस्त्रागार से बाहर निकलने में 4 बज गए। अभी भी बारिश पूरी तरह से बन्द नहीं हुई थी। फिर भी समय को देखते हुए मैं बाहर निकला। पूरे प्रांगण में बित्ते भर से अधिक पानी भर गया था। किसी तरह से बचते–बचाते मैं किले के पैलेस कॉम्प्लेक्स की ओर बढ़ गया। अपनी–अपनी चारपहिया गाड़ियों से आयी अधिकांश भीड़ भागने की फिराक में थी और गाड़ियों के पहिये प्रांगण में भरे पानी में हिलोरें पैदा कर रहे थे। पैलेस कॉम्प्लेक्स में कई इमारतें हैं जिनकी धूल,मेरे आगमन को देखते हुए बारिश ने साफ कर दी थी। वैसे जूते पहनकर बारिश के पानी में छप–छप करने का भी अपना मजा है। और उस पर भी राजस्थान का कोई ऐतिहासिक किला हो,बारिश में नहायी हरियाली से ढकी पहाड़ियाँ हों,आसमान में कलाकृतियां बनाते मेघ हों तो फिर क्या कहनेǃ बचपन जवान हो जाता है।
एक छोटे से दरवाजे से अन्दर प्रवेश करते ही एक खुला प्रांगण सामने दिखा। बाएं हाथ बनी एक इमारत में बारिश से बचने के लिए लोग शरण ले रहे थे। पता चला कि यह सुभट निवास है। जैसा कि नाम से ही जाहिर है,सुभट निवास वह जगह थी जहाँ योद्धा मिल–बैठ कर आपसी चर्चाएं करते थे। वैसे आज सुभट निवास में बारिश से डरकर भागते हुए कायर शरण ले रहे थे। कुछ गलियां और मोड़ पार करने के बाद लक्ष्मी विलास नामक इमारत मिलती है जहाँ राजाओं का निवास हुआ करता था। इसे अच्छे तरीके से सजा कर रखा गया है। इसके बाद कई कमरों और गलियों से गुजरना पड़ता है। लेकिन गलियों में गुजरने से पहले एक हॉल में कठपुतलियों का प्रदर्शन हो रहा था। कुछ लोग खड़े होकर फरमाइशी डांस देख रहे थे और इनाम भी दे रहे थे। लेकिन मुझे डांस देखने और इनाम देने,दोनों में से किसी का भी शौक नहीं है तो मैं कठपुतलियों के कुछ फोटो खींचने के बाद गलियों में आगे बढ़ गया।
यहाँ राजघराने की भोजनशाला दर्शनीय है। भोजनशाला में कई बड़े कमरों में तत्कालीन समय की भोजन सम्बन्धी तैयारियों और रीति–रिवाजों को मॉडलों के द्वारा प्रस्तुत किया गया है जो काफी सुंदर व रोचक बन पड़ा है। भोजनशाला मिर्जा राजा जयसिंह (1621-67) के समय में बनायी गयी थी। बाद में उनके उत्तराधिकारियों ने भी इसमें कई परिवर्द्धन किए। एक गैलरी में मिर्जा राजा जयसिंह को उनके सरदारों के साथ भोजन करते दिखाया गया है। राजा व उनके सरदारों को तत्कालीन समय की पारम्परिक वेशभूषा में प्रदर्शित किया गया है जिसमें वे अंगरखा,धोती व पगड़ी पहने हुए हैं। पगड़ी मध्यकालीन वेशभूषा का आवश्यक अंग थी जिसे कई प्रकार से सजाया जाता था। यह दृश्य 17 वीं सदी के आमेर की एक झलक प्रस्तुत करता है।
भोजनशाला को पार करने के बाद हम किले के अपेक्षाकृत खुले भाग में आ जाते हैं और किले का पिछला हिस्सा दिखायी पड़ता है। इस भाग में दो कोनों पर दाे बुर्जियां बनी हुई हैं जिन्हें आपस में और साथ ही किले से जोड़ने के लिए,बिना छत की गैलरियां बनी हुई हैं। इन बुर्जियों पर नीचे की घाटी का नजारा देखने और साथ ही बारिश से बचने के लिए कुछ लोग खड़े थे। मैं भी अपने कैमरे को गोद में छ्पिाते और बारिश से बचते–बचाते एक बुर्जी पर पहुँच गया। और जब यहाँ पहुँच कर नीचे की ओर नजरें दौड़ाईं तो आश्चर्यचकित रह गया। थार के रेगिस्तान के नाम से जाना जाने वाला राजस्थान इतना हरा–भरा होगा,मैंने सोचा भी नहीं था। सुबह से जारी,कभी तेज–कभी धीमी बारिश ने सामान्यतः भूरी दिखने वाली पहाड़ियों के रंग को,जो वर्तमान में बारिश के मौसम की वजह से हरे जंगलों से ढकी हुई थीं, गहरे हरे रंग में बदल दिया था। दूर–दूर दिखती हरी–भरी पहाड़ियाँ मुझे हिमालय के किसी गाँव में होने का एहसास करा रही थीं। बायीं तरफ की बुर्जी पर कुछ देर ठहरने के बाद ज्योंही बारिश कुछ धीमी हुई,मैं कैमरे को वाटर–प्रूफ बैग के अन्दर छ्पिा कर दूसरी बुर्जी की ओर भागा। लेकिन इस छोटी सी दूरी के तय होने से पहले ही बारिश ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी और मुझे दो–तिहाई भिगो दिया। वाटर–प्रूफ बैग होने के कारण मेरा कैमरा तो बच गया लेकिन मेरे जैसे ही एक दूसरे व्यक्ति का डीएसएलआर कैमरा पूरी तरह से भीग गया और और उसे पोंछने के लिये बिचारे के पास एक सूखा रूमाल तक नहीं बचा। इस बुर्जी के नीचे आमेर का महल अपनी पूरी शानो–शौकत के साथ खड़ा दिखायी पड़ रहा था। बारिश ने उसकी चमक बढ़ा दी थी लेकिन घने बादलों की वजह से प्रकाश काफी कम हो गया था। ठण्डी हवा शरीर में सिहरन पैदा कर रही थी।
4.45 बज रहे थे। मैं किले से बाहर की ओर चल पड़ा। मन तो यहाँ से जाने का नहीं कर रहा था लेकिन समय का तकाजा था। थोड़ा सा ही आगे बढ़ा तो एक बोर्ड दिखा जिस पर तीर का निशान बना कर लिखा था– "परियों का बाग।" अब परियों का बाग कौन नहीं देखना चाहेगा। बिना अधिक सोच–विचार किये बाइक उधर मोड़ दी। अपनी बाइक होने का यही तो फायदा था। वहाँ पहुँचकर पता चला कि बच्चों के घूमने–फिरने लायक एक पार्क है तो जल्दी से वापस भागा।
जयपुर शहर में बारिश की वजह से जगह–जगह पानी जमा हो गया था। ट्रैफिक धीमी गति के समाचार बुलेटिन की भाँति चल रहा था। मैं भी सरकते हुए,डायवर्जन का शिकार होते हुए,6 बजे तक कमरे पहुँच गया। जयपुर मेट्रो का काम जारी होने के कारण कई जगह डायवर्जन लगे हुए हैं। होटल पहुँचकर बाइक का मीटर चेक किया तो आज मैंने 49 किमी बाइक चलायी थी। और इसलिए 100 रूपये का पेट्रोल भी डाल दिया था तो आज का हिसाब–किताब लगभग बराबर। लेकिन एक बड़ी समस्या सामने थी। बाइक कहाँ रखी जायेगी। होटल में अंदर कहीं जगह नहीं थी। होटल मैनेजर ने समाधान यह बताया कि होटल के गेट के सामने सड़क के किनारे खड़ी कर दीजिए। मुझे तो साँप सूँघ गया। रात में किसी ने हाथ साफ कर दिया तोǃ वैसे होटल मैनेजर ने बताया कि यहाँ सारे लोगों की गाड़ियाँ रात में ऐसे ही खड़ी रहती हैं और होटल का एक लड़का यहाँ बाहर सोता भी है। मतलब साफ था कि जयपुर शहर में मेरी इस किराये की बाइक की पहरेदारी रात्रि–देवी ही करेंगी। हार मानकर मैंने भी उसकी सलाह मान ली और कमरे का रूख किया।
जयगढ़ किले के शस्त्रागार में प्रदर्शित अस्त्र–शस्त्र–
अगला भाग ः जयपुर की विरासतें –पहला भाग
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. जयपुर–गुलाबी शहर में
2. आमेर से नाहरगढ़
3. जयगढ़
4. जयपुर की विरासतें–पहला भाग
5. जयपुर की विरासतें–दूसरा भाग
6. भानगढ़–डरना मना हैǃ
7. सरिस्का नेशनल पार्क
8. जयपुर की विरासतें–तीसरा भाग
बादल घिरते जा रहे थे। मन मयूर नृत्य करने की सोच रहा था। लेकिन साथ में इस बात की चिन्ता भी थी कि अगर बादल लम्बी दूरी चलने की सोच लेंगे तो मन मयूर एक ही जगह पर नृत्य करता रह जाएगा। जयबाण तोप से फिर मैं नीचे उतरा और किले के और अन्दर की ओर बढ़ा। जयबाण तोप के पास ही,कुछ ही दूरी पर एक वाच टॉवर है जिस पर तिरंगा लहरा रहा था।
जयगढ़ किले का निर्माण सन 1726 में राजा जयसिंह द्वारा कराया गया। अरावली श्रेणी में बना यह किला जिस पहाड़ी पर बना है उसे चील का टीला कहते हैं। जयगढ़ किले का निर्माण आमेर महल की सुरक्षा के दृष्टिकोण से कराया गया था। आरम्भ में तो आमेर के शासक इसे अपने निवास के रूप में प्रयोग में लाते थे लेकिन बाद में इसका इस्तेमाल सैनिक उद्देश्यों से होने लगा। अपने इतिहास,महत्व और जयबाण तोप के अतिरिक्त यह किला एक और बात के कारण भी काफी प्रसिद्ध है। और वह है इस किले में छ्पिा खजाना। पर्यटकों के एक समूह के साथ चल रहे एक गाइड की बातें मैं ध्यान से सुन रहा था। पता चला कि आमेर के शासकों ने इस किले के तहखाने में बेशकीमती सम्पत्ति छ्पिा रखी थी जिसकी जानकारी न मिल पाने या किसी अन्य वजह से वह खजाना इस किले में ही छ्पिा रह गया। खजाने के नाम पर मेरे भी कान खड़े हो गये। स्वतंत्र भारत के इतिहास में इंदिरा गाँधी के शासन के दौरान जब आपातकाल लगा तो इस खजाने की खोज में सेना की मदद ली गयी और किले में महीनों खुदाई चलती रही। इतना ही नहीं,इस दौरान संजय गाँधी भी जयपुर पहुँचे। बाद में इंदिरा गाँधी ने ट्रकों में भर–भरकर सारा खजाना दिल्ली मँगवा लिया। सच क्या है,यह तो कोई नहीं जानता लेकिन जयगढ़ किले के गुप्त खजाने की यह कहानी मुझे बहुत रोचक लगी।
थोड़ा सा आगे बढ़ा तो ठीक सामने एक गेट दिखा जिस पर जलेब चौक लिखा है। लेकिन गेट से थोड़ा सा पहले बायीं तरफ कुछ पुरानी संरचनाएं दिखीं तो मैं थोड़ा सा ठहर गया। दरअसल ये पुराने जमाने के जल संग्रह करने वाले टांके या छोटे–छोटे तालाब हैं जिनमें किले में निवास करने लोगों की आवश्यकता पूर्ति हेतु जल का संचय किया जाता था। इन टांकों के बारे में एक बोर्ड पर सूचनाएं दी गयी हैं।
यहाँ तीन टांके बने हुए हैं जिनमें सबसे बड़ा टांका ढका हुआ है। इस टांके की लम्बाई 158 फीट,चौड़ाई 138 फीट तथा गहराई 40 फीट है। इस टांके का पानी किले में पीने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। इसकी दीवारों में हवा आने के लिए खिड़कियां बनी हुई हैं। टांके की जल भराव क्षमता 60 लाख गैलन है। टांके में 81 खम्भे बने हुए हैं जिन पर इसकी छत टिकी हुई है। भारत सरकार द्वारा 1976 में खजाने की तलाश में,इस टांके को ही खाली करके इसके फर्श की खुदाई की गयी। इस टांके के पीछे दायीं ओर एक छोटा टांका है जो 69 फीट लम्बा,52 फीट चौड़ा तथा 52 फीट गहरा है। इसकी छत में नौ सूराख हैं और प्रत्येक सूराख के नीचे एक कमरा है। इन्हीं कमरों में सवाई जयसिंह के शासन के पूर्व तक शाही खजाना रखा जाता था। सवाई जयसिंह द्वारा 1728 में इस खजाने से धन निकालकर जयपुर शहर बसाया गया। 1976 में इस टांके में भी खजाने की तलाश की गयी। इस टांके की बगल में तीसरा टांका है जो 61 फीट लम्बा,52 फीट चौड़ा तथा 27 फीट गहरा है। इस टांके का पानी नहाने व कपड़ा धोने के काम आता था। इन टांकों को देखने और सारी जानकारी लेने के बाद मुझे लगा कि ये टांके ही संभवतः इस किले के सर्वाधिक रहस्यमय स्थल रहे होंगे।
जलेब चौक गेट के पास ही जलपान की एक–दो दुकानें भी हैं। लेकिन दुकानों पर रूकने का समय नहीं था क्योंकि इन्द्रदेव ने मुस्कराना शुरू कर दिया था और आसमानी लक्षण देखकर लग रहा था कि अब ठहाके भी लगाएंगे। जलेब चौक से आगे बायीं तरफ जयगढ़ का शस्त्रागार है। मौका देखकर मैं अन्दर प्रवेश कर गया और इसके साथ ही कुछ ही सेकेण्डों में धुँआधार बारिश शुरू हो गयी। अब शस्त्रागार में संग्रहीत अस्त्र–शस्त्रों की बारीकियों को जानने–समझने का अच्छा अवसर था। वैसे बारिश के चलते काफी लाेग शस्त्रागार में घुस गए थे और उस पर कब्जे की फिराक में लगे थे। वैसे दिमाग का एक कोना बाहर खड़ी बाइक और उस पर टँगे हेलमेट को भी याद कर रहा था क्योंकि बाइक तक तो ठीक था लेकिन इस तेज बारिश में हेलमेट भी सम्पूर्ण स्नान कर रहा होगा। और जब मैं अपने सिर पर इसे रखूँगा तो यह सारी नमी मेरे सिर में उड़ेल देगा। वैसे इस समस्या का कोई समाधान नहीं दिख रहा था।
बारिश की वजह से शस्त्रागार से बाहर निकलने में 4 बज गए। अभी भी बारिश पूरी तरह से बन्द नहीं हुई थी। फिर भी समय को देखते हुए मैं बाहर निकला। पूरे प्रांगण में बित्ते भर से अधिक पानी भर गया था। किसी तरह से बचते–बचाते मैं किले के पैलेस कॉम्प्लेक्स की ओर बढ़ गया। अपनी–अपनी चारपहिया गाड़ियों से आयी अधिकांश भीड़ भागने की फिराक में थी और गाड़ियों के पहिये प्रांगण में भरे पानी में हिलोरें पैदा कर रहे थे। पैलेस कॉम्प्लेक्स में कई इमारतें हैं जिनकी धूल,मेरे आगमन को देखते हुए बारिश ने साफ कर दी थी। वैसे जूते पहनकर बारिश के पानी में छप–छप करने का भी अपना मजा है। और उस पर भी राजस्थान का कोई ऐतिहासिक किला हो,बारिश में नहायी हरियाली से ढकी पहाड़ियाँ हों,आसमान में कलाकृतियां बनाते मेघ हों तो फिर क्या कहनेǃ बचपन जवान हो जाता है।
एक छोटे से दरवाजे से अन्दर प्रवेश करते ही एक खुला प्रांगण सामने दिखा। बाएं हाथ बनी एक इमारत में बारिश से बचने के लिए लोग शरण ले रहे थे। पता चला कि यह सुभट निवास है। जैसा कि नाम से ही जाहिर है,सुभट निवास वह जगह थी जहाँ योद्धा मिल–बैठ कर आपसी चर्चाएं करते थे। वैसे आज सुभट निवास में बारिश से डरकर भागते हुए कायर शरण ले रहे थे। कुछ गलियां और मोड़ पार करने के बाद लक्ष्मी विलास नामक इमारत मिलती है जहाँ राजाओं का निवास हुआ करता था। इसे अच्छे तरीके से सजा कर रखा गया है। इसके बाद कई कमरों और गलियों से गुजरना पड़ता है। लेकिन गलियों में गुजरने से पहले एक हॉल में कठपुतलियों का प्रदर्शन हो रहा था। कुछ लोग खड़े होकर फरमाइशी डांस देख रहे थे और इनाम भी दे रहे थे। लेकिन मुझे डांस देखने और इनाम देने,दोनों में से किसी का भी शौक नहीं है तो मैं कठपुतलियों के कुछ फोटो खींचने के बाद गलियों में आगे बढ़ गया।
यहाँ राजघराने की भोजनशाला दर्शनीय है। भोजनशाला में कई बड़े कमरों में तत्कालीन समय की भोजन सम्बन्धी तैयारियों और रीति–रिवाजों को मॉडलों के द्वारा प्रस्तुत किया गया है जो काफी सुंदर व रोचक बन पड़ा है। भोजनशाला मिर्जा राजा जयसिंह (1621-67) के समय में बनायी गयी थी। बाद में उनके उत्तराधिकारियों ने भी इसमें कई परिवर्द्धन किए। एक गैलरी में मिर्जा राजा जयसिंह को उनके सरदारों के साथ भोजन करते दिखाया गया है। राजा व उनके सरदारों को तत्कालीन समय की पारम्परिक वेशभूषा में प्रदर्शित किया गया है जिसमें वे अंगरखा,धोती व पगड़ी पहने हुए हैं। पगड़ी मध्यकालीन वेशभूषा का आवश्यक अंग थी जिसे कई प्रकार से सजाया जाता था। यह दृश्य 17 वीं सदी के आमेर की एक झलक प्रस्तुत करता है।
भोजनशाला को पार करने के बाद हम किले के अपेक्षाकृत खुले भाग में आ जाते हैं और किले का पिछला हिस्सा दिखायी पड़ता है। इस भाग में दो कोनों पर दाे बुर्जियां बनी हुई हैं जिन्हें आपस में और साथ ही किले से जोड़ने के लिए,बिना छत की गैलरियां बनी हुई हैं। इन बुर्जियों पर नीचे की घाटी का नजारा देखने और साथ ही बारिश से बचने के लिए कुछ लोग खड़े थे। मैं भी अपने कैमरे को गोद में छ्पिाते और बारिश से बचते–बचाते एक बुर्जी पर पहुँच गया। और जब यहाँ पहुँच कर नीचे की ओर नजरें दौड़ाईं तो आश्चर्यचकित रह गया। थार के रेगिस्तान के नाम से जाना जाने वाला राजस्थान इतना हरा–भरा होगा,मैंने सोचा भी नहीं था। सुबह से जारी,कभी तेज–कभी धीमी बारिश ने सामान्यतः भूरी दिखने वाली पहाड़ियों के रंग को,जो वर्तमान में बारिश के मौसम की वजह से हरे जंगलों से ढकी हुई थीं, गहरे हरे रंग में बदल दिया था। दूर–दूर दिखती हरी–भरी पहाड़ियाँ मुझे हिमालय के किसी गाँव में होने का एहसास करा रही थीं। बायीं तरफ की बुर्जी पर कुछ देर ठहरने के बाद ज्योंही बारिश कुछ धीमी हुई,मैं कैमरे को वाटर–प्रूफ बैग के अन्दर छ्पिा कर दूसरी बुर्जी की ओर भागा। लेकिन इस छोटी सी दूरी के तय होने से पहले ही बारिश ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी और मुझे दो–तिहाई भिगो दिया। वाटर–प्रूफ बैग होने के कारण मेरा कैमरा तो बच गया लेकिन मेरे जैसे ही एक दूसरे व्यक्ति का डीएसएलआर कैमरा पूरी तरह से भीग गया और और उसे पोंछने के लिये बिचारे के पास एक सूखा रूमाल तक नहीं बचा। इस बुर्जी के नीचे आमेर का महल अपनी पूरी शानो–शौकत के साथ खड़ा दिखायी पड़ रहा था। बारिश ने उसकी चमक बढ़ा दी थी लेकिन घने बादलों की वजह से प्रकाश काफी कम हो गया था। ठण्डी हवा शरीर में सिहरन पैदा कर रही थी।
4.45 बज रहे थे। मैं किले से बाहर की ओर चल पड़ा। मन तो यहाँ से जाने का नहीं कर रहा था लेकिन समय का तकाजा था। थोड़ा सा ही आगे बढ़ा तो एक बोर्ड दिखा जिस पर तीर का निशान बना कर लिखा था– "परियों का बाग।" अब परियों का बाग कौन नहीं देखना चाहेगा। बिना अधिक सोच–विचार किये बाइक उधर मोड़ दी। अपनी बाइक होने का यही तो फायदा था। वहाँ पहुँचकर पता चला कि बच्चों के घूमने–फिरने लायक एक पार्क है तो जल्दी से वापस भागा।
जयपुर शहर में बारिश की वजह से जगह–जगह पानी जमा हो गया था। ट्रैफिक धीमी गति के समाचार बुलेटिन की भाँति चल रहा था। मैं भी सरकते हुए,डायवर्जन का शिकार होते हुए,6 बजे तक कमरे पहुँच गया। जयपुर मेट्रो का काम जारी होने के कारण कई जगह डायवर्जन लगे हुए हैं। होटल पहुँचकर बाइक का मीटर चेक किया तो आज मैंने 49 किमी बाइक चलायी थी। और इसलिए 100 रूपये का पेट्रोल भी डाल दिया था तो आज का हिसाब–किताब लगभग बराबर। लेकिन एक बड़ी समस्या सामने थी। बाइक कहाँ रखी जायेगी। होटल में अंदर कहीं जगह नहीं थी। होटल मैनेजर ने समाधान यह बताया कि होटल के गेट के सामने सड़क के किनारे खड़ी कर दीजिए। मुझे तो साँप सूँघ गया। रात में किसी ने हाथ साफ कर दिया तोǃ वैसे होटल मैनेजर ने बताया कि यहाँ सारे लोगों की गाड़ियाँ रात में ऐसे ही खड़ी रहती हैं और होटल का एक लड़का यहाँ बाहर सोता भी है। मतलब साफ था कि जयपुर शहर में मेरी इस किराये की बाइक की पहरेदारी रात्रि–देवी ही करेंगी। हार मानकर मैंने भी उसकी सलाह मान ली और कमरे का रूख किया।
जयबाण तोप |
जयबाण तोप का पिछला हिस्सा |
जयगढ़ किले से दिखता जलमहल |
जयगढ़ किले के शस्त्रागार में प्रदर्शित अस्त्र–शस्त्र–
भोजनशाला का एक दृश्य |
जयगढ़ से नीचे दिखता आमेर |
जयगढ़ किले की ऊँचाई से नीचे दिखती हरी–भरी पहाड़ियां |
सुभट निवास |
जयगढ़ किले में राजा का निवास |
किले का पिछला भाग |
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. जयपुर–गुलाबी शहर में
2. आमेर से नाहरगढ़
3. जयगढ़
4. जयपुर की विरासतें–पहला भाग
5. जयपुर की विरासतें–दूसरा भाग
6. भानगढ़–डरना मना हैǃ
7. सरिस्का नेशनल पार्क
8. जयपुर की विरासतें–तीसरा भाग
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