आज बागेश्वर से कौसानी की यात्रा पर था। सुबह 7.30 मैंने होटल से चेकआउट कर लिया। बस स्टैण्ड पहुँचा तो बस पहले से ही मेरा इन्तजार कर रही थी। यह बस बागेश्वर से बैजनाथ,गरूड़,कौसानी,सोमेश्वर होते हुए अल्मोड़ा जा रही थी। अब पूछना क्या थाǃ मैं बस में सवार हो गया। बागेश्वर से कौसानी की दूरी 39 किमी है। लेकिन 8.15 बजे बस चली तो कौसानी पहुँचने में 10.15 बज गये। यानी 39 किमी की दूरी तय करने में दो घण्टे लग गये। लेकिन ये दो घण्टे उबाऊ न होकर बड़े ही आनन्ददायक रहे।
उत्तराखण्ड का सौन्दर्य अगर देखना है तो तीव्र पहाड़ी मोडों से होकर धीमी गति से गुजरती गाड़ी में बैठकर ही देखा जा सकता है। तो मैं देखता रहा।
बस में चढ़ते–उतरते स्कूली बच्चे,सड़क के किनारे अपने रोज के कामों में लगे भागदौड़ करते लोग,पहाड़ी ढलानों पर फैली हरियाली,देवदार के पेड़ों से टकराकर आती हवा में ठण्ड के आगमन की आहट,कहीं दूर किसी पहाड़ी रास्ते पर सिर पर घास का गट्ठर लिये जाती कोई पहाड़ी महिला,बिखरे जंगलों के बीच चरते जानवर और इन सबसे ध्यान हटाता किसी तीव्र पहाड़ी मोड़ पर ड्राइवर का झटके देकर बस को मोड़ना। इन सब दृश्यों में कहीं न कहीं एक रोमांच छ्पिा हुआ है जिसे चुपचाप अपनी सीट पर बैठा हुआ मैं अपने मन के किसी कोने में महसूस रहा कर रहा था।
कौसानीǃ
समुद्रतल से 1890 मीटर या 6200 फुट की ऊँचाई पर बसा एक छोटा सा गाँव। एक चौराहे पर बस रूकी तो लोग उतरने लगे। मैंने पूछा– 'कौसानी आ गया क्याǃ'
किसी ने कहा– 'हाँ,आपको कहाँ उतरना हैǃ'
मैंने उसके सवाल की परवाह किये बिना अपना बैग उठाया और बस से नीचे उतर गया। छोटा सा बाजार। छोटी–छोटी कुछ दुकानें। कुछ साधारण–कुछ ठीक–ठाक दिखते होटल। मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि किधर जाऊॅं। मुझे छोड़कर बस जिधर निकली थी उधर ही दस कदम आगे बढ़ा। इतनी ही दूरी में एक–दो स्थानीय से लगते लोगों ने टोक दिया– 'सर,कमरा चाहिए तो मैं पन्द्रह सौ में दिलवा दूॅंगा।'
मैंने गुस्से और आश्चर्यमिश्रित निगाहों से उसे देखा तो उसने नया शिगूफा छोड़ा– 'आप चाहें तो मैं सौ–दो सौ कम करा दूँगा। वैसे आजकल यहाँ बड़ी भीड़ है और कमरे बड़ी मुश्किल से मिल रहे हैं।'
मैं बड़ी हैरत में था। अभी अल्मोड़ा में तो होटल बन्द पड़े थे। कोई पूछने वाला नहीं था। बागेश्वर में भी कोई समस्या नहीं थी। यहाँ कौन सा पहाड़ टूट पड़ा। आगे बढ़ा तो बायीं तरफ एक चाय–नाश्ते की दुकान थी। सोचा पहले यहाँ से निपट लें। कमरे की कोई बहुत आवश्यकता नहीं है। बैग वगैरह किसी दुकान पर रखकर दिन भर घूमा जा सकता है। शाम को कहीं और निकल चलेंगे। चाऊमीन बन रही थी। 25 रूपये की प्लेट का आर्डर दे दिया। इसके बाद वहीं कमरे के बारे में पूछताछ करने लगा।
'कितने का कमरा चाहिए आपको?'
'अरे कोई सस्ता वाला बताओ।'
'तो वो ऊपर आश्रम है ना। आप वहाँ चले जाइए। वहाँ आपको चार–पाँच सौ में रूम मिल जायेगा। यहाँ नीचे तो 1500 से कम में नहीं मिलेगा।'
'वहाँ ऊपर कुछ देखने लायक है?'
'कौसानी में जो कुछ है वहाँ ऊपर ही तो है। नीचे तो कुछ भी नहीं है।'
मैंने सोचा होगा कोई आश्रम– 'लेकिन मैं वहाँ कभी गया नहीं। जाऊँगा कैसेǃ'
'ये लड़का है न। ये वहीं रहता है। आपको वहाँ पहुँचा देगा।'
मन थोड़ा निश्चिन्त हुआ। तो चाऊमीन के बाद 10 रूपये की चाय भी पी ली। एक चौदह–पन्द्रह साल का लड़का था। नीचे बाजार से कुछ सामान खरीदने आया था। अब ऊपर जा रहा था। मैंने उसी की पूँछ पकड़ ली। ऊपर उस तथाकथित आश्रम तक एक पक्की सड़क गयी है। लगभग एक किमी की दूरी है। लेकिन लड़का था पहाड़ी। रोज ही तीन–चार बार ऊपर–नीचे आना जाना था। सो उसे पक्की सड़क से क्या मतलब। शार्टकट पकड़ लिया। झाड़ियों के बीच से होते हुए आगे–आगे भागने लगा। मेरे हाथ में और पीठ पर एक–एक बैग था। साँसें फूल गयीं। हाथ से उसे रूकने का इशारा किया। पास खड़े होकर बातें करने लगा। मसलन कहाँ रहते होǃ क्या करते होǃ पता चला कि आश्रम के पास ही उसकी घरेलू दुकान है। उसी में वह भी हाथ बँटाता है। उसने मुझे फिर से विश्वास दिलाया कि आश्रम में कमरा पक्का दिलवा देगा। मैं मन ही मन उसके भोलेपन पर खुश हो रहा था। कमरा मुझे चाहिए था और चिन्ता उसे हो रही थी।
आखिर लड़के के पीछे चलता हुआ ऊपर पहुँचा। एक छोटे से गेट से अन्दर दाखिल हुआ और सामने लगे बोर्ड पर जब नजर पड़ी तो बांछें खिल उठीं। यह तो अनासक्ति आश्रम है। क्या इसमें भी कमरे किराये पर मिलते हैंǃ मुझे ये बात मालूम न थी। अगर इसमें एक दिन रहने का मौका मिला तो मुझे बड़ी खुशी होगी। लड़के ने पता करके बताया कि मैनेजर अभी नीचे गया हुआ है। थोड़ी देर में आयेगा तो कमरा मिलेगा। इतना बताकर वह अपने रास्ते चला गया।
अब मैंने अपना बैग नीचे रखकर आश्रम का मुआयना शुरू किया। पहाड़ी अंदाज में बना आश्रम। लकड़ियों से बनी हुई छत। चारों तरफ हरा–भरा पार्क। पार्क में रंग–बिरंगे फूल। आश्रम परिसर में पिकनिक मनाने बस से पहुँचे हुए किसी स्कूल के छात्रों का समूह। एक झटके में तो लगता ही नहीं कि यहाँ रहकर मनुष्य के मन में अनासक्ति पैदा हो सकती है। लेकिन तभी दूसरी तरफ नजर जाती है तो हरियाली के ऊपर हिमावरण में लिपटा नगाधिराज हिमालय मुझे स्तम्भित कर देता है। अचानक लगता है कि हरी–भरी घास पर श्वेतवस्त्रधारी बापू खड़े हैं। मैं एकाग्रचित्त हो जाता हूँ। लेकिन केवल कुछ पल के लिए। क्योंकि कानों में तेज आवाज आती है–
'ओ साबǃ मैनेजर आ गया है। कमरा ले लो।'
11 बज रहे हैं। मैं हड़बड़ी में अपने दोनों बैग सँभालता हूँ। कहीं कमरे बुक न हों जायें। पर ऐसी बात है नहीं। अभी कमरे खाली हैं।
मैं जल्दी से 'कार्यालय' की तख्ती लगे कमरे के अन्दर प्रवेश करता हूँ। दो लड़के बैठे हैं। लड़कों जैसे ही लगते हैं। कर्मचारी भी हो सकते हैं यहाँ के। सामने मेज पर मोटा सा रजिस्टर रखा हुआ है। आँखें टी.वी. पर।
मैंने पूछा– 'कमरा मिल जायेगा यहाँ?'
उत्तर मिला– 'आदमी कितने हैं?'
मैं– 'यार मैं आदमी ही तो हूँ।'
लड़का– 'नहीं मेरा मतलब था कि कुल कितने लोगों के लायक कमरा चाहिए।'
मैं– 'अकेला हूँ।'
सामने वाले लड़के ने बताया कि सिंगल रूम नहीं है। डबल रूम है जिसका रेट 551 रूपये है। लगा जैसे किसी शादी–विवाह के निमंत्रण में दिये जाने वाले रूपये हों। खाना खाने के लिए पहले से बताना पड़ेगा। थाली का रेट 70 रूपये। मैंने मोल–भाव करने की कोशिश की लेकिन साफ इन्कार हो गया। निमंत्रण में भी कहीं मोलभाव किया जाता है। 551 कोई ज्यादा नहीं हैं। अनासक्ति आश्रम में एक दिन बिताने का मेरे लिए कोई मोल नहीं है। हर जगह तो मोल करता ही हूँ। एक लड़का कमरे की चाबी लिए आगे–आगे चला। पीछे से मैं रोमांचित होता हुआ। अन्दर पहुँचा तो लगा कि मैं भी दुनिया से अनासक्त हो रहा हूँ। अनासक्ति आश्रम का एक कमरा– आधुनिक सुख–सुविधाओं को एक दायरे में रखते हुए प्रकृति के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश की गयी है। मैंने अपना माल–असबाब नीचे रखा और दरवाजे पर आकर उस भावना को अन्दर ही अन्दर महसूस करने की कोशिश की जिसे काफी देर से मैं अपने अन्दर समेटने की कोशिश कर रहा था। लोग–बाग कौसानी और उसके अनासक्ति आश्रम को देखने आते हैं। अभी भी इसके चारों ओर टहल रहे हैं। आज मैं कौसानी के उसी अनासक्ति आश्रम का,एक दिन के लिए ही सही,हिस्सा बन गया था। बापू की कर्मभूमि का। मैंने अपना पिट्ठू बैग पीठ पर लादा और निकल पड़ा कौसानी की हरी–भरी वादियों में।
अनासक्ति आश्रम परिसर में ही एक पोडियम जैसी पक्की संरचना बनायी गयी है जहाँ से हिमालय की बर्फीली चाेटियों का नयनाभिराम दृश्य दिखायी देता है। मैं भी उस पोडियम पर चढ़ गया। उसके शीर्ष पर वहाँ से दिखती सभी चोटियों के नाम,ऊँचाई तथा उनकी दूरी क्रमवार अंकित की गयी है। यहाँ से वह सब कुछ दिखता है जिसकी वजह से हम कौसानी को जानते हैं। यहाँ से दिखता दृश्य एक ऐसा दृश्य है जिसे घण्टों,दिनों,महीनों या सालों तक नहीं,पूरी उम्र भी देखा जा सकता है। मेरे पास सीमित समय था इसलिए मैंने उस पोडियम को दूसरे लोगों के लिए खाली कर दिया और परिसर से बाहर निकल गया।
अनासक्ति आश्रम में प्रवेश मैंने पीछे के गेट से किया था मेन गेट से नहीं। वैसे यह पीछे का गेट भी नीचे से ऊपर आने वाली मुख्य सड़क पर ही है। इस बार मैं बाहर निकला मुख्य गेट से। मेन गेट से बाहर निकलने पर बायीं तरफ सड़क नीचे चली जाती है जबकि दायीं तरफ और ऊपर की ओर। नीचे से तो मैं आया ही था अब ऊपर की ओर चल पड़ा। आगे बढ़ने पर सड़क के बायीं तरफ पहाड़ियां और जंगल दिखते हैं तो दायीं तरफ होटलों के जंगल हैं जिनमें पिकनिक मनाने के लिए आये हुए लोग भरे पड़े थे। ये बात सड़क के किनारे खड़ी गाड़ियाँ बता रही थींं। ये जरूर था कि होटलों की संख्या के हिसाब से टूरिस्ट नहीं थे। तो जो भी आये थे उन्हीं से अपना सारा खर्च वसूलना होटल वालों की मजबूरी थी।
मैं आगे बढ़ा तो बायीं तरफ एक ऊँची जगह पर एक पक्की मचान जैसी संरचना बनी हुई थी। यह व्यू प्वाइंट था। इसकी लकड़ी की सीढ़ियां अपनी वृद्धावस्था में हैं लेकिन मैं इनसे होते हुए व्यू प्वाइंट के ऊपर चढ़ गया। श्वेतवस्त्रधारी महात्मा गाँधी रूपी हिमालय यहाँ से भी अपनी मनोरम छटा बिखेरता दिख रहा था। मुझे ऊपर चढ़ा देख कई तरफ से मनुष्य रूपधारी जीव उस व्यू प्वाइंट की ओर दौड़े। मैं धीरे से नीचे उतर गया और पुनः अपने रास्ते ऊपर की तरफ बढ़ने लगा। व्यू प्वाइंट पर भीड़ लग गयी। थोड़ा सा ही आगे एक इको पार्क का गेट है। मैं उसमें प्रवेश कर गया। बायें हाथ एक पेण्टर वन विभाग के बोर्ड पर जंगली वनस्पतियों के हिन्दी–अंग्रेजी नाम तथा नक्षत्रों से उनके सम्बन्ध को अंकित कर रहा था। मैं पूरे बोर्ड का फोटो लेना चाहता था लेकिन बोर्ड अभी पूरा लिखा नहीं जा सका था और मेरे पास इन्तजार करने का समय नहीं था। आगे अब मनुष्य रहित वास्तविक जंगल ही दिख रहे थे। सड़क चिकनी से खुरदरी हो रही थी। जंगली रास्ते पर देवदार के वृक्षों के बीच चलने का वास्तविक आनन्द आ रहा था। शायद इसे ही नेचर वाक कहते हैं। एक–डेढ़ किमी ऊपर या फिर अन्दर जाने पर एक मन्दिर बना हुआ है। रास्ते पर मन्दिर का गेट है जबकि सीढ़ियां चढ़कर मन्दिर तक पहुँचा जा सकता है। मैं जब वहाँ पहुँचा तो मन्दिर में एक युगल पहले से ही वहाँ बैठा एकान्त प्राकृतिक माहौल का लाभ उठा रहा था। मैंने बाधा न बनते हुए धीरे से मन्दिर के दरवाजे पर मत्था टेका और वापस चलता बना।
वापस आश्रम पहुँचा तो एक बज रहे थे। सुबह के चाऊमीन का असर समाप्त हो रहा था। तो आश्रम के पास ही दिखायी पड़ रही एक छोटी सी दुकान की ओर बढ़ा। यह उसी लड़के की दुकान थी जो सुबह मुझे अनासक्ति आश्रम तक लाया था। परांठों की सोंधी सुगन्ध आ रही थी तो लगे हाथ 30 रूपये वाले परांठे और 10 रूपये वाली चाय का आर्डर दे दिया। भाैतिक शरीर में ऊर्जा आयी तो आत्मिक ऊर्जा प्राप्त करने के लिए फिर से अनासक्ति आश्रम में बने पोडियम पर चढ़कर हिमालय की हिममण्डित चोटियों का अवलोकन करने लगा। आश्रम की रेलिंग पर बैठकर कुछ बन्दर भी इस आत्मिक ऊर्जा को प्राप्त करने की कोशिश कर रहे थे। थोड़ी देर बाद मैं नीचे की ओर चल पड़ा। क्योंकि मैं यहाँ अनासक्ति के फेर में पड़ा था और उधर नीचे प्रकृति में आसक्ति की चाह रखने वाले एक महान कवि की आत्मा मेरा इन्तजार कर रही थी। यानी मैं चल पड़ा सुमित्रानन्दन पंत के जन्म स्थान की ओर। गलियों से होता हुआ साफ–सुथरा रास्ता मुझे भटकते–भटकाते प्रकृति के सुकुमार कवि की जन्मस्थली की ओर ले गया। यहाँ पंत जी के घर को एक छोटे से संग्रहालय में बदल दिया गया है। पहचान के लिए एक बोर्ड भी लगा है। अन्दर प्रवेश करते ही पंत जी की काले रंग की एक प्रतिमा दिखायी पड़ती है जिसके नीचे पंत जी के जन्म,मृत्यु और इस प्रतिमा के अनावरण के बारे में सूचना अंकित की गयी है। साथ ही कुछ पंक्तियां भी उद्धृत की गयीं हैं–
उत्तराखण्ड का सौन्दर्य अगर देखना है तो तीव्र पहाड़ी मोडों से होकर धीमी गति से गुजरती गाड़ी में बैठकर ही देखा जा सकता है। तो मैं देखता रहा।
बस में चढ़ते–उतरते स्कूली बच्चे,सड़क के किनारे अपने रोज के कामों में लगे भागदौड़ करते लोग,पहाड़ी ढलानों पर फैली हरियाली,देवदार के पेड़ों से टकराकर आती हवा में ठण्ड के आगमन की आहट,कहीं दूर किसी पहाड़ी रास्ते पर सिर पर घास का गट्ठर लिये जाती कोई पहाड़ी महिला,बिखरे जंगलों के बीच चरते जानवर और इन सबसे ध्यान हटाता किसी तीव्र पहाड़ी मोड़ पर ड्राइवर का झटके देकर बस को मोड़ना। इन सब दृश्यों में कहीं न कहीं एक रोमांच छ्पिा हुआ है जिसे चुपचाप अपनी सीट पर बैठा हुआ मैं अपने मन के किसी कोने में महसूस रहा कर रहा था।
कौसानीǃ
समुद्रतल से 1890 मीटर या 6200 फुट की ऊँचाई पर बसा एक छोटा सा गाँव। एक चौराहे पर बस रूकी तो लोग उतरने लगे। मैंने पूछा– 'कौसानी आ गया क्याǃ'
किसी ने कहा– 'हाँ,आपको कहाँ उतरना हैǃ'
मैंने उसके सवाल की परवाह किये बिना अपना बैग उठाया और बस से नीचे उतर गया। छोटा सा बाजार। छोटी–छोटी कुछ दुकानें। कुछ साधारण–कुछ ठीक–ठाक दिखते होटल। मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि किधर जाऊॅं। मुझे छोड़कर बस जिधर निकली थी उधर ही दस कदम आगे बढ़ा। इतनी ही दूरी में एक–दो स्थानीय से लगते लोगों ने टोक दिया– 'सर,कमरा चाहिए तो मैं पन्द्रह सौ में दिलवा दूॅंगा।'
मैंने गुस्से और आश्चर्यमिश्रित निगाहों से उसे देखा तो उसने नया शिगूफा छोड़ा– 'आप चाहें तो मैं सौ–दो सौ कम करा दूँगा। वैसे आजकल यहाँ बड़ी भीड़ है और कमरे बड़ी मुश्किल से मिल रहे हैं।'
मैं बड़ी हैरत में था। अभी अल्मोड़ा में तो होटल बन्द पड़े थे। कोई पूछने वाला नहीं था। बागेश्वर में भी कोई समस्या नहीं थी। यहाँ कौन सा पहाड़ टूट पड़ा। आगे बढ़ा तो बायीं तरफ एक चाय–नाश्ते की दुकान थी। सोचा पहले यहाँ से निपट लें। कमरे की कोई बहुत आवश्यकता नहीं है। बैग वगैरह किसी दुकान पर रखकर दिन भर घूमा जा सकता है। शाम को कहीं और निकल चलेंगे। चाऊमीन बन रही थी। 25 रूपये की प्लेट का आर्डर दे दिया। इसके बाद वहीं कमरे के बारे में पूछताछ करने लगा।
'कितने का कमरा चाहिए आपको?'
'अरे कोई सस्ता वाला बताओ।'
'तो वो ऊपर आश्रम है ना। आप वहाँ चले जाइए। वहाँ आपको चार–पाँच सौ में रूम मिल जायेगा। यहाँ नीचे तो 1500 से कम में नहीं मिलेगा।'
'वहाँ ऊपर कुछ देखने लायक है?'
'कौसानी में जो कुछ है वहाँ ऊपर ही तो है। नीचे तो कुछ भी नहीं है।'
मैंने सोचा होगा कोई आश्रम– 'लेकिन मैं वहाँ कभी गया नहीं। जाऊँगा कैसेǃ'
'ये लड़का है न। ये वहीं रहता है। आपको वहाँ पहुँचा देगा।'
मन थोड़ा निश्चिन्त हुआ। तो चाऊमीन के बाद 10 रूपये की चाय भी पी ली। एक चौदह–पन्द्रह साल का लड़का था। नीचे बाजार से कुछ सामान खरीदने आया था। अब ऊपर जा रहा था। मैंने उसी की पूँछ पकड़ ली। ऊपर उस तथाकथित आश्रम तक एक पक्की सड़क गयी है। लगभग एक किमी की दूरी है। लेकिन लड़का था पहाड़ी। रोज ही तीन–चार बार ऊपर–नीचे आना जाना था। सो उसे पक्की सड़क से क्या मतलब। शार्टकट पकड़ लिया। झाड़ियों के बीच से होते हुए आगे–आगे भागने लगा। मेरे हाथ में और पीठ पर एक–एक बैग था। साँसें फूल गयीं। हाथ से उसे रूकने का इशारा किया। पास खड़े होकर बातें करने लगा। मसलन कहाँ रहते होǃ क्या करते होǃ पता चला कि आश्रम के पास ही उसकी घरेलू दुकान है। उसी में वह भी हाथ बँटाता है। उसने मुझे फिर से विश्वास दिलाया कि आश्रम में कमरा पक्का दिलवा देगा। मैं मन ही मन उसके भोलेपन पर खुश हो रहा था। कमरा मुझे चाहिए था और चिन्ता उसे हो रही थी।
आखिर लड़के के पीछे चलता हुआ ऊपर पहुँचा। एक छोटे से गेट से अन्दर दाखिल हुआ और सामने लगे बोर्ड पर जब नजर पड़ी तो बांछें खिल उठीं। यह तो अनासक्ति आश्रम है। क्या इसमें भी कमरे किराये पर मिलते हैंǃ मुझे ये बात मालूम न थी। अगर इसमें एक दिन रहने का मौका मिला तो मुझे बड़ी खुशी होगी। लड़के ने पता करके बताया कि मैनेजर अभी नीचे गया हुआ है। थोड़ी देर में आयेगा तो कमरा मिलेगा। इतना बताकर वह अपने रास्ते चला गया।
अब मैंने अपना बैग नीचे रखकर आश्रम का मुआयना शुरू किया। पहाड़ी अंदाज में बना आश्रम। लकड़ियों से बनी हुई छत। चारों तरफ हरा–भरा पार्क। पार्क में रंग–बिरंगे फूल। आश्रम परिसर में पिकनिक मनाने बस से पहुँचे हुए किसी स्कूल के छात्रों का समूह। एक झटके में तो लगता ही नहीं कि यहाँ रहकर मनुष्य के मन में अनासक्ति पैदा हो सकती है। लेकिन तभी दूसरी तरफ नजर जाती है तो हरियाली के ऊपर हिमावरण में लिपटा नगाधिराज हिमालय मुझे स्तम्भित कर देता है। अचानक लगता है कि हरी–भरी घास पर श्वेतवस्त्रधारी बापू खड़े हैं। मैं एकाग्रचित्त हो जाता हूँ। लेकिन केवल कुछ पल के लिए। क्योंकि कानों में तेज आवाज आती है–
'ओ साबǃ मैनेजर आ गया है। कमरा ले लो।'
11 बज रहे हैं। मैं हड़बड़ी में अपने दोनों बैग सँभालता हूँ। कहीं कमरे बुक न हों जायें। पर ऐसी बात है नहीं। अभी कमरे खाली हैं।
मैं जल्दी से 'कार्यालय' की तख्ती लगे कमरे के अन्दर प्रवेश करता हूँ। दो लड़के बैठे हैं। लड़कों जैसे ही लगते हैं। कर्मचारी भी हो सकते हैं यहाँ के। सामने मेज पर मोटा सा रजिस्टर रखा हुआ है। आँखें टी.वी. पर।
मैंने पूछा– 'कमरा मिल जायेगा यहाँ?'
उत्तर मिला– 'आदमी कितने हैं?'
मैं– 'यार मैं आदमी ही तो हूँ।'
लड़का– 'नहीं मेरा मतलब था कि कुल कितने लोगों के लायक कमरा चाहिए।'
मैं– 'अकेला हूँ।'
सामने वाले लड़के ने बताया कि सिंगल रूम नहीं है। डबल रूम है जिसका रेट 551 रूपये है। लगा जैसे किसी शादी–विवाह के निमंत्रण में दिये जाने वाले रूपये हों। खाना खाने के लिए पहले से बताना पड़ेगा। थाली का रेट 70 रूपये। मैंने मोल–भाव करने की कोशिश की लेकिन साफ इन्कार हो गया। निमंत्रण में भी कहीं मोलभाव किया जाता है। 551 कोई ज्यादा नहीं हैं। अनासक्ति आश्रम में एक दिन बिताने का मेरे लिए कोई मोल नहीं है। हर जगह तो मोल करता ही हूँ। एक लड़का कमरे की चाबी लिए आगे–आगे चला। पीछे से मैं रोमांचित होता हुआ। अन्दर पहुँचा तो लगा कि मैं भी दुनिया से अनासक्त हो रहा हूँ। अनासक्ति आश्रम का एक कमरा– आधुनिक सुख–सुविधाओं को एक दायरे में रखते हुए प्रकृति के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश की गयी है। मैंने अपना माल–असबाब नीचे रखा और दरवाजे पर आकर उस भावना को अन्दर ही अन्दर महसूस करने की कोशिश की जिसे काफी देर से मैं अपने अन्दर समेटने की कोशिश कर रहा था। लोग–बाग कौसानी और उसके अनासक्ति आश्रम को देखने आते हैं। अभी भी इसके चारों ओर टहल रहे हैं। आज मैं कौसानी के उसी अनासक्ति आश्रम का,एक दिन के लिए ही सही,हिस्सा बन गया था। बापू की कर्मभूमि का। मैंने अपना पिट्ठू बैग पीठ पर लादा और निकल पड़ा कौसानी की हरी–भरी वादियों में।
अनासक्ति आश्रम परिसर में ही एक पोडियम जैसी पक्की संरचना बनायी गयी है जहाँ से हिमालय की बर्फीली चाेटियों का नयनाभिराम दृश्य दिखायी देता है। मैं भी उस पोडियम पर चढ़ गया। उसके शीर्ष पर वहाँ से दिखती सभी चोटियों के नाम,ऊँचाई तथा उनकी दूरी क्रमवार अंकित की गयी है। यहाँ से वह सब कुछ दिखता है जिसकी वजह से हम कौसानी को जानते हैं। यहाँ से दिखता दृश्य एक ऐसा दृश्य है जिसे घण्टों,दिनों,महीनों या सालों तक नहीं,पूरी उम्र भी देखा जा सकता है। मेरे पास सीमित समय था इसलिए मैंने उस पोडियम को दूसरे लोगों के लिए खाली कर दिया और परिसर से बाहर निकल गया।
अनासक्ति आश्रम में प्रवेश मैंने पीछे के गेट से किया था मेन गेट से नहीं। वैसे यह पीछे का गेट भी नीचे से ऊपर आने वाली मुख्य सड़क पर ही है। इस बार मैं बाहर निकला मुख्य गेट से। मेन गेट से बाहर निकलने पर बायीं तरफ सड़क नीचे चली जाती है जबकि दायीं तरफ और ऊपर की ओर। नीचे से तो मैं आया ही था अब ऊपर की ओर चल पड़ा। आगे बढ़ने पर सड़क के बायीं तरफ पहाड़ियां और जंगल दिखते हैं तो दायीं तरफ होटलों के जंगल हैं जिनमें पिकनिक मनाने के लिए आये हुए लोग भरे पड़े थे। ये बात सड़क के किनारे खड़ी गाड़ियाँ बता रही थींं। ये जरूर था कि होटलों की संख्या के हिसाब से टूरिस्ट नहीं थे। तो जो भी आये थे उन्हीं से अपना सारा खर्च वसूलना होटल वालों की मजबूरी थी।
मैं आगे बढ़ा तो बायीं तरफ एक ऊँची जगह पर एक पक्की मचान जैसी संरचना बनी हुई थी। यह व्यू प्वाइंट था। इसकी लकड़ी की सीढ़ियां अपनी वृद्धावस्था में हैं लेकिन मैं इनसे होते हुए व्यू प्वाइंट के ऊपर चढ़ गया। श्वेतवस्त्रधारी महात्मा गाँधी रूपी हिमालय यहाँ से भी अपनी मनोरम छटा बिखेरता दिख रहा था। मुझे ऊपर चढ़ा देख कई तरफ से मनुष्य रूपधारी जीव उस व्यू प्वाइंट की ओर दौड़े। मैं धीरे से नीचे उतर गया और पुनः अपने रास्ते ऊपर की तरफ बढ़ने लगा। व्यू प्वाइंट पर भीड़ लग गयी। थोड़ा सा ही आगे एक इको पार्क का गेट है। मैं उसमें प्रवेश कर गया। बायें हाथ एक पेण्टर वन विभाग के बोर्ड पर जंगली वनस्पतियों के हिन्दी–अंग्रेजी नाम तथा नक्षत्रों से उनके सम्बन्ध को अंकित कर रहा था। मैं पूरे बोर्ड का फोटो लेना चाहता था लेकिन बोर्ड अभी पूरा लिखा नहीं जा सका था और मेरे पास इन्तजार करने का समय नहीं था। आगे अब मनुष्य रहित वास्तविक जंगल ही दिख रहे थे। सड़क चिकनी से खुरदरी हो रही थी। जंगली रास्ते पर देवदार के वृक्षों के बीच चलने का वास्तविक आनन्द आ रहा था। शायद इसे ही नेचर वाक कहते हैं। एक–डेढ़ किमी ऊपर या फिर अन्दर जाने पर एक मन्दिर बना हुआ है। रास्ते पर मन्दिर का गेट है जबकि सीढ़ियां चढ़कर मन्दिर तक पहुँचा जा सकता है। मैं जब वहाँ पहुँचा तो मन्दिर में एक युगल पहले से ही वहाँ बैठा एकान्त प्राकृतिक माहौल का लाभ उठा रहा था। मैंने बाधा न बनते हुए धीरे से मन्दिर के दरवाजे पर मत्था टेका और वापस चलता बना।
वापस आश्रम पहुँचा तो एक बज रहे थे। सुबह के चाऊमीन का असर समाप्त हो रहा था। तो आश्रम के पास ही दिखायी पड़ रही एक छोटी सी दुकान की ओर बढ़ा। यह उसी लड़के की दुकान थी जो सुबह मुझे अनासक्ति आश्रम तक लाया था। परांठों की सोंधी सुगन्ध आ रही थी तो लगे हाथ 30 रूपये वाले परांठे और 10 रूपये वाली चाय का आर्डर दे दिया। भाैतिक शरीर में ऊर्जा आयी तो आत्मिक ऊर्जा प्राप्त करने के लिए फिर से अनासक्ति आश्रम में बने पोडियम पर चढ़कर हिमालय की हिममण्डित चोटियों का अवलोकन करने लगा। आश्रम की रेलिंग पर बैठकर कुछ बन्दर भी इस आत्मिक ऊर्जा को प्राप्त करने की कोशिश कर रहे थे। थोड़ी देर बाद मैं नीचे की ओर चल पड़ा। क्योंकि मैं यहाँ अनासक्ति के फेर में पड़ा था और उधर नीचे प्रकृति में आसक्ति की चाह रखने वाले एक महान कवि की आत्मा मेरा इन्तजार कर रही थी। यानी मैं चल पड़ा सुमित्रानन्दन पंत के जन्म स्थान की ओर। गलियों से होता हुआ साफ–सुथरा रास्ता मुझे भटकते–भटकाते प्रकृति के सुकुमार कवि की जन्मस्थली की ओर ले गया। यहाँ पंत जी के घर को एक छोटे से संग्रहालय में बदल दिया गया है। पहचान के लिए एक बोर्ड भी लगा है। अन्दर प्रवेश करते ही पंत जी की काले रंग की एक प्रतिमा दिखायी पड़ती है जिसके नीचे पंत जी के जन्म,मृत्यु और इस प्रतिमा के अनावरण के बारे में सूचना अंकित की गयी है। साथ ही कुछ पंक्तियां भी उद्धृत की गयीं हैं–
मानदण्ड भू के अखण्ड हे,
पुण्य धरा के स्वर्गारोहण।
प्रिय हिमाद्रि तुमकाे हिमकण से,
घेरे मेरे जीवन के क्षण।
लगा कि हिमालय के बारे में ऐसी अभिव्यक्ति कोई उसका कोई अनन्य प्रेमी ही कर सकता है।
संग्रहालय के पास एक व्यक्ति आँखें बन्द कर फर्श पर लेटे हुए धूप सेंक रहे थे। मैंने सोचा कि होगा कोर्इ। मैं अन्दर प्रवेश करने को बढ़ा कि वे बिचारे मेरे कदमों की आहट सुनकर हड़बड़ी में उठ बैठे। उनकी निद्रा भंग हो गयी। मेरा परिचय लेने लगे और जब उन्हें पता चला कि मैं बहुत दूर से आया हूँ तो खुले दिल से मेरा स्वागत किया। मुझे अन्दर ले गये और साथ साथ घूमकर सभी कमरों में लगी कलाकृतियों के बारे में मुझे जानकारी दी। मैंने तब जाना कि वे यहाँ के कर्मचारी हैं। अन्त में बाहर निकलते समय आगन्तुक पंजिका में मुझसे कुछ लिखने को कहा। मैं बड़े पशोपेश में पड़ा कि इतने बड़े कवि के बारे में क्या लिखूँǃ सामने दिख रहे पन्ने पर अभी केवल एक कमेन्ट दिख रहा था जो रोमन लिपि और हिन्दी भाषा में था और वह भी ऐसा न था कि उसमें से कुछ नकल की जा सके–
"bahut khub, masala maja aa gaya."
मैंने भी हिम्मत की और लिख दिया–
"बहुत अच्छा लगा। प्रकृति पर आसक्त कवि की जन्मस्थली के पास दुनिया से अनासक्ति की तलाश में भटकते संत का आश्रम। पंत और गाँधी एक साथ। वाह।"
बाहर निकला तो 3 बज रहे थे। अब मेरी मंजिल फिर से अनासक्ति आश्रम ही था। उसके पहले एक चक्कर नीचे के चौराहे का भी लगा आया। एक नयी बात की जानकारी हुई और वो ये कि शाम के 6 बजे कुछ निजी आॅपरेटरों द्वारा ग्रहों और तारों को दिखाने वाले टेलिस्कोपिक शो भी चलाये जाते हैं। शो के बारे में सारी जानकारी इकट्ठा करने के बाद टहलते हुए ऊपर पहुँचा तो इक्का–दुक्का लोग ही दिखायी पड़ रहे थे। आधे घण्टे में वो भी निकल गये। अब आश्रम में एकान्त साधना के लिए मैं ही अवशेष बचा था। आश्रम के कर्मचारी अपने काम में लगे थे या फिर कमरों के अन्दर थे। मेरे अन्दर वैराग्य भाव की उत्पत्ति हो रही थी। मुझे वह रहस्य अब समझ में आ रहा था कि क्यों योग साधना करने वाले तपस्वी हिमालय की कन्दराओं में अपना आसन जमा लेते हैं।
कहते हैं कि गाँधीजी श्रीमद्भगवदगीता का जब अनुवाद कर रहे थे तो व्यस्त दिनचर्या में बहुत कठिनाई से समय निकाल पाते थे। आरम्भ में वे अपनी यात्रा में नियमित रूप से प्रतिदिन एक श्लोक का अनुवाद करते थे। बाद में प्रतिदिन दो–दो,तीन–तीन श्लोकों का अनुवाद भी कर लेते थे। 1929 में अपनी यात्राओं के दौरान थकान दूर करने की इच्छा से वे दो दिन के लिए कौसानी आये। यहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य ने उनका मन मोह लिया और वे यहाँ 14 दिन तक रूके रहे। इसी दौरान उन्होंने गीता पर आधारित प्रसिद्ध पुस्तक "अनासक्ति योग" की प्रस्तावना की रचना की। उस समय 14 दिन के लिए गाँधीजी का यह निवास एक चाय बागान के मालिक का अतिथि गृह था। कालान्तर में यह जिला पंचायत का डाक बंगला बना। बाद में गाँधीजी की स्मृति को जीवन्त रखने के लिए उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी द्वारा इसे "उत्तर प्रदेश गाँधी स्मारक निधि" को प्रदान कर दिया गया। गाँधीजी की अमर कृति "अनासक्ति योग" के नाम पर यहाँ अनासक्ति आश्रम की स्थापना कर दी गयी। वर्तमान में इस आश्रम में आवासीय सुविधाओं के अतिरिक्त एक पुस्तकालय,वाचनालय तथा गाँधी दर्शन साहित्य पटल उपलब्ध है। यहाँ गाँधी दर्शन पर शोधकर्ताओं,दार्शनिकों एवं आध्यात्मिक अभिरूचि के लोगों के लिए ग्रन्थ उपलब्ध हैं। आश्रम में सुबह–शाम नियमित रूप से प्रार्थना सभा भी आयोजित की जाती है।
आश्रम का निरीक्षण करते–करते 5.30 बजने लगे। अब मैं टेलिस्कोपिक शो देखने के लिए पुनः नीचे की ओर भागा। वैसे तो पहले मैंने एक "शो" वाले के यहाँ बात की थी लेकिन सड़क पर मुझे टहलते देख किसी दूसरे ने मौका लपक लिया। इसके यहाँ रेट भी कम यानी 50 रूपये था जबकि पहले वाले के यहाँ 100 रूपये था। अन्दर सारी व्यवस्था थी। चाय–काफी,चाऊमीन–समोसे वगैरह। अर्थात पर्यटकों को लुभाने का पूरा इन्तजाम। ठण्ड बढ़ रही थी। मैं चाह रहा था कि शो जल्दी शुरू हो लेकिन खगोलशास्त्री महोदय का कहना था कि कुछ अँधेरा होने के बाद ही दूरबीन से आसमान में स्पष्ट नजर आता है। मैं खुश हो रहा था कि मैं अकेला ग्राहक हूँ लेकिन पाँच मिनट बाद ही बीवी–बच्चे लिए एक बड़ा समूह हाजिर हो गया और भीड़ हो गयी। खैर 6.30 के आस–पास शो शुरू हुआ। चन्द्रमा,मंगल और शनि का दर्शन हुआ। दर्शन तो थोड़े ही थे लेकिन खगोलशास्त्री महोदय का भाषण बहुत लम्बा–चौड़ा था। मुझे इसमें कोई रूचि नहीं थी क्यों पहले ही काफी भूगोल–खगोल पढ़ चुका हूँ। 7.15 बज गये। ठण्ड काफी लग रही थी क्योंकि स्वेटर मैं कमरे पर छोड़ आया था। जल्दी से ऊपर भागा। भूख लग रही थी। आश्रम में सन्नाटा पसरा हुआ था। आश्रम के कार्यालय में पहुँचकर खाने के बारे में पूछा तो पता लगा कि आठ बजे के आस–पास आपको कमरे में ही सूचना दी जायेगी। आठ बजाना मेरे लिए अब काफी भारी लग रहा था। आठ के चक्कर में सवा आठ बज गये। मैं सोच रहा था कि कहीं आश्रम के लड़के मुझे बुलाना ही न भूल जाएं। अगल–बगल कहीं कोई दुकान भी नहीं है जहाँ कुछ मिले। अगर ऐसा हो गया तो रात भर गाँधीजी का नाम जपते ही बीत जायेगा। मैं धीरे से निकला और आश्रम के किचेन मैं पहुँच गया। वहाँ आश्रम के अधिकांश कर्मचारी दिख रहे थे जो खाना बनाने में लगे थे। किचेन में प्रवेश करने से पूर्व चप्पल–जूते निकालना अनिवार्य था। लेकिन चप्पल निकाल देने पर पैर में ठण्ड लग रही थी। एक लड़के से अनुमति लेकर मैं चप्पल सहित प्रवेश कर गया तथा एक लाइन में लगी बेंच पर आसन जमा लिया। खाने में अभी भी कुछ देर थी पर करता क्या। दस मिनट बाद आश्रम में ठहरे अन्य लोग भी किचेन में प्रवेश करने लगे जो लगभग दस की संख्या में थे। मुझे आश्रम में रूके इतने लोगों के बारे में कोई अनुमान नहीं था। अचानक एक कर्मचारी की नजर लोगों के चप्पल–जूते पर पड़ी और फिर सबके चप्पल–जूते दरवाजे के बाहर नजर आने लगे।
जल्द ही थालियां सामने आयीं और साथ ही भोजन भी। भोजन सादा ही था– चावल,दाल,रोटी और दो सब्जियां व मूली लेकिन बहुत ही साफ–सुथरा और स्वादिष्ट। अपनी जरूरत भर भोजन लेने पर कोई रोक नहीं थी। हाँ,खाना खाने के बाद थालियां उठाकर सिंक पर रखने का जिम्मा खाना खाने वाले का ही था। खाना खिलाने का तरीका वही था जैसे आज भी हमारे गाँवों में शादी विवाह में पंक्तियों में बैठाकर खिलाया जाता है। मुझे तो भोजन के स्वाद के साथ साथ घर से दूर किसी अंजाने स्थान पर इस तरह खाना खाने में बहुत ही आनन्द आया। लगा कि मैं इतिहास में गाँधीजी के साथ एक दिन बिता रहा हूँ।
9 बज रहे थे। अब सोने का समय था। सुबह मुझे वापस काठगोदाम के लिए निकलना था क्योंकि रात में मेरी ट्रेन थी। उसके पहले मुक्तेश्वर भी जाना था। रात में ही बस के बारे में पता कर आया था। पता लगा था कि कई बसें हैं। पहली बस 6 बजे ही है। सुविधा के लिए मैं रात में ही सुबह के चेकआउट के बारे में फाइनल कर लेना चाहता था। इसलिए कार्यालय पहुँचा तो वहाँ ताला बन्द था। मेरी समझ में इतना भी नहीं आया कि सारे लोग खाना खाने गये हैं। थोड़ी देर बाद कार्यालय के लोग आये तो मेरा हिसाब–किताब चुकता हुआ और तब मैं सोने जा सका।
25 अक्टूबर
सुबह मैं जल्दी उठा। ठण्ड काफी थी और पानी भी उतना ही ठण्डा था तो मैंने भी नहाने की इच्छा का उसी तरह परित्याग कर दिया जिस तरह गाँधीजी ने अपनी आसक्तियों को त्याग दिया था। 5.40 पर कमरे से निकल गया। बिल्कुल सन्नाटा था। सारे लोग सम्भवतः सो रहे थे। नीचे आया तो चौराहे के पास ही रोडवेज की बस लगी थी। दो–चार सवारियां भी थीं। ड्राइवर और कण्डक्टर महोदय दुकान में चाय पी रहे थे। मैंने भवाली⁄काठगोदाम के बारे में पूछताछ की तो कण्डक्टर ने शर्त लगा दी। समस्या यह थी कि यह बस कौसानी से दिल्ली जाने वाली थी। अगर दिल्ली की पर्याप्त सवारियां मिल गयीं तब तो यह रानीखेत के रास्ते दिल्ली चली जायेगी लेकिन यदि दिल्ली की सवारियां न मिलीं तब बस काठगोदाम जा सकती है। वैसे तो इस बस के बाद भी कई बसें मिलती लेकिन मैंने किस्मत ठोंक कर शर्त मंजूर कर ली। मैंने रानीखेत तक का टिकट ले लिया।
6.05 पर बस रवाना हो गयी। मैं रास्ते भर कटारमल के सूर्यदेव,जागेश्वर के महादेव और बागेश्वर के बागनाथ से प्रार्थना करता रहा कि इस बस को दिल्ली की सवारियां न मिलें। लेकिन शायद कौसानी के गाँधी बाबा को छोड़ दिया था इसलिए मेरी प्रार्थना कबूल नहीं हुई। वास्तव में बस को दिल्ली जाना था तो मेरे मनाने से क्या फर्क पड़ने वाला था। दिल्ली की इतनी सवारियां मिलीं कि बस स्टैण्डिंग हो गयी। 8 बजे मुझे रानीखेत उतरना पड़ा। रानीखेत बस स्टेशन से थोड़ा सा पहले बस से ज्योंही उतरा एक छोटी गाड़ी वाले महोदय ने लपक लिया। वह काठगोदाम तक की सवारियां खोज रहे थे। बोले कि 200 रूपये में ले चलेंगे। आगे वाली सीट मिल रही थी तो मैं सवार हो गया। रानीखेत में बसें भी उपलब्ध थीं लेकिन उनमें कुछ समय लगता।
9.30 बजे मैं भवाली पहुँच गया। यहाँ से मैं मुक्तेश्वर जाना चाहता था इसलिए भवाली चौराहे पर उतर गया। चौराहे के बिल्कुल पास ही बस स्टैण्ड है और टैक्सी स्टैण्ड तो बिल्कुल चौराहे पर ही है। बस स्टैण्ड में पूछताछ की तो पता चला कि ग्यारह बजे एक बस जायेगी लेकिन वह भी कहीं से आयेगी तो जायेगी। सन्देह जैसी स्थिति लग रही थी। चौराहे पर टैक्सियों के बारे में पता किया तो वहाँ भी स्थिति अनिश्चित ही लग रही थी। हाँ इतना निश्चय हो गया कि अभी कोई भी गाड़ी मिलने में टाइम है। तो मैंने 30 रूपये वाले आलू परांठे का शिकार कर लिया और 10 बजे के आस–पास चौराहे पर आकर खड़ा हो गया।
आधे घण्टे तक कर्इ टैक्सीवालों से पूछताछ करने के बाद यह स्पष्ट हुआ कि फलां गाड़ी मुक्तेश्वर जायेगी। उसमें बीच वाली सीट पर आसन जमा लिया। एक–दो और भी लोग आकर जम गये। देर होती देखकर मैं परेशान हो रहा था। क्योंकि मुझे मुक्तेश्वर से लौटकर फिर काठगोदाम जाना था और रात में ट्रेन भी पकड़नी थी। साढ़े ग्यारह बजे शोर मचा कि वो फलां गाड़ी मुक्तेश्वर जा रही है तो छलांग लगाते हुए उस गाड़ी में पहुँचा। दो–चार मिनट में ही गाड़ी फुल हो गयी और मुक्तेश्वर के लिए रवाना हो गयी। लेकिन गाड़ी में लोकल सवारियां इतनी थीं और इतनी जगह रूकना पड़ा कि भवाली से मुक्तेश्वर तक की 39 किमी की दूरी को तय करने में दो घण्टे लग गये। गाड़ी मूल रूप से मुक्तेश्वर से भटेलिया जा रही थी जो मुक्तेश्वर महादेव के मन्दिर से लगभग 6 किमी पहले स्थित एक बाजार है। सारे लोग यहीं उतर गये। बचे 3 लोग जिसमें दो लोग तो पति–पत्नी थे जो मुक्तेश्वर के ही रहने वाले थे और घर जा रहे थे। तीसरा मैं था जो घुमक्कड़ी के नशे में मुक्तेश्वर जा रहा था। ड्राइवर भी भटेलिया तक ही जाता यदि वे दम्पत्ति नहीं होते। ड्राइवर अच्छे स्वभाव का था और उसने थोड़ा और आगे बढ़कर मुझ अकेले को मन्दिर के पास तक छोड़ दिया।
गाड़ी से उतरने के बाद भी आधा किमी पैदल चलना था और वह भी चढ़ाई पर। दो बैग लेकर चलना भारी पड़ रहा था तो मैंने एक चाय की दुकान पर चाय पी और अपना एक बैग दुकानदार के हवाले किया। आगे बढ़ा तो चढ़ाई और बढ़ गयी और सीढ़ियां शुरू हो गयीं। यह मंदिर 7500 फीट ऊँची एक पहाड़ की चोटी पर स्थित है।मंदिर के पीछे से नीचे की घाटियों का दृश्य देखने लायक है। मंदिर के बगल से पीछे की ओर जाने के लिए एक सँकरा रास्ता बना है। मंदिर में हल्की–फुल्की भीड़ थी। सबकी तरह मैंने भी घण्टी बजायी,दर्शन किया और आधे घण्टे तक मंदिर के आस–पास भ्रमण करने के बाद वापस लौट पड़ा। नीचे बाजार में आया तो वही ड्राइवर मिल गया जो मुझे ऊपर लाया था। उसे तो कहीं नहीं जाना था लेकिन उसने मुझे एक ऐसे ड्राइवर से मिलवाया जिसे काठगोदाम जाना था। इस ड्राइवर की भी कुछ अपनी शर्तें थीं। आज शनिवार का दिन था अौर पास ही स्थित एक सरकारी स्कूल की कुछ अध्यापिकाओं को काठगोदाम जाना था। उसकी गाड़ी उन्हीं के लिए बुक थी। तो फिर ड्राइवर की शर्तें ये थीं कि–
1– पीछे की सीट पर बैठना होगा और
2– जब मैडम जी लोग आयेंगी तभी गाड़ी जायेगी।
दूसरा कोई साधन नहीं था या शायद मिलता भी तो काफी इन्तजार करना पड़ता। मैंने शर्तें मंजूर कर लीं। अभी ढाई बज रहे थे। पास की छोटी दुकानों पर समोसा,बिस्कुट और चाय खाने–पीने के लिए मेरे पास पर्याप्त समय था। वैसे मुझे ज्यादा इंतजार भी नहीं करना पड़ा और 3.20 पर मेरी गाड़ी काठगोदाम के लिए रवाना हो गयी। मुक्तेश्वर से काठगोदाम तक की लगभग 60 किमी की दूरी मुझे तय करनी थी और मेरी ट्रेन रात के 9.55 पर थी तो मुझे भी काेई हड़बड़ी नहीं थी। ड्राइवर को भी रास्ते में कहीं रूकना नहीं था तो भागता चला। भीमताल होते हुए शाम के 6 बजे मैं काठगोदाम पहुँच गया। अब केवल इंतजार ही इंतजार था। एक–डेढ़ घण्टे बाद मैंने एक शुद्ध शाकाहारी रेस्टोरेण्ट में शुद्ध शाकाहारी खाना खाया और अब मेरे पास विशुद्ध इंतजार के सिवा और कोई काम नहीं था। अपने नियत समय 9.55 बजे से लगभग एक घण्टे पहले बाघ एक्सप्रेस प्लेटफार्म पर आ लगी और मैं अपनी सीट से जा लगा।
सम्बन्धित अन्य यात्रा विवरण–
1. अल्मोड़ा
2. जागेश्वर धाम
3. बागेश्वर
4. कौसानी–गाँधीजी के साथ एक रात
कहते हैं कि गाँधीजी श्रीमद्भगवदगीता का जब अनुवाद कर रहे थे तो व्यस्त दिनचर्या में बहुत कठिनाई से समय निकाल पाते थे। आरम्भ में वे अपनी यात्रा में नियमित रूप से प्रतिदिन एक श्लोक का अनुवाद करते थे। बाद में प्रतिदिन दो–दो,तीन–तीन श्लोकों का अनुवाद भी कर लेते थे। 1929 में अपनी यात्राओं के दौरान थकान दूर करने की इच्छा से वे दो दिन के लिए कौसानी आये। यहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य ने उनका मन मोह लिया और वे यहाँ 14 दिन तक रूके रहे। इसी दौरान उन्होंने गीता पर आधारित प्रसिद्ध पुस्तक "अनासक्ति योग" की प्रस्तावना की रचना की। उस समय 14 दिन के लिए गाँधीजी का यह निवास एक चाय बागान के मालिक का अतिथि गृह था। कालान्तर में यह जिला पंचायत का डाक बंगला बना। बाद में गाँधीजी की स्मृति को जीवन्त रखने के लिए उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी द्वारा इसे "उत्तर प्रदेश गाँधी स्मारक निधि" को प्रदान कर दिया गया। गाँधीजी की अमर कृति "अनासक्ति योग" के नाम पर यहाँ अनासक्ति आश्रम की स्थापना कर दी गयी। वर्तमान में इस आश्रम में आवासीय सुविधाओं के अतिरिक्त एक पुस्तकालय,वाचनालय तथा गाँधी दर्शन साहित्य पटल उपलब्ध है। यहाँ गाँधी दर्शन पर शोधकर्ताओं,दार्शनिकों एवं आध्यात्मिक अभिरूचि के लोगों के लिए ग्रन्थ उपलब्ध हैं। आश्रम में सुबह–शाम नियमित रूप से प्रार्थना सभा भी आयोजित की जाती है।
आश्रम का निरीक्षण करते–करते 5.30 बजने लगे। अब मैं टेलिस्कोपिक शो देखने के लिए पुनः नीचे की ओर भागा। वैसे तो पहले मैंने एक "शो" वाले के यहाँ बात की थी लेकिन सड़क पर मुझे टहलते देख किसी दूसरे ने मौका लपक लिया। इसके यहाँ रेट भी कम यानी 50 रूपये था जबकि पहले वाले के यहाँ 100 रूपये था। अन्दर सारी व्यवस्था थी। चाय–काफी,चाऊमीन–समोसे वगैरह। अर्थात पर्यटकों को लुभाने का पूरा इन्तजाम। ठण्ड बढ़ रही थी। मैं चाह रहा था कि शो जल्दी शुरू हो लेकिन खगोलशास्त्री महोदय का कहना था कि कुछ अँधेरा होने के बाद ही दूरबीन से आसमान में स्पष्ट नजर आता है। मैं खुश हो रहा था कि मैं अकेला ग्राहक हूँ लेकिन पाँच मिनट बाद ही बीवी–बच्चे लिए एक बड़ा समूह हाजिर हो गया और भीड़ हो गयी। खैर 6.30 के आस–पास शो शुरू हुआ। चन्द्रमा,मंगल और शनि का दर्शन हुआ। दर्शन तो थोड़े ही थे लेकिन खगोलशास्त्री महोदय का भाषण बहुत लम्बा–चौड़ा था। मुझे इसमें कोई रूचि नहीं थी क्यों पहले ही काफी भूगोल–खगोल पढ़ चुका हूँ। 7.15 बज गये। ठण्ड काफी लग रही थी क्योंकि स्वेटर मैं कमरे पर छोड़ आया था। जल्दी से ऊपर भागा। भूख लग रही थी। आश्रम में सन्नाटा पसरा हुआ था। आश्रम के कार्यालय में पहुँचकर खाने के बारे में पूछा तो पता लगा कि आठ बजे के आस–पास आपको कमरे में ही सूचना दी जायेगी। आठ बजाना मेरे लिए अब काफी भारी लग रहा था। आठ के चक्कर में सवा आठ बज गये। मैं सोच रहा था कि कहीं आश्रम के लड़के मुझे बुलाना ही न भूल जाएं। अगल–बगल कहीं कोई दुकान भी नहीं है जहाँ कुछ मिले। अगर ऐसा हो गया तो रात भर गाँधीजी का नाम जपते ही बीत जायेगा। मैं धीरे से निकला और आश्रम के किचेन मैं पहुँच गया। वहाँ आश्रम के अधिकांश कर्मचारी दिख रहे थे जो खाना बनाने में लगे थे। किचेन में प्रवेश करने से पूर्व चप्पल–जूते निकालना अनिवार्य था। लेकिन चप्पल निकाल देने पर पैर में ठण्ड लग रही थी। एक लड़के से अनुमति लेकर मैं चप्पल सहित प्रवेश कर गया तथा एक लाइन में लगी बेंच पर आसन जमा लिया। खाने में अभी भी कुछ देर थी पर करता क्या। दस मिनट बाद आश्रम में ठहरे अन्य लोग भी किचेन में प्रवेश करने लगे जो लगभग दस की संख्या में थे। मुझे आश्रम में रूके इतने लोगों के बारे में कोई अनुमान नहीं था। अचानक एक कर्मचारी की नजर लोगों के चप्पल–जूते पर पड़ी और फिर सबके चप्पल–जूते दरवाजे के बाहर नजर आने लगे।
जल्द ही थालियां सामने आयीं और साथ ही भोजन भी। भोजन सादा ही था– चावल,दाल,रोटी और दो सब्जियां व मूली लेकिन बहुत ही साफ–सुथरा और स्वादिष्ट। अपनी जरूरत भर भोजन लेने पर कोई रोक नहीं थी। हाँ,खाना खाने के बाद थालियां उठाकर सिंक पर रखने का जिम्मा खाना खाने वाले का ही था। खाना खिलाने का तरीका वही था जैसे आज भी हमारे गाँवों में शादी विवाह में पंक्तियों में बैठाकर खिलाया जाता है। मुझे तो भोजन के स्वाद के साथ साथ घर से दूर किसी अंजाने स्थान पर इस तरह खाना खाने में बहुत ही आनन्द आया। लगा कि मैं इतिहास में गाँधीजी के साथ एक दिन बिता रहा हूँ।
9 बज रहे थे। अब सोने का समय था। सुबह मुझे वापस काठगोदाम के लिए निकलना था क्योंकि रात में मेरी ट्रेन थी। उसके पहले मुक्तेश्वर भी जाना था। रात में ही बस के बारे में पता कर आया था। पता लगा था कि कई बसें हैं। पहली बस 6 बजे ही है। सुविधा के लिए मैं रात में ही सुबह के चेकआउट के बारे में फाइनल कर लेना चाहता था। इसलिए कार्यालय पहुँचा तो वहाँ ताला बन्द था। मेरी समझ में इतना भी नहीं आया कि सारे लोग खाना खाने गये हैं। थोड़ी देर बाद कार्यालय के लोग आये तो मेरा हिसाब–किताब चुकता हुआ और तब मैं सोने जा सका।
25 अक्टूबर
सुबह मैं जल्दी उठा। ठण्ड काफी थी और पानी भी उतना ही ठण्डा था तो मैंने भी नहाने की इच्छा का उसी तरह परित्याग कर दिया जिस तरह गाँधीजी ने अपनी आसक्तियों को त्याग दिया था। 5.40 पर कमरे से निकल गया। बिल्कुल सन्नाटा था। सारे लोग सम्भवतः सो रहे थे। नीचे आया तो चौराहे के पास ही रोडवेज की बस लगी थी। दो–चार सवारियां भी थीं। ड्राइवर और कण्डक्टर महोदय दुकान में चाय पी रहे थे। मैंने भवाली⁄काठगोदाम के बारे में पूछताछ की तो कण्डक्टर ने शर्त लगा दी। समस्या यह थी कि यह बस कौसानी से दिल्ली जाने वाली थी। अगर दिल्ली की पर्याप्त सवारियां मिल गयीं तब तो यह रानीखेत के रास्ते दिल्ली चली जायेगी लेकिन यदि दिल्ली की सवारियां न मिलीं तब बस काठगोदाम जा सकती है। वैसे तो इस बस के बाद भी कई बसें मिलती लेकिन मैंने किस्मत ठोंक कर शर्त मंजूर कर ली। मैंने रानीखेत तक का टिकट ले लिया।
6.05 पर बस रवाना हो गयी। मैं रास्ते भर कटारमल के सूर्यदेव,जागेश्वर के महादेव और बागेश्वर के बागनाथ से प्रार्थना करता रहा कि इस बस को दिल्ली की सवारियां न मिलें। लेकिन शायद कौसानी के गाँधी बाबा को छोड़ दिया था इसलिए मेरी प्रार्थना कबूल नहीं हुई। वास्तव में बस को दिल्ली जाना था तो मेरे मनाने से क्या फर्क पड़ने वाला था। दिल्ली की इतनी सवारियां मिलीं कि बस स्टैण्डिंग हो गयी। 8 बजे मुझे रानीखेत उतरना पड़ा। रानीखेत बस स्टेशन से थोड़ा सा पहले बस से ज्योंही उतरा एक छोटी गाड़ी वाले महोदय ने लपक लिया। वह काठगोदाम तक की सवारियां खोज रहे थे। बोले कि 200 रूपये में ले चलेंगे। आगे वाली सीट मिल रही थी तो मैं सवार हो गया। रानीखेत में बसें भी उपलब्ध थीं लेकिन उनमें कुछ समय लगता।
9.30 बजे मैं भवाली पहुँच गया। यहाँ से मैं मुक्तेश्वर जाना चाहता था इसलिए भवाली चौराहे पर उतर गया। चौराहे के बिल्कुल पास ही बस स्टैण्ड है और टैक्सी स्टैण्ड तो बिल्कुल चौराहे पर ही है। बस स्टैण्ड में पूछताछ की तो पता चला कि ग्यारह बजे एक बस जायेगी लेकिन वह भी कहीं से आयेगी तो जायेगी। सन्देह जैसी स्थिति लग रही थी। चौराहे पर टैक्सियों के बारे में पता किया तो वहाँ भी स्थिति अनिश्चित ही लग रही थी। हाँ इतना निश्चय हो गया कि अभी कोई भी गाड़ी मिलने में टाइम है। तो मैंने 30 रूपये वाले आलू परांठे का शिकार कर लिया और 10 बजे के आस–पास चौराहे पर आकर खड़ा हो गया।
आधे घण्टे तक कर्इ टैक्सीवालों से पूछताछ करने के बाद यह स्पष्ट हुआ कि फलां गाड़ी मुक्तेश्वर जायेगी। उसमें बीच वाली सीट पर आसन जमा लिया। एक–दो और भी लोग आकर जम गये। देर होती देखकर मैं परेशान हो रहा था। क्योंकि मुझे मुक्तेश्वर से लौटकर फिर काठगोदाम जाना था और रात में ट्रेन भी पकड़नी थी। साढ़े ग्यारह बजे शोर मचा कि वो फलां गाड़ी मुक्तेश्वर जा रही है तो छलांग लगाते हुए उस गाड़ी में पहुँचा। दो–चार मिनट में ही गाड़ी फुल हो गयी और मुक्तेश्वर के लिए रवाना हो गयी। लेकिन गाड़ी में लोकल सवारियां इतनी थीं और इतनी जगह रूकना पड़ा कि भवाली से मुक्तेश्वर तक की 39 किमी की दूरी को तय करने में दो घण्टे लग गये। गाड़ी मूल रूप से मुक्तेश्वर से भटेलिया जा रही थी जो मुक्तेश्वर महादेव के मन्दिर से लगभग 6 किमी पहले स्थित एक बाजार है। सारे लोग यहीं उतर गये। बचे 3 लोग जिसमें दो लोग तो पति–पत्नी थे जो मुक्तेश्वर के ही रहने वाले थे और घर जा रहे थे। तीसरा मैं था जो घुमक्कड़ी के नशे में मुक्तेश्वर जा रहा था। ड्राइवर भी भटेलिया तक ही जाता यदि वे दम्पत्ति नहीं होते। ड्राइवर अच्छे स्वभाव का था और उसने थोड़ा और आगे बढ़कर मुझ अकेले को मन्दिर के पास तक छोड़ दिया।
गाड़ी से उतरने के बाद भी आधा किमी पैदल चलना था और वह भी चढ़ाई पर। दो बैग लेकर चलना भारी पड़ रहा था तो मैंने एक चाय की दुकान पर चाय पी और अपना एक बैग दुकानदार के हवाले किया। आगे बढ़ा तो चढ़ाई और बढ़ गयी और सीढ़ियां शुरू हो गयीं। यह मंदिर 7500 फीट ऊँची एक पहाड़ की चोटी पर स्थित है।मंदिर के पीछे से नीचे की घाटियों का दृश्य देखने लायक है। मंदिर के बगल से पीछे की ओर जाने के लिए एक सँकरा रास्ता बना है। मंदिर में हल्की–फुल्की भीड़ थी। सबकी तरह मैंने भी घण्टी बजायी,दर्शन किया और आधे घण्टे तक मंदिर के आस–पास भ्रमण करने के बाद वापस लौट पड़ा। नीचे बाजार में आया तो वही ड्राइवर मिल गया जो मुझे ऊपर लाया था। उसे तो कहीं नहीं जाना था लेकिन उसने मुझे एक ऐसे ड्राइवर से मिलवाया जिसे काठगोदाम जाना था। इस ड्राइवर की भी कुछ अपनी शर्तें थीं। आज शनिवार का दिन था अौर पास ही स्थित एक सरकारी स्कूल की कुछ अध्यापिकाओं को काठगोदाम जाना था। उसकी गाड़ी उन्हीं के लिए बुक थी। तो फिर ड्राइवर की शर्तें ये थीं कि–
1– पीछे की सीट पर बैठना होगा और
2– जब मैडम जी लोग आयेंगी तभी गाड़ी जायेगी।
दूसरा कोई साधन नहीं था या शायद मिलता भी तो काफी इन्तजार करना पड़ता। मैंने शर्तें मंजूर कर लीं। अभी ढाई बज रहे थे। पास की छोटी दुकानों पर समोसा,बिस्कुट और चाय खाने–पीने के लिए मेरे पास पर्याप्त समय था। वैसे मुझे ज्यादा इंतजार भी नहीं करना पड़ा और 3.20 पर मेरी गाड़ी काठगोदाम के लिए रवाना हो गयी। मुक्तेश्वर से काठगोदाम तक की लगभग 60 किमी की दूरी मुझे तय करनी थी और मेरी ट्रेन रात के 9.55 पर थी तो मुझे भी काेई हड़बड़ी नहीं थी। ड्राइवर को भी रास्ते में कहीं रूकना नहीं था तो भागता चला। भीमताल होते हुए शाम के 6 बजे मैं काठगोदाम पहुँच गया। अब केवल इंतजार ही इंतजार था। एक–डेढ़ घण्टे बाद मैंने एक शुद्ध शाकाहारी रेस्टोरेण्ट में शुद्ध शाकाहारी खाना खाया और अब मेरे पास विशुद्ध इंतजार के सिवा और कोई काम नहीं था। अपने नियत समय 9.55 बजे से लगभग एक घण्टे पहले बाघ एक्सप्रेस प्लेटफार्म पर आ लगी और मैं अपनी सीट से जा लगा।
अनासक्ति आश्रम में मेरा कमरा |
आश्रम में गाँधीजी की प्रतिमा |
आश्रम में आये स्कूली बच्चों का समूह |
हिमाच्छादित शिखरों को देखने के लिए बनी संरचना |
अनासक्ति आश्रम |
आसमानी कैनवस पर बनी सफेद रंग की पेण्टिंग |
ईको पार्क में बने एक मंदिर का गेट |
सुमित्रानंदन पंत के घर में |
साँझ की लालिमा |
1. अल्मोड़ा
2. जागेश्वर धाम
3. बागेश्वर
4. कौसानी–गाँधीजी के साथ एक रात
जब हम कौसानी गए थे तब हम भी यही रुके थे...इस जगह पे रुकना एक अनुभब है....और यहां से शाम को सूर्यास्त के समय जो सुनहरे हिमालय के नजारे दिखते है उसके लिए इस जगह बार बार आना भी कम है.....
ReplyDeleteकौसानी के अनासक्ति आश्रम में रूकने का अपना अलग ही एहसास है। यहाँ आने के बाद हम यहाँ के इतिहास और भूगोल से जुड़ाव महसूस करने लगते हैं। एक तरफ महानता के हिमालय गाँधी तो दूसरी तरफ साहित्य के हिमालय पंत और इन दोनों की स्मृतियाें के साथ प्रकृति के हिमालय का साक्षात्कार। अलौकिक अनुभव।
Deleteवाह मजा आ गया पढ़ कर मैं भी जून में जाकर आया हूं।सब कुछ आंखों के सामने प्रकट हो गया पढ़ कर
ReplyDeleteधन्यवाद हरजिन्दर जी ब्लॉग पर आने के लिए। कौसानी वास्तव में बहुत खूबसूरत है। मैं तो बार–बार यहाँ आना चाहूँगा।
Delete