डलहौजी के आस–पास देखने के लिए बहुत कुछ है। लेकिन घूमने के लिहाज से अच्छा यही रहता है कि दूर वाला पहले घूम लें नजदीक वाला बाद में। इसलिए आज मिनी स्विट्जरलैण्ड के नाम से विख्यात खज्जियार की ओर निकल पड़े। खज्जियार जाने के लिए भी समस्या। अगर रिजर्व साधन से जाना चाहते हैं तो स्थानीय ट्रैवेल एजेण्ट लूटमार करने पर उतारू हैं। डलहौजी से खज्जियार की दूरी 22 किमी है। खज्जियार और दो–तीन और रास्ते में पड़ने वाली छोटी–छोटी जगहों को मिलाकर 2500 रूपये का पैकेज तैयार कर दिया गया है। अब अगर निगल सकते हैं तो निगलिए।
बस स्टैण्ड के पास अपना धन्धा चला रहे एक–दो टैक्सी आपरेटरों से पूछताछ की तो उनमें से एक ने बड़ी अच्छी सलाह दी– "बहुत सुन्दर जगह है सर। घूम आइए। हजार पाँच सौ रूपये का मुँह न देखिए।" मन में कहा कि तुम्हारा ही मुँह देखना पाप है। 22 किमी की दूरी का ढाई हजार माँगते शर्म नहीं आती। पास में बैठे एक सज्जन,जो दिल्ली के रहने वाले थे और कल ही खज्जियार से घूम कर आये थे,ने मेरी हौसला अफजाई की– "पैसा मत देखिए सर,चले जाइए। घूम आयेंगे तो पैसा वसूल हो जायेगा। बहुत सुन्दर जगह है। मेरा तो जीवन ही सफल हो गया।" मैंने एक कान से सुना और दूसरे से निकाल दिया। इस मामले में दार्जिलिंग का सिस्टम बहुत अच्छा है। शेयर्ड गाड़ियों से कहीं भी जा सकते हैं।
बस स्टैण्ड के पास अपना धन्धा चला रहे एक–दो टैक्सी आपरेटरों से पूछताछ की तो उनमें से एक ने बड़ी अच्छी सलाह दी– "बहुत सुन्दर जगह है सर। घूम आइए। हजार पाँच सौ रूपये का मुँह न देखिए।" मन में कहा कि तुम्हारा ही मुँह देखना पाप है। 22 किमी की दूरी का ढाई हजार माँगते शर्म नहीं आती। पास में बैठे एक सज्जन,जो दिल्ली के रहने वाले थे और कल ही खज्जियार से घूम कर आये थे,ने मेरी हौसला अफजाई की– "पैसा मत देखिए सर,चले जाइए। घूम आयेंगे तो पैसा वसूल हो जायेगा। बहुत सुन्दर जगह है। मेरा तो जीवन ही सफल हो गया।" मैंने एक कान से सुना और दूसरे से निकाल दिया। इस मामले में दार्जिलिंग का सिस्टम बहुत अच्छा है। शेयर्ड गाड़ियों से कहीं भी जा सकते हैं।
दूसरा विकल्प बस का है। डलहौजी से खज्जियार जाने के लिए कई बसें हैं। ये सभी चम्बा तक जाती हैं। समस्या केवल जाने की नहीं है,उधर से लौटना भी है। इसलिए समय से निकलना जरूरी है। सुबह पहली बस नौ बजे है। वो भी डलहौजी से नहीं चलती है बल्कि कहीं से आती है तो जाती है। इसके बाद भी बसें हैं लेकिन देर हो जायेगी और लौटने में समस्या हो सकती है। तो सब कुछ विचार करके हमने पहली बस का सहारा लिया। आधे घण्टे पहले ही हाजिर हो चुके थे। बस का किराया केवल 35 रूपये। तो फिर इससे अच्छा क्या है। बस आई तो सवार हो गये। थोड़ी भीड़ थी लेकिन आगे चलकर पता चला कि यह आगे गाँधी चौक पर उतरने वाली भीड़ थी। दरअसल सँकरी सड़कों की वजह से कई जगह वन–वे की व्यवस्था है। बस स्टैण्ड से खज्जियार होते हुए चम्बा जाने वाली गाडियां पहले सुबास चौक जाती हैं फिर गाँधी चौक और वहाँ से खज्जियार की ओर निकलती हैं। उधर से डलहौजी आने वाली गाड़ियां गाँधी चौक से दूसरी सड़क से बस स्टैण्ड तक आती हैं।
बस स्टैण्ड के सामने ही सड़क के उस पार हिमाचल परिवहन का कार्यालय है। इस समय यहाँ मरम्मत का कार्य चल रहा है। फर्श पर टाइल्स बिछाई जा रही हैं। कार्यालय के आगे बरामदे में सब्जी दुकानदारों का कब्जा है। बातचीत से लग रहा है कि वे वैध रूप से जमे हैं। ये दुकानदार परिवहन निगम के कार्यालय की "पूछताछ की खिड़की" की तरह से काम करते हैं। बसों के बारे में सारी जानकारी हमें इन्हीं से मिली। हालाँकि यहाँ एक कर्मचारी भी सम्भवतः तैनात है लेकिन हम उससे मिल नहीं पाये।
बस स्टैण्ड के सामने ही सड़क के उस पार हिमाचल परिवहन का कार्यालय है। इस समय यहाँ मरम्मत का कार्य चल रहा है। फर्श पर टाइल्स बिछाई जा रही हैं। कार्यालय के आगे बरामदे में सब्जी दुकानदारों का कब्जा है। बातचीत से लग रहा है कि वे वैध रूप से जमे हैं। ये दुकानदार परिवहन निगम के कार्यालय की "पूछताछ की खिड़की" की तरह से काम करते हैं। बसों के बारे में सारी जानकारी हमें इन्हीं से मिली। हालाँकि यहाँ एक कर्मचारी भी सम्भवतः तैनात है लेकिन हम उससे मिल नहीं पाये।
बस में हमने उछल कूद करके सीट हासिल कर ली और अपनी इस सफलता पर फूले नहीं समाये। अभी काफी लोग खड़े रह गये थे। लेकिन गाँधी चौक पर जब बस रूकी तो सारी भीड़ समाप्त हो गयी और सभी लोग सीटों पर एडजस्ट हो गये। अब बस शहर से बाहर निकल चुकी थी कि तभी कालेज की छात्राओं का एक समूह सड़क के किनारे खड़े होकर बस का इन्तजार करता दिखा। कुल लगभग 25–30 की संख्या थी। अब बस में इतनी जगह तो थी नहीं। तो उन्हें दो हिस्से में बाँटकर एक हिस्से को हमारी वाली बस में जगह दी गई। दूसरा हिस्सा दूसरी बस से आयेगा। बस में सीट तो खाली बची नहीं थी तो उन्हें खड़ा होना ही था। बस भीड़ग्रस्त हो गयी। भीड़भाड़ वाले मैदानी इलाकों से शान्ति खोजने पहाड़ों पर आये लोगों को कुछ परेशानी तो होगी ही। कुछ देर तक तो भीड़ की वजह से लगा कि यात्रा बड़ी ही उबाऊ होने वाली है लेकिन तभी छात्राओं ने सामूहिक रूप से हिन्दी फिल्मों व कुछ स्थानीय भाषा के गीत गाने शुरू कर दिये और बस के सारे यात्री ही मस्ती में आ गये। मैं काफी देर तक मोबाइल में छात्राओं के गानों को रिकार्ड करता रहा।
दूरी 22 किलोमीटर और समय लगा लगभग डेढ़ घण्टे। पहाड़ी मोड़ों की वजह से इतना समय लगता ही है। छोटी गाड़ियां इस दूरी को कुछ कम समय में तय कर लेती हैं। रास्ता बहुत सुन्दर है। हल्की बूँदा–बाँदी भी हो रही थी। बस में छात्राओं के गीत मस्ती पैदा कर रहे हैं। खज्जियार पहुँचने पर आधी से ज्यादा बस खाली हो गयी। सभी लोग खज्जियार घूमने ही आये हैं।
बस से उतरने के बाद खज्जियार झील की तरफ आगे बढ़ते हैं तो मेन गेट के पास ही एक संकेतक लगा दिखता है जिसपर खज्जियार से यूरोप के स्विट्जरलैण्ड की दूरी लिखी है। साथ ही संकेतक जिस तरफ इशारा कर रहा है वह स्थान है खज्जियार की छोटी सी झील और उसके चारों ओर फैला हरा–भरा घसियाला मैदान और उसके भी चारों ओर फैले हरे–भरे जंगलों से ढके पहाड़। अनुपम छटा। मैंने सोचा कि क्या स्विट्जरलैण्ड इतना ही सुन्दर है! मैं कभी स्विट्जरलैण्ड नहीं गया। फिर मुझे इस बात की तुलना से क्या मतलब कि यह जगह स्विट्जरलैण्ड जितनी ही सुन्दर है। सुन्दरता के बारे में उद्घोषणा करने की क्या जरूरत? ये जगह ताे अपने आप ही सुन्दर है। और भी सुन्दर है। बहुत सुन्दर है। हाँ,मैं गुलमर्ग गया हूँ। गुलमर्ग की पहाड़ी ढलानें बहुत ही सुन्दर हैं। हरी–भरी और बादलों से ढकी। जगह–जगह छोटे–बड़े और बहुत बड़े पत्थर इस तरह से बिखरे पड़े हैं जैसे उन्हें करीने से सजाया गया हो।
खज्जियार की तो अवस्थिति ही बहुत सुन्दर है। छोटी सी झील के चारों ओर फैला हरा–भरा मैदान मानव निर्मित किसी सुन्दर पार्क की तुलना में प्राकृतिक रूप से इतना सुन्दर है कि इसकी किसी और स्थान से तुलना की आवश्यकता ही नहीं है। झील के उत्तर तरफ खज्जी नाग का मन्दिर है जिसके मूल काष्ठ मन्दिर का स्थापत्य 12वीं सदी के पूर्व का है। 16वीं सदी में चम्बा नरेश बलभद्र वर्मन ने मन्दिर में पाण्डवों की काष्ठ मूर्तियां स्थापित कराईं। राजा पृथ्वी सिंह (1641-1644) की धर्म परायण दाई बाटलू ने इसकी स्थापना की। डलहौजी से चम्बा जाने वाली सड़क इस मिनी स्विट्जरलैण्ड को तीन तरफ से घेरे हुए है। मन्दिर के आस–पास होटल और रेस्टोरेन्ट वालों ने कब्जा कर रखा है। रेस्टोरेन्ट के सामने प्लास्टिक के टेन्ट के नीचे कुर्सियां सजाकर रख दी गयी हैं। लेकिन बैठने वालों की संख्या सभी कुर्सियों को भरने के लिए पर्याप्त नहीं है।
हल्की फुहारों के रूप में बारिश हो रही है। बचपन लौट आया है। घास पर लोटने का मन कर रहा है। खज्जी नाग मन्दिर के पास से दक्षिण की ओर देखने पर पल–पल बदलते रंग–बिरंगे दृश्य दिखते हैं। नजर नहीं हटती। दृश्य बदल जाते हैं। पहाड़ों की चोटियां कभी हरी दिखती हैं। कभी बादलों से ढककर सफेद हो जाती हैं। बादल कभी ऊपर से नीचे आते दिखते हैं कभी नीचे से ऊपर। निश्चित करना मुश्किल है कि वे किधर जा रहे हैं। नीचे घास भरा मैदान है। जहाँ तक नजर जाती है,वहाँ तक हरियाली ही नजर आती है। मैदान में भेड़–बकरियाें की तरह इन्सान चर रहे हैं। कोई टहल रहा है तो कोई बैठ गया है। कोई उछल रहा है तो कोई लेट गया है। भुट्टे वाले धुआँ फैला रहे हैं। इतने में बारिश कुछ तेज होती है और सारे रंग धुलने लगते हैं।
सुबह के साढ़े दस बजे ही हम खज्जियार पहुँचे हैं। तब से लगभग एक घण्टा बीत चुका है। खज्जियार की खूबसूरत वादियों में भी चलने के लिए ऊर्जा की जरूरत तो पड़ेगी ही। बारिश का भी तकाजा है कि कहीं शरण ली जाय। तो फिर प्लास्टिक टेन्ट के नीचे रखी कुर्सियों पर हम आसन जमाते हैं। 40 रूपये प्लेट वाला ब्रेड पकौड़ा अच्छा विकल्प है। बारिश भी तबतक धीमी पड़ जाती है और घड़ी के बारह बजे के इशारे पर हम फिर निकल पड़ते हैं झील की परिक्रमा पर। झील इतनी बड़ी नहीं है लेकिन इसके चारों ओर फैला मैदान काफी बड़ा है। इसके चारों ओर घूमने में तीन–चार किलोमीटर तो चलना ही पड़ेगा। मैदान के दक्षिणी छोर पर जार्बिंग करने वाले हवा भरे गुब्बारे काफी संख्या में दिखाई पड़ते हैं। जिनकी मर्जी है वो इन गुब्बारों में घुसकर घास पर लुढ़क रहे हैं।
एंगल बदल–बदल कर मैं फोटो खींचने में मशगूल हूँ कि बारिश फिर आ जाती है। आज इसने भी तय कर रखा था कि यूँ ही इतनी आसानी से मस्ती नहीं करने देंगे। इस बार काफी तेज पानी है। मैदान में भगदड़ मच जाती है। प्लास्टिक वाले टेन्ट खचाखच भर गये हैं लेकिन खाने के लिए नहीं,बारिश से छ्पिने के लिए। लेकिन इस बार इन प्लास्टिक के टेन्टों की भी औकात पता चल गयी है। पानी इतना तेज है कि रेस्टोरेन्ट के अन्दर घुसना पड़ा है। लगभग आधे घण्टे का इन्तजार। अब इतनी देर फ्री में बैठे हैं तो कम से कम चाय तो बनती ही है। बारिश बन्द होती है तो बिल्कुल ही बन्द हो जाती है। लेकिन इसकी वजह से एक नवीन दृश्य की रचना हो गयी है। चारों तरफ से पानी बहकर झील में इकट्ठा होने लगा है और मैदान में तमाम झरनों का सा दृश्य उपस्थित हो गया है। घास के ऊपर बहते पानी में छप–छप करना भी कम आनन्ददायी नहीं है। हम कितने भाग्यशाली हैं। खज्जियार के हर स्वरूप को हमने एक दिन में ही देख लिया है।
लगभग एक बजने वाले थे। बस से उतरते समय ही मैंने लौटने वाली बसों की भी जानकारी कर ली थी। डेढ़ बजे,ढाई बजे,साढ़े तीन बजे। डेढ़ बजे वाली बस पकड़ने की ही प्लानिंग थी। डलहौजी में भी शाम को एकाध चौराहा घूम लेंगे। सवा एक बजे वापस चलने लगे कि फिर बारिश आ गयी और अपनी पूरी ताकत से आ गई। भागकर एक होटल के बरामदे में शरण ली। सड़क तक नहीं पहुँच सके। बस की चिंता खाये जा रही थी। लेकिन बारिश ने काफी कुछ परिवर्तन कर दिया। खज्जियार घूमने आये अधिकांश लोग अब वापस लौटने के मूड में थे। अधिक संख्या तो प्राइवेट साधनों से आये लोगों की थी। फिर भी लोग जब गाड़ियों तक पहुँचे पायें तब तो यहाँ से बाहर निकलें। लाेग मोबाइल के सहारे अपनी–अपनी गाड़ियां सड़क पर मँगाने लगे और सड़क पर जाम लग गया। इधर बारिश बख्शने के मूड में नहीं थी। अब हम भी कुछ निश्चिन्त हो गये थे। जब तक जाम नहीं हटेगा बस भी कहाँ से निकलेगी।
बारिश एक घण्टे तक जमी रही। थमते ही लोग निकलना शुरू हुए। हम भी निकलकर सड़क के किनारे आ गये। चारों तरफ बारिश का पानी अपना प्रवाह बनाये हुए था। देखते हैं बस किधर से निकलती है। काफी समय लग गया। जाम हटने का नाम ही नहीं ले रहा था। थक हारकर हम भी सड़क किनारे एक जगह बैठ गये। काफी देर तक बैठे रहे। तभी एक तरफ नजर गयी तो बस में हमारे साथ आयी छात्राओं का एक समूह लाइन में एक तरफ जाता दिखा। दिमाग दौड़ाया तो पता चला कि बस भी आकर जाम में फंसी है और ये सब उसी तरफ जा रही थीं। अब तो हम भी दौड़े लेकिन तबतक बहुत देर हो चुकी थी। बस में घुसने की भी जगह नहीं बची थी। हार मानकर हमने अब ढाई बजे वाली अगली बस का इन्तजार करने का फैसला किया क्योंकि उसका भी टाइम लगभग हो ही रहा था। बुद्धिमानी दिखाते हुए हम आगे बढ़ते गये और झील के दूसरी तरफ चले गये क्योंकि बस उधर से ही आयेगी और आसानी से हमें जगह मिल जायेगी।
ढाई बज चुके थे। बारिश तीसरी बार फिर से शुरू हो रही थी। इस बार हम सावधान थे और पहले ही सड़क के किनारे प्लास्टिक टेण्ट के नीचे बनी छोटी–छोटी दुकानों में से एक के नीचे खड़े हो गये। उम्मीद थी कि बस जल्दी ही आ जायेगी क्योंकि उसका भी टाइम हो गया था लेकिन एक चैप्टर अभी बाकी था। बारिश की तीव्रता बढ़ती जा रही थी और 15-20 मिनट बाद इसने वो रूप धारण कर लिया कि देखकर ही डर लगने लगा। अब तो कपड़े बचाना मुश्किल होने लगा। तेज बारिश की धार से उड़ती फुहारें इतनी तेज थीं कि भिगोने के लिए वही काफी थीं। चारों तरफ से पानी आकर झील में इकट्ठा हो रहा था। धीरे–धीरे झील का आकार बढ़ने लगा और मैदान का आकार घटने लगा। 10 मिनट बाद बारिश ने ऐसा रूप धर लिया कि डर लगने लगा। मैं उचक–उचक कर सड़क पर नजरें दौड़ा रहा था। एक दो दुकानदारों से भी कह दिया था कि बस दिखे तो बताना। लेकिन सब बेकार। बौछारों से कपड़े भीग रहे थे। पीछे की ढलानों से इस तेजी से पानी बहकर आ रहा था कि उधर देखने की हिम्मत ही नहीं हो रही थी। मैंने कभी पहाड़ की बारिश नहीं देखी थी। केदारनाथ त्रासदी की याद ऐसे स्थानों पर हमेशा मन को डराती रहती है। अब हमारे पैरों के अगल–बगल से पानी बहने लगा। जूते के साथ साथ मोजे भी भीग रहे थे। बस का कहीं दूर–दूर तक पता ठिकाना नहीं लग रहा था। दुकानदारों के बर्तन वगैरह पानी के साथ बहने लगे और इन्हीं के साथ हमारा धैर्य भी बह रहा था लेकिन करते क्याǃ
लगभग एक घण्टे बीत गये। साढ़े तीन हो गये थे। अचानक एक चाय वाला मेरी तरफ इशारा करके चिल्लाया– "बस आ रही है।" कई दुकानदारों ने शोर मचाकर बस को रूकने का इशारा किया। मैं पिट्ठू बैग सँभालते दौड़ पड़ा। लेकिन सड़क पर घुटनों तक पानी था। संगीता भी मेरे पीछे भागी। जान बची रहेगी तो कपड़े चेन्ज कर लेंगे। किसी तरह बस में चढ़े और साथ ही बारिश भी धीमी पड़ गयी। काफी कुछ भीग गये थे। बस स्टैण्ड पर आकर रूकी तो छात्राओं का दूसरा समूह भी चढ़ गया। बस फिर भी एक तिहाई खाली रह गयी। जब और कोई चढ़ने वाला नहीं मिला तो 3.45 बजे बस डलहौजी के लिए रवाना हुई। अब तक बारिश पूरी तरह बन्द हो चुकी थी। रास्ता फिसलन भरा हो चुका था। रास्ते में एक जगह जाम भी लग गया। काफी देर से भीगे–भीगे मोजे और जूतों में पैर ठण्डे हुए जा रहे थे तो मैंने जूते उतार दिये और मोजे निकाल कर एक प्लास्टिक के थैले में रख लिया।
22 किमी की दूरी दो घण्टे में तय करते हुए बस 5.45 बजे डलहौजी पहुँची। मैंने बिना मोजों के ही जूते पहन लिए। हम गाँधी चौक पर ही उतर गये। यहाँ से टहलते हुए बस स्टैण्ड जाने की इच्छा थी। क्योंकि माॅल रोड से धौलाधर श्रेणियों का दृश्य बहुत सुन्दर दिखता है। हल्की धूप निकल आई थी। देखकर नहीं लग रहा था कि यहाँ भी बारिश हुई होगी। लेकिन लोगों से पूछा तो पता लगा कि यहाँ भी तेज बारिश हुई थी। गाँधी चौक से टहलते हुए धौलाधर श्रेणियों के धूप में चमकते,बर्फ से ढके शिखर निहारते और फोटो खींचते हुए हम बस स्टैण्ड की तरफ बढ़ चले।
आज का दिन यादगार हो गया था। हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा अनुभव मिलेगा। पहाड़,जंगल,झील,हरे–भरे मैदान और सबसे बढ़कर डराती हुई बारिशǃ सब कुछ एक साथ मिल गया था। मन अभिभूत था।
अँधेरा होने तक हम कमरे पहुँच चुके थे। अभी भोजन बाकी था लेकिन मौसम साफ हो चुका था इसलिए कोई समस्या नहीं थी। जूते मोजे निकालकर मैंने हवाई चप्पल धारण किया। अब कुछ देर तक आराम की बारी थी। साढ़े सात बज गये और हम भोजन की तलाश में बाहर निकल गये।
अगला भाग ः डलहौजी–बारिश में भीगा एक दिन
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. वाराणसी से डलहौजी
2. खज्जियार–मिनी स्विट्जरलैण्ड
3. डलहौजी–बारिश में भीगा एक दिन
4. डलहौजी–नीरवता भरा सौन्दर्य
खज्जियार का गूगल मैप–
बस से उतरने के बाद खज्जियार झील की तरफ आगे बढ़ते हैं तो मेन गेट के पास ही एक संकेतक लगा दिखता है जिसपर खज्जियार से यूरोप के स्विट्जरलैण्ड की दूरी लिखी है। साथ ही संकेतक जिस तरफ इशारा कर रहा है वह स्थान है खज्जियार की छोटी सी झील और उसके चारों ओर फैला हरा–भरा घसियाला मैदान और उसके भी चारों ओर फैले हरे–भरे जंगलों से ढके पहाड़। अनुपम छटा। मैंने सोचा कि क्या स्विट्जरलैण्ड इतना ही सुन्दर है! मैं कभी स्विट्जरलैण्ड नहीं गया। फिर मुझे इस बात की तुलना से क्या मतलब कि यह जगह स्विट्जरलैण्ड जितनी ही सुन्दर है। सुन्दरता के बारे में उद्घोषणा करने की क्या जरूरत? ये जगह ताे अपने आप ही सुन्दर है। और भी सुन्दर है। बहुत सुन्दर है। हाँ,मैं गुलमर्ग गया हूँ। गुलमर्ग की पहाड़ी ढलानें बहुत ही सुन्दर हैं। हरी–भरी और बादलों से ढकी। जगह–जगह छोटे–बड़े और बहुत बड़े पत्थर इस तरह से बिखरे पड़े हैं जैसे उन्हें करीने से सजाया गया हो।
खज्जियार की तो अवस्थिति ही बहुत सुन्दर है। छोटी सी झील के चारों ओर फैला हरा–भरा मैदान मानव निर्मित किसी सुन्दर पार्क की तुलना में प्राकृतिक रूप से इतना सुन्दर है कि इसकी किसी और स्थान से तुलना की आवश्यकता ही नहीं है। झील के उत्तर तरफ खज्जी नाग का मन्दिर है जिसके मूल काष्ठ मन्दिर का स्थापत्य 12वीं सदी के पूर्व का है। 16वीं सदी में चम्बा नरेश बलभद्र वर्मन ने मन्दिर में पाण्डवों की काष्ठ मूर्तियां स्थापित कराईं। राजा पृथ्वी सिंह (1641-1644) की धर्म परायण दाई बाटलू ने इसकी स्थापना की। डलहौजी से चम्बा जाने वाली सड़क इस मिनी स्विट्जरलैण्ड को तीन तरफ से घेरे हुए है। मन्दिर के आस–पास होटल और रेस्टोरेन्ट वालों ने कब्जा कर रखा है। रेस्टोरेन्ट के सामने प्लास्टिक के टेन्ट के नीचे कुर्सियां सजाकर रख दी गयी हैं। लेकिन बैठने वालों की संख्या सभी कुर्सियों को भरने के लिए पर्याप्त नहीं है।
हल्की फुहारों के रूप में बारिश हो रही है। बचपन लौट आया है। घास पर लोटने का मन कर रहा है। खज्जी नाग मन्दिर के पास से दक्षिण की ओर देखने पर पल–पल बदलते रंग–बिरंगे दृश्य दिखते हैं। नजर नहीं हटती। दृश्य बदल जाते हैं। पहाड़ों की चोटियां कभी हरी दिखती हैं। कभी बादलों से ढककर सफेद हो जाती हैं। बादल कभी ऊपर से नीचे आते दिखते हैं कभी नीचे से ऊपर। निश्चित करना मुश्किल है कि वे किधर जा रहे हैं। नीचे घास भरा मैदान है। जहाँ तक नजर जाती है,वहाँ तक हरियाली ही नजर आती है। मैदान में भेड़–बकरियाें की तरह इन्सान चर रहे हैं। कोई टहल रहा है तो कोई बैठ गया है। कोई उछल रहा है तो कोई लेट गया है। भुट्टे वाले धुआँ फैला रहे हैं। इतने में बारिश कुछ तेज होती है और सारे रंग धुलने लगते हैं।
सुबह के साढ़े दस बजे ही हम खज्जियार पहुँचे हैं। तब से लगभग एक घण्टा बीत चुका है। खज्जियार की खूबसूरत वादियों में भी चलने के लिए ऊर्जा की जरूरत तो पड़ेगी ही। बारिश का भी तकाजा है कि कहीं शरण ली जाय। तो फिर प्लास्टिक टेन्ट के नीचे रखी कुर्सियों पर हम आसन जमाते हैं। 40 रूपये प्लेट वाला ब्रेड पकौड़ा अच्छा विकल्प है। बारिश भी तबतक धीमी पड़ जाती है और घड़ी के बारह बजे के इशारे पर हम फिर निकल पड़ते हैं झील की परिक्रमा पर। झील इतनी बड़ी नहीं है लेकिन इसके चारों ओर फैला मैदान काफी बड़ा है। इसके चारों ओर घूमने में तीन–चार किलोमीटर तो चलना ही पड़ेगा। मैदान के दक्षिणी छोर पर जार्बिंग करने वाले हवा भरे गुब्बारे काफी संख्या में दिखाई पड़ते हैं। जिनकी मर्जी है वो इन गुब्बारों में घुसकर घास पर लुढ़क रहे हैं।
एंगल बदल–बदल कर मैं फोटो खींचने में मशगूल हूँ कि बारिश फिर आ जाती है। आज इसने भी तय कर रखा था कि यूँ ही इतनी आसानी से मस्ती नहीं करने देंगे। इस बार काफी तेज पानी है। मैदान में भगदड़ मच जाती है। प्लास्टिक वाले टेन्ट खचाखच भर गये हैं लेकिन खाने के लिए नहीं,बारिश से छ्पिने के लिए। लेकिन इस बार इन प्लास्टिक के टेन्टों की भी औकात पता चल गयी है। पानी इतना तेज है कि रेस्टोरेन्ट के अन्दर घुसना पड़ा है। लगभग आधे घण्टे का इन्तजार। अब इतनी देर फ्री में बैठे हैं तो कम से कम चाय तो बनती ही है। बारिश बन्द होती है तो बिल्कुल ही बन्द हो जाती है। लेकिन इसकी वजह से एक नवीन दृश्य की रचना हो गयी है। चारों तरफ से पानी बहकर झील में इकट्ठा होने लगा है और मैदान में तमाम झरनों का सा दृश्य उपस्थित हो गया है। घास के ऊपर बहते पानी में छप–छप करना भी कम आनन्ददायी नहीं है। हम कितने भाग्यशाली हैं। खज्जियार के हर स्वरूप को हमने एक दिन में ही देख लिया है।
लगभग एक बजने वाले थे। बस से उतरते समय ही मैंने लौटने वाली बसों की भी जानकारी कर ली थी। डेढ़ बजे,ढाई बजे,साढ़े तीन बजे। डेढ़ बजे वाली बस पकड़ने की ही प्लानिंग थी। डलहौजी में भी शाम को एकाध चौराहा घूम लेंगे। सवा एक बजे वापस चलने लगे कि फिर बारिश आ गयी और अपनी पूरी ताकत से आ गई। भागकर एक होटल के बरामदे में शरण ली। सड़क तक नहीं पहुँच सके। बस की चिंता खाये जा रही थी। लेकिन बारिश ने काफी कुछ परिवर्तन कर दिया। खज्जियार घूमने आये अधिकांश लोग अब वापस लौटने के मूड में थे। अधिक संख्या तो प्राइवेट साधनों से आये लोगों की थी। फिर भी लोग जब गाड़ियों तक पहुँचे पायें तब तो यहाँ से बाहर निकलें। लाेग मोबाइल के सहारे अपनी–अपनी गाड़ियां सड़क पर मँगाने लगे और सड़क पर जाम लग गया। इधर बारिश बख्शने के मूड में नहीं थी। अब हम भी कुछ निश्चिन्त हो गये थे। जब तक जाम नहीं हटेगा बस भी कहाँ से निकलेगी।
बारिश एक घण्टे तक जमी रही। थमते ही लोग निकलना शुरू हुए। हम भी निकलकर सड़क के किनारे आ गये। चारों तरफ बारिश का पानी अपना प्रवाह बनाये हुए था। देखते हैं बस किधर से निकलती है। काफी समय लग गया। जाम हटने का नाम ही नहीं ले रहा था। थक हारकर हम भी सड़क किनारे एक जगह बैठ गये। काफी देर तक बैठे रहे। तभी एक तरफ नजर गयी तो बस में हमारे साथ आयी छात्राओं का एक समूह लाइन में एक तरफ जाता दिखा। दिमाग दौड़ाया तो पता चला कि बस भी आकर जाम में फंसी है और ये सब उसी तरफ जा रही थीं। अब तो हम भी दौड़े लेकिन तबतक बहुत देर हो चुकी थी। बस में घुसने की भी जगह नहीं बची थी। हार मानकर हमने अब ढाई बजे वाली अगली बस का इन्तजार करने का फैसला किया क्योंकि उसका भी टाइम लगभग हो ही रहा था। बुद्धिमानी दिखाते हुए हम आगे बढ़ते गये और झील के दूसरी तरफ चले गये क्योंकि बस उधर से ही आयेगी और आसानी से हमें जगह मिल जायेगी।
ढाई बज चुके थे। बारिश तीसरी बार फिर से शुरू हो रही थी। इस बार हम सावधान थे और पहले ही सड़क के किनारे प्लास्टिक टेण्ट के नीचे बनी छोटी–छोटी दुकानों में से एक के नीचे खड़े हो गये। उम्मीद थी कि बस जल्दी ही आ जायेगी क्योंकि उसका भी टाइम हो गया था लेकिन एक चैप्टर अभी बाकी था। बारिश की तीव्रता बढ़ती जा रही थी और 15-20 मिनट बाद इसने वो रूप धारण कर लिया कि देखकर ही डर लगने लगा। अब तो कपड़े बचाना मुश्किल होने लगा। तेज बारिश की धार से उड़ती फुहारें इतनी तेज थीं कि भिगोने के लिए वही काफी थीं। चारों तरफ से पानी आकर झील में इकट्ठा हो रहा था। धीरे–धीरे झील का आकार बढ़ने लगा और मैदान का आकार घटने लगा। 10 मिनट बाद बारिश ने ऐसा रूप धर लिया कि डर लगने लगा। मैं उचक–उचक कर सड़क पर नजरें दौड़ा रहा था। एक दो दुकानदारों से भी कह दिया था कि बस दिखे तो बताना। लेकिन सब बेकार। बौछारों से कपड़े भीग रहे थे। पीछे की ढलानों से इस तेजी से पानी बहकर आ रहा था कि उधर देखने की हिम्मत ही नहीं हो रही थी। मैंने कभी पहाड़ की बारिश नहीं देखी थी। केदारनाथ त्रासदी की याद ऐसे स्थानों पर हमेशा मन को डराती रहती है। अब हमारे पैरों के अगल–बगल से पानी बहने लगा। जूते के साथ साथ मोजे भी भीग रहे थे। बस का कहीं दूर–दूर तक पता ठिकाना नहीं लग रहा था। दुकानदारों के बर्तन वगैरह पानी के साथ बहने लगे और इन्हीं के साथ हमारा धैर्य भी बह रहा था लेकिन करते क्याǃ
लगभग एक घण्टे बीत गये। साढ़े तीन हो गये थे। अचानक एक चाय वाला मेरी तरफ इशारा करके चिल्लाया– "बस आ रही है।" कई दुकानदारों ने शोर मचाकर बस को रूकने का इशारा किया। मैं पिट्ठू बैग सँभालते दौड़ पड़ा। लेकिन सड़क पर घुटनों तक पानी था। संगीता भी मेरे पीछे भागी। जान बची रहेगी तो कपड़े चेन्ज कर लेंगे। किसी तरह बस में चढ़े और साथ ही बारिश भी धीमी पड़ गयी। काफी कुछ भीग गये थे। बस स्टैण्ड पर आकर रूकी तो छात्राओं का दूसरा समूह भी चढ़ गया। बस फिर भी एक तिहाई खाली रह गयी। जब और कोई चढ़ने वाला नहीं मिला तो 3.45 बजे बस डलहौजी के लिए रवाना हुई। अब तक बारिश पूरी तरह बन्द हो चुकी थी। रास्ता फिसलन भरा हो चुका था। रास्ते में एक जगह जाम भी लग गया। काफी देर से भीगे–भीगे मोजे और जूतों में पैर ठण्डे हुए जा रहे थे तो मैंने जूते उतार दिये और मोजे निकाल कर एक प्लास्टिक के थैले में रख लिया।
22 किमी की दूरी दो घण्टे में तय करते हुए बस 5.45 बजे डलहौजी पहुँची। मैंने बिना मोजों के ही जूते पहन लिए। हम गाँधी चौक पर ही उतर गये। यहाँ से टहलते हुए बस स्टैण्ड जाने की इच्छा थी। क्योंकि माॅल रोड से धौलाधर श्रेणियों का दृश्य बहुत सुन्दर दिखता है। हल्की धूप निकल आई थी। देखकर नहीं लग रहा था कि यहाँ भी बारिश हुई होगी। लेकिन लोगों से पूछा तो पता लगा कि यहाँ भी तेज बारिश हुई थी। गाँधी चौक से टहलते हुए धौलाधर श्रेणियों के धूप में चमकते,बर्फ से ढके शिखर निहारते और फोटो खींचते हुए हम बस स्टैण्ड की तरफ बढ़ चले।
आज का दिन यादगार हो गया था। हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा अनुभव मिलेगा। पहाड़,जंगल,झील,हरे–भरे मैदान और सबसे बढ़कर डराती हुई बारिशǃ सब कुछ एक साथ मिल गया था। मन अभिभूत था।
अँधेरा होने तक हम कमरे पहुँच चुके थे। अभी भोजन बाकी था लेकिन मौसम साफ हो चुका था इसलिए कोई समस्या नहीं थी। जूते मोजे निकालकर मैंने हवाई चप्पल धारण किया। अब कुछ देर तक आराम की बारी थी। साढ़े सात बज गये और हम भोजन की तलाश में बाहर निकल गये।
खज्जियार झील और उसके चारों ओर फैला हरा–भरा मैदान |
खज्जी नाग का मन्दिर |
खज्जी नाग मन्दिर के अन्दर |
मुख्य गेट के पास लगा स्विट्जरलैण्ड की दूरी बताता संकेतक |
बारिश के बाद मैदान में बना झरना |
बारिश का दृश्य |
तेज बारिश के दौरान बहता पानी |
अगला भाग ः डलहौजी–बारिश में भीगा एक दिन
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. वाराणसी से डलहौजी
2. खज्जियार–मिनी स्विट्जरलैण्ड
3. डलहौजी–बारिश में भीगा एक दिन
4. डलहौजी–नीरवता भरा सौन्दर्य
खज्जियार का गूगल मैप–
वाह भाई आपने दिल खोलकर जो यात्रा विवरण लिखा है मन प्रसन्न हो गया।
ReplyDeleteखजियार देखा हुआ है एक बार मणिमहेश जाते समय दोस्त की Scorpio में कुछ घंटे यहां बताई थी उसके बाद हम लोग आगे मणिमहेश के लिए निकले थे। आपने लेख में जो अभी विस्तृत विवरण दिया है
आपके लेख में जो सबसे मजेदार बात रही बस वाली, बस की जानकारी आपने बहुत बढ़िया दी क्योंकि टैक्सी यूनियन वाले ऐसे चक्रव्यू बनाते हैं जिसमें यात्री फस कर रह जाते हैं और अपने पैसे लुटा कर आते हैं।
बस में आपका भागकर चढ़ना, वापसी में बस के इंतजार में पीछे जाना। यह सब बारीक-बारीक जानकारियां आगे भी ऐसे ही लिखते रहिए भाई
धन्यवाद बड़े भाई। जो कुछ अनुभव किया उसे ही लिख दिया है।
ReplyDeleteआपकी खजियार की मस्ती पढ़ कर मजा आ वय और आपकी वजह से पता चला की खजियार सस्ते में भी घुमा जा सकता है
ReplyDeleteधन्यवाद भार्इ। दरअसल ट्रैवेल एजेन्सी वाले अपना धन्धा करें तो कोई बुराई नहीं। लेकिन बहुत जगहों पर इन्होंने लूट मचा रखी है।
Deleteमैं चार दिन से बाहर था, और आज पढ़ रहा हूँ, मजा आ गया पढ़कर,
ReplyDeleteटैक्सी वाली की लूट हर जगह एक जैसे ही है, हर शहर और हर जगह, सारे एक ही बात कहते है मेरा रेट सबसे कम है, कही भी जाईये उस जगह का नाम लेकर कहेगे की इस जगह पर इतने से कम में कोई जाने के लिए तैयार हो जाये तो मैं फ्री का ला जाऊंगा,
पहाड़ी रस्ते पर बस थोड़ा ज्यादा समय लगाती है और छोटी गाड़ियों के मुड़ने में दिक्कत काम होती है वो कम समय लेती है।
"घास के ऊपर बहते पानी में छप–छप करना" वाली बात बचपन की याद दिला देती है
बहुत संघर्ष है घुमक्कड़ी में भी। बहुत बहुत धन्यवाद इतनी गहराई से पढ़ने के लिए।
ReplyDeleteधन्यवाद आपको ज्ञान गंगा में डुबकी लगाने की अनुमाति देने के लिए
ReplyDeleteधन्यवाद जी। आगे भी यहाँ आते रहिए।
Deleteवाह! एेसा लगा कि साथ साथ हम भी घूम लिए।
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