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16 अप्रैल–
16 अप्रैल–
दार्जिलिंग–
या वज्रपात का शहर।
लघु हिमालय में स्थित इस पहाड़ी क्षेत्र को अंग्रेजों ने एक हिल स्टेशन के रूप में स्थापित किया। यह स्थान उनके लिए शारीरिक सुख के लिहाज से अनुकूल था। साथ ही सिक्किम की ओर जाने वाले मार्ग में पड़ने वाला दार्जिलिंग सामरिक दृष्टि से भी काफी महत्वपूर्ण था। इसी वजह से भारत के अन्य हिल स्टेशनों की तरह ही अंग्रेजों ने इसकी खोज की और इसे विकसित किया। ब्रिटिश ढाँचे में बनी इमारतें इसकी गवाह हैं। इन इमारतों के अलावा कुछ स्थानों केे नाम भी अंग्रेजों के प्रभाव को बखूबी बयां करते हैं। दार्जिलिंग से कलिम्पोंग की यात्रा में कुछ स्थानों के नाम हमें इस तरह मिले जैसे– सिक्स्थ माइल,टेन्थ माइल,इलेवेन्थ माइल (6th mile, 10th mile, 11th mile) जिनका मतलब हम समझ नहीं सके।
काफी खोजबीन करने के बाद एक ऐसा व्यक्ति मिला जिसने ये राज खोला। दरअसल उस समय ये स्थान आबादी विहीन थे लेकिन लम्बे रास्ते में सुविधाजनक पड़ावों के लिए कुछ खास चिह्न बनाना आवश्यक था। तो फिर उस समय के अंग्रेज प्रशासकों ने माइलस्टोन के नाम पर ही इन स्थानों के नाम रख दिये जो आजतक चले आ रहे हैं।
आज हमारा दार्जिलिंग में पांचवां और आखिरी दिन था। 12 अप्रैल को हम शाम को दार्जिलिंग पहुंचे थे और दार्जिलिंग से एक संक्षिप्त मुलाकात ही हो सकी। 13 को मिरिक चले गये। 14 को दार्जिलिंग की कुछ खास जगहों जैसे टाइगर हिल,बतासिया लूप,घूम मोनेस्ट्री और रॉक गार्डेन की सैर कर ली तथा सबसे रोमांचक दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे की यात्रा भी कर ली। 15 को कलिम्पोंग चले गये। और आज 16 को अब दार्जिलिंग के कुछ शेष बचे दर्शनीय स्थलों की सैर करनी थी। सब कुछ धीरे–धीरे पूर्ण होने वाला था लेकिन कल रात में सोते समय मन में एक टीस थी। टीस उस चीज को देखने की जिसे देखना हमारे या किसी के हाथ में नहीं था। इन चार–पांच दिनों में तकदीर ने बिल्कुल साथ नहीं दिया था। लेकिन मन में एक उम्मीद थी,वही उम्मीद जिसके सहारे दुनिया टिकी है।
और आज हमारी उम्मीदें प्रकृति की व्यवस्थाओं पर भारी पड़ने वाली थीं। अंतरात्मा की आवाज शायद सृष्टि के नियंता तक पहुँच गयी थी। 15 की भोर में अचानक नींद खुली तो उठ कर दरवाजा खोला और होटल की बालकनी में टहलते हुए आ गया। सामने दृष्टि गयी तो हिमालय का विराट स्वरूप कंचनजंघा के रूप में मेरे सामने था और मैं इस अविश्वसनीय सच को प्रत्यक्ष पाकर गदगद हो गया। जल्दी से भागकर कैमरा लाया और शुरू हो गया।
ऐसा नहीं हो सकता कि दार्जिलिंग का नाम आये और कंचनजंघा का न आये। दार्जिलिंग में कंचनजंघा सर्वव्याप्त है। दार्जिलिंग के लगभग हर हिस्से से कंचनजंघा अपना विराट स्वरूप दिखाता है लेकिन हर समय और हर किसी के लिए यह सुलभ नहीं हो पाता। हमारे लिए तो यह दृश्य पांचवें दिन सामने आया लेकिन आया तो। और इसके साथ ही हमारी दार्जिलिंग की यात्रा सफल हो गयी।
अब हमारे लिए दार्जिलिंग शहर के कुछ स्थानों की सैर बाकी रह गयी गयी थी। हमारे लॉज मैनेजर के अनुसार यह 7 प्वाइंट टूर के अन्तर्गत आता है। अब तक इन प्वाइंट्स के नाम पर मुझे हंसी आने लग गयी थी। होटल वाले ने बताया कि 10 बजे गाड़ी रवाना होगी। तबतक हम खाली थे इसलिए दार्जिलिंग रेलवे स्टेशन के आस–पास टहलते रहे और सामने दिखती घाटी और कंचनजंघा को निहारते रहे। 10 बजे गाड़ी आयी तो सवार हो गये। साढ़े दस बजे तक गाड़ी रवाना हो गयी। दस से पन्द्रह मिनट बाद ही हम जापानी मन्दिर या पीस पैगोडा पहुँच गये। सड़क किनारे गाड़ियों की भीड़ ज्यादा होने के कारण ड्राइवर ने पहले ही गाड़ी रोक दी और पैदल जाने का फतवा जारी किया। दस मिनट की चढ़ाई चढ़ने के बाद हम जापानी मन्दिर के सामने पहुँच गये। जापानी शैली में बना यह एक दुमंजिला मन्दिर है जिसका नाम निप्पोजन मायोजी बौद्ध मन्दिर है। इस मन्दिर का निर्माण 1972 में हुआ था। इसमें भगवान बुद्ध के चार अवतारों काे प्रदर्शित किया गया है। इस मन्दिर के पास ही एक स्तूप या पीस पैगोडा स्थित है। इस स्तूप तक पहुँचने के लिए कुछ सीढ़ियां चढ़नी हैं। इस शांति स्तूप के पास से दार्जिलिंग शहर का खूबसूरत नजारा दिख रहा था और साथ ही एक और दृश्य दिख रहा था और वो था– खूबसूरत कंचनजंघा।
जापानी मंदिर के बाद हमारी अगली मंजिल थी दार्जिलिंग चिड़ियाघर। इसका नाम पद्मजा नायडू हिमालयन जैविक उद्यान है। उल्लेखनीय है कि पद्मजा नायडू सरोजनी नायडू की पुत्री थीं। उच्च पहाड़ी भाग में स्थित यह भारत का सबसे बड़ा चिड़ियाघर है। इस चिड़ियाघर की स्थापना सन 1958 में की गयी थी। यह चिड़ियाघर हिमालय के उच्च पर्वतीय भागों में पाये जाने वाले अनेक जीव–जन्तुओं का निवास स्थान है। कुछ दुर्लभ जीवों जैसे तिब्बती भेड़िया,रेड पांडा और हिम तेंदुएं के लिए यहां संरक्षण कार्यक्रम भी चलाए गये हैं। चिड़ियाघर के एक हिस्से में एक पेड़ पर बैठे छोटे से जीव की फोटो खींचने के लिए छीना–झपटी मची थी। पता चला कि यह रेड पांडा था। चिड़ियाघर में बंगाल नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम भी है। यहां तमाम जीवों के शरीर को संरक्षित करके रखा गया है। हिमालयन माउण्टेनियरिंग इन्स्टीट्यूट भी इसी कैम्पस में स्थित है। दार्जिलिंग का चिड़ियाघर आकार में भले ही बड़ा हो लेकिन नैनीताल का चिड़ियाघर मुझे इसकी तुलना में अधिक हरा–भरा,सुन्दर और व्यवस्थित लगा।
चिड़ियाघर में प्रवेश करने से पहले गाड़ी के ड्राइवर ने सभी यात्रियों को अपना नम्बर दिया और एक निश्चित समय बाद नीचे आकर फोन करने का निर्देश दिया ताकि सभी लोग साथ चल सकें। चिड़ियाघर से निकलकर हम चाय बागान की ओर चले। एक चाय बागान तो निर्धारित कार्यक्रम के अतिरिक्त हम पहले ही रॉक गार्डन के पास घूम चुके थे। लेकिन आज के कार्यक्रम में यह अनिवार्य रूप से सम्मिलित था। चाय बागान का सबसे बड़ा आकर्षण इसकी हरियाली तथा चाय के पौधों का पहाड़ी ढलान पर विभिन्न ज्यामितीय स्वरूपों में फैला होना है। जहां तक नजर जा रही थी वहां तक लग रहा था कि जैसे किसी चित्रकार ने केवल हरे रंग से हजारों डिजाइनें बना रखी हैं। चाय बागान में लोग दार्जिलिंग की पारम्परिक ड्रेस पहनकर फोटो खिंचवा रहे थे। हमने ड्रेस तो नहीं पहनी लेकिन फोटो खींचने में कोई कोताही नहीं की।
चाय बागान के बाद हम पहुँचे तेनजिंग रॉक पर। चहाँ एक बड़ी सी चट्टान है जिस पर रस्सियों के सहारे लोग पर्वतारोहण का आनन्द ले रहे थे। शुल्क था 50 रूपये। तो मैं क्यों पीछे रहता। मैंने भी संगीता को कैमरा पकड़ाया और चढ़ गया चट्टान पर। पहले तो बहुत डर लगा लेकिन चट्टान पर चढ़ने के बाद सारा डर खत्म हो गया और मन में यह विश्वास जगा कि मुझे भी अगर वास्तविक पर्वतारोहण का अवसर मिला तो मैं भी एवरेस्ट की चढ़ाई चढ़ सकता हूँ। चट्टान पर "तेनजिंग रॉक एच एम आई" का बोर्ड लगा हुआ है। यह प्रथम एवरेस्ट विजेता तेनजिंग नोर्गे के सम्मान में है। इस चट्टान का सामने वाला हिस्सा आरोहण के लिए आसान है और इसी का उपयोग पर्यटकों द्वारा किया जाता है। बायें वाला हिस्सा तीखे ढाल वाला है और इसका प्रयाेग पेशेवर पर्वतारोहियों द्वारा अभ्यास के लिए किया जाता है। तेनजिंग रॉक के सामने गोम्बू रॉक नाम से एक और चट्टान है। यह नाम तेनजिंग के भांजे के नाम पर रखा गया है जो दो बार एवरेस्ट पर चढ़ाई करने वाले पहले व्यक्ति थे। ज्ञात हुआ कि तेनजिंग खुद भी इन्हीं चट्टानों पर पर्वतारोहण का अभ्यास किया करते थे।
पर्वतारोहण के बाद ड्राइवर ने दार्जिलिंग का टूर समाप्त करने की घोषणा कर दी। तो अब हमारा दार्जिलिंग का टूर समाप्त होने वाला था। 2.00 बजे ड्राइवर ने हमें हमारे होटल के सामने उतार दिया। एक दिन के अतिरिक्त किराये से बचने के लिए हमने सुबह ही होटल से चेक आउट कर लिया था और सामान पैक कर होटल मैनेजर को सौंप दिया था। इसलिए अब हमने होटल मैनेजर से अपना सामान लिया और बाहर सड़क पर आ गये। होटल वालों ने बताया कि सिलीगुड़ी के लिए गाड़ियां आसानी से मिल जाएंगी। लेकिन वास्तविकता कुछ और थी। आज रविवार था और कलकत्ता व अन्य जगहों से दार्जिलिंग में वीकेण्ड का महात्यौहार मनाने आई भीड़ वापस लौट रही थी जिसके चंगुल में हम भी फँस गये। गाड़ियां तो आसानी से मिल रही थीं लेकिन सब की सब भरी हुई। हम अपने ट्राली बैग को घसीटते चौक बाजार बस स्टैण्ड की दिशा में चल पड़े। लेकिन आज किस्मत हमारा साथ दे रही थी तभी तो सुबह कंचनजंघा दिखा था। अचानक 5-6 सवारियां बैठाये एक गाड़ी वाला दिखा तो मैं सिलीगुड़ी–सिलीगुड़ी चिल्लाया। ड्राइवर ने सहमति में सिर्फ सिर हिलाया और अपना बैग घसीटते हम दोनों पीछे वाली सीटों पर आसीन हो गये। दार्जिलिंग की इस पूरी यात्रा में हम पीछे की सीटों पर बैठने से परहेज करते रहे थे यद्यपि इसमें कोई खास समस्या नहीं थी। लेकिन आज दार्जिलिंग से वापसी के समय वही पीछे की सीट हमारे भाग्य में थी। लेकिन ये भी अच्छा हुआ। घूम और उसके कुछ और आगे तक तो महसूस हुआ कि हम पीछे बैठे हैं लेकिन उसके बाद प्रकृति ने अपना वो रूप दिखलाया कि हम अपने भाग्य को धन्यवाद देते नहीं थक रहे थे। मौसम बदला और दार्जिलिंग के बादल देवदारों के साथ मिलकर हमें विदाई देने आ पहुँचे थे जो कर्सियांग तक हमारे साथ चलते रहे और गाड़ी के पिछले शीशे से हम उन्हें पूरे कैनवास पर देख पा रहे थे।
वही दृश्य जो मेरी आत्मा को किसी दूसरे संसार में लेकर चला जाता है–
क्षितिज को ढकने की प्रतिस्पर्धा में चोटियां निकाले पहाड़।
पहाड़ों की ढलानों पर आकृतियां बनाते देवदार के वृक्ष।
आकृतियों को ढकते उजले मुलायम बादल।
निःशब्द मिलन।
निःशब्दता को भंग करता पंक्षियों का कलरव।
एक स्वर्गिक दृश्य की सृष्टि।
काफी खोजबीन करने के बाद एक ऐसा व्यक्ति मिला जिसने ये राज खोला। दरअसल उस समय ये स्थान आबादी विहीन थे लेकिन लम्बे रास्ते में सुविधाजनक पड़ावों के लिए कुछ खास चिह्न बनाना आवश्यक था। तो फिर उस समय के अंग्रेज प्रशासकों ने माइलस्टोन के नाम पर ही इन स्थानों के नाम रख दिये जो आजतक चले आ रहे हैं।
आज हमारा दार्जिलिंग में पांचवां और आखिरी दिन था। 12 अप्रैल को हम शाम को दार्जिलिंग पहुंचे थे और दार्जिलिंग से एक संक्षिप्त मुलाकात ही हो सकी। 13 को मिरिक चले गये। 14 को दार्जिलिंग की कुछ खास जगहों जैसे टाइगर हिल,बतासिया लूप,घूम मोनेस्ट्री और रॉक गार्डेन की सैर कर ली तथा सबसे रोमांचक दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे की यात्रा भी कर ली। 15 को कलिम्पोंग चले गये। और आज 16 को अब दार्जिलिंग के कुछ शेष बचे दर्शनीय स्थलों की सैर करनी थी। सब कुछ धीरे–धीरे पूर्ण होने वाला था लेकिन कल रात में सोते समय मन में एक टीस थी। टीस उस चीज को देखने की जिसे देखना हमारे या किसी के हाथ में नहीं था। इन चार–पांच दिनों में तकदीर ने बिल्कुल साथ नहीं दिया था। लेकिन मन में एक उम्मीद थी,वही उम्मीद जिसके सहारे दुनिया टिकी है।
और आज हमारी उम्मीदें प्रकृति की व्यवस्थाओं पर भारी पड़ने वाली थीं। अंतरात्मा की आवाज शायद सृष्टि के नियंता तक पहुँच गयी थी। 15 की भोर में अचानक नींद खुली तो उठ कर दरवाजा खोला और होटल की बालकनी में टहलते हुए आ गया। सामने दृष्टि गयी तो हिमालय का विराट स्वरूप कंचनजंघा के रूप में मेरे सामने था और मैं इस अविश्वसनीय सच को प्रत्यक्ष पाकर गदगद हो गया। जल्दी से भागकर कैमरा लाया और शुरू हो गया।
ऐसा नहीं हो सकता कि दार्जिलिंग का नाम आये और कंचनजंघा का न आये। दार्जिलिंग में कंचनजंघा सर्वव्याप्त है। दार्जिलिंग के लगभग हर हिस्से से कंचनजंघा अपना विराट स्वरूप दिखाता है लेकिन हर समय और हर किसी के लिए यह सुलभ नहीं हो पाता। हमारे लिए तो यह दृश्य पांचवें दिन सामने आया लेकिन आया तो। और इसके साथ ही हमारी दार्जिलिंग की यात्रा सफल हो गयी।
अब हमारे लिए दार्जिलिंग शहर के कुछ स्थानों की सैर बाकी रह गयी गयी थी। हमारे लॉज मैनेजर के अनुसार यह 7 प्वाइंट टूर के अन्तर्गत आता है। अब तक इन प्वाइंट्स के नाम पर मुझे हंसी आने लग गयी थी। होटल वाले ने बताया कि 10 बजे गाड़ी रवाना होगी। तबतक हम खाली थे इसलिए दार्जिलिंग रेलवे स्टेशन के आस–पास टहलते रहे और सामने दिखती घाटी और कंचनजंघा को निहारते रहे। 10 बजे गाड़ी आयी तो सवार हो गये। साढ़े दस बजे तक गाड़ी रवाना हो गयी। दस से पन्द्रह मिनट बाद ही हम जापानी मन्दिर या पीस पैगोडा पहुँच गये। सड़क किनारे गाड़ियों की भीड़ ज्यादा होने के कारण ड्राइवर ने पहले ही गाड़ी रोक दी और पैदल जाने का फतवा जारी किया। दस मिनट की चढ़ाई चढ़ने के बाद हम जापानी मन्दिर के सामने पहुँच गये। जापानी शैली में बना यह एक दुमंजिला मन्दिर है जिसका नाम निप्पोजन मायोजी बौद्ध मन्दिर है। इस मन्दिर का निर्माण 1972 में हुआ था। इसमें भगवान बुद्ध के चार अवतारों काे प्रदर्शित किया गया है। इस मन्दिर के पास ही एक स्तूप या पीस पैगोडा स्थित है। इस स्तूप तक पहुँचने के लिए कुछ सीढ़ियां चढ़नी हैं। इस शांति स्तूप के पास से दार्जिलिंग शहर का खूबसूरत नजारा दिख रहा था और साथ ही एक और दृश्य दिख रहा था और वो था– खूबसूरत कंचनजंघा।
जापानी मंदिर के बाद हमारी अगली मंजिल थी दार्जिलिंग चिड़ियाघर। इसका नाम पद्मजा नायडू हिमालयन जैविक उद्यान है। उल्लेखनीय है कि पद्मजा नायडू सरोजनी नायडू की पुत्री थीं। उच्च पहाड़ी भाग में स्थित यह भारत का सबसे बड़ा चिड़ियाघर है। इस चिड़ियाघर की स्थापना सन 1958 में की गयी थी। यह चिड़ियाघर हिमालय के उच्च पर्वतीय भागों में पाये जाने वाले अनेक जीव–जन्तुओं का निवास स्थान है। कुछ दुर्लभ जीवों जैसे तिब्बती भेड़िया,रेड पांडा और हिम तेंदुएं के लिए यहां संरक्षण कार्यक्रम भी चलाए गये हैं। चिड़ियाघर के एक हिस्से में एक पेड़ पर बैठे छोटे से जीव की फोटो खींचने के लिए छीना–झपटी मची थी। पता चला कि यह रेड पांडा था। चिड़ियाघर में बंगाल नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम भी है। यहां तमाम जीवों के शरीर को संरक्षित करके रखा गया है। हिमालयन माउण्टेनियरिंग इन्स्टीट्यूट भी इसी कैम्पस में स्थित है। दार्जिलिंग का चिड़ियाघर आकार में भले ही बड़ा हो लेकिन नैनीताल का चिड़ियाघर मुझे इसकी तुलना में अधिक हरा–भरा,सुन्दर और व्यवस्थित लगा।
चिड़ियाघर में प्रवेश करने से पहले गाड़ी के ड्राइवर ने सभी यात्रियों को अपना नम्बर दिया और एक निश्चित समय बाद नीचे आकर फोन करने का निर्देश दिया ताकि सभी लोग साथ चल सकें। चिड़ियाघर से निकलकर हम चाय बागान की ओर चले। एक चाय बागान तो निर्धारित कार्यक्रम के अतिरिक्त हम पहले ही रॉक गार्डन के पास घूम चुके थे। लेकिन आज के कार्यक्रम में यह अनिवार्य रूप से सम्मिलित था। चाय बागान का सबसे बड़ा आकर्षण इसकी हरियाली तथा चाय के पौधों का पहाड़ी ढलान पर विभिन्न ज्यामितीय स्वरूपों में फैला होना है। जहां तक नजर जा रही थी वहां तक लग रहा था कि जैसे किसी चित्रकार ने केवल हरे रंग से हजारों डिजाइनें बना रखी हैं। चाय बागान में लोग दार्जिलिंग की पारम्परिक ड्रेस पहनकर फोटो खिंचवा रहे थे। हमने ड्रेस तो नहीं पहनी लेकिन फोटो खींचने में कोई कोताही नहीं की।
चाय बागान के बाद हम पहुँचे तेनजिंग रॉक पर। चहाँ एक बड़ी सी चट्टान है जिस पर रस्सियों के सहारे लोग पर्वतारोहण का आनन्द ले रहे थे। शुल्क था 50 रूपये। तो मैं क्यों पीछे रहता। मैंने भी संगीता को कैमरा पकड़ाया और चढ़ गया चट्टान पर। पहले तो बहुत डर लगा लेकिन चट्टान पर चढ़ने के बाद सारा डर खत्म हो गया और मन में यह विश्वास जगा कि मुझे भी अगर वास्तविक पर्वतारोहण का अवसर मिला तो मैं भी एवरेस्ट की चढ़ाई चढ़ सकता हूँ। चट्टान पर "तेनजिंग रॉक एच एम आई" का बोर्ड लगा हुआ है। यह प्रथम एवरेस्ट विजेता तेनजिंग नोर्गे के सम्मान में है। इस चट्टान का सामने वाला हिस्सा आरोहण के लिए आसान है और इसी का उपयोग पर्यटकों द्वारा किया जाता है। बायें वाला हिस्सा तीखे ढाल वाला है और इसका प्रयाेग पेशेवर पर्वतारोहियों द्वारा अभ्यास के लिए किया जाता है। तेनजिंग रॉक के सामने गोम्बू रॉक नाम से एक और चट्टान है। यह नाम तेनजिंग के भांजे के नाम पर रखा गया है जो दो बार एवरेस्ट पर चढ़ाई करने वाले पहले व्यक्ति थे। ज्ञात हुआ कि तेनजिंग खुद भी इन्हीं चट्टानों पर पर्वतारोहण का अभ्यास किया करते थे।
पर्वतारोहण के बाद ड्राइवर ने दार्जिलिंग का टूर समाप्त करने की घोषणा कर दी। तो अब हमारा दार्जिलिंग का टूर समाप्त होने वाला था। 2.00 बजे ड्राइवर ने हमें हमारे होटल के सामने उतार दिया। एक दिन के अतिरिक्त किराये से बचने के लिए हमने सुबह ही होटल से चेक आउट कर लिया था और सामान पैक कर होटल मैनेजर को सौंप दिया था। इसलिए अब हमने होटल मैनेजर से अपना सामान लिया और बाहर सड़क पर आ गये। होटल वालों ने बताया कि सिलीगुड़ी के लिए गाड़ियां आसानी से मिल जाएंगी। लेकिन वास्तविकता कुछ और थी। आज रविवार था और कलकत्ता व अन्य जगहों से दार्जिलिंग में वीकेण्ड का महात्यौहार मनाने आई भीड़ वापस लौट रही थी जिसके चंगुल में हम भी फँस गये। गाड़ियां तो आसानी से मिल रही थीं लेकिन सब की सब भरी हुई। हम अपने ट्राली बैग को घसीटते चौक बाजार बस स्टैण्ड की दिशा में चल पड़े। लेकिन आज किस्मत हमारा साथ दे रही थी तभी तो सुबह कंचनजंघा दिखा था। अचानक 5-6 सवारियां बैठाये एक गाड़ी वाला दिखा तो मैं सिलीगुड़ी–सिलीगुड़ी चिल्लाया। ड्राइवर ने सहमति में सिर्फ सिर हिलाया और अपना बैग घसीटते हम दोनों पीछे वाली सीटों पर आसीन हो गये। दार्जिलिंग की इस पूरी यात्रा में हम पीछे की सीटों पर बैठने से परहेज करते रहे थे यद्यपि इसमें कोई खास समस्या नहीं थी। लेकिन आज दार्जिलिंग से वापसी के समय वही पीछे की सीट हमारे भाग्य में थी। लेकिन ये भी अच्छा हुआ। घूम और उसके कुछ और आगे तक तो महसूस हुआ कि हम पीछे बैठे हैं लेकिन उसके बाद प्रकृति ने अपना वो रूप दिखलाया कि हम अपने भाग्य को धन्यवाद देते नहीं थक रहे थे। मौसम बदला और दार्जिलिंग के बादल देवदारों के साथ मिलकर हमें विदाई देने आ पहुँचे थे जो कर्सियांग तक हमारे साथ चलते रहे और गाड़ी के पिछले शीशे से हम उन्हें पूरे कैनवास पर देख पा रहे थे।
वही दृश्य जो मेरी आत्मा को किसी दूसरे संसार में लेकर चला जाता है–
क्षितिज को ढकने की प्रतिस्पर्धा में चोटियां निकाले पहाड़।
पहाड़ों की ढलानों पर आकृतियां बनाते देवदार के वृक्ष।
आकृतियों को ढकते उजले मुलायम बादल।
निःशब्द मिलन।
निःशब्दता को भंग करता पंक्षियों का कलरव।
एक स्वर्गिक दृश्य की सृष्टि।
कंचनजंघा की गोद में बसा दार्जिलिंग |
हमारे होटल की बालकनी से सब कुछ दिख रहा था |
जापानी मन्दिर के पास का एक दृश्य कैमरे के एक खास एंगल से |
शान्ति स्तूप |
जापानी मन्दिर |
दार्जिलिंग चिड़ियाघर के गेट के पास लगी दुकानें |
नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम जहां जानवरों के शरीर को संरक्षित करके रखा गया है |
पेड़ पर बैठा रेड पाण्डा |
चाय बागान |
तेनजिंग रॉक पर चढ़ाई |
न्यू जलपाईगुड़ी रेलवे स्टेशन पर बना इंजन का एक माडल |
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
पांडेय जी बहुत अच्छा विवरण, कुछ चीज़ो में धर्मशाला और दार्जीलिंग एक जैसे है वो है घरों की बसावट
ReplyDeleteहां जी मुझे भी धर्मशाला जाने की बड़ी इच्छा है
Deleteto ek bar ho aaiye dharamshala
Deletenice
ReplyDeleteसभी लेख बहुत ही रोचक व जानकारी से परिपूर्ण हैं। पढ़ कर अच्छा लगा कि कंचनजंगा के दर्शन आपको मिले।
ReplyDeleteधन्यवाद,मेरा लेख पढ़ने व प्रोत्साहन के लिए।
Deleteयह लेख देख कर लग रहा है मैं अब तक दार्जिलिंग क्यों नहीं गया, बहुत सुन्दर स्थल है। चलो बनाते है सपरिवार यहाँ जाने का कार्यक्रम भी।
ReplyDeleteबिल्कुल एक बार घूम आइए
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा है सपनो का शहर है दार्जिलिंग तो
ReplyDeleteबहुत ही शानदार यात्रा वृत्तान्त है आपका,हम भी जाने का स़ोच रहे हैं, आप का यह लेख हमारे लिए बहुत उपयोगी है।🙏🙏🙏
ReplyDeleteब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद। मेरा अनुभव आपको उपयोगी लगा,यह जानकर बहुत खुशी हुई।
Deleteशानदाऱ यात्रा रहीं आपकी। बहुत़ ही सुंदर यात्रा वृत्तांत
ReplyDeleteआपने तो एक ही बार में सारा समाप्त कर दिया। इतनी गहरी दिलचस्पी दिखाने के लिए आपका बहुत बहुत आभारी हूँ।
DeletePerfect Pandey ji
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