Friday, April 6, 2018

खजुराहो–एक अलग परम्परा (पहला भाग)

खजुराहो का नाम सामने आते ही एक अजीब सी धारणा मन में उत्पन्न होती है। जो हमने इसके बारे में पहले से ही मन में बना रखी है। एक ऐसी जगह जहाँ उन्मुक्त कामकला की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। एक ऐसी क्रिया और भावना को व्यक्त करती सजीव मूर्तियाँ जो हमारे भारत में सदा से ही वर्जित फल रही है। लेकिन खजुराहो के बारे में सिर्फ यही सत्य नहीं है वरन खजुराहो के सम्पूर्ण सत्य का एक छोटा सा अंश मात्र ही है।और इससे बड़ा सत्य यह है कि खजुराहो,मंदिर निर्माण की दृष्टि से भारतीय इतिहास की वास्तुकला की सर्वाेत्कृष्ट कृतियों का पालना है।

मध्य प्रदेश के एक जिले पन्ना में स्थित एक छोटी सी जगह। जो इतिहास में भले ही किसी शक्तिशाली राजवंश की राजधानी रहा हो,लेकिन वर्तमान बिल्कुल साधारण है। एक छोटा सा गाँव। लेकिन कुछ इतिहासपुरूषों ने कुछ ऐसी कृतियां इस छोटे से स्थान को प्रदान कीं कि यह साधारण से असाधारण हो गया। अदृष्ट से दृष्ट हो गया। अव्यक्त से व्यक्त हो गया। खजुराहो जो हमें दिखाता है वह शायद हमारी परम्परा नहीं रही है। वर्तमान हो या फिर सदियों पहले का भारत। स्त्री–पुरूष का पारस्परिक सम्बन्ध गोपनीयता की विषय–वस्तु रही है। वैसे तो अधिकांश भारतीय इस स्थान के नाम से भी शायद ही परिचित होंगे लेकिन जो परिचित भी हों और इसके बारे में कुछ जानते हों वे भी खजुराहो को उन्मुक्त कामकला की मूर्तियों वाले स्थान के रूप में ही जानते होंगे। शायद ये मूर्तियां ही खजुराहो की पहचान बन गयीं हैं। खजुराहो की अपनी यात्रा के दौरान मुझे तो कम से कम यही महसूस हुआ। इस स्थान पर देशी–विदेशी पर्यटकों का अनुपात तो कम से कम यही कह रहा था। लगभग दो–तिहाई या उससे भी अधिक पर्यटक विदेशी। ऐसा मैंने अपनी किसी भी यात्रा में,जितनी यात्राएँ मैंने की हैं,पहली बार देखा। आम भारतीय पर्यटक के यहाँ न आने की कई वजहें हो सकती हैं। खजुराहो किसी बड़े शहर का हिस्सा नहीं है। इसके आस–पास के बड़े शहर छतरपुर और पन्ना हैं और ये दोनाें खजुराहो से लगभग 50 किमी या अधिक दूरी पर स्थित हैं। शायद खजुराहो अभी वीकेण्ड संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाया है। खजुराहो की कामकला की मूर्तियाँ समूह में या परिवार के साथ आने वाले भारतीय दर्शकों को प्रतिकर्षित होती होंगी।

खजुराहो के बारे में अपने मन में पहले से बनी तमाम पूर्वधारणाओं को लिये हुए और काफी कुछ इतिहास की किताबें पढ़ने के बाद मार्च के पहले सप्ताह में मैं भी एक दिन बिल्कुल अकेले खजुराहो की ओर चल पड़ा। पूर्वी उत्तर प्रदेश के वाराणसी से बुंदेलखण्ड एक्सप्रेस के नाम से झाँसी होकर ग्वालियर जाने के लिए एक ट्रेन चलती है। इस ट्रेन के रूट में बुंदेलखण्ड क्षेत्र का महोबा नामक स्टेशन पड़ता है जो उत्तर प्रदेश का एक जिला है। महोबा से खजुराहो की दूरी 63 किमी है। सन 2008 में खजुराहो को महोबा के माध्यम से रेल लाइन से जोड़ा गया। खजुराहो का यह रेलवे स्टेशन वर्तमान खजुराहो गाँव या कस्बे से लगभग 7 किमी की दूरी पर बिल्कुल खेतों के बीच बना है। अर्थात अगर रेलवे स्टेशन की पानी सप्लाई की व्यवस्था किसी कारणवश फेल हो जाय और आपके पास बोतल का पानी न हो तो आप एक बूँद पानी के लिए तरस जायेंगे। और अब इतने महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल पर रेलवे की नजर पड़ने में इतना समय लगा तो इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा।
वाराणसी को खजुराहो से जोड़ने के लिए सप्ताह में तीन दिन एक खजुराहो लिंक एक्सप्रेस चलती है जिसमें केवल चार या पाँच बोगियाँ होती हैं। अर्थात एक ए.सी.,एक स्लीपर और दो जनरल कोच। इन्हीं बोगियों काे खजुराहो लिंक एक्सप्रेस का नाम दे दिया गया है। इन्हें वाराणसी में शाम को बुंदेलखण्ड एक्सप्रेस के सिर मढ़ दिया जाता है जो इन्हें सुबह होने से पहले ही महोबा में ले जाकर पटक देती है। महोबा से इन असहाय बोगियों को एक इंजन सुबह तक खजुराहो की धरती के दर्शन कराता है।
मैं भी वाराणसी से शाम के 5.45 बजे चलने वाली खजुराहो लिंक एक्सप्रेस की स्लीपर बोगी में अपनी ऊपर की सीट पर अपने पिट्ठू व घसीटू भाइयों (बैगों) को चढ़ाकर खुद भी चढ़ लिया। थोड़ी ही देर में कुछ एेसा दिखा कि मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। स्लीपर बोगी में आम भारतीय यात्रियों की तरह विदेशी सैलानियों को चढ़ते देख मैं चौंक पड़ा। विदेशी सैलानी और स्लीपर बोगी में। महा घनघोर आश्चर्यǃ शायद ये उनकी मजबूरी थी। वाराणसी को देखने बहुत से विदेशी पर्यटक आते हैं। अब यहाँ से खजुराहो तक ट्रेन से जाना है तो यही एकमात्र ट्रेन है और इसमें भी एकमात्र ए.सी. बोगी और एकमात्र स्लीपर। जायें तो जायें तो कहाँ! मेरे लिए यह काफी दिलचस्प मामला था। वैसे तो ऊपर की सीट पर चढ़कर मैं सारी दुनियादारी भूल जाता हूँ लेकिन इस बार यह मुश्किल लग रहा था। अपनी 'हाथ–पैर टूटी अंग्रेजी' के दो–चार शब्द बोलकर मैंने भी एक–दो विदेशी यात्रियों से सम्पर्क स्थापित करने की कोशिश की और सीट ढूँढ़ने और अन्य कामों में उनकी कुछ मदद करके असीम परमानन्द प्राप्त किया। जापानी यात्रियों को तो अंग्रेजी बिल्कुल भी नहीं आ रही थी। हाँ,कुछ यूरोपियन भी थे जो धड़ल्ले से अंग्रेजी बोल रहे थे।

ट्रेन चली तो यह कब खजुराहो पहुँचेगी,इसकी चिंता छोड़कर सो जाना ही बेहतर था। नेकी कर दरिया में डाल। अगले दिन सुबह खजुराहो पहुँचने के नियत समय 5.20 बजे के बजाय यह 8 बजे के आस–पास पहुँची। स्टेशन पर उतरा और बाहर निकला ताे अजीब सा नजारा दिखायी पड़ रहा था। चारों तरफ फैले खेतों को देख कर लग ही नहीं रहा था कि ये स्टेशन है। वैसे खजुराहो का स्टेशन काफी सुंदर व साफ–सुथरा है। बाहर निकला तो ऑटो वालों ने अगवानी की। एक ने बताया कि खजुराहो के सौ रूपये लगते हैं। मैंने कहा कि तुम पाँच सौ लगा लो तो वो भी लग जायेंगे। तभी एक तरफ खजुराहो–राजनगर चिल्लाते हुए आटो वाले दिखे तो मैं उधर ही बढ़ गया। ये दस रूपये लगाने वाले आटो थे बशर्ते आप बिना पूछे किराया चुका दें। अगर आपने आटो से उतरने के बाद किराया पूछ लिया तो ये भी बीस रूपये लगा देंगे।
बीस मिनट बाद जब मैं आटो से खजुराहो उतरा और होटल खोजते हुए खजुराहो के प्रसिद्ध पश्चिमी मंदिर समूह की ओर बढ़ा तो मंदिरों की चमक देखकर मेरी रात भर की उनींदी आँखों में भी चमक आ गयी। मैं जल्दी–जल्दी कमरा खोजने में लगा। बड़ी बड़ी बिल्डिंगों वाले होटलों की ओर देखने की अपनी औकात ही कहाँ थी सो एक गली में घुस गया। एक तरफ 'योगी लॉज' का बोर्ड दिखा तो आगे बढ़ा। क्या पता उत्तर प्रदेश वाले योगी जी ने मध्य प्रदेश में लाॅज भी बनवा रखा हो। काउण्टर पर खड़े तमाम विदेशी पर्यटकों को देखकर कुछ डर सा लगा फिर भी बात की तो 300 रूपये में एक कमरा मुझे भी मिल गया। इस होटल में ठहरने वालों में मेरे अलावा सब के सब विदेशी ही थे। इनमें भी अधिकांश जापानी या फिर चाइनीज रहे होंगे। चीनियों–जापानियों के चेहरे एक जैसे ही तो होते हैं। मुझ देहाती को इतनी पहचान कहाँ कि कौन चीनी और कौन गुड़। कुछ जापानी सुंदरियों से 'यस–नो' और 'हाय–हेलो' करने और गूँगों–बहरों की भाषा यानी इशारों में बातें करने का चांस मिला। अहोभाग्यǃ खजुराहो की धरती का असर वरना कहाँ कोई विदेशी सुंदरी किसी मेरे जैसे भारतीय काे चारा डालती है।  नहा–धोकर फ्रेश होने के बाद मैं खजुराहो के पश्चिमी मंदिर समूह की ओर बढ़ चला। सुबह के साढ़े नौ बज रहे थे और मंदिरों के शिखरों पर चमकीली धूप सोना बरसा रही थी।

खजुराहो के पश्चिमी मंदिर समूह की चारदीवारी से बिल्कुल सटकर एक चौड़ी सड़क गुजरती है। यह चौड़ी सड़क अस्तित्व में है और साफ–सुथरी है तो सम्भवतः खजुराहो की वजह से। वरना खजुराहो किसी मुख्य मार्ग पर नहीं अवस्‍िथत है। खजुराहो से लगभग 11 किमी की दूरी पर राष्ट्रीय राजमार्ग गुजरता है जो मध्य प्रदेश के बड़े शहरों छतरपुर और पन्ना को जोड़ता है। इसी राजमार्ग पर एक छोटा सा कस्बा है बमीठा। इस बमीठा से ही उत्तर दिशा में यह सड़क निकलकर खजुराहो होते हुए राजनगर कस्बे की ओर चली जाती है। राजनगर खजुराहो से 5 किमी और उत्तर की ओर अवस्थित है। छतरपुर और पन्ना को जोड़ने वाले राजमार्ग पर तो गाड़ियों की भरमार है लेकिन खजुराहो की ओर जाने के लिए भरसक ऑटो का ही सहारा है। कभी–कभार बसें भी अपना मुखड़ा दिखाकर यात्रियों को खुश होने का अवसर देती हैं। अब खजुराहो के पश्चिमी मंदिर समूह के पास वाले सड़क के हिस्से को,सम्भवतः गाड़ियों से होने वाले प्रदूषण और भीड़–भाड़ से बचाने के लिए ब्लॉक कर दिया गया है तथा खजुराहो कस्बे के बगल से रिंग रोड बना दी गयी है। तो अब मंदिर परिसर के आस–पास पर्यटकों,होटलों,गाइडों,गिफ्ट आइटम बेचने वाले छोटे दुकानदारों वगैरह की ही भीड़ है। सड़क की बायीं ओर तो मंदिर परिसर है जबकि दायीं ओर दुकानों की कतार है। इस कतार और सड़क के बीच में पर्याप्त खाली स्थान है जहाँ ठेले वाले अपनी दुकानें सजा सकते हैं और मेरे जैसे लोग वहाँ चाय–समोसे का लुत्फ उठा सकते हैं। बिल्कुल मेरे गाँव के चौराहे की तरह से। तो ऐसे ही एक ठेले पर मैंने भी अपने नाश्ते का इंतजाम किया। मजेदार बात यह कि जिस ठेले वाले के यहाँ मैंने नाश्ता किया वह गूँगा–बहरा था और लेकिन इस वजह से उसके धन्धे में कोई कमी नहीं थी।
अब जरा खजुराहो के मंदिर समूहों के बारे में जान लेते हैं। वर्तमान में अस्तित्व में पाये जाने वाले खजुराहो के मंदिर तीन मुख्य समूहों में अवस्थित हैं। प्राचीन काल में या वर्तमान काल में भी मानव सुरक्षा की दृष्टि से समूहों में रहता आया है लेकिन खजुराहो में तो मंदिर भी समूहों में हैं। यह एक रोचक तथ्य है। सर्वाधिक उन्नत व सर्वाधिक सुंदर पश्चिमी मंदिर समूह है जिसके मंदिर सर्वाधिक संख्या में व सर्वाधिक सुरक्षित हैं। खजुराहो का वर्तमान कस्बा इसी मंदिर समूह के पास बसा है। दूसरा पूर्वी मंदिर समूह है जो खजुराहो गाँव के पूरब खेतों के बीच में पश्चिमी मंदिर समूह से लगभग दो–ढाई किमी की दूरी पर अवस्थित है जिसमें तीन मंदिर हैं। इन मंदिरों के आस–पास की जमीन को पुरातत्व विभाग अब अधिग्रहीत कर रहा है। तीसरा दक्षिणी मंदिर समूह है जो खजुराहो गाँव के दक्षिण की ओर अवस्थित है। इस समूह के मंदिर काफी बिखरे हुए और काफी दूर–दूर स्थित हैं। इनमें चार जैन मंदिर और तीन हिंदू मंदिर हैं। ये सभी मंदिर पूरी तरह से सुरक्षित नहीं बचे हैं। कुछ इक्का–दुक्का मंदिर,समूहों से अलग भी मिलते हैं। इन सारे मंदिरों की अवस्थिति और अन्य विशेषताओं के बारे में विस्तार से चर्चा बाद में करेंगे।

9.30 बज रहे थे जब मैंने पश्चिमी मंदिर समूह के गेट से अंदर प्रवेश किया। मुझे गेट पर ही रोक दिया गया क्योंकि मेरे पास टिकट ही नहीं था। मैंने अपने पूर्व अनुभवों से अनुमान लगा रखा था कि टिकट कहीं अंदर मिलता होगा लेकिन यहाँ तो टिकट काउंटर बिल्कुल बाहर सड़क के किनारे ही था। टिकट लेकर दुबारा अंदर प्रवेश किया। फोटो कैमरे की इंट्री फ्री लेकिन वीडियो कैमरे के साथ भेदभाव अभी जारी है। मेरी पीठ पर लदे पिट्ठू भाई को भी भारी जाँच पड़ताल का सामना करना पड़ा। क्या पता पिट्ठू बम ही न हो। गेट पर तैनात गार्ड ने जब मेरे बैग में बिस्कुट का पैकेट देखा तो चेतावनी दी कि अगर परिसर में कहीं भी खाते–पीते पकड़े गये तो 800 रूपये फाइन लगेगा। मैंने कान पकड़े कि पानी के अलावा कुछ भी मुँह में नहीं डालूँगा। निराहार रह लूँगा।
अब थोड़ा खजुराहो के इतिहास के बारे में थोड़ी चर्चा कर लेते हैं क्योंकि मंदिरों के बारे में जानकारी प्रदान करते इक्का–दुक्का बोर्ड मुझे दिखाई पड़े। खजुराहाे के निर्माता चन्देल शासक हैं लेकिन इनकी उत्पत्ति के बारे में कोई भी स्पष्ट प्रामाणिक तथ्य उपलब्ध नहीं है। भारत के मध्यकालीन इतिहास के सर्वाधिक शक्तिशाली प्रतिहार साम्राज्य का जब अवसान हुआ तो उसके ध्वंसावशेषों पर अनेक राजवंशों का उदय हुआ। मध्य भारत के बुंदेलखण्ड के चंदेल शासक एक ऐसे ही राजवंश से सम्बन्धित थे। कुछ लेखों के अनुसार चंदेल शासक महर्षि अत्रि के पुत्र चंद्रात्रेय के वंशज हैं। साथ ही इनकी उत्पत्ति चंद्रमा से भी मानी जाती है और इस आधार पर ये चंद्रवंशी क्षत्रिय माने जाते हैं। एक मान्यता यह भी है कि चंदेलों का सम्बन्ध इस क्षेत्र के मूल निवासी भार एवं गौड़ जाति से भी रहा है। चंदेलों की उत्पत्ति चंद्रमा से होने को लेकर एक किंवदंती भी प्रचलित है। इसके अनुसार काशी के राजपुरोहित की विधवा पुत्री हेमवती अत्यंत सुंदरी थी। एक दिन ग्रीष्मकाल की रात्रि में वह एक सरोवर में स्नान कर रही थी। इसी समय हेमवती के रूप पर आसक्त होकर चंद्रदेवता ने उसके शरीर का भोग किया। हेमवती ने उनपर अपना चरित्र नष्ट करने का आरोप लगाया। इस पर चंद्रमा ने उसे वरदान दिया कि हेमवती का पुत्र एक अजेय क्षत्रिय वीर होगा। कहा जाता है कि इस घटना के फलस्वरूप हेमवती को चंद्रवर्मन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसने कालांतर में कालिंजर को जीतकर अपनी राजधानी बनाया और चंदेल साम्राज्य की स्थापना की। बाद में वह अपनी माँ के साथ खजुराहो लौटा तथा यहाँ अनेक यज्ञ कराये और मंदिरों का निर्माण कराया।

वैसे ऐतिहासिक तथ्‍यों के आधार पर माना जाता है कि चंदेल वंश की स्थापना सन 831 में नन्नुक नाम शासक ने की जो सम्भवतः तत्कालीन प्रतिहार शासकों का सामन्त था। लगभग 900 ई0 तक चंदेलों ने प्रतिहारों की अधीनता में शासन किया। इस बीच नन्नुक के अलावा क्रमशः वाक्पति,जयशक्ति,विजयशक्ति तथा राहिल ने शासन किया तथा अपनी शक्ति एवं साम्राज्य का विस्तार किया। राहिल का पुत्र तथा उत्तराधिकारी हर्ष (900-925 ई0) एक शक्तिशाली शासक था एवं उसने प्रतिहारों की अधीनता को काफी हद तक सीमित कर दिया। हर्ष के उत्तराधिकारी यशोवर्मन ने चंदेल साम्राज्य का उत्तर भारत के बड़े भूभाग पर विस्तार किया। साथ ही उसने खजुराहो के चतुर्भुज मंदिर का निर्माण कराया। यशोवर्मन के पश्चात उसके पुत्र धंग ने 950 से 1102 ई0 तक शासन किया। धंग ने चंदेलों को प्रतिहारों की अधीनता से पूरी तरह से मुक्त कर दिया। धंग ने अपनी राजधानी कालिंजर से खजुराहो स्थानान्तरित कर ली और इसके बाद अंत तक खजुराहो ही चंदेलों की राजधानी रही। तत्कालीन समय में कालिंजर मध्य भारत के सत्ता केन्द्र का प्रतीक था। धंग ने अपने शासनकाल में अनेक मंदिरों का निर्माण कराया जिनमें विश्वनाथ,जिननाथ तथा वैद्यनाथ मंदिर उल्लेखनीय हैं। धंग के बाद उसका पुत्र गण्ड शासक बना लेकिन उसका काल अल्पकाल तक ही रहा।
गण्ड का पुत्र विद्याधर चंदेल वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। उसने 1019 से 1029 ई0 तक शासन किया। विद्याधर ने तत्कालीन प्रतिहार शासक को पराजित किया तथा महमूद गजनवी को आगे बढ़ने से रोक दिया। विद्याधर ने ही खजुराहो के सबसे विशाल कंदरिया महादेव मंदिर का निर्माण कराया। विद्याधर की मृत्यु के बाद चंदेल वंश की शक्ति का ह्रास होने लगा तथा उसके पुत्र विजयपाल तथा पौत्र देववर्मन के समय चंदेलवंश की सार्वभौम सत्ता कल्चुरि शासकों के पास चली गयी। इसके पश्चात् देववर्मन के छोटे भाई कीर्तिवर्मन ने चंदेलों की खोयी हुई सत्ता को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया। कीर्तिवर्मन ने 1100 ई0 तक शासन किया। बाद में मदनवर्मा (1129-1163 ई0) ने चंदेल साम्राज्य के डूबते सूरज को फिर से थामने का प्रयास किया। मदनवर्मा के पश्चात परमर्दिदेव या परमल चंदेल शासक बना जिसने 1165 से 1203 ई0 तक शासन किया। यह चंदेल वंश का अन्तिम महान शासक था। बुंदेलखण्ड की लोकगाथाओं में आल्हा–ऊदल के नाम से जाने जाने वाले वीर योद्धा परमर्दिदेव के ही सेनानायक थे। परमर्दिदेव को पृथ्वीराज चौहान के विरूद्ध कई युद्धों में पराजय का सामना करना पड़ा। 1203 ई0 में कुतुबुद्दीन ऐबक ने परमर्दिदेव को पराजित कर कालिंजर के किले पर अधिकार कर लिया। कालिंजर के दुर्ग में ही परमर्दिदेव की मृत्यु हो गयी। वैसे इसके काफी समय बाद तक भी चंदेल राज्य अस्तित्व में बना रहा और 1305 ई0 में इसे दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया।



लक्ष्‍मण मंदिर 
विश्वनाथ मंदिर
चित्रगुप्त मंदिर
जगदंबी देवी मंदिर
कंदरिया महादेव मंदिर व जगदंबी देवी मंदिर एक साथ
चतुर्भुज मंदिर
सिंह और चंद्रवर्मन
अगला भाग ः खजुराहो–एक अलग परम्परा (दूसरा भाग)

सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. खजुराहो–एक अलग परम्परा (पहला भाग)
2. खजुराहो–एक अलग परम्परा (दूसरा भाग)
3. खजुराहो–एक अलग परम्परा (तीसरा भाग)
4. खजुराहो–एक अलग परम्परा (चौथा भाग)
5. कालिंजर
6. अजयगढ़

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