अपने भोपाल निवासी मित्र सुरेन्द्र गुप्ता से किये गये वादे के मुताबिक आज हमें होटल छोड़कर उनके घर शिफ्ट हो जाना था। इसलिए सुबह उठकर जल्दी से तैयारी में लग गये। नहा–धोकर बाहर निकले और एक दुकान पर छः रूपये वाली चाय पी। बहुत अच्छी लगी क्योंकि दस रूपये से नीचे की तो चाय मिल ही नहीं रही थी। अब मित्र के घर पहुँचने के लिए वाहन की जरूरत थी। चाय वाले से पूछा तो उसने लोकल बस पकड़ने के लिए ऐसा रास्ता बताया जो हमारी समझ में ही नहीं आया। समझने की बजाय हम और उलझ गये जबकि रास्ता बिल्कुल सीधा था।
चूंकि हमें शहर से बाहर काफी दूरी पर बसी एक टाउनशिप में जाना था और ठीक–ठीक रास्ता पता नहीं था इसलिए मन के उहापोह को खत्म करने के लिए हमने एक आटो वाले से बात की। वह 200 रूपये में तैयार हो गया। हमने पिट्ठू और घसीटू दोनों बैग आटो में लादे और चल पड़े। अभी आटो वाला एकाध किलोमीटर ही चला होगा कि उसने अपनी आटो अपने ही किसी भाई के बगल में खड़ी कर दी और उससे रास्ता पूछने लगा। सारे भेद परत दर परत खुल गये। पता चला कि यह बहुत दूर है और यहाँ का किराया 300 से कम नहीं लगेगा। अब हमारा आटो वाला अपनी बात से मुकरने लगा। हम बुरे फँसे। किसी तरह उसी दूसरे आटो वाले को कह–सुन कर तैयार किया गया और आगे बढ़े। पता चला कि यह टाउनशिप भोपाल शहर से 20–22 किमी दूर है। अच्छा किया कि आटो पकड़ लिया अन्यथा बस के फेर में मारे–मारे फिरे होते। वास्तव में जबतक रास्ते का सही पता न हो,किसी बड़े शहर की लोकल बस में बोरिया–बिस्तर के साथ यात्रा न ही की जाय तो अच्छा। वैसे भोपाल शहर की लोकल बस सर्विस अन्य किसी समकक्ष शहर के ट्रांसपोर्ट सिस्टम की तुलना में काफी उच्च स्तर की है।
मंजिल तक पहुँचकर मित्र महोदय को फोन किया तो दो–तीन मिनट के अन्दर वे अलादीन के चराग के जिन्न की तरह अपनी स्कूटी पर सवार होकर हाजिर हो गये। टाउनशिप के मुख्य द्वार से उनका निवास बस थोड़ी ही दूरी पर था। हमने कहा कि आप अपनी स्कूटी पर धीरे–धीरे चलो और हम पीछे–पीछे बैग घसीटते आते हैं। लेकिन अगला पहुँचा हुआ फकीर निकला। हमारे दो पिट्ठू व दो घसीटू बैग्स के साथ हम दोनों को भी अपनी स्कूटी पर लाद लिया। हम तो आये ही थे लदने के लिए। दो मिनट के अन्दर ही हम उनके घर पहुँच गये। मित्र से कई गुना धन्यवाद हमने स्कूटी को दिया। घर पहुँचने के बाद एक मेहमान की जितनी भी सेवा की जा सकती है उससे कुछ अधिक ही,सुरेन्द्र गुप्ता ने हमारी सेवा की। सब कुछ के बाद घूमने का प्लान बना। सबसे पहले भोजपुर। भोजपुर भोपाल शहर से 30 किमी दूर है लेकिन हम जिस टाउनशिप में पहुँचे थे वह भोपाल शहर से दूर होशंगाबाद रोड पर थी और भोजपुर मन्दिर वहाँ से 11–12 किलोमीटर की दूरी पर ही था। घूमने वाले हम तो दो थे ही,सुरेन्द्र गुप्ता सपरिवार चल रहे थे इसलिए उधार की स्कूटी की व्यवस्था करनी पड़ी। भोजपुर पहुँचने के लिए कोई सीधा सार्वजनिक वाहन सम्भवतः उपलब्ध नहीं है। निजी साधन के भरोसे ही यहाँ की यात्रा की जा सकती है।
घर से निकलने में लगभग 10.30 बज गये। धूप काफी तेज हो गई थी। फिर भी घुमक्कड़ी का जुनून अगर हो तो मौसम की बाधा कुछ भी नहीं। आधे घण्टे में हम भोजपुर पहुँच गये। रास्ते के आस–पास का नजारा देखकर लग रहा था जैसे हम किसी वीरान पथरीले इलाके में आ गये हों। भोजपुर मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में बेतवा नदी के किनारे स्थित एक गाँव है,भले ही किसी जमाने में यह शहर रहा हो। गाँव के पास ही एक छोटी सी पहाड़ी पर यह मन्दिर अवस्थित है। मन्दिर के आस–पास भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा लगाये गये सूचना पट्ट से मन्दिर के निर्माण और इसके स्थापत्य के बारे काफी सूचनाएं प्राप्त होती हैं।
इस मन्दिर का निर्माण धार के प्रसिद्ध परमार राजा भोज (1010–1055 ई0) द्वारा कराया गया था। राजा भोज के ही नाम पर इस मन्दिर को भोज मन्दिर या भोजेश्वर मन्दिर भी कहा जाता है। इस मन्दिर का निर्माण किन्हीं अज्ञात कारणवश पूर्ण नहीं हो सका। पश्चिम दिशा की ओर अभिमुख यह मन्दिर 106 फीट लम्बे,77 फीट चौड़े तथा 17 फीट ऊँचे एक चबूतरे पर निर्मित है। इसके गर्भगृह की अपूर्ण छत 40 फीट ऊॅंचे चार स्तम्भों पर टिकी है। मन्दिर के वर्गाकार गर्भगृह में चमकदार पालिश युक्त विशाल शिवलिंग प्रतिष्ठित है। पश्चिम दिशा से प्रवेश हेतु सीढ़ियां बनी हैं। अलंकरण की दृष्टि से मन्दिर के अग्रभाग को छोड़कर शेष भाग लगभग सादा है। अपने योनिपट्ट अथवा आधार सहित 22 फीट ऊँचा यह शिवलिंग दुनिया का सबसे ऊँचा व विशालतम शिवलिंग है। एक ही पत्थर से निर्मित विशालकाय योनिपट्ट,एक बार छत से एक बड़ा पत्थर गिरने से दो भागों में टूट गया था और इस प्रकार सदियों तक मन्दिर की योनिपट्ट और इसकी छत आसमान की ओर खुली रही किन्तु वर्तमान में योनिपट्ट को सावधानीपूर्वक जोड़ दिया गया है और छत के खुले हुए भाग को अधोकमल से अलंकृत फाइबर ग्लास की चादर से ढक दिया गया है जो मन्दिर के मूल स्थापत्य के पूर्णतया समरूप है। इस मन्दिर का प्रवेशद्वार भी किसी हिन्दू भवन के दरवाजों में विशालतम है। मन्दिर परिसर में मकर संक्रांति व महाशिवरात्रि के अवसर पर वार्षिक मेले भी आयोजित किये जाते हैं।
मन्दिर के पृष्ठ भाग में एक रपटा या ढलान मौजूद है जिसका उपयोग निर्माणाधीन मन्दिर के समय विशाल पत्थरों को बढ़ती ऊँचाइयों तक ले जाने के लिए किया गया था। विश्व में कहीं भी पत्थर के विशाल अवयवों को,संरचना के ऊपर तक पहुँचाने के लिए ऐसी प्राचीन भवन निर्माण तकनीकी विद्यमान नहीं है। यदि इस रपटे या ढलान का आज अस्तित्व न होता तो यह तथ्य रहस्य ही रह जाता कि कैसे भवन निर्माणकर्ताओं ने 35x5x5 फीट की साइज और 70 टन वजन के पत्थरों को मन्दिर के शीर्ष तक पहुँचाया होगा।
मन्दिर के परिसर के बाहर सजावटी सामानों व फूलमालाओं की कुछ दुकानें थीं जहां से पर्यटक व दर्शनार्थी–दोेनों टाइप के लोग अपनी पसंद की वस्तुएं खरीद रहे थे। हाँ,इनकी संख्या अत्यन्त कम थी क्योंकि ऊपर से सूर्यदेव प्रसन्न थे तो नीचे पथरीला धरातल अलग ही आनन्द प्रदान कर रहा था और इस तरह का आनन्द उठाने की जुर्रत कोई सनकी या जुनूनी ही कर सकता है। पत्थर के बने मन्दिर के चबूतरे पर मन्दिर के गर्भगृह तक पहुँचने के लिए टाट की पटि्टयां बिछायी गयी थीं अन्यथा जूते–चप्पल निकालकर नंगे पाँव वहाँ तक पहुॅंचना मुश्किल था। मोटे पत्थरों का बना होने के कारण मन्दिर के अन्दर धूप का कोई असर नहीं था। हम भी वहाँ बहुत देर तक टिके रहने की स्थिति में नहीं थे। जल्दी–जल्दी फूलमालाएँ भोलेशंकर को अर्पित की गयीं,आशीर्वाद लिया गया,फोटो खींचे गये,कुछ देर तक मन्दिर के अलंकरण और स्थापत्य का बारीक निरीक्षण किया गया और फिर जलते हुए पैरों को सिर पर रखकर भागे। स्टैण्ड से स्कूटियां निकाली गयीं और दोपहर के एक बजे तक कमरे पर पहुँच गये।
अगला भाग ः भीमबेटका–पूर्वजों की निशानी
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. सांची–महानता की गौरवगाथा
2. भोजपुर मन्दिर–एक महान कृति
3. भीमबेटका–पूर्वजों की निशानी
4. भोपाल–राजा भोज के शहर में
5. ग्वालियर–जयविलास पैलेस
6. ग्वालियर का किला
चूंकि हमें शहर से बाहर काफी दूरी पर बसी एक टाउनशिप में जाना था और ठीक–ठीक रास्ता पता नहीं था इसलिए मन के उहापोह को खत्म करने के लिए हमने एक आटो वाले से बात की। वह 200 रूपये में तैयार हो गया। हमने पिट्ठू और घसीटू दोनों बैग आटो में लादे और चल पड़े। अभी आटो वाला एकाध किलोमीटर ही चला होगा कि उसने अपनी आटो अपने ही किसी भाई के बगल में खड़ी कर दी और उससे रास्ता पूछने लगा। सारे भेद परत दर परत खुल गये। पता चला कि यह बहुत दूर है और यहाँ का किराया 300 से कम नहीं लगेगा। अब हमारा आटो वाला अपनी बात से मुकरने लगा। हम बुरे फँसे। किसी तरह उसी दूसरे आटो वाले को कह–सुन कर तैयार किया गया और आगे बढ़े। पता चला कि यह टाउनशिप भोपाल शहर से 20–22 किमी दूर है। अच्छा किया कि आटो पकड़ लिया अन्यथा बस के फेर में मारे–मारे फिरे होते। वास्तव में जबतक रास्ते का सही पता न हो,किसी बड़े शहर की लोकल बस में बोरिया–बिस्तर के साथ यात्रा न ही की जाय तो अच्छा। वैसे भोपाल शहर की लोकल बस सर्विस अन्य किसी समकक्ष शहर के ट्रांसपोर्ट सिस्टम की तुलना में काफी उच्च स्तर की है।
मंजिल तक पहुँचकर मित्र महोदय को फोन किया तो दो–तीन मिनट के अन्दर वे अलादीन के चराग के जिन्न की तरह अपनी स्कूटी पर सवार होकर हाजिर हो गये। टाउनशिप के मुख्य द्वार से उनका निवास बस थोड़ी ही दूरी पर था। हमने कहा कि आप अपनी स्कूटी पर धीरे–धीरे चलो और हम पीछे–पीछे बैग घसीटते आते हैं। लेकिन अगला पहुँचा हुआ फकीर निकला। हमारे दो पिट्ठू व दो घसीटू बैग्स के साथ हम दोनों को भी अपनी स्कूटी पर लाद लिया। हम तो आये ही थे लदने के लिए। दो मिनट के अन्दर ही हम उनके घर पहुँच गये। मित्र से कई गुना धन्यवाद हमने स्कूटी को दिया। घर पहुँचने के बाद एक मेहमान की जितनी भी सेवा की जा सकती है उससे कुछ अधिक ही,सुरेन्द्र गुप्ता ने हमारी सेवा की। सब कुछ के बाद घूमने का प्लान बना। सबसे पहले भोजपुर। भोजपुर भोपाल शहर से 30 किमी दूर है लेकिन हम जिस टाउनशिप में पहुँचे थे वह भोपाल शहर से दूर होशंगाबाद रोड पर थी और भोजपुर मन्दिर वहाँ से 11–12 किलोमीटर की दूरी पर ही था। घूमने वाले हम तो दो थे ही,सुरेन्द्र गुप्ता सपरिवार चल रहे थे इसलिए उधार की स्कूटी की व्यवस्था करनी पड़ी। भोजपुर पहुँचने के लिए कोई सीधा सार्वजनिक वाहन सम्भवतः उपलब्ध नहीं है। निजी साधन के भरोसे ही यहाँ की यात्रा की जा सकती है।
घर से निकलने में लगभग 10.30 बज गये। धूप काफी तेज हो गई थी। फिर भी घुमक्कड़ी का जुनून अगर हो तो मौसम की बाधा कुछ भी नहीं। आधे घण्टे में हम भोजपुर पहुँच गये। रास्ते के आस–पास का नजारा देखकर लग रहा था जैसे हम किसी वीरान पथरीले इलाके में आ गये हों। भोजपुर मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में बेतवा नदी के किनारे स्थित एक गाँव है,भले ही किसी जमाने में यह शहर रहा हो। गाँव के पास ही एक छोटी सी पहाड़ी पर यह मन्दिर अवस्थित है। मन्दिर के आस–पास भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा लगाये गये सूचना पट्ट से मन्दिर के निर्माण और इसके स्थापत्य के बारे काफी सूचनाएं प्राप्त होती हैं।
इस मन्दिर का निर्माण धार के प्रसिद्ध परमार राजा भोज (1010–1055 ई0) द्वारा कराया गया था। राजा भोज के ही नाम पर इस मन्दिर को भोज मन्दिर या भोजेश्वर मन्दिर भी कहा जाता है। इस मन्दिर का निर्माण किन्हीं अज्ञात कारणवश पूर्ण नहीं हो सका। पश्चिम दिशा की ओर अभिमुख यह मन्दिर 106 फीट लम्बे,77 फीट चौड़े तथा 17 फीट ऊँचे एक चबूतरे पर निर्मित है। इसके गर्भगृह की अपूर्ण छत 40 फीट ऊॅंचे चार स्तम्भों पर टिकी है। मन्दिर के वर्गाकार गर्भगृह में चमकदार पालिश युक्त विशाल शिवलिंग प्रतिष्ठित है। पश्चिम दिशा से प्रवेश हेतु सीढ़ियां बनी हैं। अलंकरण की दृष्टि से मन्दिर के अग्रभाग को छोड़कर शेष भाग लगभग सादा है। अपने योनिपट्ट अथवा आधार सहित 22 फीट ऊँचा यह शिवलिंग दुनिया का सबसे ऊँचा व विशालतम शिवलिंग है। एक ही पत्थर से निर्मित विशालकाय योनिपट्ट,एक बार छत से एक बड़ा पत्थर गिरने से दो भागों में टूट गया था और इस प्रकार सदियों तक मन्दिर की योनिपट्ट और इसकी छत आसमान की ओर खुली रही किन्तु वर्तमान में योनिपट्ट को सावधानीपूर्वक जोड़ दिया गया है और छत के खुले हुए भाग को अधोकमल से अलंकृत फाइबर ग्लास की चादर से ढक दिया गया है जो मन्दिर के मूल स्थापत्य के पूर्णतया समरूप है। इस मन्दिर का प्रवेशद्वार भी किसी हिन्दू भवन के दरवाजों में विशालतम है। मन्दिर परिसर में मकर संक्रांति व महाशिवरात्रि के अवसर पर वार्षिक मेले भी आयोजित किये जाते हैं।
मन्दिर के पृष्ठ भाग में एक रपटा या ढलान मौजूद है जिसका उपयोग निर्माणाधीन मन्दिर के समय विशाल पत्थरों को बढ़ती ऊँचाइयों तक ले जाने के लिए किया गया था। विश्व में कहीं भी पत्थर के विशाल अवयवों को,संरचना के ऊपर तक पहुँचाने के लिए ऐसी प्राचीन भवन निर्माण तकनीकी विद्यमान नहीं है। यदि इस रपटे या ढलान का आज अस्तित्व न होता तो यह तथ्य रहस्य ही रह जाता कि कैसे भवन निर्माणकर्ताओं ने 35x5x5 फीट की साइज और 70 टन वजन के पत्थरों को मन्दिर के शीर्ष तक पहुँचाया होगा।
मन्दिर के परिसर के बाहर सजावटी सामानों व फूलमालाओं की कुछ दुकानें थीं जहां से पर्यटक व दर्शनार्थी–दोेनों टाइप के लोग अपनी पसंद की वस्तुएं खरीद रहे थे। हाँ,इनकी संख्या अत्यन्त कम थी क्योंकि ऊपर से सूर्यदेव प्रसन्न थे तो नीचे पथरीला धरातल अलग ही आनन्द प्रदान कर रहा था और इस तरह का आनन्द उठाने की जुर्रत कोई सनकी या जुनूनी ही कर सकता है। पत्थर के बने मन्दिर के चबूतरे पर मन्दिर के गर्भगृह तक पहुँचने के लिए टाट की पटि्टयां बिछायी गयी थीं अन्यथा जूते–चप्पल निकालकर नंगे पाँव वहाँ तक पहुॅंचना मुश्किल था। मोटे पत्थरों का बना होने के कारण मन्दिर के अन्दर धूप का कोई असर नहीं था। हम भी वहाँ बहुत देर तक टिके रहने की स्थिति में नहीं थे। जल्दी–जल्दी फूलमालाएँ भोलेशंकर को अर्पित की गयीं,आशीर्वाद लिया गया,फोटो खींचे गये,कुछ देर तक मन्दिर के अलंकरण और स्थापत्य का बारीक निरीक्षण किया गया और फिर जलते हुए पैरों को सिर पर रखकर भागे। स्टैण्ड से स्कूटियां निकाली गयीं और दोपहर के एक बजे तक कमरे पर पहुँच गये।
भोज मन्दिर या भोजेश्वर मन्दिर |
किसी भी हिन्दू इमारत का विशालतम दरवाजा |
अपने आधार समेत 22 फीट ऊँचा विश्व का विशालतम शिवलिंग |
मन्दिर की छत का अलंकरण |
मन्दिर के गेट के पास अपना इकतारा बजाते ये महोदय मिल गये जिनका फोटो खींचने के एवज में 10 रूपये खर्च करने पड़े |
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. सांची–महानता की गौरवगाथा
2. भोजपुर मन्दिर–एक महान कृति
3. भीमबेटका–पूर्वजों की निशानी
4. भोपाल–राजा भोज के शहर में
5. ग्वालियर–जयविलास पैलेस
6. ग्वालियर का किला
bahut badhiya vivran aur bahut ache chitra
ReplyDeleteThanks
DeleteYe photo khiche ka 10 rupye dene se mujhe kedarnath ka yaad aa gaya, jaha mujhe kuch sadhuon ka photo khichne ke liye 10 rupye dene pade the
ReplyDeleteEs Tarah ka Dan bhi achha lagta hai
Deleteइस मंदिर के बारे में एक दिन टीवी पर एक कार्यक्रम देखा था।
ReplyDeleteआपके लेख ने वो याद ताजा करा दी है।
देखते है अपना मौका कब बनेगा।
बहुत ही कलात्मक इमारत है,देखने लायक। लेकिन बिल्कुल वीराने में।
Deleteबहुत सुना है भोजपुर मंदिर के बारे में...बढ़िया पोस्ट
ReplyDeleteइसका शिवलिंग,आधार और दरवाजा विशेष रूप से देखने लायक है
Deleteबहुत ही अच्छी जानकारी और खूबसूरत 📷 आपको और गुप्ता जी को जै श्री कृष्णा गजेंद्र मित्तल
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद गजेंद्र जी।
Delete