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26 मई की रात को दिल्ली जाने वाली भोपाल एक्सप्रेस समय से चली और ऐसे ही समय से चलती रहती तो भोर में 2.55 बजे यह ग्वालियर पहुँच गयी होती। लेकिन रात में हमारे सोते रहने का फायदा उठाकर आँधी–पानी ने हमला किया और रेलवे के तार वगैरह टूट गये और इसकी मरम्मत होने में ट्रेन 4 घण्टे लेट हो गयी। ग्वालियर पहुँचने में 7 बज गये। वैसे इससे हम लोगों का समय के अतिरिक्त और कोई विशेष नुकसान नहीं हुआ। लेकिन हमारे लिए समय ही सबसे महत्वपूर्ण चीज थी। ग्वालियर पहुँच कर भी वैसा ही हुआ जैसा कि हर जगह होता है। हम लोग स्टेशन से बाहर प्लेटफार्म नं0 1 की ओर बाहर निकले और ऑटो वालों की शरण में पड़े।
दरअसल मैं ग्वालियर रेलवे स्टेशन के पास न ठहरकर किले के पास ठहरना चाह रहा था क्योंकि स्टेशन से किला काफी दूर (लगभग 3 किमी) है। ग्वालियर का किला देखने की मुझे बड़ी इच्छा थी। ऑटो वाले से बात करके किले की तरफ गये लेकिन वहां तो होटल वालों ने हमारे लिए दरवाजे बन्द कर रखे थे। आँधी ने यहाँ भी अच्छा–खासा उत्पात मचाया था। दुकानों के बोर्ड उलट–पुलट गये थे। टिन–शेड व प्लास्टिक के टेण्ट उड़ कर इधर–इधर बिखर गये थे। वहाँ हजीरा चौराहे के आस–पास इक्के–दुक्के होटल ही थे। एक गली में एक होटल दिखा भी तो उसके अगल–बगल देसी और विदेशी शराब की दुकानों की भरमार दिखाई दे रही थीं। हमारे तो भाग्य ही खुल गये। लेकिन कई बार दरवाजा भड़भड़ाने के बाद भी होटल का कोई स्टाफ चेहरा दिखाने के लिए बाहर नहीं निकला। रात की आँधी की वजह से छोटी–मोटी दुकानें तो अपना स्थान ही बदल चुकी थीं। उसी आटो से हम फिर उल्टे पाँव स्टेशन के पास आ गये।
26 मई की रात को दिल्ली जाने वाली भोपाल एक्सप्रेस समय से चली और ऐसे ही समय से चलती रहती तो भोर में 2.55 बजे यह ग्वालियर पहुँच गयी होती। लेकिन रात में हमारे सोते रहने का फायदा उठाकर आँधी–पानी ने हमला किया और रेलवे के तार वगैरह टूट गये और इसकी मरम्मत होने में ट्रेन 4 घण्टे लेट हो गयी। ग्वालियर पहुँचने में 7 बज गये। वैसे इससे हम लोगों का समय के अतिरिक्त और कोई विशेष नुकसान नहीं हुआ। लेकिन हमारे लिए समय ही सबसे महत्वपूर्ण चीज थी। ग्वालियर पहुँच कर भी वैसा ही हुआ जैसा कि हर जगह होता है। हम लोग स्टेशन से बाहर प्लेटफार्म नं0 1 की ओर बाहर निकले और ऑटो वालों की शरण में पड़े।
दरअसल मैं ग्वालियर रेलवे स्टेशन के पास न ठहरकर किले के पास ठहरना चाह रहा था क्योंकि स्टेशन से किला काफी दूर (लगभग 3 किमी) है। ग्वालियर का किला देखने की मुझे बड़ी इच्छा थी। ऑटो वाले से बात करके किले की तरफ गये लेकिन वहां तो होटल वालों ने हमारे लिए दरवाजे बन्द कर रखे थे। आँधी ने यहाँ भी अच्छा–खासा उत्पात मचाया था। दुकानों के बोर्ड उलट–पुलट गये थे। टिन–शेड व प्लास्टिक के टेण्ट उड़ कर इधर–इधर बिखर गये थे। वहाँ हजीरा चौराहे के आस–पास इक्के–दुक्के होटल ही थे। एक गली में एक होटल दिखा भी तो उसके अगल–बगल देसी और विदेशी शराब की दुकानों की भरमार दिखाई दे रही थीं। हमारे तो भाग्य ही खुल गये। लेकिन कई बार दरवाजा भड़भड़ाने के बाद भी होटल का कोई स्टाफ चेहरा दिखाने के लिए बाहर नहीं निकला। रात की आँधी की वजह से छोटी–मोटी दुकानें तो अपना स्थान ही बदल चुकी थीं। उसी आटो से हम फिर उल्टे पाँव स्टेशन के पास आ गये।
ग्वालियर रेलवे स्टेशन के बाहर होटल वगैरह हमें कुछ महँगे लग रहे थे लेकिन स्टेशन के पीछे की तरफ कई सस्ते होटल हैं। तो हमने इन्हीं पीछे वाले होटलों में से एक काे चुना। पाँच सौ में बात बन गयी। ग्वालियर में हमारे पास दो दिन थे अर्थात आज का बचा हुआ दिन तथा कल का पूरा दिन। कल या 28 मई का दिन हमने ग्वालियर किले के लिए सुरक्षित रख लिया था। आज के दिन कमरा लेने और नहाने–धोने के बाद बाहर निकल पड़े। नौ बज चुके थे। खाना और घूमना सब बाहर ही होगा। रास्ते में मध्य प्रदेश का प्रसिद्ध नाश्ता पोहा मिल गया,केवल 10 रूपये में। वैसे तो ग्वालियर में घूमने लायक बहुत सारे स्थान हैं लेकिन आज हमने सबसे पहले चुना जय विलास पैलेस को। पहुँचने में कहीं कोई दिक्कत नहीं है। ग्वालियर के लगभग हर हिस्से में शेयर्ड ऑटो उपलब्ध हैं।
ऑटो की सहायता से हम लगभग 9.30 बजे तक जयविलास पैलेस के गेट तक पहुँच चुके थे लेकिन पहुँचकर पता लगा कि यह 10 बजे खुलेगा। उस दिन महल तक पहुँचने वाले हम पहले दर्शक थे। अब महल में प्रवेश करना है तो थोड़ी देर इन्तजार तो किया ही जा सकता है। थोड़ी देर में कुछ और लोग आ गये। वैसे तो बाहर से ही महल का सामने वाला हिस्सा अपने विशाल एवं भव्य स्वरूप में काफी कुछ दिख रहा था लेकिन तय समय पर गेट खुला और हम अन्दर दाखिल हुए तो आँखें चकाचौंध से भर उठीं। मुख्य भवन से बाहर,महाराजा माधवराव सिंधिया द्वारा खरीदी गयीं राल्स रायस कारों को शीशे के केबिन में प्रदर्शित किया गया है तथा उनके बारे में जानकारी दी गयी है। गेट के ठीक सामने एक तोप लगायी गयी है। पास ही महल के निर्माण वर्ष को प्रदर्शित करता एक बोर्ड लगा है। अन्दर प्रवेश करते ही टिकट घर है। टिकट की दर है 120 रूपये। अगर मोबाइल या कैमरा साथ ले जाना चाहते हैं तो 100 रूपये और भुगतना पड़ेगा। इसलिए हमने भी कैमरा बैग में रखकर जमा कर दिया और एक मोबाइल साथ ले लिया।
कभी देश की सबसे बड़ी रियासताें में शामिल रही ग्वालियर रियासत के शासक सिंधिया राजवंश की वर्तमान पीढ़ी अर्थात ज्योदिरादित्य सिंधिया के वर्तमान निवास के रूप में जाना जाने वाला यह महल सन् 1874 में तत्कालीन महाराजा जयाजी राव सिंधिया द्वारा बनवाया गया था। कहते हैं उस समय इस महल के निर्माण में एक करोड़ रूपये की लागत आयी थी। जी हाँ,एक करोड़। यह रकम आज के जमाने में भी एक बड़ी रकम है,तो आज से लगभग 150 साल पहले इसकी कीमत के बारे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। 12,40,771 वर्ग फीट में निर्मित इस महल में वर्तमान में 400 कमरे हैं जिसमें से 40 कमरों को म्यूजियम का रूप देकर इसमें सिंधिया राजवंश और ग्वालियर की ऐतिहासिक विरासत को सहेज कर रखा गया है। म्यूजियम का नाम महाराज जीवाजी राव सिंधिया के नाम पर रखा गया है। यह म्यूजियम ही महल का वह भाग है जिसे आम जनता के लिए खोला गया है। ज्योतिरादित्य सिंधिया की पत्नी प्रियदर्शिनी राजे सिंधिया वर्तमान में इस महल की ट्रस्टी हैं।
तो अब हम महल में प्रवेश कर चुके हैं और पुराने जमाने की उस विलासिता का दर्शन कर रहे हैं जिसके बारे में हम सोच भी नहीं सकते।
म्यूजियम के भूतल पर सात गैलरियां हैं जिनमें सिंधिया राजवंश,सिंधिया के सरदार,यूनिफार्म,कपड़े,गाड़ियों एवं इनडोर स्विमिंग पूल को प्रदर्शित किया गया है। प्रथम तल पर इतिहास से सम्बन्धित अनेक वस्तुओं का कलेक्शन प्रदर्शित किया गया है। पैलेस का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है शाही दरबार हाॅल। इस दरबार हॉल में ही सिंधिया शासकों का दरबार लगता था। वैसे तो जयविलास पैलेस के हर कमरे में झूमर या झाड़ फानूस टांगे गये हैं लेकिन दरबार हाॅल में लगे साढ़े तीन टन के दो फानूस विशेष प्रसिद्ध हैं। दुनिया के कुछ सबसे बड़े झूमरों में शामिल इस झूमर को बेल्जियम के कारीगरों ने बनाया था। इस झूमर को छत पर टांगने से पहले इंजीनियरों ने छत की मजबूती परखने के लिए दस हाथियों को छत पर चढ़ाया और उन्हें वहीं सात दिन तक चलाते रहे। इसके बाद यह झूमर लगायी गयी।
पैलेस का डाइनिंग हॉल भी विशिष्ट है। शाही मेहमानों की आवभगत के लिए जयाजी राव सिंधिया ने कुछ अलग करने के मकसद से दुनिया भर से डिजाइन मंगवाए। उनमें से उन्हें चांदी की छोटी सी ट्रेन का विचार सर्वाधिक पसंद आया। उस समय काफी आधुनिक जमाने की मानी जाने वाली यह चांदी की ट्रेन डाइनिंग टेबल पर बिछाई गयी पटरियों पर धीमी गति से चलती थी। इस ट्रेन के ऊपर लगे ढक्कन को खोलने पर यह रूक जाती और फिर अपनी जरूरत का सामान लेकर ढक्कन लगा देने पर फिर चल पड़ती। है न दावत का शाही अंदाजǃ
सिंधिया राजवंश के शासक जयाजी राव 8 वर्ष की उम्र में ही ग्वालियर के महाराज बने। बड़े होने पर जब इंग्लैण्ड के शासक एडवर्ड सप्तम भारत आये तो महाराज ने उन्हें आमंत्रित किया। उनके स्वागत के लिए ही जयविलास पैलेस के निर्माण की योजना बनाई गयी। इसके लिए नाइटहुड की उपाधि प्राप्त एक फ्रांसीसी आर्किटेक्ट मिशेल फिलाेस को नियुक्त किया गया जिसने 1874 में जयविलास पैलेस का निर्माण किया।
पैलेस में महीने में दो दिन– महीने के दूसरे और चौथे शनिवार की शाम 6.30 से 8.30 बजे तक साउण्ड और लाइट शो का आयोजन किया जाता है। इस क्रम में म्यूजियम और पूरे महल को बिजली की लाइटों से रोशन किया जाता है। झूमरें जगमगा उठतीं हैं और चाँदी की ट्रेन भी चल पड़ती है। संयोगवश जिस दिन हम लोग महल पहुँचे थे उस दिन महीने का चौथा शनिवार था लेकिन चूँकि हम दिन में काफी घूम चुके थे इसलिए रात में घूमने की इच्छा नहीं थी। साथ ही रात में महल घूमने का अलग से टिकट भी लेना पड़ता। जेब भी ढीली होती। वैसे इस अनिच्छा का बाद में पछतावा भी हुआ।
महल के पूर्वी भाग में एक और गैलरी बनायी गयी है जिसमें भारत में पायी जाने वाली बाघों की विभिन्न प्रजातियों को दर्शाया गया है। चित्रों और मॉडलों को देखकर लगता है मानो हम किसी चिड़ियाघर में प्रवेश कर गये हैं। कुल मिलाकर पूरा जयविलास पैलेस घूम लेने के बाद इसकी ऐतिहासिकता और महत्व का पता तो चलता ही है साथ ही प्राचीन राजघरानों के विलासिता पूर्ण जीवन शैली के बारे में भी जानकारी प्राप्त होती है। उस समय में भी जबकि हिन्दुस्तान की अधिकांश जनता गरीबी में जीवन–यापन कर रही थी,देश पर विदेशी शासकों का शासन था,राजा–महाराजाओं का इतना वैभवपूर्ण एवं विलासी जीवन हास्यास्पद की श्रेणी में ही रखने योग्य है। मुझे लगा इसका नाम जयविलास पैलेस न होकर "अति"विलास पैलेस रख दिया जाना चाहिए।
जयविलास पैलेस घूमने में हमें काफी समय लग गया। थकान भी काफी हो गयी थी। यहाँ से निकलकर हमने चिड़ियाघर चलने का मन बनाया। ग्वालियर का चिड़ियाघर यहाँ की नगर पालिका द्वारा संचालित एक छोटा सा लेकिन सुन्दर चिड़ियाघर है। चिड़ियाघर में पक्षियों एवं सरीसृपों का सुन्दर संग्रह किया गया है। हरा–भरा एवं छायादार होने से यहाँ घूमना काफी आनन्ददायक रहा। पर्याप्त पैदल चल लेने के बाद अब हमने वापस कमरे लौटने का फैसला किया और आटो पकड़ कर होटल आ गये।
अब सिंधिया राजवंश की विलासितापूर्ण जीवन शैली के कुछ नमूने देखते हैं–
अब चिड़ियाघर चलते हैं–
अगला भाग ः ग्वालियर का किला
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. सांची–महानता की गौरवगाथा
2. भोजपुर मन्दिर–एक महान कृति
3. भीमबेटका–पूर्वजों की निशानी
4. भोपाल–राजा भोज के शहर में
5. ग्वालियर–जयविलास पैलेस
6. ग्वालियर का किला
तो अब हम महल में प्रवेश कर चुके हैं और पुराने जमाने की उस विलासिता का दर्शन कर रहे हैं जिसके बारे में हम सोच भी नहीं सकते।
म्यूजियम के भूतल पर सात गैलरियां हैं जिनमें सिंधिया राजवंश,सिंधिया के सरदार,यूनिफार्म,कपड़े,गाड़ियों एवं इनडोर स्विमिंग पूल को प्रदर्शित किया गया है। प्रथम तल पर इतिहास से सम्बन्धित अनेक वस्तुओं का कलेक्शन प्रदर्शित किया गया है। पैलेस का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है शाही दरबार हाॅल। इस दरबार हॉल में ही सिंधिया शासकों का दरबार लगता था। वैसे तो जयविलास पैलेस के हर कमरे में झूमर या झाड़ फानूस टांगे गये हैं लेकिन दरबार हाॅल में लगे साढ़े तीन टन के दो फानूस विशेष प्रसिद्ध हैं। दुनिया के कुछ सबसे बड़े झूमरों में शामिल इस झूमर को बेल्जियम के कारीगरों ने बनाया था। इस झूमर को छत पर टांगने से पहले इंजीनियरों ने छत की मजबूती परखने के लिए दस हाथियों को छत पर चढ़ाया और उन्हें वहीं सात दिन तक चलाते रहे। इसके बाद यह झूमर लगायी गयी।
पैलेस का डाइनिंग हॉल भी विशिष्ट है। शाही मेहमानों की आवभगत के लिए जयाजी राव सिंधिया ने कुछ अलग करने के मकसद से दुनिया भर से डिजाइन मंगवाए। उनमें से उन्हें चांदी की छोटी सी ट्रेन का विचार सर्वाधिक पसंद आया। उस समय काफी आधुनिक जमाने की मानी जाने वाली यह चांदी की ट्रेन डाइनिंग टेबल पर बिछाई गयी पटरियों पर धीमी गति से चलती थी। इस ट्रेन के ऊपर लगे ढक्कन को खोलने पर यह रूक जाती और फिर अपनी जरूरत का सामान लेकर ढक्कन लगा देने पर फिर चल पड़ती। है न दावत का शाही अंदाजǃ
सिंधिया राजवंश के शासक जयाजी राव 8 वर्ष की उम्र में ही ग्वालियर के महाराज बने। बड़े होने पर जब इंग्लैण्ड के शासक एडवर्ड सप्तम भारत आये तो महाराज ने उन्हें आमंत्रित किया। उनके स्वागत के लिए ही जयविलास पैलेस के निर्माण की योजना बनाई गयी। इसके लिए नाइटहुड की उपाधि प्राप्त एक फ्रांसीसी आर्किटेक्ट मिशेल फिलाेस को नियुक्त किया गया जिसने 1874 में जयविलास पैलेस का निर्माण किया।
पैलेस में महीने में दो दिन– महीने के दूसरे और चौथे शनिवार की शाम 6.30 से 8.30 बजे तक साउण्ड और लाइट शो का आयोजन किया जाता है। इस क्रम में म्यूजियम और पूरे महल को बिजली की लाइटों से रोशन किया जाता है। झूमरें जगमगा उठतीं हैं और चाँदी की ट्रेन भी चल पड़ती है। संयोगवश जिस दिन हम लोग महल पहुँचे थे उस दिन महीने का चौथा शनिवार था लेकिन चूँकि हम दिन में काफी घूम चुके थे इसलिए रात में घूमने की इच्छा नहीं थी। साथ ही रात में महल घूमने का अलग से टिकट भी लेना पड़ता। जेब भी ढीली होती। वैसे इस अनिच्छा का बाद में पछतावा भी हुआ।
महल के पूर्वी भाग में एक और गैलरी बनायी गयी है जिसमें भारत में पायी जाने वाली बाघों की विभिन्न प्रजातियों को दर्शाया गया है। चित्रों और मॉडलों को देखकर लगता है मानो हम किसी चिड़ियाघर में प्रवेश कर गये हैं। कुल मिलाकर पूरा जयविलास पैलेस घूम लेने के बाद इसकी ऐतिहासिकता और महत्व का पता तो चलता ही है साथ ही प्राचीन राजघरानों के विलासिता पूर्ण जीवन शैली के बारे में भी जानकारी प्राप्त होती है। उस समय में भी जबकि हिन्दुस्तान की अधिकांश जनता गरीबी में जीवन–यापन कर रही थी,देश पर विदेशी शासकों का शासन था,राजा–महाराजाओं का इतना वैभवपूर्ण एवं विलासी जीवन हास्यास्पद की श्रेणी में ही रखने योग्य है। मुझे लगा इसका नाम जयविलास पैलेस न होकर "अति"विलास पैलेस रख दिया जाना चाहिए।
जयविलास पैलेस घूमने में हमें काफी समय लग गया। थकान भी काफी हो गयी थी। यहाँ से निकलकर हमने चिड़ियाघर चलने का मन बनाया। ग्वालियर का चिड़ियाघर यहाँ की नगर पालिका द्वारा संचालित एक छोटा सा लेकिन सुन्दर चिड़ियाघर है। चिड़ियाघर में पक्षियों एवं सरीसृपों का सुन्दर संग्रह किया गया है। हरा–भरा एवं छायादार होने से यहाँ घूमना काफी आनन्ददायक रहा। पर्याप्त पैदल चल लेने के बाद अब हमने वापस कमरे लौटने का फैसला किया और आटो पकड़ कर होटल आ गये।
अब सिंधिया राजवंश की विलासितापूर्ण जीवन शैली के कुछ नमूने देखते हैं–
जयविलास पैलेस का मुख्य द्वार |
मेट्रोपोलिटन फायर इंजन (अग्निशामक) |
दरबार हॉल और उसमें लगी विशाल झूमर |
डाइनिंग हॉल और चाँदी की ट्रेन |
अब चिड़ियाघर चलते हैं–
इस सफेद बाघ को देखकर लग रहा है जैसे यह कोई मूर्ति हो |
ग्वालियर रेलवे स्टेशन पर लगा एक बोर्ड |
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. सांची–महानता की गौरवगाथा
2. भोजपुर मन्दिर–एक महान कृति
3. भीमबेटका–पूर्वजों की निशानी
4. भोपाल–राजा भोज के शहर में
5. ग्वालियर–जयविलास पैलेस
6. ग्वालियर का किला
अच्छा और विवरणात्मक पोस्ट, फोटो बहुत बढ़िया है, वो पुरानी कार ओर रिक्शे, आप होटल के लिए भटके पर आपके इस पोस्ट को पढ़ने वाला ग्वालियर में कभी नहीं भटकेगा, मैं भी जाने वाला हूं ग्वालियर और मुरैना
ReplyDeleteबिल्कुल जाइए। ग्वालियर ऐतिहासिक जगह है।
Deleteपढ़कर यादें ताजी हो गईं , तेरह वर्ष पूर्व यहां घूमने का सौभाग्य प्राप्त है
ReplyDeleteधन्यवाद जी
Deleteआप मेरे ब्लाग पर आये ये मेरे लिए सम्मान की बात है।
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteयात्रा विवरण बहुत ही बढ़िया कभी ग्वालियर जाना होगा तो जरूर इस महल को देखना पड़ेगा वैसे स्टेट के जमाने में हमारे मंदसौर में ग्वालियर स्टेट की जेल आज भी शानदार व् जानदार खड़ी है फर्क सिर्फ इतना है अब केदीयो के लिए नही है नारकोटिक्स डिपार्टमेंट का ऑफिस और गोदाम है जहाँ भारी मात्रा में काला सोना सरकार खरीदती है व लाइसेंस देती है इसकी खेती करने का
ReplyDeleteब्लाग पर आने के लिए धन्यवाद। कभी मंदसौर की जेल भी जरूर देखेंगे।
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