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भोजपुर मन्दिर से उसी दिन अर्थात् 24 मई को वापस होकर कमरे पहुँचने तक दोपहर के एक बज चुके थे। हमारे मित्र सुरेन्द्र का आग्रह था कि आराम करो लेकिन यहाँ तो–
भोजपुर मन्दिर से उसी दिन अर्थात् 24 मई को वापस होकर कमरे पहुँचने तक दोपहर के एक बज चुके थे। हमारे मित्र सुरेन्द्र का आग्रह था कि आराम करो लेकिन यहाँ तो–
"राम काज कीन्हें बिना मोहिं कहाँ विश्राम।"
और यहाँ राम ने भेज दिया है कि जाओ भ्रमण करो। तो फिर पेट व बोतलों को पानी से भरकर लगभग आधे घण्टे बाद ही मित्र की स्कूटी उठाई और निकल पड़े उस स्थान की ओर जहाँ हजारों–हजार साल पहले हमारे पूर्वज हमारे लिए कुछ छोड़ गये थे और जिसे पाने की उत्कण्ठा लिए इस मई के महीने में आग उगलते सूरज और तपते पथरीले धरातल के बीच रेगिस्तान के मृग की भाँति हम भाग रहे थे।
यह जगह थी– भीमबेटका। जी हाँ,ये वही जगह है जहाँ आज से दस हजार साल से भी अधिक पहले विन्ध्य पर्वत की गुफाओं में निवास करने वाले दो हाथ और दो पैरों वाले इस जीव ने,गेहूँ पर गुलाब की विजय की उद्घोषणा की और अपने हाथों और उंगलियों की कला को पत्थर के कैनवास पर उतार दिया और वो भी इस तरह से कि हम आज भी उसे अपना बताकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं।