अल्मोड़ा में आज मेरा तीसरा दिन और दूसरी सुबह थी। आज मुझे बागेश्वर के लिए निकलना था। मैं पिछली रात में ही अल्मोड़ा के रोडवेज बस स्टेशन से बागेश्वर की बस के बारे में पता कर आया था। पता चला था कि 6 बजे बागेश्वर के लिए बस है। अल्मोड़ा का रोडवेज बस स्टेशन सड़क पर ही अवस्थित है। इसका कार्यालय सड़क के नीचे एक बड़े हाॅल में बना हुआ है लेकिन बसों के खड़े होने की जगह सड़क पर ही है। सड़क के नीचे मतलब अण्डरग्राउण्ड नहीं। वरन सड़क के बगल में नीचे हटकर है क्योंकि पहाड़ में सबकुछ या तो ऊपर होता है या फिर नीचे।
एकबारगी देखने पर लगता ही नहीं कि यहाँ बस स्टेशन हो सकता है। मुझे भी पहली बार में काफी खोजने के बाद ही इसका पता लग सका। वैसे जिस रात को मैं बागेश्वर की बस के बारे में पता करने गया था उस रात लग रहा था कि यहाँ बस स्टेशन है। कारण दीपावली की छुटि्टयां समाप्त हो रही थीं और अपने घर छुटि्टयां मनाने आये लोग फिर अपने काम–धाम को लौट रहे थे। बसों की कमी पड़ रही थी और लोग स्टेशन के कर्मचारियों से झगड़ रहे थे। सर्वाधिक भीड़ दिल्ली जाने वाले लोगों की थी। मैं भी कुछ देर तमाशबीन बन इस भीड़ और इसकी वजह से उत्पन्न अराजकता एवं पुलिस वालों की मशक्कत को देखता रहा। इसके बाद होटल लौट आया।
सुबह के 5.40 मैं पर होटल से निकल लिया। पाँच मिनट में ही स्टेशन पहुँच गया लेकिन अभी बस का कुछ भी अता–पता नहीं था। 5.50 पर बस आयी। मैंने बस में जगह ली। बस में बैठे लोग पर्याप्त ऊनी कपड़ों में थे जिससे लग रहा था कि यह बस दूर से आ रही थी। मेरे बगल में बैठे सहयात्री ने बताया कि यह बस दिल्ली से आ रही है और इसे बागेश्वर से आगे धरमघर तक जाना है। मैंने सोचा धरम काे भी घर मिल गया या फिर धरम का भी कोई घर होता है जो कि उत्तराखण्ड में है। बस का ड्राइवर कुढ़ रहा था कि बस समय से आ गयी तो स्टेशन वाले लेट कर रहे हैं। 6.15 पर बस रवाना हो गयी। अल्मोड़ा से बागेश्वर की 80 किमी की दूरी का किराया 140 रूपये है। अल्मोड़ा से बागेश्वर जाने के दो रास्ते हैं। एक बिनसर होकर तथा दूसरा कोसी,सोमेश्वर,कौसानी,गरूड़,बैजनाथ होकर। जाते समय मैं बिनसर होकर गया जबकि बागेश्वर से वापस लौटते हुए दूसरे रास्ते से लौटा क्योंकि मुझे कौसानी भी जाना था। दोनों की दूरी की में अधिक अन्तर नहीं है।
मेरी बस बिनसर के रास्ते जा रही थी। लेकिन ड्राइवर ने अल्मोड़ा के मुख्य मार्ग को छोड़कर पता नहीं कहाँ से दूसरा रास्ता पकड़ा,मुझे पता नहीं लगा। इस रास्ते पर भीड़–भाड़ भी नहीं थी और सड़क भी अच्छी थी। बागेश्वर पहुँचने से पहले ड्राइवर ने एक–दाे बार और ऐसा किया अर्थात् मुख्य मार्ग छोड़कर कोई बगल का रास्ता पकड़ लिया। खैर सारे रास्ते पकड़ने–छोड़ने के बाद बस 10 बजे बागेश्वर बस स्टैण्ड पहुँच गयी। बागेश्वर के कुछ किलोमीटर पहले से ही सरयू नदी दिखायी देने लगी और इतने सुन्दर रूप में कि मन बल्लियों उछलने लगा।
बागेश्वर के बस स्टैण्ड के आस–पास पर्याप्त होटल और रेस्टोरेण्ट हैं। इसके अलावा बस स्टैण्ड से सरयू किनारे स्थित बागनाथ मन्दिर की ओर जाने वाली सड़क,जो कि बागेश्वर की मुख्य सड़क भी है,पर भी बहुत सारे होटल–रेस्टोरेण्ट हैं। अपनी पसंद के अनुसार चयन किया जा सकता है। मैंने भी आधे घण्टे के अन्दर तीन सौ रूपये में एक होटल चुन लिया जो स्टैण्ड के पास न होकर वहाँ से लगभग पाँच मिनट की दूरी पर बागनाथ मन्दिर की ओर था।
साढ़े दस बजे मैं भोजन की तलाश में होटल से बाहर निकला। कुछ देर तक इधर–उधर भागदौड़ करने पर मुझे अपने लायक यानी कि शाकाहारी रेस्टोरेण्ट नहीं मिला। तो पेट भर भोजन का विचार मैंने भविष्य के टाल दिया और एक ठेले की शरण ली। वहाँ 20 रूपये में छोला–समोसा मिल गया। इसके बाद तेजी से कदम बढ़ाते हुए मैं बागनाथ मन्दिर पहुँचा। भीड़ भरी कर्इ सँकरी सड़कें मन्दिर की ओर जाती हैं लेकिन इन सड़कों से होते हुए मन्दिर की ओर बढ़ने पर मन्दिर बाद में दिखता है लेकिन मनमोहिनी सरयू पहले दिख जाती है। और इस मनमोहिनी के आकर्षण ने मुझे ऐसा खींचा कि मैं मन्दिर को भूलकर पहले नदी किनारे ही पहुँच गया।
शीशे की तरह झलकते और नीली आभा लिये सरयू का तीव्रगामी स्वरूप हरे–भरे पहाड़ों की पृष्ठभूमि में अनुपम सौन्दर्य की सृष्टि करता है। सरयू यहाँ अकेली नहीं है वरन गोमती को अपने अन्दर समाहित करते हुए उसकी भी शक्ति को आत्मसात कर लेती है। यहाँ गोमती अपनी जीवनयात्रा की अन्तिम वेला में स्थिर हो जाती है। उसका वेग मन्द हो जाता है। लेकिन पहाड़ की समस्त ऊर्जा को अन्तर्निहित किए हुए,हरियाली के रंगों को स्वयं में घोलता उसका जल सरयू में विसर्जित होकर भी इस पवित्र मिलन का उद्घोष करता है। ऐसी जगहों पर आने के बाद लगता है कि सुन्दरता नामक शब्द को फिर से परिभाषित करना पड़ेगा।
आज अभी दिन का काफी बड़ा हिस्सा शेष बचा था अतः मैंने बागेश्वर से बाहर निकलने का फैसला किया। मन में बैजनाथ का ध्यान था। तो माँ सरयू के किनारे पर स्थित बागनाथ मन्दिर में दर्शन कर भागते हुए 11.30 तक बागेश्वर बस स्टैण्ड पहुँच गया। बस स्टैण्ड से 2-3 मिनट की पैदल दूरी पर बागेश्वर थाना या कोतवाली है। इसके बगल से छोटी शेयर्ड गाड़ियां बैजनाथ होते हुए गरूड़ को जाती हैं। बस स्टैण्ड से बसें भी बैजनाथ होते हुए कौसानी और अल्मोड़ा को जाती हैं। मैंने एक शेयर्ड गाड़ी पकड़ी। बागेश्वर से बैजनाथ की 23 किमी की दूरी का किराया 40 रूपये है। 45 मिनट में यह दूरी तय करते हुए मेरी गाड़ी 12.30 बजे तक बैजनाथ पहुँच गयी। बागेश्वर से बैजनाथ का यह पूरा रास्ता गोमती नदी के किनारे–किनारे ही गुजरता है। बैजनाथ में गोमती नदी पर बने लोहे के पुल के पास मैं गाड़ी से उतर गया। यहाँ से बैजनाथ मन्दिर बायें हाथ की दिशा में लगभग 100 मीटर की दूरी पर है। इस छोटे से रास्ते पर मैंने एक अजीब दृश्य देखा। एक भिखारी की वेशभूषा बनाये व्यक्ति रास्ते पर बैठा हुआ भीख माँगने के साथ–साथ रेडियो से गाने भी सुन रहा था। मुझे लगा कि दुनिया वास्तव में काफी प्रगति कर रही है। यही सोचते हुए मैं बैजनाथ मन्दिर पहुँच गया।
बैजनाथ मन्दिर एक मन्दिर न होकर कई मन्दिरों का समूह है। नागर शैली में निर्मित यह प्राचीन मन्दिर समूह बैजनाथ या वैद्यनाथ के नाम से जाना जाता है। मुख्य मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है। अन्य 17 मन्दिरों में केदारेश्वर,लक्ष्मीनारायण तथा ब्राह्मणी मन्दिर प्रमुख हैं। वास्तु शैली के आधार पर इन मन्दिरों का निर्माण 9वीं शताब्दी ई0 से 12वीं शताब्दी ई0 के मध्य प्राचीन कार्तिकेयपुर के कत्यूरी शासकों द्वारा माना जाता है। अत्यंत प्राचीन मंदिर होने के कारण यह कई बार ध्वंस हुआ और कत्यूरी,गंगोली और चंद वंश के राजाओं ने इसका कई बार जीर्णाेद्धार कराया।
मान्यता है कि यहीं कामदेव का दमन हुआ था और पार्वती से विवाह के लिए जाते हुए शिव ने यहीं पूजा–अर्चना की थी और इस कारण यह स्थान बैजनाथ नाम से जाना गया। आस–पास का क्षेत्र कत्यूर घाटी के नाम से जाना जाता है। कत्यूर घाटी की समुद्रतल से ऊँचाई लगभग 4000 फुट है और इस ऊँचाई पर यह घाटी अत्यंत सुंदर दृश्यों की सृष्टि करती है। एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि मंदिर परिसर गोमती और गरूड़ी नदियों के संगम पर स्थित है। लेकिन संभवतः बहुत छोटी नदी होने के कारण गरूड़ी नदी को मैं नहीं खोज सका। गाेमती में भी काफी कम पानी दिखायी दे रहा था। मन्दिर परिसर से सटे हुए एक कृत्रिम झील है जो गोमती नदी पर बनाये गये बैजनाथ बैराज के कारण निर्मित हुई है। मन्दिर के पास से झील के किनारे टहलने और बैराज तक जाने के लिए रास्ता बना हुआ है। पूरा मन्दिर घूमने के बाद मैं इसी रास्ते पर चलता हुआ बैराज तक गया और बैराज के पास बनी सीढ़ियों से होकर ऊपर मुख्य सड़क पर पहुँच गया।
काफी देर तक चलने–फिरने की वजह से सुबह के छोले–समोसे का कहीं अता–पता नहीं लग रहा था तो बैराज के पास ही बने एक अच्छे रेस्टोरेण्ट में 25 रूपये की चाऊमीन पर हाथ साफ कर दिया। अब शाम तक के लिए इंजन फिट हो गया। रेस्टोरेण्ट से बाहर निकला तो 2.30 बज रहे थे। ज्योंही सड़क पर खड़ा हुआ,बिना किसी इन्तजार के बागेश्वर जाने वाली एक गाड़ी मिल गयी तो बागेश्वर लाैट पड़ा। गाड़ी खाली थी तो मैं खिड़की के पास ही बैठा हुआ था और रास्ते भर सड़क के साथ चल रही गोमती नदी को निहारता रहा। एक दो जगह तो नदी बिल्कुल सड़क से सटकर प्रवाहित होती है। और ऐसी जगह पर कुछ क्षण नहीं बल्कि घण्टों बैठकर कल–कल करती नदी को निहारते रहें तो भी मन नहीं भरेगा।
3.15 तक मैं बागेश्वर में था। यहाँ पहुँचकर बागेश्वर के अन्य दर्शनीय स्थलों के बारे में पूछताछ की तो पता चला शहर से कुछ दूरी पर एक दो छोटे मन्दिर हैं। लेकिन मुझे तो बागनाथ मन्दिर और उसके बगल में सरयू–गोमती का संगम ही अच्छा ही लग रहा था। तो अगले दो घण्टे तक मैं संगम के आस–पास ही घूमता रहा।
बागेश्वर को पूर्वी उत्तर प्रदेश के काशी के समान ही पवित्र माना जाता है। सरयू–गोमती के संगम पर स्थित बागनाथ महादेव या व्याघ्रेश्वर के मंदिर के कारण ही इस शहर का नाम बागेश्वर पड़ा। किंवदंती के अनुसार जब सरयू नदी अयोध्या में भगवान राम के जन्म के समय आयोजित समारोह में सम्मिलित होने के लिए चली तो उसे रास्ते में मारकण्डेय मुनि को तपस्या करते देख कर रूकना पड़ा। सरयू के इस कष्ट को देखकर माता पार्वती को दया आ गयी और उन्होंने सरयू की सहायता करने के लिए भगवान शिव की प्रार्थना की। शिव ने व्याघ्र का रूप लेकर मारकण्डेय मुनि के सामने एक गाय बनी पार्वती पर आक्रमण किया। मारकण्डेय मुनि अपनी तपस्या छोड़ कर गाय को बचाने के लिए दौड़ पड़े। इस बीच सरयू को आगे बढ़ने का अवसर मिला और वह अयोध्या की ओर निकल चली। इधर शिव–पार्वती भी अंतर्ध्यान हो गये। मारकण्डेय मुनि को जब बात समझ में अायी तो उन्होंने शिव–पार्वती की प्रार्थना की और उस स्थान पर मंदिर का निर्माण किया और उसमें शिव की प्रतिमा स्थापित कर उसे व्याघ्रनाथ नाम दिया। समय के थपेड़ों से मारकण्डेय मुनि द्वारा बनवाया गया मंदिर नष्ट हो गया तो कत्यूरी,चंद तथा गंगोली राजाओं द्वारा मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया।
वर्तमान मंदिर का निर्माण सन 1450 में हुआ। यह एक ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व का मंदिर है। शिवरात्रि के दिन यहाँ मेला लगता है। कहा जाता है कि मारकण्डेय मुनि ने व्याघ्र रूप में भगवान शिव के दर्शन किये थे अतः उन्होंने व्याघ्र रूप में भगवान शिव की प्रतिमा स्थापित की थी। बाद में इसमें शिवलिंग की स्थापना कर दी गयी।
शाम के 7.30 बजे जब मैं वापस शहर में लौटा तो मेरे सामने भोजन का संकट खड़ा हो गया। वजह था वेज और नान–वेज का झगड़ा। मैंने नदी किनारे से लेकर बस–स्टैण्ड तक छान मारा। कहीं भी पूर्ण शाकाहारी रेस्टोरेण्ट नहीं मिला। हार मानकर एक कॉमन रेस्टोरेण्ट में ही मुझे शाकाहारी भोजन करना पड़ा। आत्मा गवाही नहीं दे रही थी लेकिन पेट की भी सुननी थी। केवल आत्मा की बात सुनने से तो गुजारा होने से रहा। अब तक साढ़े आठ बज चुके थे। अधिकांश दुकानें बन्द हो चुकी थीं। मैंने भी होटल में घुसकर अपना दरवाजा बन्द कर लिया।
अगला भाग ः कौसानी–गाँधीजी के साथ एक रात
सम्बन्धित अन्य यात्रा विवरण–
1. अल्मोड़ा
2. जागेश्वर धाम
3. बागेश्वर
4. कौसानी–गाँधीजी के साथ एक रात
एकबारगी देखने पर लगता ही नहीं कि यहाँ बस स्टेशन हो सकता है। मुझे भी पहली बार में काफी खोजने के बाद ही इसका पता लग सका। वैसे जिस रात को मैं बागेश्वर की बस के बारे में पता करने गया था उस रात लग रहा था कि यहाँ बस स्टेशन है। कारण दीपावली की छुटि्टयां समाप्त हो रही थीं और अपने घर छुटि्टयां मनाने आये लोग फिर अपने काम–धाम को लौट रहे थे। बसों की कमी पड़ रही थी और लोग स्टेशन के कर्मचारियों से झगड़ रहे थे। सर्वाधिक भीड़ दिल्ली जाने वाले लोगों की थी। मैं भी कुछ देर तमाशबीन बन इस भीड़ और इसकी वजह से उत्पन्न अराजकता एवं पुलिस वालों की मशक्कत को देखता रहा। इसके बाद होटल लौट आया।
सुबह के 5.40 मैं पर होटल से निकल लिया। पाँच मिनट में ही स्टेशन पहुँच गया लेकिन अभी बस का कुछ भी अता–पता नहीं था। 5.50 पर बस आयी। मैंने बस में जगह ली। बस में बैठे लोग पर्याप्त ऊनी कपड़ों में थे जिससे लग रहा था कि यह बस दूर से आ रही थी। मेरे बगल में बैठे सहयात्री ने बताया कि यह बस दिल्ली से आ रही है और इसे बागेश्वर से आगे धरमघर तक जाना है। मैंने सोचा धरम काे भी घर मिल गया या फिर धरम का भी कोई घर होता है जो कि उत्तराखण्ड में है। बस का ड्राइवर कुढ़ रहा था कि बस समय से आ गयी तो स्टेशन वाले लेट कर रहे हैं। 6.15 पर बस रवाना हो गयी। अल्मोड़ा से बागेश्वर की 80 किमी की दूरी का किराया 140 रूपये है। अल्मोड़ा से बागेश्वर जाने के दो रास्ते हैं। एक बिनसर होकर तथा दूसरा कोसी,सोमेश्वर,कौसानी,गरूड़,बैजनाथ होकर। जाते समय मैं बिनसर होकर गया जबकि बागेश्वर से वापस लौटते हुए दूसरे रास्ते से लौटा क्योंकि मुझे कौसानी भी जाना था। दोनों की दूरी की में अधिक अन्तर नहीं है।
मेरी बस बिनसर के रास्ते जा रही थी। लेकिन ड्राइवर ने अल्मोड़ा के मुख्य मार्ग को छोड़कर पता नहीं कहाँ से दूसरा रास्ता पकड़ा,मुझे पता नहीं लगा। इस रास्ते पर भीड़–भाड़ भी नहीं थी और सड़क भी अच्छी थी। बागेश्वर पहुँचने से पहले ड्राइवर ने एक–दाे बार और ऐसा किया अर्थात् मुख्य मार्ग छोड़कर कोई बगल का रास्ता पकड़ लिया। खैर सारे रास्ते पकड़ने–छोड़ने के बाद बस 10 बजे बागेश्वर बस स्टैण्ड पहुँच गयी। बागेश्वर के कुछ किलोमीटर पहले से ही सरयू नदी दिखायी देने लगी और इतने सुन्दर रूप में कि मन बल्लियों उछलने लगा।
बागेश्वर के बस स्टैण्ड के आस–पास पर्याप्त होटल और रेस्टोरेण्ट हैं। इसके अलावा बस स्टैण्ड से सरयू किनारे स्थित बागनाथ मन्दिर की ओर जाने वाली सड़क,जो कि बागेश्वर की मुख्य सड़क भी है,पर भी बहुत सारे होटल–रेस्टोरेण्ट हैं। अपनी पसंद के अनुसार चयन किया जा सकता है। मैंने भी आधे घण्टे के अन्दर तीन सौ रूपये में एक होटल चुन लिया जो स्टैण्ड के पास न होकर वहाँ से लगभग पाँच मिनट की दूरी पर बागनाथ मन्दिर की ओर था।
साढ़े दस बजे मैं भोजन की तलाश में होटल से बाहर निकला। कुछ देर तक इधर–उधर भागदौड़ करने पर मुझे अपने लायक यानी कि शाकाहारी रेस्टोरेण्ट नहीं मिला। तो पेट भर भोजन का विचार मैंने भविष्य के टाल दिया और एक ठेले की शरण ली। वहाँ 20 रूपये में छोला–समोसा मिल गया। इसके बाद तेजी से कदम बढ़ाते हुए मैं बागनाथ मन्दिर पहुँचा। भीड़ भरी कर्इ सँकरी सड़कें मन्दिर की ओर जाती हैं लेकिन इन सड़कों से होते हुए मन्दिर की ओर बढ़ने पर मन्दिर बाद में दिखता है लेकिन मनमोहिनी सरयू पहले दिख जाती है। और इस मनमोहिनी के आकर्षण ने मुझे ऐसा खींचा कि मैं मन्दिर को भूलकर पहले नदी किनारे ही पहुँच गया।
शीशे की तरह झलकते और नीली आभा लिये सरयू का तीव्रगामी स्वरूप हरे–भरे पहाड़ों की पृष्ठभूमि में अनुपम सौन्दर्य की सृष्टि करता है। सरयू यहाँ अकेली नहीं है वरन गोमती को अपने अन्दर समाहित करते हुए उसकी भी शक्ति को आत्मसात कर लेती है। यहाँ गोमती अपनी जीवनयात्रा की अन्तिम वेला में स्थिर हो जाती है। उसका वेग मन्द हो जाता है। लेकिन पहाड़ की समस्त ऊर्जा को अन्तर्निहित किए हुए,हरियाली के रंगों को स्वयं में घोलता उसका जल सरयू में विसर्जित होकर भी इस पवित्र मिलन का उद्घोष करता है। ऐसी जगहों पर आने के बाद लगता है कि सुन्दरता नामक शब्द को फिर से परिभाषित करना पड़ेगा।
आज अभी दिन का काफी बड़ा हिस्सा शेष बचा था अतः मैंने बागेश्वर से बाहर निकलने का फैसला किया। मन में बैजनाथ का ध्यान था। तो माँ सरयू के किनारे पर स्थित बागनाथ मन्दिर में दर्शन कर भागते हुए 11.30 तक बागेश्वर बस स्टैण्ड पहुँच गया। बस स्टैण्ड से 2-3 मिनट की पैदल दूरी पर बागेश्वर थाना या कोतवाली है। इसके बगल से छोटी शेयर्ड गाड़ियां बैजनाथ होते हुए गरूड़ को जाती हैं। बस स्टैण्ड से बसें भी बैजनाथ होते हुए कौसानी और अल्मोड़ा को जाती हैं। मैंने एक शेयर्ड गाड़ी पकड़ी। बागेश्वर से बैजनाथ की 23 किमी की दूरी का किराया 40 रूपये है। 45 मिनट में यह दूरी तय करते हुए मेरी गाड़ी 12.30 बजे तक बैजनाथ पहुँच गयी। बागेश्वर से बैजनाथ का यह पूरा रास्ता गोमती नदी के किनारे–किनारे ही गुजरता है। बैजनाथ में गोमती नदी पर बने लोहे के पुल के पास मैं गाड़ी से उतर गया। यहाँ से बैजनाथ मन्दिर बायें हाथ की दिशा में लगभग 100 मीटर की दूरी पर है। इस छोटे से रास्ते पर मैंने एक अजीब दृश्य देखा। एक भिखारी की वेशभूषा बनाये व्यक्ति रास्ते पर बैठा हुआ भीख माँगने के साथ–साथ रेडियो से गाने भी सुन रहा था। मुझे लगा कि दुनिया वास्तव में काफी प्रगति कर रही है। यही सोचते हुए मैं बैजनाथ मन्दिर पहुँच गया।
बैजनाथ मंदिर समूह का मोशन पैनोरमा में लिया गया एक फोटो |
बैजनाथ मन्दिर एक मन्दिर न होकर कई मन्दिरों का समूह है। नागर शैली में निर्मित यह प्राचीन मन्दिर समूह बैजनाथ या वैद्यनाथ के नाम से जाना जाता है। मुख्य मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है। अन्य 17 मन्दिरों में केदारेश्वर,लक्ष्मीनारायण तथा ब्राह्मणी मन्दिर प्रमुख हैं। वास्तु शैली के आधार पर इन मन्दिरों का निर्माण 9वीं शताब्दी ई0 से 12वीं शताब्दी ई0 के मध्य प्राचीन कार्तिकेयपुर के कत्यूरी शासकों द्वारा माना जाता है। अत्यंत प्राचीन मंदिर होने के कारण यह कई बार ध्वंस हुआ और कत्यूरी,गंगोली और चंद वंश के राजाओं ने इसका कई बार जीर्णाेद्धार कराया।
मान्यता है कि यहीं कामदेव का दमन हुआ था और पार्वती से विवाह के लिए जाते हुए शिव ने यहीं पूजा–अर्चना की थी और इस कारण यह स्थान बैजनाथ नाम से जाना गया। आस–पास का क्षेत्र कत्यूर घाटी के नाम से जाना जाता है। कत्यूर घाटी की समुद्रतल से ऊँचाई लगभग 4000 फुट है और इस ऊँचाई पर यह घाटी अत्यंत सुंदर दृश्यों की सृष्टि करती है। एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि मंदिर परिसर गोमती और गरूड़ी नदियों के संगम पर स्थित है। लेकिन संभवतः बहुत छोटी नदी होने के कारण गरूड़ी नदी को मैं नहीं खोज सका। गाेमती में भी काफी कम पानी दिखायी दे रहा था। मन्दिर परिसर से सटे हुए एक कृत्रिम झील है जो गोमती नदी पर बनाये गये बैजनाथ बैराज के कारण निर्मित हुई है। मन्दिर के पास से झील के किनारे टहलने और बैराज तक जाने के लिए रास्ता बना हुआ है। पूरा मन्दिर घूमने के बाद मैं इसी रास्ते पर चलता हुआ बैराज तक गया और बैराज के पास बनी सीढ़ियों से होकर ऊपर मुख्य सड़क पर पहुँच गया।
काफी देर तक चलने–फिरने की वजह से सुबह के छोले–समोसे का कहीं अता–पता नहीं लग रहा था तो बैराज के पास ही बने एक अच्छे रेस्टोरेण्ट में 25 रूपये की चाऊमीन पर हाथ साफ कर दिया। अब शाम तक के लिए इंजन फिट हो गया। रेस्टोरेण्ट से बाहर निकला तो 2.30 बज रहे थे। ज्योंही सड़क पर खड़ा हुआ,बिना किसी इन्तजार के बागेश्वर जाने वाली एक गाड़ी मिल गयी तो बागेश्वर लाैट पड़ा। गाड़ी खाली थी तो मैं खिड़की के पास ही बैठा हुआ था और रास्ते भर सड़क के साथ चल रही गोमती नदी को निहारता रहा। एक दो जगह तो नदी बिल्कुल सड़क से सटकर प्रवाहित होती है। और ऐसी जगह पर कुछ क्षण नहीं बल्कि घण्टों बैठकर कल–कल करती नदी को निहारते रहें तो भी मन नहीं भरेगा।
3.15 तक मैं बागेश्वर में था। यहाँ पहुँचकर बागेश्वर के अन्य दर्शनीय स्थलों के बारे में पूछताछ की तो पता चला शहर से कुछ दूरी पर एक दो छोटे मन्दिर हैं। लेकिन मुझे तो बागनाथ मन्दिर और उसके बगल में सरयू–गोमती का संगम ही अच्छा ही लग रहा था। तो अगले दो घण्टे तक मैं संगम के आस–पास ही घूमता रहा।
बागेश्वर को पूर्वी उत्तर प्रदेश के काशी के समान ही पवित्र माना जाता है। सरयू–गोमती के संगम पर स्थित बागनाथ महादेव या व्याघ्रेश्वर के मंदिर के कारण ही इस शहर का नाम बागेश्वर पड़ा। किंवदंती के अनुसार जब सरयू नदी अयोध्या में भगवान राम के जन्म के समय आयोजित समारोह में सम्मिलित होने के लिए चली तो उसे रास्ते में मारकण्डेय मुनि को तपस्या करते देख कर रूकना पड़ा। सरयू के इस कष्ट को देखकर माता पार्वती को दया आ गयी और उन्होंने सरयू की सहायता करने के लिए भगवान शिव की प्रार्थना की। शिव ने व्याघ्र का रूप लेकर मारकण्डेय मुनि के सामने एक गाय बनी पार्वती पर आक्रमण किया। मारकण्डेय मुनि अपनी तपस्या छोड़ कर गाय को बचाने के लिए दौड़ पड़े। इस बीच सरयू को आगे बढ़ने का अवसर मिला और वह अयोध्या की ओर निकल चली। इधर शिव–पार्वती भी अंतर्ध्यान हो गये। मारकण्डेय मुनि को जब बात समझ में अायी तो उन्होंने शिव–पार्वती की प्रार्थना की और उस स्थान पर मंदिर का निर्माण किया और उसमें शिव की प्रतिमा स्थापित कर उसे व्याघ्रनाथ नाम दिया। समय के थपेड़ों से मारकण्डेय मुनि द्वारा बनवाया गया मंदिर नष्ट हो गया तो कत्यूरी,चंद तथा गंगोली राजाओं द्वारा मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया।
वर्तमान मंदिर का निर्माण सन 1450 में हुआ। यह एक ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व का मंदिर है। शिवरात्रि के दिन यहाँ मेला लगता है। कहा जाता है कि मारकण्डेय मुनि ने व्याघ्र रूप में भगवान शिव के दर्शन किये थे अतः उन्होंने व्याघ्र रूप में भगवान शिव की प्रतिमा स्थापित की थी। बाद में इसमें शिवलिंग की स्थापना कर दी गयी।
शाम के 7.30 बजे जब मैं वापस शहर में लौटा तो मेरे सामने भोजन का संकट खड़ा हो गया। वजह था वेज और नान–वेज का झगड़ा। मैंने नदी किनारे से लेकर बस–स्टैण्ड तक छान मारा। कहीं भी पूर्ण शाकाहारी रेस्टोरेण्ट नहीं मिला। हार मानकर एक कॉमन रेस्टोरेण्ट में ही मुझे शाकाहारी भोजन करना पड़ा। आत्मा गवाही नहीं दे रही थी लेकिन पेट की भी सुननी थी। केवल आत्मा की बात सुनने से तो गुजारा होने से रहा। अब तक साढ़े आठ बज चुके थे। अधिकांश दुकानें बन्द हो चुकी थीं। मैंने भी होटल में घुसकर अपना दरवाजा बन्द कर लिया।
सरयू नदी |
सरयू नदी के किनारे एवं बागनाथ मंदिर के पास एक विशाल शिव प्रतिमा |
बागनाथ मंदिर |
गोमती और सरयू के संगम पर जलती चिता |
गोमती नदी |
संगम के पास गोमती पर बना पुल |
बैजनाथ मंदिर समूह का मुख्य मंदिर |
बैजनाथ मंदिर समूह |
बैजनाथ मंदिर के पास झील के साफ पानी में तैरती मछलियां |
गोमती नदी पर बना बैजनाथ बैराज और उससे निर्मित झील |
शाम की हल्की रोशनी में नीली आभा लिये सरयू का जल |
बागेश्वर से विभिन्न स्थानों की दूरियां |
उत्तराखण्ड की संस्कृति काे दर्शाता गोमती किनारे बना एक चित्र |
अगला भाग ः कौसानी–गाँधीजी के साथ एक रात
सम्बन्धित अन्य यात्रा विवरण–
1. अल्मोड़ा
2. जागेश्वर धाम
3. बागेश्वर
4. कौसानी–गाँधीजी के साथ एक रात
बागेश्वर एक बार जाना हुआ है मंदिर नहीं देख पाये। अगली यात्रा में देखा जायेगा।
ReplyDeleteधन्यवाद जी। बागेश्वर बहुत सुंदर जगह है।
Deleteबागेश्वर और बैजनाथ के बारे में आपका लेख पढ़कर अच्छा लगा, सरयू नदी की सुन्दरता वाकई देखने लायक है और बैराज से लिया चित्र भी अच्छा लग रहा है ! अगली बार मेरा कभी कुमाऊं जाना हुआ तो अल्मोड़ा और इसके आस-पास की इन जगहों को देखने की कोशिश करूँगा !
ReplyDeleteधन्यवाद प्रदीप भाई। अल्मोड़ा वाकई एक सुंदर जगह है। इसके आस–पास कई प्राचीन धार्मिक स्थल भी हैं। मेरा लेख और चित्र आपको अच्छा लगा,मेरे लिए खुशी की बात है।
DeleteIt's amazing💕😍
ReplyDeleteThanks ji
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