Friday, June 15, 2018

माण्डू–सिटी ऑफ जॉय (पहला भाग)

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आज मेरी मंजिल माण्डू या माण्डव थी। मेरी जानकारी में तो इसका नाम माण्डू ही था लेकिन स्थानीय रूप से इसका नाम माण्डव है। महेश्वर बस स्टैण्ड पर पता लगा कि माण्डव के लिए कोई सीधी बस नहीं है और इसके लिए धामनोद जाना पड़ेगा। जैसे ही मैं स्टैण्ड पहुँचा सुबह 8.15 पर मुझे धामनोद की बस मिल गयी। महेश्वर से धामनोद की दूरी 13 किमी और किराया 15 रूपये। अब चूँकि धामनोद,इन्दौर–महू–सेंधवा होकर महाराष्ट्र के धुले जाने वाले मुख्य मार्ग पर अवस्थित है तो इस वजह से यह एक महत्वपूर्ण जंक्शन है।
बस में कुछ देर खड़े होकर चला तो बैठने की सीट मिल गयी। 8.45 पर मैं धामनोद पहुँच गया। यहाँ पता चला कि माण्डव के लिए यहाँ से भी कोई सीधी बस नहीं है। यहाँ से धार की बस पकड़नी पड़ेगी और माण्डव फाटा उतरना पड़ेगा। माण्डव फाटा वह जगह है जहाँ एक त्रिमुहानी से धामनोद–धार रोड में से माण्डव के लिए सड़क कटती है। धामनोद से धार जाने वाली बसें भी कहीं से पूरी तरह भरकर आ रही थीं। किस्मत के भरोसे बस में मुझे सीट मिल गयी। हुआ दरअसल ये कि किसी बड़े कुनबे ने बस में अपने लिए कई सीटें कब्जा कर रखी थीं। कुनबे के सभी लोग जब सीटों पर एड्जस्ट हो गये तो एक–दो सीटें खाली बच गयीं और मैंने एक सीट लपक ली। धामनोद से फाटा की दूरी 40 किमी आैर किराया 35 रूपये। 9 बजे बस धामनोद से रवाना हुई और फाटा पर मैं 10.15 बजे उतर गया।

अब मुझे धार से आकर माण्डव जाने वाली बसों का इन्तजार करना था। दरअसल माण्डव यातायात की दृष्टि से धार से अधिक घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है। इसलिए अगर धार से माण्डव की ओर जाना हो तो कोई समस्या नहीं है लेकिन मैं उल्टी दिशा में यात्रा कर रहा था। तो उल्टी हवा के झोंको की वजह से बहुत कुछ झेलना पड़ रहा था। माण्डव फाटा पर लगे दूरी संकेतक बोर्ड पर माण्डव के बारे में भी एक सूचना अंकित थी और वह ये कि– एशिया का सबसे बड़ा गढ़–माण्डू। माण्डव फाटा के पास लुनहेरा नामक एक गाँव भी बसा है जो सड़क के बिल्कुल पास न होकर थोड़ा हटकर है। अभी मैं माण्डव पहुँचने के साधनों के बारे में गहन चिन्तन कर ही रहा था कि 10 मिनट के अन्दर ही एक बस आती दिखी। मेरे आस–पास खड़े सारे यात्री दौड़ पड़े। मैं भी दौड़ा। लेकिन कण्डक्टर ने सख्त आदेश जारी किया कि माण्डव वाले नहीं बैठेगें। क्योंकि बस नालछा से ही वापस लौट आएगी। नालछा वह ब्लॉक या विकास खण्ड है जिसके अन्तर्गत माण्डव भी आता है। माण्डव फाटा से नालछा की दूरी लगभग 7 किमी है जबकि माण्डव की दूरी लगभग 30 किमी है। अगर मैं यह बस पकड़कर नालछा चला भी जाता तो इसकी कोई गारण्टी नहीं थी कि नालछा से माण्डव के लिए कोई गाड़ी मिल जाएगी। इसलिए मैंने वह बस छोड़ देना ही उचित समझा। सारी भीड़ बस में सवार हो गयी सिवाय मेरे। अब अगली बस का इन्तजार था। लेकिन अगली बस ने वाे इन्तजार कराया कि मेरे भी पसीने छूट गये। अगली बस लगभग एक घण्टे बाद 11.20 पर आयी। बस में भीड़ इतनी थी कि सीट मिलने की उम्मीद करनी ही मूर्खता थी। बस के ऊपर भी लोग बैठे थे। मैंने एक बैग बस के पीछे की डिक्की में रखवाया और पिट्ठू बैग जिसमें कैमरा भी था,को लेकर बस में चढ़ गया। बस की भीड़ मुझे धक्के देते हुए ले चली। लेकिन सिर्फ नालछा तक। नालछा में बस रूकी तो तीन–चौथाई खाली हो गयी। अब यहाँ से माण्डव की यात्रा आसान हो गयी।


11.45 बजे मैं माण्डव पहुँचा। बस से मैं उतरा तो पहली प्राथमिकता कमरा थी। बस जिस तिराहे पर रूकी थी उससे दस कदम पर ही दाहिनी तरफ सरकारी गेस्ट हाउस है। मैंने इसका बोर्ड देखा तो दनदनाते हुए पहुँच गया। गेट के बाहर ही एक कर्मचारी खड़ा था। मैंने पूछताछ की तो पता चला कि कमरे का रेट 500 रूपये है। मामला चूँकि सरकारी है तो रेट बिल्कुल फिक्स है। कोई मोलभाव नहीं। वैसे कमरों के हिसाब से बिल्कुल भी महँगा नहीं है। बिल्कुल चकाचक और वेल मेन्टेन डबल रूम। मुख्य कमरे के आगे छोटा सा एक और कमरा। परदे लगे हुए। मन ललचा गया लेकिन अपन को बिना दो–चार जगह घूमे कहाँ कमरे पसंद आते हैं। सरकारी गेस्ट हाउस धार से माण्डव जाने वाली सड़क के दाहिनी ओर या पश्चिम की ओर है जबकि बायीं तरफ दो मिनट की पैदल दूरी पर एक राम मंदिर है और इस मंदिर के परिसर में भी किराए पर दिए जाने वाले कमरे बने हैं। गेस्ट हाउस के बाद मैं यहाँ पहुँचा। यहाँ भी दो लोगों के लिए काफी बड़े कमरे 300 में उपलब्ध हैं। तो मैंने राम मंदिर में ही एक कमरा बुक कर लिया। साफ–सफाई भी किसी अच्छे होटल के जैसी है।

कमरा लेते समय ही मैंने मंदिर के लॉज मैनेजर से माण्डव घूमने के बारे में जानकारी लेनी चाही तो उसने एक ही झटके में एक नाम हवा में उछाल दिया– विश्वास गाइड। मुझे हँसी भी आई,आश्चर्य भी हुआ। एक साँवले रंग का आदमी मंदिर परिसर में ही कुछ लाेगों के एक झुण्ड को कुछ समझा रहा था। लॉज मैनेजर ने उसी साँवले आदमी की ओर इशारा करते हुए बताया कि यही विश्वास गाइड है। लाख दुखों की एक दवा। इनसे आपको सारी जानकारी मिल जाएगी। मैं भी विश्वास गाइड के पास पहुँच गया। परिचय दिया। कमरा नम्बर बताया। इसके बाद विश्वास गाइड ने माण्डू पर छोटा सा लेक्चर झाड़ दिया– "माण्डव का पूरा टूर लगभग 20 किलाेमीटर का होता है जी। चाहें तो साइकिल से घूम सकते हैं या फिर मोटरसाइकिल से भी। अभी–अभी दो नयी साइकिलें भी ली है मैंने। आपको नई वाली ही दे दूँगा। मोटरसाइकिल भी मेरी नई है। साइकिल का रेट 100 रूपये है। मोटरसाइकिल 500 में। बाइक का पेट्रोल मैं ही दे दूँगा। इसके अलावा आप चाहें तो कार भी ले सकते हैं। पूरी तरह मेन्टेन है।" मैं बाइक लेना चाह रहा था लेकिन गाइड महोदय रेट कम करने को तैयार नहीं हुए। तो मैंने साइकिल पर ही दाँव लगा दिया। साइकिल भी पूरी तरह आपकी शर्ताें पर है। जब मर्जी तब ले लीजिए। आपकी इच्छा है तो रात को भी अपने होटल के कमरे में ही रख लीजिए। बस एक दिन का सौ रूपया देते रहिए।

12.30 बज गए थे। पेट के लिए कुछ ईंधन जरूरी था। तेल–मसाले वाले कई ठेले लगे थे। लेकिन मैंने सीधे–सादे समोसे और छोले पर ही हाथ लगाया।

नालछा की ओर से माण्डव आने वाली सड़क लगभग उत्तर से दक्षिण की ओर प्रवेश करती है। और एक पहाड़ी पर बसा माण्डव इसी सड़क के सहारे अपना जीवन–यापन करता है। इस सड़क के अगल–बगल या आस–पास ही माण्डव की सारी ऐतिहासिक इमारतें बनी हुई हैं या फिर माण्डू की अधिकांश प्रसिद्ध इमारतों के पास से यह सड़क गुजरती है। नर्मदा के उत्तर में विन्ध्य की पहाड़ियां पूरब में हजारीबाग से लेकर पश्चिम में राजपीपला तक फैली हुई हैं। कहीं छ्टिपुट तो कहीं श्रृंखलाबद्ध रूप में। इसी श्रृंखला में ऐतिहासिक नगरी धार और महेश्वर के मध्य माण्डव की पहाड़ी अवस्थित है। इस पहाड़ी के किनारों पर कहीं भी खड़े होकर देखने पर चारों तरफ दूर दूर तक विन्ध्य की अन्य पहाड़ियां दिखाई पड़ती हैं। मैं मार्च के अन्त में अर्थात सूखे मौसम में माण्डव गया था तो जाहिर है कि हरियाली और झरनों का नामोनिशान तक नहीं था। लेकिन मैं अनुमान लगा सकता हूँ कि बारिश का माैसम यहाँ काफी रोमांटिक होता होगा। माण्डव को "सिटी आॅफ जॉय" यूँ ही नहीं कहा गया होगा।
माण्डू की समुद्रतल से ऊँचार्इ 633 मीटर या 2079 फीट है। वैसे तो माण्डव का इतिहास बहुत प्राचीन है लेकिन माण्डव को एक व्यवस्थित शहर के रूप में बसाने का श्रेय परमार शासकों को ही है। कुछ तथ्यों के अनुसार माण्डव शहर का अस्तित्व छठीं शताब्दी में भी रहा लेकिन 10वीं और 11वीं शताब्दी में धार के परमार शासकों ने माण्डव में किले का निर्माण कराया और मालवा के महत्वपूर्ण शहर के रूप में इसे स्थापित किया।
अब मैंने विश्वास गाइड को साइकिल के लिए फोन लगाया। पाँच मिनट के अन्दर एक लड़का भागता हुआ मेरे पास आया। यह लड़का सिर्फ मुझे बुलाने के लिए आया था। साइकिल तो मुझे उसकी दुकान पर जाकर ही रिसीव करनी थी। मैं तुरंत उसके साथ हो लिया। उसकी बहुधन्धी दुकान थी जहाँ लड़के ने साइकिल की सीट को मेरी लम्बाई के हिसाब से सेट किया और मेरा आधार कार्ड और किराये के सौ रूपये जमा करने के बाद साइकिल मेरे हवाले किया। मैं साइकिल पर सवार होकर माण्डव की धरती पर निकला तो लगा कि हवाई जहाज का सफर कर रहा हूँ। लेकिन अभी मैंने साइकिल काे अपने कमरे में बन्द किया और पैदल ही उन जगहों की ओर चला जहाँ पैदल घूमा जा सकता था।

वैसे तो पूरी पहाड़ी ही माण्डव के नाम से जानी जाती है लेकिन माण्डव का मुख्य चौराहे पर,जो एक स्थान के रूप में माण्डव के नाम से जाना जाता है,कुछ प्राचीन इमारतें हैं। सड़क पर दक्षिण की ओर मुँह करके खड़े होने पर दायीं तरफ जामी मस्जिद है। जामी मस्जिद के निर्माण का आरंभ माण्डव के सुल्तान होशंगशाह गोरी ने किया तथा महमूदशाह खिलजी ने 1454 में इसे पूर्ण कराया। भारत की बड़ी मस्जिदों में इसकी गणना की जाती है। वैसे इसके बारे में पुरातत्वविदों की मान्यता है कि परमार शासक भोज ने 11वीं सदी में दरबार के रूप में इसका निर्माण कराया था। भवन के स्थापत्य में निहित हिन्दू शैली इसकी गवाही देती है। भोज प्रशस्ति में भी इस भवन के बारे में उल्लेख मिलता है। इस भवन का निर्माण लाल पत्थर से किया गया है। जामी मस्जिद के पीछे या पश्चिम की ओर होशंगशाह का मकबरा है। यह संगमरमर से निर्मित एक सुंदर इमारत है। इसका निर्माण माण्डव के प्रथम स्वतंत्र सुल्तान होशंगशाह गोरी ने 1405 में करवाया। पुरातत्वविदों के अनुसार इस मकबरे में किसी को भी दफनाया नहीं गया। ऐसा माना जाता है कि इस मकबरे से प्रेरित होकर ही शाहजहाँ ने ताजमहल का निर्माण कराया। मकबरे के पश्चिम में स्तम्भों पर आधारित एक बरामदेनुमा इमारत बनी है जिसे धर्मशाला कहा जाता है। इसका निर्माण 1440 में महमूद खिलजी द्वारा कराया गया। यह इमारत शुद्ध हिन्दू शैली में बनी है। कुछ पुरातत्वविदों के अनुसार माण्डव में बने प्राचीन हिन्दू मंदिरों व भवनों के भग्नावशेषों को ज्यों का त्यों स्थापित करके इस भवन का निर्माण किया गया है। सड़क की बाईं ओर या पूरब की ओर कुछ खण्डहरनुमा इमारतें हैं जिन्हें अशर्फी महल तथा विजय स्तम्भ के नाम से जाना जाता है। अशर्फी महल पूरी तरह जीर्ण–शीर्ण अवस्था में है। यह काफी प्राचीन इमारत है जिसका निर्माण परमार वंश के शासक हर्षवर्धन द्वारा कराया गया था। माण्डव के सुल्तानों द्वारा इसमें कई परिवर्तन किए गए। 1445 में महमूद खिलजी ने इसे मदरसे में परिवर्तित कर दिया। बाद में इसे मकबरे में बदल दिया गया जिसे महमूद खिलजी का मकबरा भी कहते हैं। इस खण्डहर भवन के पास ही विजय स्तम्भ नाम से एक संरचना बनी हुई है जो क्षतिग्रस्त अवस्था में है। इस इमारत को महमूद खिलजी द्वारा मेवाड़ के शासक राणा कुम्भा की कैद से मुक्त होने की याद में बनवाया गया। उपर्युक्त इमारतों के पास ही राम मंदिर भी अवस्थित है जहाँ मैं ठहरा हुआ था। इस राम मंदिर का निर्माण 1770 में किया गया था।


3 बज गए थे। पैदल तो इतना ही। अब साइकिल की बारी थी। और यात्रा थी चौराहे या जामी मस्जिद से दक्षिण की ओर की। जामी मस्जिद से थोड़ा सा ही आगे जैन मंदिर है। यहाँ भी सस्ते कमरे किराए पर मिलते हैं। अब तक मुझे माण्डव के कुछ रास्तों की जानकारी हो चुकी थी तो मैं जैन मंदिर के पास वाले तिराहे से दाहिने मुड़ गया। यहाँ से आगे बढ़कर माण्डव की मुख्य सड़क के समानान्तर एक दूसरी सड़क पकड़नी थी जिसके किनारे छप्पन महल तथा एक खम्भा महल स्थित हैं। इसलिए कुछ दूर चलने के बाद अगले तिराहे से बायें मुड़ गया। सबसे पहले बायें हाथ छप्पन महल मिला। मैंने चारदीवारी से सटा कर साइकिल खड़ी की। गेट से अन्दर प्रवेश किया तो सामने टिकट काउण्टर दिखाई पड़ा। लेकिन काउण्टर पर कोई नहीं दिखा तो दनादन फोटो खींचते हुए मैं महल की सीढ़ियों से ऊपर चढ़ गया। महल के सारे कर्मचारी एक जगह बैठे बतकही कर रहे थे। मुझे इस तरह धड़ल्ले के साथ बिना टिकट प्रवेश करते देख भगदड़ मच गई। एक आदमी तेजी से उठा– "आइए सर आइए,आप घूमिए,मैं आपका टिकट ला रहा हूँ।" मैं इस सदाशयता पर बहुत खुश हुआ। लेकिन कुछ सेकेण्ड के अन्दर ही कैमरे पर विवाद शुरू हो गया। यहाँ कैमरे का टिकट लगने जा रहा था। मैं अड़ गया। अब तक कहीं भी मेरे इस कैमरे का टिकट किसी ने नहीं माँगा था। हाँ वीडियो कैमरे का टिकट जरूर लग रहा था। बड़ी मेहनत से सारे कर्मचारी मिल कर मुझे समझा पाए कि ये केवल महल नहीं बल्कि म्यूजियम भी है और इसी वजह से यहाँ स्टिल कैमरे का भी टिकट लगता है।

छप्पन महल का निर्माण 16वीं सदी में हुआ था। सन 1899 या विक्रम संवत 1956 में धार राज्य के पँवार शासक ने इसका जीर्णाेद्धार कराया। संवत 56 के नाम पर यह छप्पन महल कहा जाने लगा। छप्पन महल से निकलकर मैं आगे बढ़ा तो फिर एक तिराहे से मुझे बायें मुड़ना था। लेकिन उसके पहले दाहिनी ओर एक खम्भा महल दिखाई दे रहा था। एक खम्भा महल एक साधारण इमारत है जिसमें एक गुम्बद बना हुआ है। अगर इसी सड़क पर मैं बढ़ता जाता तो माण्डव किले या पहाड़ी की दक्षिण पूर्व दिशा में एक–डेढ़ किमी दूर नीलकंठ महादेव मंदिर और वहाँ से भी एक–डेढ़ किमी और आगे भंगी दरवाजा मिलता लेकिन यहाँ से बायें मुड़कर और थोड़ा आगे बढ़कर मैंने मुख्य सड़क पकड़ ली और अागे बढ़ता गया।

कुछ दूर आगे बढ़ने पर सड़क की बायीं ओर या पूरब की ओर कई इमारतें एक समूह में दिखाई पड़ती हैं। इनमें दरिया खान की मस्जिद,दरिया खान का मकबरा,लाल सराय व सोमवती कुण्ड सम्मिलित हैं। सड़क के पास बने गेट से प्रवेश कर अन्दर जाने पर बायीं ओर दरिया खान की मस्जिद दिखाई पड़ती जबकि दायीं ओर लाल सराय है। ठीक सामने साेमवती कुण्ड है और कुण्ड के उस पार दरिया खान का मकबरा बना हुआ है। मकबरे का निर्माण 1510 से 1526 के मध्य महमूद खिलजी दि्वतीय द्वारा कराया गया था। दरिया खां महमूद खिलजी दि्वतीय के समय कोई उच्चाधिकारी था। लाल सराय काफी बड़े दायरे में बनी हुई है जिसमें एक बार में काफी बड़ी संख्या में लाेग ठहरते होंगे। मैं जिस समय पहुँचा उस समय साेमवती कुण्ड में एक महिला कपड़े धो रही थी और उसके दो छोटे–छोटे बच्चे पानी में अठखेलियां कर रहे थे। कुण्ड के जल का अच्छा उपयोग हो रहा था। उपर्युक्त सारी इमारतों का स्थापत्य काफी आकर्षक है।

इन इमारतों से थोड़ा ही आगे बढ़ने पर बायीं ओर एक पतली सड़क निकली है। इस तिराहे पर हाथी पगा महल की ओर इंगित करता बोर्ड लगा है। तो मैंने अपनी साइकिल उधर मोड़ दी। पास में ही बसे एक छोटे से गाँव के उस पार हाथी पगा महल बना है। वैसे गाँव के बाद रास्ता ठीक से नहीं बना है या फिर रास्ता है ही नहीं। केवल पगडंडी है। मैं साइकिल से था तो पहुँच गया। बाइक से भी पहुँचा जा सकता है। इससे बड़ी गाड़ी यहाँ नहीं पहुँच सकती। यह इमारत मूल रूप से एक मकबरा है। इसके स्तम्भों की बनावट कुछ ऐसी है कि ये हाथी के पैरों जैसे दिखाई पड़ते हैं। सम्भवतः इसी वजह से इसे हाथी पगा महल कहा जाता है। इमारत के ऊपर तीन छोटे गुम्बद बने हैं।

अब इस स्थान से आगे मैंने फिर साइकिल दौड़ाई। कुछ दूर आगे चलने के बाद सड़क से थोड़ा हटकर बायीं ओर कुछ और इमारतें दिखती हैं। साथ ही सड़क के दाहिनी ओर एक बड़ा तालाब भी है जिसका नाम सागर तालाब है। वैसे तालाब का केवल नाम ही था क्योंकि तालाब में पानी नदारद था। इस स्थान को इको प्वाइंट भी कहा जाता है। इस स्थान पर खड़े होकर काेई भी शब्द जोर से बोलने पर पास की इमारतों से टकराकर उसकी प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है।

सड़क से बायें उतरकर एक कच्चे रास्ते पर आगे बढ़ने पर दाहिने हाथ मलिक मुंगीथ की मस्जिद दिखती है। यह रास्ता बना तो पक्का है लेकिन कच्चे रास्ते में तब्दील हो चुका है। इस मस्जिद का निर्माण 1012 में माण्डव के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम के पिता मलिक मुंगीथ ने किया था। एक ऊँचे चबूतरे पर बनी हुई इस मस्जिद का मुख्य द्वार पूर्व की ओर है। मस्जिद के मुख्य द्वार पर बना गुम्बद क्षतिग्रस्त हो चुका है। अन्दर की ओर यह इमारत सैकड़ों स्तम्भों पर टिकी है जिनका निर्माण हिन्दू शैली में किया गया है। स्तम्भों के अलावा गुम्बदों की भी संरचना हिन्दू शैली की ही दिखाई पड़ती है। वैसी ऐसी इमारतों की वास्तविकता यही है कि हिन्दू इमारतों या मंदिरों को तोड़ने के बाद प्राप्त पत्थरों को ज्यों का त्यों स्थापित कर दिया गया है।
मलिक मुंगीथ की मस्जिद के ठीक सामने कारवाँ सराय है। इसका प्रवेश द्वार पश्चिम की ओर है। इस सराय में एक विशाल प्रांगण के चारों ओर कमरे बने हुए हैं। इसका निर्माण महमूद खिलजी द्वारा कराया गया था। इसके निर्माण में काले रंग के पत्थरों का उपयोग किया गया है। इस सराय का उपयोग मस्जिद में आने वाले दर्शनार्थियों के निवास हेतु किया जाता था।
मलिक मुंगीथ की मस्जिद के दक्षिण तरफ कुछ छोटी–छोटी इमारतें हैं। इनमें से दाई का महल महत्वपूर्ण इमारत है। मूल रूप में यह इमारत एक मकबरा है। लाल पत्थर से बनी यह एक सुंदर इमारत है। इस इमारत के चबूतरे पर टहलते समय मैं देख रहा था कि सड़क पर किसी स्कूल बस से आए हुए लड़के प्रतिध्वनि सुनने के लिए भारी शोर मचा रहे थे। इस प्रकार के भवन माण्डव में बड़ी संख्या में हैं। जानकारों के अनुसार इस तरह के भवनों का उपयोग एक स्थान से दूसरे स्थान तक सूचना के आदान–प्रदान के लिए किया जाता था।


माण्डव का मानचित्र
जामी मस्जिद की छत
जामी मस्जिद


हाेशंगशाह का मकबरा
धर्मशाला


अशर्फी महल

छप्पन महल
छप्पन महल में बनी एक मूर्ति
छप्पन महल में संग्रहीत एक मूर्ति
छप्पन महल की एक कला वीथिका
हाथीपगा महल

एक खम्भा महल
सराय कोठड़ी
मलिक मुंगीथ की मस्जिद 
कारवां सराय

दाई का महल
राम मंदिर
अगला भाग ः माण्डू–सिटी ऑफ जॉय (दूसरा भाग)

सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. असीरगढ़–रहस्यमय किला
2. बुरहानपुर–यहाँ कुछ खो गया है
3. ओंकारेश्वर–शिव सा सुंदर
4. महेश्वर
5. माण्डू–सिटी ऑफ जाॅय (पहला भाग)
6. माण्डू–सिटी ऑफ जाॅय (दूसरा भाग)
7. धार–तलवार की धार पर

माण्डव का गूगल मैप–

6 comments:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्म दिवस - अभिनेत्री सुरैया और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद जी इस सम्मान के लिए.

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  2. बरसात में मांडू वास्तव में बहुत खूबसूरत हो जाता है । मैं अगस्त 2012 में मांडू गया था, हरियाली बहुत ही मनमोहक थी । हरियाली में नीलकंठ मंदिर से खूबसूरती चरम पर होती है । रानी रूपमती महल से धुन्ध का नजारा दिल चुराने वाला होता है । और जब जहाज महल के दोनों कुंड भरने पर वह सचमुच समंदर में खड़ा जहाज लगता है । आपके यात्रा वृतांत को पढ़कर पुरानी यादें ताजा हो गयी ।

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    1. धन्यवाद बड़े भाई। मैं तो वैसे सूखे मौसम में माण्डू गया था फिर भी मुझे माण्डू बहुत सुंदर लगा। रानी रूपमती के महल से नीचे घाटियों में तब भी धुंध दिखाई दे रही थी। माण्डू में एक घुमक्कड़ के लिए बहुत कुछ है– माण्डू का रोचक इतिहास है,सुंदर भूगोल है। हिमालय के पहाड़ों में अवस्थित न होने के बावजूद भी माण्डू बहुत सुंदर है। यहाँ घुमक्कड़ों को परेशान करनी वाली भीड़ नहीं है। मैं ताे यहाँ बार–बार जाना चाहूँगा।

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  3. आपके ब्लॉग पीकर सेंधवा का नाम पढ़कर अच्छा लगा...में सेंधवा से हु..आपको बस से मांडू जाने में काफी दिक्कत हुई...बढ़िया वर्णन और बढ़िया पोस्ट

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    1. आपको खुशी हुई यह जानकर अच्छा लगा। वैसे यात्रा में थोड़ी बहुत दिक्कतें तो होती ही हैं।

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