छठा दिन–
आज मेरी इस यात्रा का छठा और अन्तिम दिन था। रात में झाँसी से मुझे बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस पकड़नी थी। इस यात्रा का मेरा अन्तिम पड़ाव था– दतिया। यहाँ आने से पहले मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि दतिया जाऊँगा लेकिन पीताम्बरा पीठ तथा वीर सिंह पैलेस का आकर्षण मुझे यहाँ खींच लाया। सुबह 7 बजे होटल से चेकआउट करके अपना बैग मैंने होटल में ही जमा कर दिया और झाँसी बस स्टेशन के लिए निकल पड़ा। दतिया के लिए मुझे बस मिली 7.45 पर। 30 किमी की दूरी लगभग एक घण्टे में पूरी हो गयी। दतिया का बस स्टेशन शहर से कुछ बाहर की तरफ ही है। बस से उतर कर मैं पैदल ही चल पड़ा।
चूँकि मैं दशहरे की छुट्टी का फायदा उठा रहा था तो दिन की तेज धूप का मजा भी साथ में लेना ही पड़ेगा। रास्ता पूछते–पूछते बिल्कुल सीधी सड़क पर 10 मिनट में पीताम्बरा पीठ पहुँच गया। इस मन्दिर का काफी नाम सुन रखा था। मन्दिर के अन्दर की व्यवस्था बहुत ही अनुशासित और साफ–सुथरी है। बाहर ही जूता–चप्पल और बैग वगैरह जमा करने की व्यवस्था है। मैंने भी कम भीड़ का फायदा उठाकर माँ पीताम्बरा के दर्शन कर लिए। इस मन्दिर में दस महाविद्याओं में से एक माँ बगलामुखी की प्रतिमा स्थापित है।
मन्दिर दर्शन के बाद मैं शहर की ओर बढ़ा। साढ़े नौ बज चुके थे। पेट अपना साइरन बजा रहा था तो 15 रूपये प्लेट वाले,मध्य प्रदेश के प्रसिद्ध व्यंजन,पोहा का नाश्ता किया। इसके बाद मैं राजगढ़ पैलेस की ओर बढ़ चला। राजगढ़ पैलेस का निर्माण बुन्देला राजा शत्रुजीत ने कराया था। पीताम्बरा मन्दिर से पाँच मिनट की पैदल दूरी पर राजगढ़ पैलेस है। खण्डहर जैसा महल पीताम्बरा पीठ के पास से ही दिख रहा था लेकिन इसका रास्ता गलियों में होने के कारण मुझे कई लोगों से पूछताछ करनी पड़ी। पैलेस की ओर जाने वाली गली में जब मैंने एक लड़के से पैलेस का रास्ता पूछा तो उसने सलाह दी कि वहाँ मत जाइए। वहाँ कुछ नहीं है। केवल खण्डहर है। लेकिन मैं कहाँ मानने वाला था। मैंने सोचा कि और कुछ नहीं तो अगर खण्डहर है तो भूत–प्रेत तो होंगे ही। पैलेस के ठीक सामने जब मैं पहुँचा तो यह बिल्कुल जर्जर भवन की तरह दिख रहा था। लेकिन खण्डहरों से ही मालूम पड़ता है कि इमारत कैसी रही होगी। इसके मुख्यद्वार पर ताला लटका था। इसके एक भाग में संग्रहालय का बोर्ड लगा था जिस पर इसके उद्घाटन के बारे में भी सूचना अंकित थी लेकिन संग्रहालय अथवा किसी कर्मचारी का कोई अता–पता नहीं था। पूछताछ करने पर पता चला कि संग्रहालय बना तो था लेकिन अब कहीं और चला गया है। एक ऊँचे स्थान पर बने इस महल की ऊँचाई से दूर स्थित दतिया का प्रसिद्ध वीर सिंह पैलेस दिखाई दे रहा था। मैंने कुछ फोटाे खींचे और वापस चल पड़ा।
सड़क पर आकर वीर सिंह पैलेस और दतिया पैलेस जाने के लिए आटो की खोज में पड़ा। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि कई ऑटो वालों से पूछने के बाद भी कोई इन स्थानों के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं दे पा रहा है। एक ने कहा कि इन जगहों पर तो नहीं लेकिन मैं आपको किला चौक तक छोड़ सकता हूँ। चौक के पास ही किला है जहाँ आप घूम सकते हैं। कम से कम ऑटो वालों को तो शहर की गलियों और महत्वपूर्ण स्थानों के बारे में मालूम होना चाहिए। वास्तव में दतिया के ये ऐतिहासिक स्थल अभी यहाँ के ऑटो वालों के लिए तो बेकार ही हैं। अब मेरे पास अँधेरे में तीर चलाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। मैं उसी आटो में सवार हो गया। उसने मुझे एक चौराहे पर उतार दिया और बताया कि पास ही किला है उसमें आप जा सकते हैं। अब मेरी पूछताछ फिर से शुरू हुई। लोग किले के बारे में तो बता रहे थे लेकिन वीर सिंह पैलेस और दतिया पैलेस के बारे में नहीं।
हार मानकर मैंने किले में ही प्रवेश किया। दतिया का किला अन्य किलों की तरह से पुरातत्व विभाग के अधीन नहीं है वरन सम्भवतः यह अपने वास्तविक मालिकों अथवा उनके किसी उत्तराधिकारी के पास ही है। साथ ही यह शहर से अलग–थलग न होकर शहर की आबादी के बीच में अवस्थित है। इस वजह से एक नजर में देखने पर यह किले जैसा दिखता नहीं है। इसके अलावा इसे दिखाने की कोशिश भी नहीं की गयी है वरन इसका उपयोग किया जा रहा है,भले ही यह किसी भी स्थिति में हो। इसके मुख्य द्वार तक भी मैं पूछते–पूछते ही पहुँच सका। इसके मुख्य द्वार में लगे दरवाजे में नुकीली कीलें लगी हुई हैं। जर्जर हो जाने के बाद भी यह अपने जमाने की सच्चाई बताने में सक्षम है। अन्दर प्रवेश कर दाहिने मुड़ने पर एक स्थान पर एक तोप दिखाई पड़ती है लेकिन यह पूरी तरह उपेक्षित सी पड़ी हुई है। यहाँ से आगे बढ़ने पर मुझे एक खुला प्रांगण दिखाई पड़ा जिसके चारों तरफ पुराने जमाने की खण्डहरनुमा कई इमारतें दिखाई पड़ रही थीं।
मेरे जैसे अजनबी को अन्दर प्रवेश कर आगे बढ़ते देख एक दो आवाजें भी आईं। मुझे बायीं तरफ एक इमारत पर कांग्रेस पार्टी के कार्यालय का बैनर लगा दिखाई पड़ा। साथ ही एक व्यक्ति भी खड़े दिखाई पड़े। मन में आशा बँधी कि कोई नेता–कार्यकर्ता जैसे आदमी होंगे तो मेरी कुछ न कुछ मदद जरूर करेंगे। अगल–बगल से आ रही प्रश्नवाचक आवाजों को अनदेखा कर मैं उनकी तरफ बढ़ गया। पास पहुँचकर उनसे मैंने दतिया किले व दतिया पैलेस के बारे जानकारी चाही। उन्होंने बताया कि दतिया का किला यही है तथा दतिया पैलेस किले के अन्दर ही है। यहाँ पर राजा का निवास है और इस वजह से बाहरी लोग वहाँ नहीं जा सकते। मेरे सवालों में इससे अधिक उन महोदय को कोई रूचि नहीं लग रही थी। हार मानकर मैं वापस लौट पड़ा। किले में आ–जा रहे सामान ढोने वाले छोटे वाहनों को देखकर महसूस हो रहा था कि किले के भवनों का अच्छा खासा व्यावसायिक उपयोग किया जा रहा है। मैं वापस चौराहे पर आया तो मालूम हुआ कि चौराहे के आस–पास एक–दो और भी पुरानी इमारतें हैं जिनका विभिन्न तरीकों से उपयोग किया जा रहा है और ऐतिहासिक विरासत के रूप में इनका कोई महत्व नहीं है। ऐतिहासिक धरोहरों के ऐसे दुरूपयोग से निराश होकर मैं अब किसी दूसरे लक्ष्य की तलाश में पड़ा।
दतिया से दक्षिण–पूर्व में 16 किमी की दूरी पर उनाव में बालाजी के नाम से प्रसिद्ध प्रागैतिहासिक काल का सूर्य मन्दिर तथा 17 किमी की दूरी पर उत्तर–पश्चिम में सोनागिरि का जैन मन्दिर भी दर्शनीय हैं। इन दोनों स्थानों पर एक ही दिन में पहुँच पाना मेरे लिए काफी मुश्किल लग रहा था क्योंकि अभी मेरी लिस्ट में वीर सिंह पैलेस भी अपनी जगह बनाये हुए था तथा साथ ही मुझे आज ही झाँसी पहुँचकर ट्रेन भी पकड़नी थी। तो मैंने सोनागिरि के जैन मन्दिर जाने का निश्चय किया। आटो वालों से पूछा तो मालूम हुआ कि किला चौक से कुछ ही दूरी पर आटो मिल जायेगी। एक ऑटो वाले ने मुझे उस तथाकथित "कुछ ही दूरी" वाले स्थान पर पहुँचाने के लिए अपनी ऑटो में बिठा लिया। दस मिनट तक मुझे इधर–उधर घुमाता रहा। जब मैं गुस्सा हुआ तब मुझे सही जगह पर लाकर छोड़ा। उसकी नीयत यह थी कि मुझे परेशान कर सीधे सोनागिरि के लिए अपनी ऑटो बुक करवा ले। वहाँ पहुँचा तो ज्ञात हुआ कि सोनागिरि के लिए गाड़ी कब जायेगी,इसका कुछ निश्चित नहीं है। आपका जाना बहुत जरूरी है तो ऑटो बुक कर लीजिए। मैंने इस विकल्प पर भी विचार किया लेकिन इसका खर्च मेरी नजर में कुछ ज्यादा ही पड़ रहा था सो मैंने इसे 'फिर कभी' के लिए टाल दिया और वीर सिंह पैलेस के लिए चल पड़ा। इस तरह का घूमना,जहाँ के रास्ते और साधनों का पता न हो,जल्दबाजी में नहीं हो पायेगा।
तो अब वीर सिंह पैलेस।
वीर सिंह पैलेस किला चौक से लगभग 10 मिनट के पैदल रास्ते पर है। गलियों में भटक रहे मनुष्यों और चौपायों से बचते–बचाते मैं वीर सिंह पैलेस पहुँचा। पैलेस के सामने पहुँचा तो आँखें फटी रह गयीं। इतनी भव्य इमारत और इतनी उपेक्षितǃ यहाँ पहुँचने का न तो कोई सीधा रास्ता है न ही इसके आस–पास पर्याप्त साफ–सफाई है। साथ ही यहाँ पहुँचने वालों की संख्या भी काफी कम है। मुख्य द्वार से अन्दर प्रवेश करने पर एक छोटे से हॉल में तीन–चार कर्मचारी खड़े दिखे जिनमें से सूट–बूट में दिखने वाला उन सबका हेड लग रहा था। एक रजिस्टर में इन्ट्री के बाद बिना किसी टिकट के प्रवेश की अनुमति थी। मैं भी गले में कैमरा लटकाये इस विशाल महल के अन्दर प्रवेश कर गया।
वीर सिंह पैलेस एक पाँच मंजिला महल है जिसे पुराना महल या नृसिंह महल के नाम से जाना जाता है। इसे गोविंद महल या सतखंडा महल के नाम से भी जानते हैं। इस महल के बारे में एक किंवदन्ती है कि इसमें नौ खण्ड हैं जिनमें से सात भूमि के ऊपर और दो नीचे हैं। सत्यता क्या है यह बताने वाला कोई नहीं। इस महल का निर्माण राजा वीर सिंह देव ने 1620 में कराया था जो ओरछा के प्रसिद्ध राजा मधुकर शाह के चौथे पुत्र थे। कहते हैं कि इस महल के निर्माण में नौ वर्ष का समय लगा और 35 लाख रूपये खर्च हुए। महल के कुछ भाग अपूर्ण भी हैं। इस महल के निर्माण में पत्थर एवं ईंटों का ही प्रयोग किया गया है। कहीं भी लकड़ी या लोहे का प्रयोग नहीं किया गया है।
भवन योजना में यह महल चौकोर है जिसके चारों कोनों पर अष्टकोणीय मीनारें हैं। यह महल विभिन्न छत्रियों,जिन पर गुम्बद बने हैं,से सुसज्जित है। इसके कई भागों की छत भीतर की ओर से उकेरी गयी कला से सुसज्जित है। महल में एक तल से दूसरे पर जाने के लिए कई–कई सीढ़ियां बनी हैं। यद्यपि इनमें से कई सीढियाें के दरवाजों काे बन्द कर दिया गया है लेकिन फिर भी सीढ़ियों की यह संख्या महल में रास्ता भूलने के लिए पर्याप्त हैं। यह महल उसी स्थान पर बनाया गया है जहाँ वीर सिंह देव ने जहाँगीर से मुलाकात की थी। यह महल एक पहाड़ी पर बनाया गया है। महल में 440 कमरे हैं और बीच–बीच में आँगन हैं। महल में पत्थर की जालियों की नक्काशी उत्कृष्ट है। यह महल मुगल एवं राजपूत स्थापत्य कला का अनूठा उदाहरण है। महल के ऊपरी भाग से आस–पास के क्षेत्रों एवं दतिया शहर का खूबसूरत नजारा दिखाई पड़ता है।
महल की निचली एक–दो मंजिलों को पर्यटकों के लिए बन्द रखा गया है। इन बन्द मंजिलों में चमगादड़ों का बसेरा है जिनकी गंध हर समय इनकी उपस्थिति का एहसास कराती रहती है। महल के मुख्य द्वार पर तैनात कर्मचारी हर किसी की ठीक से जाँच करने के बाद ही अन्दर जाने दे रहे थे। मेरे पीछे दो लड़कियां थीं जो महल देखने के लिए आयीं थीं। कर्मचारियों ने लड़की होने के नाते उन्हें अन्दर जाने से रोक दिया। मुझे यह बहुत ही गलत लगा। लेकिन अन्दर घूमते हुए मुझे यह महसूस हुआ कि कर्मचारियों का वह निर्णय काफी हद तक सही था। अपने विशाल आकार और चारों तरफ से जुड़े रास्तों की वजह से यह महल किसी खतरनाक भूलभुलैया से कम नहीं है।
मुख्य प्रवेश द्वार से आगे बढ़ने पर एक दो कक्षों में काफी अँधेरा था और उस स्थान पर लोग काफी हिचकते हुए आगे बढ़ रहे थे। लेकिन मैं काफी आत्मविश्वास से आगे बढ़ता गया। मेरे मन में एक तरह की बेफिक्री थी कि मैं कोई आम पर्यटक नहीं हूँ और मेरे लिए यहाँ कोई समस्या नहीं होगी लेकिन यह मेरी भूल थी। सबसे ऊपर की मंजिलों पर टहलते हुए मैं भी रास्ता भूल गया। कुछ देर तक तो मैं शान्ति से रास्ते की खोज करता रहा लेकिन बाद में मेरे मन में भी घबराहट आ गई। जैसा कि मैं पहले भी उल्लेख कर चुका हूँ कि एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर जाने के लिए कई सीढ़ियां हैं जिनमें से कुछ को बन्द कर दिया गया है। इसमें समस्या यह है कि बन्द सीढ़ियों के दोनों ओर के दरवाजों को नहीं बन्द किया गया है वरन केवल ऊपर या केवल नीचे के दरवाजे को ही बन्द किया गया है। दूसरी समस्या यह है कि इन बन्द सीढ़ियों में काफी अँधेरा है जहाँ कमजोर दिल वाला आदमी अगर अकेला हो तो डर जायेगा।
ऐसी ही एक सीढ़ी से जब मैं नीचे उतरा तो उसका नीचे का दरवाजा बन्द मिला। इसी तरह कई सीढ़ियों से उतरने के बाद भी मुझे रास्ता नहीं मिल सका। किसी तरह एक रास्ता खुला मिला तो मैं एक मंजिल नीचे आ गया। अब इस मंजिल से नीचे उतरने का रास्ता नहीं मिल रहा था। हार मानकर मैंने ऊपर जाने की कोशिश की तो ऊपर जाने का रास्ता नहीं मिल रहा था। आधे घंटे तक इस भूलभुलैया में चक्कर काटने के बाद मुझे नीचे जाने का रास्ता मिला। ऊपर की मंजिलों पर कम ही लोग जा रहे थे और इस वजह से वहाँ सन्नाटे जैसा माहौल था। एक–दो मंजिल और नीचे उतरने के बाद मुझे वे दोनों लड़कियां सेल्फी खींचती नजर आयीं जिन्हें इस महल के कर्मचारी अकेले होने की वजह से अन्दर नहीं जाने दे रहे थे। पता नहीं किस जुगाड़ से वे अन्दर प्रवेश कर गयी थीं।
वीर सिंह पैलेस में काफी देर तक घूमने के बाद जब मैं बाहर निकला तो 1.00 बजने वाले थे। सुबह से अब तक मैं काफी पैदल चल चुका था। धूप लगी थी सो अलग। सीढ़ियां भी काफी चढ़ा–उतरा था। भूख लग रही थी। कुछ देर तो वहीं बैठकर मैंने आराम किया। महल में बैठकर आराम करने में चमगादड़ों की गन्ध के अलावा और कोई परेशानी नहीं थी। बाहर के गर्म मौसम की तुलना में अन्दर काफी ठंडक थी। फिर वापसी हेतु ऑटो पकड़ने के लिए किला चौक के पास आ गया। कुछ देर इन्तजार करने के बाद ऑटो मिली। दो बजे तक मैं राजगढ़ पैलेस और पीताम्बरा पीठ के पास स्थित चौराहे पर चला आया। वही ऑटो सीधे बस–स्टेशन जा रही थी लेकिन खाना खाने के लिए मैं वहीं रूक गया। सुबह के समय मुझे वहाँ कई रेस्टोरेण्ट दिखे थे। जब मैं वहाँ खाना खाने के लिए पहुँचा तो वहाँ की व्यवस्था कुछ अजीब सी लगी। अधिकांश लोग चावल–दाल–सब्जी खा रहे थे। वहाँ उपलब्ध भी वही था। मैंने रोटी की माँग की तो थोड़ा समय लगा। सब्जी अच्छी नहीं थी तो मैंने केवल दाल–रोटी से काम चलाया। सर्वोत्तम भोजन तो दाल रोटी ही है। खाना खाने के बाद मैं भागते हुए दतिया बस–स्टेशन पहुँचा। झाँसी के लिए बस लगी थी। तीन बजे मैं झाँसी के लिए रवाना हो गया और एक घण्टे में झाँसी पहुँच गया। मेरी ट्रेन रात के साढ़े दस बजे थी। मैं सतर्कतावश काफी जल्दी झाँसी आ गया था। चार बजे के आस–पास मैं झाँसी बस स्टेशन पहुँच गया। मेरा एक बैग इलाइट चौराहे के पास होटल में था। मुझे अभी काफी समय बिताना था। अतः मैं इलाइट चौराहे से कुछ ही दूरी पर स्थित रानी लक्ष्मी बाई पार्क चला गया। एक–दो घण्टे पार्क में घूमने और उसके बाद इलाइट चौराहे पर खाना खाने के बाद मैं रात में झाँसी रेलवे स्टेशन पहुँच गया। मेरी ट्रेन लगभग समय से आयी और घर वापसी करने के लिए मैं उसमें सवार हो गया।
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. चन्देरी की ओर
2. चन्देरी–इतिहास के झरोखे से
3. चन्देरी–इतिहास के झरोखे से (अगला भाग)
4. देवगढ़–स्वर्णयुग का अवशेष
5. ओरछा–जीवित किंवदन्ती
6. झाँसी–बुन्देलों ने कही कहानी
7. दतिया–गुमनाम इतिहास
सड़क पर आकर वीर सिंह पैलेस और दतिया पैलेस जाने के लिए आटो की खोज में पड़ा। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि कई ऑटो वालों से पूछने के बाद भी कोई इन स्थानों के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं दे पा रहा है। एक ने कहा कि इन जगहों पर तो नहीं लेकिन मैं आपको किला चौक तक छोड़ सकता हूँ। चौक के पास ही किला है जहाँ आप घूम सकते हैं। कम से कम ऑटो वालों को तो शहर की गलियों और महत्वपूर्ण स्थानों के बारे में मालूम होना चाहिए। वास्तव में दतिया के ये ऐतिहासिक स्थल अभी यहाँ के ऑटो वालों के लिए तो बेकार ही हैं। अब मेरे पास अँधेरे में तीर चलाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। मैं उसी आटो में सवार हो गया। उसने मुझे एक चौराहे पर उतार दिया और बताया कि पास ही किला है उसमें आप जा सकते हैं। अब मेरी पूछताछ फिर से शुरू हुई। लोग किले के बारे में तो बता रहे थे लेकिन वीर सिंह पैलेस और दतिया पैलेस के बारे में नहीं।
हार मानकर मैंने किले में ही प्रवेश किया। दतिया का किला अन्य किलों की तरह से पुरातत्व विभाग के अधीन नहीं है वरन सम्भवतः यह अपने वास्तविक मालिकों अथवा उनके किसी उत्तराधिकारी के पास ही है। साथ ही यह शहर से अलग–थलग न होकर शहर की आबादी के बीच में अवस्थित है। इस वजह से एक नजर में देखने पर यह किले जैसा दिखता नहीं है। इसके अलावा इसे दिखाने की कोशिश भी नहीं की गयी है वरन इसका उपयोग किया जा रहा है,भले ही यह किसी भी स्थिति में हो। इसके मुख्य द्वार तक भी मैं पूछते–पूछते ही पहुँच सका। इसके मुख्य द्वार में लगे दरवाजे में नुकीली कीलें लगी हुई हैं। जर्जर हो जाने के बाद भी यह अपने जमाने की सच्चाई बताने में सक्षम है। अन्दर प्रवेश कर दाहिने मुड़ने पर एक स्थान पर एक तोप दिखाई पड़ती है लेकिन यह पूरी तरह उपेक्षित सी पड़ी हुई है। यहाँ से आगे बढ़ने पर मुझे एक खुला प्रांगण दिखाई पड़ा जिसके चारों तरफ पुराने जमाने की खण्डहरनुमा कई इमारतें दिखाई पड़ रही थीं।
मेरे जैसे अजनबी को अन्दर प्रवेश कर आगे बढ़ते देख एक दो आवाजें भी आईं। मुझे बायीं तरफ एक इमारत पर कांग्रेस पार्टी के कार्यालय का बैनर लगा दिखाई पड़ा। साथ ही एक व्यक्ति भी खड़े दिखाई पड़े। मन में आशा बँधी कि कोई नेता–कार्यकर्ता जैसे आदमी होंगे तो मेरी कुछ न कुछ मदद जरूर करेंगे। अगल–बगल से आ रही प्रश्नवाचक आवाजों को अनदेखा कर मैं उनकी तरफ बढ़ गया। पास पहुँचकर उनसे मैंने दतिया किले व दतिया पैलेस के बारे जानकारी चाही। उन्होंने बताया कि दतिया का किला यही है तथा दतिया पैलेस किले के अन्दर ही है। यहाँ पर राजा का निवास है और इस वजह से बाहरी लोग वहाँ नहीं जा सकते। मेरे सवालों में इससे अधिक उन महोदय को कोई रूचि नहीं लग रही थी। हार मानकर मैं वापस लौट पड़ा। किले में आ–जा रहे सामान ढोने वाले छोटे वाहनों को देखकर महसूस हो रहा था कि किले के भवनों का अच्छा खासा व्यावसायिक उपयोग किया जा रहा है। मैं वापस चौराहे पर आया तो मालूम हुआ कि चौराहे के आस–पास एक–दो और भी पुरानी इमारतें हैं जिनका विभिन्न तरीकों से उपयोग किया जा रहा है और ऐतिहासिक विरासत के रूप में इनका कोई महत्व नहीं है। ऐतिहासिक धरोहरों के ऐसे दुरूपयोग से निराश होकर मैं अब किसी दूसरे लक्ष्य की तलाश में पड़ा।
दतिया से दक्षिण–पूर्व में 16 किमी की दूरी पर उनाव में बालाजी के नाम से प्रसिद्ध प्रागैतिहासिक काल का सूर्य मन्दिर तथा 17 किमी की दूरी पर उत्तर–पश्चिम में सोनागिरि का जैन मन्दिर भी दर्शनीय हैं। इन दोनों स्थानों पर एक ही दिन में पहुँच पाना मेरे लिए काफी मुश्किल लग रहा था क्योंकि अभी मेरी लिस्ट में वीर सिंह पैलेस भी अपनी जगह बनाये हुए था तथा साथ ही मुझे आज ही झाँसी पहुँचकर ट्रेन भी पकड़नी थी। तो मैंने सोनागिरि के जैन मन्दिर जाने का निश्चय किया। आटो वालों से पूछा तो मालूम हुआ कि किला चौक से कुछ ही दूरी पर आटो मिल जायेगी। एक ऑटो वाले ने मुझे उस तथाकथित "कुछ ही दूरी" वाले स्थान पर पहुँचाने के लिए अपनी ऑटो में बिठा लिया। दस मिनट तक मुझे इधर–उधर घुमाता रहा। जब मैं गुस्सा हुआ तब मुझे सही जगह पर लाकर छोड़ा। उसकी नीयत यह थी कि मुझे परेशान कर सीधे सोनागिरि के लिए अपनी ऑटो बुक करवा ले। वहाँ पहुँचा तो ज्ञात हुआ कि सोनागिरि के लिए गाड़ी कब जायेगी,इसका कुछ निश्चित नहीं है। आपका जाना बहुत जरूरी है तो ऑटो बुक कर लीजिए। मैंने इस विकल्प पर भी विचार किया लेकिन इसका खर्च मेरी नजर में कुछ ज्यादा ही पड़ रहा था सो मैंने इसे 'फिर कभी' के लिए टाल दिया और वीर सिंह पैलेस के लिए चल पड़ा। इस तरह का घूमना,जहाँ के रास्ते और साधनों का पता न हो,जल्दबाजी में नहीं हो पायेगा।
तो अब वीर सिंह पैलेस।
वीर सिंह पैलेस किला चौक से लगभग 10 मिनट के पैदल रास्ते पर है। गलियों में भटक रहे मनुष्यों और चौपायों से बचते–बचाते मैं वीर सिंह पैलेस पहुँचा। पैलेस के सामने पहुँचा तो आँखें फटी रह गयीं। इतनी भव्य इमारत और इतनी उपेक्षितǃ यहाँ पहुँचने का न तो कोई सीधा रास्ता है न ही इसके आस–पास पर्याप्त साफ–सफाई है। साथ ही यहाँ पहुँचने वालों की संख्या भी काफी कम है। मुख्य द्वार से अन्दर प्रवेश करने पर एक छोटे से हॉल में तीन–चार कर्मचारी खड़े दिखे जिनमें से सूट–बूट में दिखने वाला उन सबका हेड लग रहा था। एक रजिस्टर में इन्ट्री के बाद बिना किसी टिकट के प्रवेश की अनुमति थी। मैं भी गले में कैमरा लटकाये इस विशाल महल के अन्दर प्रवेश कर गया।
वीर सिंह पैलेस एक पाँच मंजिला महल है जिसे पुराना महल या नृसिंह महल के नाम से जाना जाता है। इसे गोविंद महल या सतखंडा महल के नाम से भी जानते हैं। इस महल के बारे में एक किंवदन्ती है कि इसमें नौ खण्ड हैं जिनमें से सात भूमि के ऊपर और दो नीचे हैं। सत्यता क्या है यह बताने वाला कोई नहीं। इस महल का निर्माण राजा वीर सिंह देव ने 1620 में कराया था जो ओरछा के प्रसिद्ध राजा मधुकर शाह के चौथे पुत्र थे। कहते हैं कि इस महल के निर्माण में नौ वर्ष का समय लगा और 35 लाख रूपये खर्च हुए। महल के कुछ भाग अपूर्ण भी हैं। इस महल के निर्माण में पत्थर एवं ईंटों का ही प्रयोग किया गया है। कहीं भी लकड़ी या लोहे का प्रयोग नहीं किया गया है।
भवन योजना में यह महल चौकोर है जिसके चारों कोनों पर अष्टकोणीय मीनारें हैं। यह महल विभिन्न छत्रियों,जिन पर गुम्बद बने हैं,से सुसज्जित है। इसके कई भागों की छत भीतर की ओर से उकेरी गयी कला से सुसज्जित है। महल में एक तल से दूसरे पर जाने के लिए कई–कई सीढ़ियां बनी हैं। यद्यपि इनमें से कई सीढियाें के दरवाजों काे बन्द कर दिया गया है लेकिन फिर भी सीढ़ियों की यह संख्या महल में रास्ता भूलने के लिए पर्याप्त हैं। यह महल उसी स्थान पर बनाया गया है जहाँ वीर सिंह देव ने जहाँगीर से मुलाकात की थी। यह महल एक पहाड़ी पर बनाया गया है। महल में 440 कमरे हैं और बीच–बीच में आँगन हैं। महल में पत्थर की जालियों की नक्काशी उत्कृष्ट है। यह महल मुगल एवं राजपूत स्थापत्य कला का अनूठा उदाहरण है। महल के ऊपरी भाग से आस–पास के क्षेत्रों एवं दतिया शहर का खूबसूरत नजारा दिखाई पड़ता है।
महल की निचली एक–दो मंजिलों को पर्यटकों के लिए बन्द रखा गया है। इन बन्द मंजिलों में चमगादड़ों का बसेरा है जिनकी गंध हर समय इनकी उपस्थिति का एहसास कराती रहती है। महल के मुख्य द्वार पर तैनात कर्मचारी हर किसी की ठीक से जाँच करने के बाद ही अन्दर जाने दे रहे थे। मेरे पीछे दो लड़कियां थीं जो महल देखने के लिए आयीं थीं। कर्मचारियों ने लड़की होने के नाते उन्हें अन्दर जाने से रोक दिया। मुझे यह बहुत ही गलत लगा। लेकिन अन्दर घूमते हुए मुझे यह महसूस हुआ कि कर्मचारियों का वह निर्णय काफी हद तक सही था। अपने विशाल आकार और चारों तरफ से जुड़े रास्तों की वजह से यह महल किसी खतरनाक भूलभुलैया से कम नहीं है।
मुख्य प्रवेश द्वार से आगे बढ़ने पर एक दो कक्षों में काफी अँधेरा था और उस स्थान पर लोग काफी हिचकते हुए आगे बढ़ रहे थे। लेकिन मैं काफी आत्मविश्वास से आगे बढ़ता गया। मेरे मन में एक तरह की बेफिक्री थी कि मैं कोई आम पर्यटक नहीं हूँ और मेरे लिए यहाँ कोई समस्या नहीं होगी लेकिन यह मेरी भूल थी। सबसे ऊपर की मंजिलों पर टहलते हुए मैं भी रास्ता भूल गया। कुछ देर तक तो मैं शान्ति से रास्ते की खोज करता रहा लेकिन बाद में मेरे मन में भी घबराहट आ गई। जैसा कि मैं पहले भी उल्लेख कर चुका हूँ कि एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर जाने के लिए कई सीढ़ियां हैं जिनमें से कुछ को बन्द कर दिया गया है। इसमें समस्या यह है कि बन्द सीढ़ियों के दोनों ओर के दरवाजों को नहीं बन्द किया गया है वरन केवल ऊपर या केवल नीचे के दरवाजे को ही बन्द किया गया है। दूसरी समस्या यह है कि इन बन्द सीढ़ियों में काफी अँधेरा है जहाँ कमजोर दिल वाला आदमी अगर अकेला हो तो डर जायेगा।
ऐसी ही एक सीढ़ी से जब मैं नीचे उतरा तो उसका नीचे का दरवाजा बन्द मिला। इसी तरह कई सीढ़ियों से उतरने के बाद भी मुझे रास्ता नहीं मिल सका। किसी तरह एक रास्ता खुला मिला तो मैं एक मंजिल नीचे आ गया। अब इस मंजिल से नीचे उतरने का रास्ता नहीं मिल रहा था। हार मानकर मैंने ऊपर जाने की कोशिश की तो ऊपर जाने का रास्ता नहीं मिल रहा था। आधे घंटे तक इस भूलभुलैया में चक्कर काटने के बाद मुझे नीचे जाने का रास्ता मिला। ऊपर की मंजिलों पर कम ही लोग जा रहे थे और इस वजह से वहाँ सन्नाटे जैसा माहौल था। एक–दो मंजिल और नीचे उतरने के बाद मुझे वे दोनों लड़कियां सेल्फी खींचती नजर आयीं जिन्हें इस महल के कर्मचारी अकेले होने की वजह से अन्दर नहीं जाने दे रहे थे। पता नहीं किस जुगाड़ से वे अन्दर प्रवेश कर गयी थीं।
वीर सिंह पैलेस में काफी देर तक घूमने के बाद जब मैं बाहर निकला तो 1.00 बजने वाले थे। सुबह से अब तक मैं काफी पैदल चल चुका था। धूप लगी थी सो अलग। सीढ़ियां भी काफी चढ़ा–उतरा था। भूख लग रही थी। कुछ देर तो वहीं बैठकर मैंने आराम किया। महल में बैठकर आराम करने में चमगादड़ों की गन्ध के अलावा और कोई परेशानी नहीं थी। बाहर के गर्म मौसम की तुलना में अन्दर काफी ठंडक थी। फिर वापसी हेतु ऑटो पकड़ने के लिए किला चौक के पास आ गया। कुछ देर इन्तजार करने के बाद ऑटो मिली। दो बजे तक मैं राजगढ़ पैलेस और पीताम्बरा पीठ के पास स्थित चौराहे पर चला आया। वही ऑटो सीधे बस–स्टेशन जा रही थी लेकिन खाना खाने के लिए मैं वहीं रूक गया। सुबह के समय मुझे वहाँ कई रेस्टोरेण्ट दिखे थे। जब मैं वहाँ खाना खाने के लिए पहुँचा तो वहाँ की व्यवस्था कुछ अजीब सी लगी। अधिकांश लोग चावल–दाल–सब्जी खा रहे थे। वहाँ उपलब्ध भी वही था। मैंने रोटी की माँग की तो थोड़ा समय लगा। सब्जी अच्छी नहीं थी तो मैंने केवल दाल–रोटी से काम चलाया। सर्वोत्तम भोजन तो दाल रोटी ही है। खाना खाने के बाद मैं भागते हुए दतिया बस–स्टेशन पहुँचा। झाँसी के लिए बस लगी थी। तीन बजे मैं झाँसी के लिए रवाना हो गया और एक घण्टे में झाँसी पहुँच गया। मेरी ट्रेन रात के साढ़े दस बजे थी। मैं सतर्कतावश काफी जल्दी झाँसी आ गया था। चार बजे के आस–पास मैं झाँसी बस स्टेशन पहुँच गया। मेरा एक बैग इलाइट चौराहे के पास होटल में था। मुझे अभी काफी समय बिताना था। अतः मैं इलाइट चौराहे से कुछ ही दूरी पर स्थित रानी लक्ष्मी बाई पार्क चला गया। एक–दो घण्टे पार्क में घूमने और उसके बाद इलाइट चौराहे पर खाना खाने के बाद मैं रात में झाँसी रेलवे स्टेशन पहुँच गया। मेरी ट्रेन लगभग समय से आयी और घर वापसी करने के लिए मैं उसमें सवार हो गया।
राजगढ़ पैलेस |
राजगढ़ पैलेस |
राजगढ़ पैलेस से दूर दिखता एक मन्दिर का शीर्ष |
राजगढ़ पैलेस से दिखता वीर सिंह पैलेस |
दतिया किले के प्रवेश द्वार के पास रखी एक तोप |
दतिया किले का प्रवेश द्वार |
दतिया किले के अन्दर |
दतिया के किला चौक पर स्थापित एक प्रतिमा और उसके नीचे उसके बारे में दी गयी सूचना |
वीर सिंह पैलेस |
वीर सिंह पैलेस |
वीर सिंह पैलेस |
वीर सिंह पैलेस के एक कक्ष की छत |
वीर सिंह पैलेस में |
राजगढ़ पैलेस |
दतिया किले के मुख्य प्रवेश द्वार का दरवाजा |
1. चन्देरी की ओर
2. चन्देरी–इतिहास के झरोखे से
3. चन्देरी–इतिहास के झरोखे से (अगला भाग)
4. देवगढ़–स्वर्णयुग का अवशेष
5. ओरछा–जीवित किंवदन्ती
6. झाँसी–बुन्देलों ने कही कहानी
7. दतिया–गुमनाम इतिहास
वाह गुमनाम इतिहास को नाम देते हुए आप बहुत अच्छा कर रहे है....और सोनागिरि मंदिर के बारे में पहली बार पता चला और आप जाते वहां तक तो और ज्यादा पता चलता
ReplyDeleteधन्यवाद प्रतीक जी। अंजानी जगह पर कुछ न कुछ समस्या आ ही जाती है। वैसे भविष्य में यहाँ पहुँचने का प्रयास जरूर करूँगा।
Deleteवीर सिंह पैलेस तो लगता है भाई जाना ही पड़ेगा और जिन भूलभुलैया में आप उलझ गये थे हमें भी जाकर उलझना ही पड़ेगा।
ReplyDeleteचलिए यह भी नोट करके रख लिया है जब भी उधर की बारी आएगी तब लगे हाथ यहां का काम भी कर दिया जाएगा
वीर सिंह पैलेस देखने लायक इमारत है भाई जी। दुख यही है कि इसके बारे में जानते बहुत कम लोग हैं।
Deleteबहुत ही शानदार यात्रा
ReplyDeleteधन्यवाद भाई जी।
Deleteमैं भी कई बार दतिया जा चुका हूं पर अभी तक सिर्फ पीतांबरा पीठ के ही दर्शन हो पाए हैं । जब वहां के स्थानीय लोगों से दतिया के दर्शनीय स्थलों की चर्चा करो तो वह मुंह बनाकर कहते हैं दतिया में कुछ खास नहीं है इससे ज्यादा अच्छा तो आपके ओरछा में हैं । बस इसी वजह से दतिया के महल और किले को देख नहीं । जहांगीर और वीर सिंह जूदेव की मुलाकात दतिया में नहीं ओरछा में ही हुई थी । और इसका प्रमाण ओरछा का जहांगीर महल है । हालांकि वीर सिंह पैलेस भी जहांगीर महल की तरह एक खूबसूरत इमारत है । अगर बीच वाले गुंबद को छोड़ दिया जाए तो दोनों इमारतें एक समान ही हैं । आप अगर झांसी का ओरछा में आने से पूर्व मुझसे चर्चा कर लेते तो शायद आपको इतना भटकना और उलझना नहीं पड़ता खैर अगली बार आए तो अवश्य खबर कीजिएगा ।
ReplyDeleteयहीं तो गलती हो गयी। आपसे चर्चा क्या आपका ब्लाग भी समय की कमी के कारण ठीक से नहीं पढ़ पाया था नहीं तो काफी कुछ जानकारी मिल गयी होती और मैं परेशान नहीं हुआ होता। पीताम्बरा पीठ तो वास्तव में आत्मिक शान्ति प्रदान करने वाला स्थान है। दतिया में कई प्राचीन इमारतें हैं लेकिन काफी उपेक्षित हैं। यहाँ के लोग तो इनके बारे में जानते ही नहीं है। इधर–उधर से सुनी कई बातों के कारण मैं दतिया की खोज करने पहुँच गया था। पहुँचने पर कई बातें मालूम हुईं जिनसे मैं अनजान था। वीर सिंह पैलेस के बारे में विश्वसनीय जानकारी देने वाला कोई स्रोत मुझे नहीं मिला। महल के बाहर लगे पुरातत्व विभाग के बोर्ड पर कुछ सीमित जानकारियां दी गयी हैं। महल में तैनात कर्मचारियों से मुझे कई जानकारियां मिलीं लेकिन वे कितनी सही हैं कहा नहीं जा सकता जैसे कमरों की संख्या उन्होंने 440 बताई जो मुझे संदेहास्पद लगा। वीर सिंह पैलेस का आकार जहाँगीर महल की तुलना में मुझे अधिक बड़ा लगा। वैसे समय निकालकर आप भी एक बार दतिया जरूर जाइए। कई छ्पिी बातें सामने आयेंगी।
Deleteबहुत बहुत धन्यवाद भाई।
Datia place me kati hui gumbad ka kya raaz hai har chouti badi gumbad upar se kati hui hai ... Aur deewaro pe kayi tarha ke mantr likhe hue hai
Deleteमेरी जानकारी के अनुसार इसके कुछ भाग अधूरे रह गये या फिर बाद में नष्ट हो गये.
DeleteDatiya me talB ke pas tomero ki sati ka sthan he kya
ReplyDeleteKrpya he to puri jankari de me ka kast kre
ReplyDeleteसर जी इसके बारे में मेरे पास कोई जानकारी नहीं है।
Deleteआदरणीय पांडे जी
ReplyDeleteदतिया एक बहुत ही सुंदर स्थान हे यहां आत्मीय शांति मिलती हे परंतु यह स्थान शासन प्रशासन द्वारा पूरी तरह उपेक्षित हे .दतिया में पुराना महल किला चौक माई का मंदिर सोनागिरि इसके अलावा रतनगढ़ माता मंदिर संनकुआ धाम गुप्तेश्वर मंदिर उड़नूं की टोरिया पंचवकवि की टोरिया बालाजी मंदिर लक्ष्मण जी का मंदिर और ना जाने कितने छोटे बड़े मंदिर और दर्शनीय स्थल हे ...आप कभी समय निकालकर दतिया आइये आप को बहुत आनंद की प्राप्ति होगी ..
हाँ यह जरूर हे की कुछ राजनेतिक कारणो से भी दतिया राजवंश की धरोहरो को मिटाया जा रहा हे यहां की सरकार के द्वारा .लेकिन फिर भी अभी बहुत स्थान सुरक्षित हे ...
ऐसी किंवदंती हे की यहां वृंदावन से कुछ मंदिर ज्यादा ही हे .कभी दतिया घूमना हो तो आना में फ्री हुया तो स्वयं आपको दतिया की सैर कराऊंगा ..
बहुत बहुत धन्यवाद श्रीमान जी। देर से उत्तर देने के लिए क्षमा चाहूँगा। आपने दतिया के बारे में बहुत सारी जानकारियां दी हैं जो मेरे पास नहीं थीं। भविष्य में मैं फिर से दतिया आकर इन स्थानों पर जाना चाहूँगा। दतिया के प्रति मेरे मन में अब और भी आकर्षण उत्पन्न हो गया है। वैसे एक निवेदन आपसे यह है कि आपसे सम्पर्क कैसे होगाǃ आपकी प्रोफाइल तो अननोन दिखा रहा है। अगर फेसबुक आई डी हो तो उसकी लिंक शेयर करने की कृपा कीजिएगा। धन्यवाद।
Deleteyadav.sudhir739@gmail.com
Deleteसोनागिरि की पहाड़ी पर स्थिति जैन मंदिरों की पूरी शृंखला है...जिधर भी नज़र डालिये...स्वच्छ,सफेद, खूबसूरत मंदिर नज़र आते हैं...बेहद शांत और स्वच्छ परिवेश है...मंदिरों की खूबसूरती देखते ही बनती...दरअसल यह एक जैन निर्वाण स्थल है...विभिन्न जैन मुनियों की याद में छोटे-छोटे मंदिर बने हुए हैं...मुख्य मंदिर विशाल सफेद संगमरमर के चबूतरे पर निर्मित है...
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद ब्रजेन्द्र जी। सोनागिरि का पहले भी नाम सुन चुका था। मैं वहाँ पहुँच नहीं सका,इसका मुझे बहुत दुख है। आपके द्वारा दी जानकारी के बाद तो मन और भी चंचल हो रहा है। वैसे भविष्य में सोनागिरि अवश्य ही जाऊँगा।
Deleteमेरा नाम पवन सोनी है मैं दतिया से अगर आप यदि दतिया आते हैं तो आप मुझसे से संपर्क करें मेरा नंबर है 9 0 399 6 5 6 9 5 आशा करता हूं कि मैं आपकी मदद कर सकूं धन्यवाद जय माई की( एक ऑटो ड्राइवर)
ReplyDeleteपहले तो आपको काेटिशः धन्यवाद मेरे ब्लॉग पर आने के लिए। आप दतिया से हैं यह जानकर मुझे हार्दिक खुशी हुई। मैं भविष्य में दतिया जरूर आऊंगा और आपसे जरूर मिलूँगा। आपका नम्बर मोबाइल में सेव कर रहा हूँ। दतिया के आस–पास कई स्थान मेरे लिए अनदेखे रह गए। आपने एक ऑटो ड्राइवर के रूप में अपना परिचय दिया है। अगर मैंने अपने लेख में ऑटो ड्राइवर के बारे में कुछ लिखा है तो कृपया उसे अन्यथा न लीजिएगा। मेरा उद्देश्य किसी भावना को ठेस पहुँचाना कतई नहीं था।
Deleteबृजेश भाई आपने लगभग पूरा बुंदेलखंड घुमा दिया, भाई आनन्द आ गया, अब कभी समय मिला तो पहले झांसी, ओरछा, दतिया की ही यात्रा होगी, बहुत अच्छा लिखा है आपने।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद हरि गोविन्द जी। बुन्देलखण्ड का प्राकृतिक स्वरूप तो सुंदर है ही,इतिहास भी अनोखा है। यहाँ की सड़कों पर भटकते हुए लगता है कि हम कई सौ साल पहले के इतिहास में यात्रा कर रहे हैं।
DeleteSatrujeet Singh ji ke baste me vistaar se koi bata Sakta hai
ReplyDeleteमेरे पास इस बारे में कोई जानकारी नहीं है सर। ब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद।
Deleteएक बार गढ़कुंडार का किला भी घूमने जाएंगे सभी लोग जिला निवाड़ी महाराजा खेत सिंह खंगार का
ReplyDeleteदतिया से कितनी दूर है?
Delete16 KM from Datia Gujra Shila Lekh of Samrat Asoka
ReplyDeleteOk, thanks
Delete