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दूसरा दिन–
चन्देरी का इतिहास– चन्देरी का इतिहास प्राचीन होने के साथ साथ गौरवशाली भी है। ये अलग बात है कि इसकी तरफ ध्यान कम ही लोगों का जाता है। प्राचीन महाकाव्य काल में यह चेदि नाम से विख्यात था जहां का राजा शिशुपाल था। ईसा पूर्व छठीं शताब्दी में प्रसिद्ध सोलह महाजनपदों में से चेदि या चन्देरी भी एक था। तत्कालीन चेदि राज्य काे वर्तमान में सम्भवतः बूढ़ी चन्देरी के नाम से जाना जाता है जो वर्तमान चन्देरी के 18 किमी उत्तर–पश्चिम में अवस्थित है। बूढ़ी चन्देरी में बहुत से बिखरे मंदिर,शिलालेख व मूर्तियों के अवशेष पाये जाते हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है कि यह प्राचीन काल में निश्चित रूप से कोई ऐतिहासिक नगर रहा होगा जो कालान्तर में घने जंगल में विलीन हो गया।
13वीं सदी तक बूढ़ी चन्देरी का महत्व धीरे–धीरे समाप्त हो गया और वर्तमान चन्देरी अस्तित्व में आया। वर्तमान चन्देरी नगर को 10वीं–11वीं सदी में प्रतिहारवंशी राजा कीर्तिपाल ने बसाया एवं इसे अपनी राजधानी बनाया।
दूसरा दिन–
चन्देरी का इतिहास– चन्देरी का इतिहास प्राचीन होने के साथ साथ गौरवशाली भी है। ये अलग बात है कि इसकी तरफ ध्यान कम ही लोगों का जाता है। प्राचीन महाकाव्य काल में यह चेदि नाम से विख्यात था जहां का राजा शिशुपाल था। ईसा पूर्व छठीं शताब्दी में प्रसिद्ध सोलह महाजनपदों में से चेदि या चन्देरी भी एक था। तत्कालीन चेदि राज्य काे वर्तमान में सम्भवतः बूढ़ी चन्देरी के नाम से जाना जाता है जो वर्तमान चन्देरी के 18 किमी उत्तर–पश्चिम में अवस्थित है। बूढ़ी चन्देरी में बहुत से बिखरे मंदिर,शिलालेख व मूर्तियों के अवशेष पाये जाते हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है कि यह प्राचीन काल में निश्चित रूप से कोई ऐतिहासिक नगर रहा होगा जो कालान्तर में घने जंगल में विलीन हो गया।
13वीं सदी तक बूढ़ी चन्देरी का महत्व धीरे–धीरे समाप्त हो गया और वर्तमान चन्देरी अस्तित्व में आया। वर्तमान चन्देरी नगर को 10वीं–11वीं सदी में प्रतिहारवंशी राजा कीर्तिपाल ने बसाया एवं इसे अपनी राजधानी बनाया।
महमूद गजनवी के साथ आए इतिहासकार अलबरूनी ने अपने ग्रन्थ 'तहकीक–ए–हिन्द' में चन्देरी की समृद्धि और महत्व का वर्णन किया है। फरिश्ता के विवरणानुसार 1251 में दिल्ली के सुल्तान नासिरउद्दीन ने चन्देरी पर अधिकार कर वहां अपना गवर्नर नियुक्त किया। कनिंघम के अनुसार यह विवरण सम्भवतः बूढ़ी चन्देरी के सन्दर्भ में है। अलाउद्दीन खिलजी ने 1296 में देवगिरि जाते समय चन्देरी में लूट–पाट की थी। उस समय यहां सम्भवतः किसी हिन्दू शासक का आधिपत्य था। गयासुद्दीन तुगलक के शासन काल में चन्देरी एक मुस्लिम छावनी के रूप में विकसित हुआ। 1342 में मोरक्को का यात्री इब्न बतूता चन्देरी आया। फिरोज तुगलक ने दिलावर खां गौरी को चन्देरी और माण्डू का हाकिम नियुक्त किया। बाद में उसने अपने को स्वतंत्र कर मालवा को राज्य बनाया।
मालवा के राजा महमूद शाह खिलजी और उसके पुत्र गयासुद्दीन खिलजी के काल को चन्देरी का स्वर्ण काल कहा जाता है। वर्तमान चन्देरी के अनेक स्मारक,बावड़ियां और शिलालेख इसी काल के हैं। 1524 में राजपूत राजा राणा सांगा के सहयोग से मालवा का राजपूत सरदार मेदिनी राय चन्देरी का स्वतंत्र शासक बना। 1528 में मुगल शासक बाबर ने राणा सांगा व मेदिनी राय की सेनाओं को परास्त कर चन्देरी पर अधिकार कर लिया। बाद में पूरनमल जाट ने इसे अपने अधिकार में ले लिया। पूरनमल जाट के समय शेरशाह ने इस पर आक्रमण किया। लम्बे समय के घेरे के बाद भी जब किला हाथ न आया तो शेरशाह ने संधि का प्रस्ताव भेजा जिसमें पूरनमल का सामान सहित सकुशल किला छोड़ कर निकल जाने का आश्वासन था लेकिन पूरनमल के नीचे उतर आने के बाद शेरशाह ने कत्लेआम की आज्ञा दे दी और भयंकर मारकाट के बाद किले पर अधिकार कर लिया। ओरछा के बुन्देला राजा मधुकर शाह के पुत्र रामसिंह ने 1586 ई0 में चन्देरी पर अधिकार कर लिया और इसके बाद 1811 तक यहां बुन्देलों का राज्य रहा। इसके पश्चात चन्देरी पर मराठा शासक ग्वालियर के दौलतराव सिन्धिया का राज्य स्थापित हुआ। 1844 में चन्देरी ब्रिटिश नियंत्रण में चला गया। 1861 में एक सन्धि के अन्तर्गत चन्देरी ग्वालियर राज्य को दे दिया गया जो 1947 तक उनके शासन में रहा।
बादल महल दरवाजा– अपने होटल से निकलकर मुख्य सड़क पर जब मैं आगे की ओर बढ़ा तो केवल पचास कदम की दूरी पर बायीं तरफ बादल महल का बोर्ड दिखा। बेरोकटोक अन्दर प्रवेश कर गया। सामने था खुले मैदान में बना पार्क और एक छोर पर बना बादल महल दरवाजा। इसका निर्माण पन्द्रहवीं शताब्दी में सुल्तान महमूद शाह खिलजी के शासनकाल में हुआ था। कहते हैं कि यह दरवाजा उस समय बादल महल नामक एक भवन का प्रवेश द्वार था जो अब अस्तित्व में नहीं है। वैसे चन्देरी के किले में स्थित नवखण्डा महल में पुरातत्व विभाग का बोर्ड वास्तविक स्थिति स्पष्ट करता है। इसके अनुसार पन्द्रहवीं सदी में निर्मित इस दरवाजे का किसी भी महल से कोई भी सम्बन्ध नहीं है। इसका निर्माण संभवतः किसी विशेष घटना अथवा किसी महत्वपूर्ण क्षण की यादगार के रूप में किया गया था। इस दरवाजे में एक के ऊपर एक,दो मेहराबदार प्रवेश द्वार हैं जिनकी ऊँचाई 50 फीट है। इसके दोनों ओर दो बुर्ज हैं जो नीचे मोटे तथा ऊपर की ओर क्रमशः पतले होते गये हैं। दरवाजे के ऊपरी भाग में लगी जालियां इसका महत्वपूर्ण आकर्षण हैं। इस पूरे परिसर की चारदीवारी को देखकर लगता है जैसे यह कोई किला हो। परिसर के अन्दर स्थित पार्क में कुछ स्थानीय लोग सपरिवार पार्किंग कर रहे थे। कुछ लड़के सीढ़ियों से ऊपर चढ़कर इसकी दीवारों पर दौड़ रहे थे। बादल महल दरवाजे के बिल्कुल पास में एक कर्मचारी झाड़ू लगा रहा था। अर्थात कहीं दूर से चन्देरी घूमने आने वाला शख्स एकमात्र मैं ही था। मैंने भी बादल महल दरवाजे के कई फोटो खींचे,सफाई कर रहे कर्मचारी से चन्देरी के बारे में कुछ जानकारी ली और बाहर निकल गया।
जामा मस्जिद– बादल महल से बाहर निकलकर मुख्य सड़क पर 1 मिनट ही चला होगा कि सड़क के दाहिनी तरफ जामा मस्जिद का बोर्ड दिखा। जामा मस्जिद चन्देरी की सबसे पुरानी व बड़ी मस्जिद है। इस मस्जिद का निर्माण तब किया गया था जब गयासुदृीन तुगलक ने चन्देरी पर अधिकार कर इसे दिल्ली के नियंत्रण में ले लिया। मस्जिद का मुख्य हाल तीन बड़े गुम्बदों से ढका हुआ है जो दूर से देखने पर काफी आकर्षक दिखाई देता है।
पुरानी कचहरी– जामा मस्जिद का निरीक्षण कर मैं फिर चन्देरी के किसी पुराने स्मारक की खोज में आगे बढ़ा। पूछने पर पता चला कि मेन रोड से थोड़ा हटकर पुरानी अदालत और चकला बावड़ी स्थित हैं। तो जामा मस्जिद से थोड़ा आगे एक तिराहे से मैं बायें घूम गया। लगभग 4–5 मिनट टहलने के बाद एक तिराहे पर मुझे दाहिने घूमना पड़ा। 100 कदम चलने पर बायीं तरफ एक जर्जर लेकिन सुन्दर तीन मंजिली इमारत दिखी। यहां पुरानी अदालत या पुरानी कचहरी का बोर्ड लगा था। साथ ही राज्य संरक्षित स्मारक का भी एक बोर्ड लगा था। लेकिन संरक्षण कितना किया गया था यह मेरी समझ में नहीं आया। इतना तय था कि यह पुरानी इमारत अपने सुनहरे अतीत की कहानी बिना किसी संरक्षण के ही कहने में समर्थ थी। नवरात्र का समय होने के कारण इमारत के निचले तल पर एक दुर्गा प्रतिमा की स्थापना की गयी थी।
इस इमारत के सामने लगे बोर्ड पर लिखा है कि यह विशाल इमारत न्याय का सदन है। इसे पुरानी कचहरी के नाम से जाना जाता है। वास्तव में यह बुन्देला शासकों का एक महल है। इसका निर्माण 17वीं–18वीं सदी में बुन्देला शासकों द्वारा करवाया गया। पूर्वकाल में इस इमारत में न्यायालय संचालित रहने के कारण इसे पुरानी कचहरी कहा जाता है।
पुरानी कचहरी से थोड़ा आगे एक और खण्डहर जैसी इमारत है जहां बोर्ड पर लिखा था– "चकले की खिड़की और खारी बावड़ी।"
मैं यहीं खड़ा था उसी समय स्थानीय लोग जिनमें पुरूषों से अधिक महिलाएं सम्मिलित थीं,सम्भवतः नवरात्र या दशहरे का जुलूस निकालते दिखे। इस तरह का जुलूस मैंने अपनी तरफ नहीं देखा था। हमारे यहां जुलूस में शामिल होने का अधिकार केवल पुरूषों का ही होता है लेकिन यहाँ तो छोटी कुमारियों से लेकर प्रौढ़ महिलाएं तक,सभी सम्मिलित थीं।
चकला बावड़ी– जूलूस निकल जाने के बाद मैं आगे बढ़ा तो फिर एक तिराहे से दाहिने घूम गया। 2–3 मिनट बाद दाहिनी तरफ फिर एक प्राचीन इमारत एवं एक बावड़ी सामने थी। इसे चकला बावड़ी के नाम से जाना जाता है। इसका निर्माण 15वीं सदी में माण्डू के सुल्तानों द्वारा कराया गया था। इस बावड़ी का उपयोग महिलाओं के स्नान हेतु किया जाता था। बावड़ी के पश्चिम तरफ राजपूत शैली में दो छत्रियां निर्मित हैं। इनमें से दायीं ओर की छतरी सूफी संत हजरत बाबा फरीद गंज ए शकर के भांजे शैखराजी मो. की पत्नी की है। इसका निर्माण सन 1684 में हुआ था।
इतना सब पैदल घूमने में मुझे लगभग दो घण्टे लग गये। शाम हो गयी और अंधेरा होने वाला था। मैं तेजी से वापस लौटा। घूमना केवल घूमना नहीं है। घूमने के बाद भोजन की भी जरूरत पड़ती है। चन्देरी में किसी तरह से होटल मुझे मिला था और अब भोजन की तलाश करनी थी। भोजन की तलाश में मुझे एक बड़ी दुकान दिखी जिस पर लगे बोर्ड से पता लग रहा था कि यहाँ हैण्डलूम की साड़ियाँ बनाई और बेची जाती हैं। गले में कैमरा टांगे मैं अन्दर प्रवेश कर गया। काउण्टर पर बैठे व्यक्ति ने मुझसे वहाँ आने का मक्सद पूछा। उसके मन में संदेह था कि मैं खरीदार हूँ या और कुछǃ मैंने उसे बताया कि चन्देरी घूमने आया हूँ। यहाँ की साड़ियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं सो देखने चला आया। मैंने यह भी पहले ही बता दिया कि खरीदना नहीं है। मन में सोच रहा था कि इस यात्रा में साड़ी वाली साथ नहीं है,नहीं तो यहाँ भी कुछ न कुछ भुगतना ही पड़ता। चन्देरी साड़ियों के एक–दो फोटो खींचने के बाद मैं बाहर निकल आया।
तो मुख्य सड़क पर टहलते हुए मैं भोजन की तलाश करने लगा। आखिर एक जगह एक होटल मिला लेकिन व्यवस्था कुछ जम नहीं रही थी। कुर्सियों पर मैल जमते–जमते उनका रंग काला पड़ गया था। फिर भी खाना तो खाना ही था। शिकायत करना मेरी आदत में शामिल नहीं। मैं यात्रा में कहीं भी एड्जस्ट करने की कोशिश करता हूँ। तो फिर मैंने 60 रूपये प्लेट वाली मटर पनीर और रोटी की दावत उड़ायी। वैसे पनीर में मिर्च इतनी थी कि मुझे सुबह तक याद रही। खाना खाकर जब मैं बाहर निकला तो आठ बजने वाले थे। अपने होटल की ओर जब मैंने कदम बढ़ाये तो ज्ञात हुआ कि अधिकांश दुकानें बन्द हो गयीं थीं या फिर बन्द हो रहीं थीं। छोटे–छोटे कस्बों में देर रात तक कौन जगता हैǃ रात–रात भर जगने का काम तो बड़े शहरों के जिम्मे है। वैसे भी इन दुकानों से मुझे कुछ लेना–देना नहीं था। मुझे तो अब होटल जाकर केवल सोना था।
तो मुख्य सड़क पर टहलते हुए मैं भोजन की तलाश करने लगा। आखिर एक जगह एक होटल मिला लेकिन व्यवस्था कुछ जम नहीं रही थी। कुर्सियों पर मैल जमते–जमते उनका रंग काला पड़ गया था। फिर भी खाना तो खाना ही था। शिकायत करना मेरी आदत में शामिल नहीं। मैं यात्रा में कहीं भी एड्जस्ट करने की कोशिश करता हूँ। तो फिर मैंने 60 रूपये प्लेट वाली मटर पनीर और रोटी की दावत उड़ायी। वैसे पनीर में मिर्च इतनी थी कि मुझे सुबह तक याद रही। खाना खाकर जब मैं बाहर निकला तो आठ बजने वाले थे। अपने होटल की ओर जब मैंने कदम बढ़ाये तो ज्ञात हुआ कि अधिकांश दुकानें बन्द हो गयीं थीं या फिर बन्द हो रहीं थीं। छोटे–छोटे कस्बों में देर रात तक कौन जगता हैǃ रात–रात भर जगने का काम तो बड़े शहरों के जिम्मे है। वैसे भी इन दुकानों से मुझे कुछ लेना–देना नहीं था। मुझे तो अब होटल जाकर केवल सोना था।
तीसरा दिन–
चन्देरी किला– आज मुझे पूरी चन्देरी घूमना था। सुबह उठकर नहाने–धोने के बाद मैंने 7.45 तक होटल से चेक आउट करके अपना घसीटू बैग होटल के स्टोर रूम में जमा कर दिया और पिट्ठू बैग पीठ पर लादकर चन्देरी की गलियों में निकल पड़ा। अभी यह निश्चित नहीं था कि आज रात मुझे चन्देरी में रूकना पड़ेगा या कहीं और। टहलते–टहलते और रास्ता पूछते–पूछते 15–20 मिनट में मैं चन्देरी के ऐतिहासिक किले के गेट पर पहुँच गया। किले के गेट तक पहुँचने से पहले मैंने चन्देरी की कई गलियां पार की। किले से थोड़ा पहले एक प्राचीन मंदिर दिखा। यह नरसिंह भगवान का मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण बुन्देला राजा दुर्जनसिंह (1687–1733 ई0) द्वारा कराया गया था। भगवान नरसिंह को समर्पित इस मंदिर में अन्य प्रतिमाएं भी दर्शनीय हैं।
चन्देरी का किला धींगदो या चन्द्रगिरि नामक पहाड़ी पर वर्तमान चन्देरी से लगभग 71 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। प्रतिहारकालीन अभिलेख के अनुसार इस किले का निर्माण 11वीं शताब्दी में कीर्तिपाल नाम प्रतिहार शासक ने करवाया था जिसके नाम पर ही इसे कीर्ति दुर्ग के नाम से जाना जाता था। वर्तमान में बुन्देला राजा दुर्जनसिंह द्वारा बनवाये गये नवखण्डा महल और एक मस्जिद के अवशेष ही खंडहर के रूप में किले में विद्यमान हैं। किले में पहुँचने के तीन रास्ते हैं। पश्चिम की ओर के प्रवेश द्वार को हवा महल या हवापौर के नाम से जाना जाता है जो वर्तमान में एक खंडहर के रूप में विद्यमान है। दूसरा खूनी दरवाजा है तथा तीसरा जोगेश्वरी देवी मन्दिर की तरफ से सीढ़ियों द्वारा चढ़ाई चढ़कर किले में पहुँचा जा सकता है। वर्तमान में किले में प्रवेश करने हेतु सड़क मार्ग भी उपलब्ध है।
मैं पैदल चलते हुए खूनी दरवाजे से किले में पहुँचा तथा सीढ़ियों द्वारा जोगेश्वरी देवी मंदिर की ओर उतर गया। खूनी दरवाजा किले का निचला प्रवेश द्वार है। 1528 ई0 में बाबर द्वारा किये गये भीषण नरसंहार के फलस्वरूप खून की धारा इस दरवाजे से प्रवाहित हो गयी थी। इसी वजह से इसे खूनी दरवाजा कहते हैं। मैंने इस परिसर में कुछ देर रूककर फोटो खींचे और सुनसान मानवरहित माहौल में युद्धपिपासु शासकों की क्रूरता को महसूस करने की कोशिश की। मैं पहले से ही इसका इतिहास पढ़कर आया था और उस दिन सम्भवतः किले का पहला दर्शक भी था। मेरे आगे और पीछे कहीं भी किले में कोई मनुष्य नाम का जीव दिखाई नहीं दे रहा था। लेकिन शायद निर्जीव किले की पाषाण प्राचीरें अपना इतिहास बखूबी बयां कर रही थीं। शायद अभी भी किले में मेदिनीराय या फिर पूरनमल या फिर अन्य अनाम सैनिकों की आत्माएं भटक रहीं हों।
खूनी दरवाजे से अन्दर प्रवेश करने के बाद सीधे सामने जंगल–झाड़ दिख रहे थे तो दाहिनी तरफ एक पगडंडी दिख रही थी। बायीं तरफ पुरातत्व विभाग ने रास्ता जैसा बनाया हुआ है। मैं उसी तरफ बढ़ा तो कुछ दूरी पर बुन्देला राज दुर्जनसिंह द्वारा बनवाया गया नवखण्डा महल दिखा। इसकी बाहरी दीवारों का निरीक्षण करता हुआ जब मैं इसके गेट पर पहुँचा तो गार्ड या चौकीदार के रूप में मनुष्य के प्रथम दर्शन हुए। किसी तरह के टिकट वगैरह की कोई आवश्यकता नहीं थी। मैं अन्दर प्रवेश कर गया।
यह भवन कहीं दो तो कहीं तीन मंजिला है। बीच में बड़ा आंगन है जिसके चारों तरफ के बरामदों में इस महल, किले व चन्देरी के अन्य स्मारकों के जीर्णाेंद्धार से सम्बन्धित पुरातत्व विभाग द्वारा कराये गये कार्याें की फोटो व सूचनाएं अंकित हैं। इस महल के बाहर और आस–पास कई प्राचीन स्मारक स्थित हैं।
नवखण्डा महल के पीछे संगीत सम्राट बैजूबावरा का स्मारक बना हुआ है। इसके पास ही एक जौहर स्मारक बना है जिस पर बाबर द्वारा किये गये आक्रमण,मेदिनीराय के सैनिकों द्वारा किये गये युद्ध तथा राजपूत रानियों द्वारा किये गये जौहर के बारे में सूचना अंकित है। इस स्मारक के निर्माण के बारे में भी इस पर निम्नवत सूचना दी गयी है–
"यह स्मारक ग्वालियर के पुरातत्व विभाग ने श्रीमंत सदाशिव राव पंवार होम मेंबर की आज्ञानुसार विक्रम संवत 1988 में ग्वालियर नरेश महाराजा श्री जीवाजीराव शिंदे आलीजाह बहादुर के शासनकाल में बनाया।"
इन स्मारकों के पास ही एक बावड़ी है। जो चारों ओर से जंगल से घिरी हुई है। मैं कुछ देर तक इस बावड़ी के चारों तरफ टहलता रहा। सुनसान स्थान पर जंगल से घिरी इस बावड़ी के किनारे बहुत अच्छा लग रहा था। बावड़ी में नवखण्डा महल का प्रतिबिंब बहुत सुन्दर दिख रहा था। इस बावड़ी और स्मारकों के पास ही किला कोठी है। मैं इसके अन्दर गया तो पता चला कि यहाँ काम चल रहा है। मिस्त्री–मजदूर वगैरह लगे थे। वहाँ टहल रहे एक व्यक्ति से मैंने पूछताछ की तो पता चला कि इसे ग्वालियर के किसी सिंधिया शासक ने बनवाया था। वर्तमान में इसे होटल 'ताना–बाना' को दे दिया गया है। हो सकता है भविष्य में इसे परिमार्जित कर पर्यटकों के ठहरने और व्यावसायिक उपयोग लायक बना दिया जाय। इस कोठी से पूरब दिशा में पक्की सड़क निकली है जो किले से बाहर निकल जाती है।
मैं इसी सड़क के रास्ते बाहर निकलने की सोच रहा था कि बावड़ी की तरफ से आ रहे एक व्यक्ति,जो कि एक स्थानीय ग्रामीण लग रहा था,ने गाइड बनकर मुझसे कुछ कमाने की सोची। मैंने विनम्रतापूर्वक इन्कार कर दिया और किले के अन्य घूमने लायक स्थलों के बारे में पूछा। उसने हाथ से इशारा करते हुए बताया कि दक्षिण दिशा में बाबा का मन्दिर है। मैंने सोचा कि देख लेते हैं। तो चला पड़ा फिर से खूनी दरवाजे की ओर और वहां से आगे। खूनी दरवाजे से दाहिनी या दक्षिण तरफ कोई रास्ता नहीं है बल्कि झाड़–झंखाड़ से घिरी हुई पगडंडी है। मैं इसी पर चल पड़ा। दूर से एक छतरी या फिर वाच टावर जैसी संरचना दिख रही थी। पास पहुँचा तो उस छतरी या वाच टावर के अलावा कुछ नहीं था बल्कि किले की दीवार थी। दीवार से नीचे की तरफ झांक कर देखा तो कुछ सीढ़ियों जैसा दिखाई पड़ रहा था। था तो खतरनाक लेकिन मैं नीचे उतर गया। नीचे एक एक बहुत ही सँकरे स्थान पर एक छोटे से कक्ष में कोई मूर्ति थी और एक गँजेड़ी टाइप के साधु बाबा और उनके दो चेले बैठे हुए थे। देखकर समझ में आ गया कि बेकार ही इतना पैदल चल दिया। यहाँ तक आने से एक फायदा ये हुआ कि कुछ फोटो खींचने की लोकेशन मिल गयी। मैं जल्दी से ऊपर भागा। फिर किला कोठी तक पहुँचा और पक्की सड़क पकड़कर बाहर की ओर चल दिया। लगभग पाँच मिनट चलने के बाद ही बायें हाथ एक दरवाजा दिखा जहाँ से सीढ़ियां नीचे उतर रहीं थीं। यह रास्ता जागेश्वरी देवी मन्दिर की ओर जाता है। इसलिए मैं सीढ़ियों के रास्ते नीचे उतर गया। चूँकि दशहरे का समय चल रहा था कि इसलिए मंदिर में काफी सजावट और भीड़–भाड़ थी। मैंने बाहर से ही मां को प्रणाम किया और चन्देरी की ओर जाने वाली सड़क का रास्ता पकड़ लिया।
चन्देरी के किले में खड़े होकर चारों तरफ नजरें दौड़ाने पर पहाड़ियों एक दीवार सी दिखायी पड़ती है। ऐसे स्थल प्राचीन काल में किलेबन्दी करने के लिए आदर्श माने जाते रहे हैं। जयपुर के पास आमेर महल में खड़े होने पर इसके चारों तरफ भी इसी तरह से पहाड़ियां दिखायी पड़ती हैं। इसके अतिरिक्त बिहार के प्राचीन शहर राजगीर में तो,किसी ऊँचे स्थान पर खड़े होने पर,बिल्कुल क्रमबद्ध पहाड़ियां नगर को चारों तरफ से घेरे हुए दिखायी पड़ती हैं।
चूँकि मैंने खूनी दरवाजे या चन्देरी शहर की ओर से किले में प्रवेश किया था और जागेश्वरी मंदिर अर्थात शहर के दूसरी तरफ उतर गया था और शहर की गलियों की मुझे कोई खास जानकारी भी नहीं थी इसलिए अब मुझे पुनः चन्देरी शहर या फिर पुराने बस स्टैण्ड पहुँचने के लिए डेढ़–दो किलोमीटर की दूरी तय करनी थी। धूप इतनी थी कि सिर की टोपी भी पसीने से भीग जा रही थी। कोई ऑटो मिलने की उम्मीद भी नहीं दिख रही थी। झख मारकर पैदल ही सड़क नापनी पड़ी। 11 बज गये थे। भूख खतम हो गयी थी। अभी चन्देरी में घूमने को काफी कुछ बाकी था। काफी दूरी तय करनी थी इसलिए ऑटो वालों की शरण में पड़ा। काफी मेहनत से कबील खान मिले। अब पता नहीं कबील खान सही है कि काबिल खान। इसके फेर में मुझे नहीं पड़ना। 400 रूपये में बात पक्की हुई। तय ये हुआ कि चन्देरी के जितने प्रसिद्ध स्मारक और बावड़ियां हैं,सभी जगह चला जायेगा। 11.15 तक मैं,कबील खान और उनकी ऑटो चन्देरी की सड़कों पर दौड़ पड़े।
अगला भाग ः चन्देरी–इतिहास के झरोखे से (दूसरा भाग)
1. चन्देरी की ओर
2. चन्देरी–इतिहास के झरोखे से
3. चन्देरी–इतिहास के झरोखे से (अगला भाग)
4. देवगढ़–स्वर्णयुग का अवशेष
5. ओरछा–जीवित किंवदन्ती
6. झाँसी–बुन्देलों ने कही कहानी
7. दतिया–गुमनाम इतिहास
चन्देरी का किला धींगदो या चन्द्रगिरि नामक पहाड़ी पर वर्तमान चन्देरी से लगभग 71 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। प्रतिहारकालीन अभिलेख के अनुसार इस किले का निर्माण 11वीं शताब्दी में कीर्तिपाल नाम प्रतिहार शासक ने करवाया था जिसके नाम पर ही इसे कीर्ति दुर्ग के नाम से जाना जाता था। वर्तमान में बुन्देला राजा दुर्जनसिंह द्वारा बनवाये गये नवखण्डा महल और एक मस्जिद के अवशेष ही खंडहर के रूप में किले में विद्यमान हैं। किले में पहुँचने के तीन रास्ते हैं। पश्चिम की ओर के प्रवेश द्वार को हवा महल या हवापौर के नाम से जाना जाता है जो वर्तमान में एक खंडहर के रूप में विद्यमान है। दूसरा खूनी दरवाजा है तथा तीसरा जोगेश्वरी देवी मन्दिर की तरफ से सीढ़ियों द्वारा चढ़ाई चढ़कर किले में पहुँचा जा सकता है। वर्तमान में किले में प्रवेश करने हेतु सड़क मार्ग भी उपलब्ध है।
मैं पैदल चलते हुए खूनी दरवाजे से किले में पहुँचा तथा सीढ़ियों द्वारा जोगेश्वरी देवी मंदिर की ओर उतर गया। खूनी दरवाजा किले का निचला प्रवेश द्वार है। 1528 ई0 में बाबर द्वारा किये गये भीषण नरसंहार के फलस्वरूप खून की धारा इस दरवाजे से प्रवाहित हो गयी थी। इसी वजह से इसे खूनी दरवाजा कहते हैं। मैंने इस परिसर में कुछ देर रूककर फोटो खींचे और सुनसान मानवरहित माहौल में युद्धपिपासु शासकों की क्रूरता को महसूस करने की कोशिश की। मैं पहले से ही इसका इतिहास पढ़कर आया था और उस दिन सम्भवतः किले का पहला दर्शक भी था। मेरे आगे और पीछे कहीं भी किले में कोई मनुष्य नाम का जीव दिखाई नहीं दे रहा था। लेकिन शायद निर्जीव किले की पाषाण प्राचीरें अपना इतिहास बखूबी बयां कर रही थीं। शायद अभी भी किले में मेदिनीराय या फिर पूरनमल या फिर अन्य अनाम सैनिकों की आत्माएं भटक रहीं हों।
खूनी दरवाजे से अन्दर प्रवेश करने के बाद सीधे सामने जंगल–झाड़ दिख रहे थे तो दाहिनी तरफ एक पगडंडी दिख रही थी। बायीं तरफ पुरातत्व विभाग ने रास्ता जैसा बनाया हुआ है। मैं उसी तरफ बढ़ा तो कुछ दूरी पर बुन्देला राज दुर्जनसिंह द्वारा बनवाया गया नवखण्डा महल दिखा। इसकी बाहरी दीवारों का निरीक्षण करता हुआ जब मैं इसके गेट पर पहुँचा तो गार्ड या चौकीदार के रूप में मनुष्य के प्रथम दर्शन हुए। किसी तरह के टिकट वगैरह की कोई आवश्यकता नहीं थी। मैं अन्दर प्रवेश कर गया।
यह भवन कहीं दो तो कहीं तीन मंजिला है। बीच में बड़ा आंगन है जिसके चारों तरफ के बरामदों में इस महल, किले व चन्देरी के अन्य स्मारकों के जीर्णाेंद्धार से सम्बन्धित पुरातत्व विभाग द्वारा कराये गये कार्याें की फोटो व सूचनाएं अंकित हैं। इस महल के बाहर और आस–पास कई प्राचीन स्मारक स्थित हैं।
नवखण्डा महल के पीछे संगीत सम्राट बैजूबावरा का स्मारक बना हुआ है। इसके पास ही एक जौहर स्मारक बना है जिस पर बाबर द्वारा किये गये आक्रमण,मेदिनीराय के सैनिकों द्वारा किये गये युद्ध तथा राजपूत रानियों द्वारा किये गये जौहर के बारे में सूचना अंकित है। इस स्मारक के निर्माण के बारे में भी इस पर निम्नवत सूचना दी गयी है–
"यह स्मारक ग्वालियर के पुरातत्व विभाग ने श्रीमंत सदाशिव राव पंवार होम मेंबर की आज्ञानुसार विक्रम संवत 1988 में ग्वालियर नरेश महाराजा श्री जीवाजीराव शिंदे आलीजाह बहादुर के शासनकाल में बनाया।"
इन स्मारकों के पास ही एक बावड़ी है। जो चारों ओर से जंगल से घिरी हुई है। मैं कुछ देर तक इस बावड़ी के चारों तरफ टहलता रहा। सुनसान स्थान पर जंगल से घिरी इस बावड़ी के किनारे बहुत अच्छा लग रहा था। बावड़ी में नवखण्डा महल का प्रतिबिंब बहुत सुन्दर दिख रहा था। इस बावड़ी और स्मारकों के पास ही किला कोठी है। मैं इसके अन्दर गया तो पता चला कि यहाँ काम चल रहा है। मिस्त्री–मजदूर वगैरह लगे थे। वहाँ टहल रहे एक व्यक्ति से मैंने पूछताछ की तो पता चला कि इसे ग्वालियर के किसी सिंधिया शासक ने बनवाया था। वर्तमान में इसे होटल 'ताना–बाना' को दे दिया गया है। हो सकता है भविष्य में इसे परिमार्जित कर पर्यटकों के ठहरने और व्यावसायिक उपयोग लायक बना दिया जाय। इस कोठी से पूरब दिशा में पक्की सड़क निकली है जो किले से बाहर निकल जाती है।
मैं इसी सड़क के रास्ते बाहर निकलने की सोच रहा था कि बावड़ी की तरफ से आ रहे एक व्यक्ति,जो कि एक स्थानीय ग्रामीण लग रहा था,ने गाइड बनकर मुझसे कुछ कमाने की सोची। मैंने विनम्रतापूर्वक इन्कार कर दिया और किले के अन्य घूमने लायक स्थलों के बारे में पूछा। उसने हाथ से इशारा करते हुए बताया कि दक्षिण दिशा में बाबा का मन्दिर है। मैंने सोचा कि देख लेते हैं। तो चला पड़ा फिर से खूनी दरवाजे की ओर और वहां से आगे। खूनी दरवाजे से दाहिनी या दक्षिण तरफ कोई रास्ता नहीं है बल्कि झाड़–झंखाड़ से घिरी हुई पगडंडी है। मैं इसी पर चल पड़ा। दूर से एक छतरी या फिर वाच टावर जैसी संरचना दिख रही थी। पास पहुँचा तो उस छतरी या वाच टावर के अलावा कुछ नहीं था बल्कि किले की दीवार थी। दीवार से नीचे की तरफ झांक कर देखा तो कुछ सीढ़ियों जैसा दिखाई पड़ रहा था। था तो खतरनाक लेकिन मैं नीचे उतर गया। नीचे एक एक बहुत ही सँकरे स्थान पर एक छोटे से कक्ष में कोई मूर्ति थी और एक गँजेड़ी टाइप के साधु बाबा और उनके दो चेले बैठे हुए थे। देखकर समझ में आ गया कि बेकार ही इतना पैदल चल दिया। यहाँ तक आने से एक फायदा ये हुआ कि कुछ फोटो खींचने की लोकेशन मिल गयी। मैं जल्दी से ऊपर भागा। फिर किला कोठी तक पहुँचा और पक्की सड़क पकड़कर बाहर की ओर चल दिया। लगभग पाँच मिनट चलने के बाद ही बायें हाथ एक दरवाजा दिखा जहाँ से सीढ़ियां नीचे उतर रहीं थीं। यह रास्ता जागेश्वरी देवी मन्दिर की ओर जाता है। इसलिए मैं सीढ़ियों के रास्ते नीचे उतर गया। चूँकि दशहरे का समय चल रहा था कि इसलिए मंदिर में काफी सजावट और भीड़–भाड़ थी। मैंने बाहर से ही मां को प्रणाम किया और चन्देरी की ओर जाने वाली सड़क का रास्ता पकड़ लिया।
चन्देरी के किले में खड़े होकर चारों तरफ नजरें दौड़ाने पर पहाड़ियों एक दीवार सी दिखायी पड़ती है। ऐसे स्थल प्राचीन काल में किलेबन्दी करने के लिए आदर्श माने जाते रहे हैं। जयपुर के पास आमेर महल में खड़े होने पर इसके चारों तरफ भी इसी तरह से पहाड़ियां दिखायी पड़ती हैं। इसके अतिरिक्त बिहार के प्राचीन शहर राजगीर में तो,किसी ऊँचे स्थान पर खड़े होने पर,बिल्कुल क्रमबद्ध पहाड़ियां नगर को चारों तरफ से घेरे हुए दिखायी पड़ती हैं।
चूँकि मैंने खूनी दरवाजे या चन्देरी शहर की ओर से किले में प्रवेश किया था और जागेश्वरी मंदिर अर्थात शहर के दूसरी तरफ उतर गया था और शहर की गलियों की मुझे कोई खास जानकारी भी नहीं थी इसलिए अब मुझे पुनः चन्देरी शहर या फिर पुराने बस स्टैण्ड पहुँचने के लिए डेढ़–दो किलोमीटर की दूरी तय करनी थी। धूप इतनी थी कि सिर की टोपी भी पसीने से भीग जा रही थी। कोई ऑटो मिलने की उम्मीद भी नहीं दिख रही थी। झख मारकर पैदल ही सड़क नापनी पड़ी। 11 बज गये थे। भूख खतम हो गयी थी। अभी चन्देरी में घूमने को काफी कुछ बाकी था। काफी दूरी तय करनी थी इसलिए ऑटो वालों की शरण में पड़ा। काफी मेहनत से कबील खान मिले। अब पता नहीं कबील खान सही है कि काबिल खान। इसके फेर में मुझे नहीं पड़ना। 400 रूपये में बात पक्की हुई। तय ये हुआ कि चन्देरी के जितने प्रसिद्ध स्मारक और बावड़ियां हैं,सभी जगह चला जायेगा। 11.15 तक मैं,कबील खान और उनकी ऑटो चन्देरी की सड़कों पर दौड़ पड़े।
चन्देरी किले की पृष्ठभूमि में बादल महल दरवाजा |
बादल महल दरवाजा |
बादल महल दरवाजा परिसर की किलेनुमा दीवार |
पुरानी कचहरी |
दशहरे का जुलूस |
चकला बावड़ी के पास स्थित छत्रियां |
नरसिंह मन्दिर |
चन्देरी किले की तरफ जाता रास्ता |
इतिहास की याद दिलाता खूनी दरवाजा |
खूनी दरवाजे के अन्दर का भाग |
खूनी दरवाजे से नवखण्डा महल की ओर जाने वाला रास्ता |
नवखण्डा महल |
नवखण्डा महल के अन्दर के कुछ भाग |
नवखण्डा महल के अन्दर |
संगीत सम्राट बैजू बावरा का स्मारक |
जौहर स्मारक |
जौहर स्मारक |
चन्देरी किले से चन्देरी शहर का विहंगम दृश्य |
चन्देरी किले से दूर दिखती एक बावड़ी |
चन्देरी किले की दीवार से दिखता बादल महल दरवाजा |
कटी घाटी गेटवे |
किले के अन्दर स्थित एक बावड़ी |
किले के दक्षिण तरफ स्थित वॉच टॉवर जैसी एक संरचना |
चन्देरी किला |
किले के अन्दर किला कोठी |
किले से जागेश्वरी मन्दिर की तरफ जाता सीढ़ियों वाला रास्ता |
जागेश्वरी मन्दिर |
जागेश्वरी मन्दिर के पास एक बावड़ी के किनारे बना एक पुराना भवन |
चन्देरी साड़ी |
1. चन्देरी की ओर
2. चन्देरी–इतिहास के झरोखे से
3. चन्देरी–इतिहास के झरोखे से (अगला भाग)
4. देवगढ़–स्वर्णयुग का अवशेष
5. ओरछा–जीवित किंवदन्ती
6. झाँसी–बुन्देलों ने कही कहानी
7. दतिया–गुमनाम इतिहास
बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
DeleteApke is sehyog se muje apni study me bahut help mili hain. aaoka bahut bahut dhanyabad.
Deleteबहुत बहुत धन्यवाद। आगे भी आते रहिए।
Deleteबहुत खूब बीरेंद्र जी । बड़ी बारीकी से और तसल्ली से चंदेरी की सैर करवाई ।
ReplyDeleteधन्यवाद बड़े भाई। इस यात्रा में मैं ओरछा भी गया था लेकिन आपसे मुलाकात नहीं कर सका। इस बात का पछतावा है।
Deleteब्रजेश भाई मजा आ गया आपके साथ चंदेरी घूम कर...कभी सुना ही नही था जगह के बारे में....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर जगह है। चारों तरफ पहाड़ों से घिरी हुई। लेकिन इसके बारे में लोग अभी बहुत कम जान पाये हैं।
Deleteचंदेरी पहुंचा कर ही मानोगे,
ReplyDeleteशानदार यात्रा व जीवंत विवरण...
चन्देरी बिल्कुल जाइए भाई। छोटी सी लेकिन सुन्दर जगह है। भारत का केवल भूगोल ही नहीं इतिहास भी कम आकर्षक एवं दर्शनीय नहीं है।
Deleteभाई अब तो लग रहा है कि मुझे भी चन्देरी जाना ही पड़ेगा, आपने वहां के बारे में जिज्ञासा पैदा कर दी ।
ReplyDeleteजी भाई। चन्देरी वास्तव में दर्शनीय स्थान है। ये और बात है कि पर्यटक वहाँ कम ही जाते हैं।
Deleteचंदेरी का इतिहास मैंने पढ़ा है कि किस तरह बाबर ने एक रात में पूरे पहाड़ को काटकर रास्ता बनाया और चंदेरी किले पर कब्ज़ा कर लिया। चंदेरी एतिहासिक स्थल है और यहाँ के चंदेरी सिल्क की शुरुआत तो वैदिक काल (महाभारत) से मानी जाती है। हालाँकि अभी तक मुझे चंदेरी जाने का मौका नहीं मिला लेकिन आपने घर बैठे ही मुझे पूरा चंदेरी घुमा दिया.. इसके लिए आपका दिल से आभार।
ReplyDeleteचन्देरी के बारे में बहुत सारी कहानियां प्रचलित हैं। इनमें से बहुत सारी ऐतिहासिक दृष्टि से सच भी हैं। चंदेरी की साड़ियां पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं। चंदेरी एक बहुत ही छोटा लेकिन सुंदर कस्बा है और इतिहास में रूचि रखने वाले हर एक व्यक्ति को यहां अवश्य ही जाना चाहिए। चंदेरी को बावड़ियों का शहर कहा जाता है। यहाँ की बावड़ियां बहुत ही सुंदर हैं।
Deleteआपने महाराजा मेदनी राय खंगार का इतिहास विस्तार से नहीं बताया भैया
Deleteइससे अधिक जानकारी मुझे उपलब्ध नहीं हो सकी उदय जी। वैसे भविष्य में इसके बारे में जानने की अवश्य कोशिश करूंगा।
Deleteसर आप लोगों ने
ReplyDeleteचंदेरी का इतिहास
बाबर से पहले चंदेरी में क्या क्या हुआ उसकी जानकारी क्या है सर
और बाबर ने चंदेरी में किस-किस चीजों पर राज किया था
सर जितनी जानकारी उपलब्ध हो सकी उतना प्रस्तुत किया है,आगे भी जो जानकारी मिलेगी,अवश्य ही उपलब्ध कराऊँगा। धन्यवाद।
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