दोपहर के 12.25 बजे ट्रेन से उतरने के बाद हम न्यू जलपाईगुड़ी रेलवे स्टेशन से बाहर निकले। पसीने से भीगे कपड़ाें से लदा और रात भर की अनिद्रा व भागदौड़ से परेशान शरीर,परमतत्व की प्राप्ति जैसा अनुभव कर रहा था। बाहर रिक्शों और टैक्सियों की लाइन लगी थी। मानो हमसे यह पूछा जाने वाला था कि किस लोक में जाना है। पूछने की जरूरत ही नहीं थी। धड़ाधड़ ऑफर मिल रहे थे। हमारे चेहरे से ही जाहिर था कि हम किसी दूसरी दुनिया से आये हुए एलियन हैं। एक टैक्सी वाले ने अपना किराया बताया तो पांव तले की जमीन खिसक गई।
न्यू जलपाईगुड़ी से सिलीगुड़ी की दूरी लगभग 5 किमी है। इस दूरी को यदि 20 रूपये प्रति व्यक्ति के हिसाब शेयर्ड आटो से तय कर लिया जाय तो फिर सिलीगुड़ी से दार्जिलिंग के लिए शेयर्ड टाटा सूमो गाड़ी आसानी से मिल जायेगी। मोक्ष प्रदान करने वाला यह ज्ञान अभी हमें नहीं मिला था। सो अभी हम इधर–उधर की सोच ही रहे थे कि एक मानवचालित रिक्शेवाले ने हमें "कैप्चर" कर लिया।
मुझे याद आया कि इस तरह के रिक्शे की सवारी मैंने कभी बचपन में ही की थी। ऐसे रिक्शे वाले यहाँ एक–दो ही दिख रहे थे। उसने चुग्गा डाला– "पचास रूपये में बस स्टैण्ड छोड़ दूँगा।"
"कौन सा बस स्टैण्ड?"
"सिलीगुड़ी"
"हमें दार्जिलिंग जाना है।"
"वहाँ से बस मिल जायेगी।"
हमें मुँहमाँगी मुराद मिल गयी थी। इस महँगाई के जमाने में पचास रूपये की औकात ही क्या है। अच्छे से मोल भाव किया और रिक्शे पर सवार होकर चल दिये। लेकिन न्यू जलपाईगुड़ी रेलवे स्टेशन से बाहर निकलते ही रिक्शे वाला एक प्राइवेट ट्रैवेल एजेन्सी वाले के सामने जा खड़ा हुआ और ट्रैवेल एजेन्सी वाले पीछे पड़ गये। हमने पूछा– "अरे भाई यहां कहां रोक दिएǃ ये तो बस स्टैण्ड नहीं लग रहा।"
रिक्शेवाले ने कहा– "यहां भी देख लीजिए फिर चलते हैं।"
रिक्शे से उतरने की जरूरत ही नहीं थी। बैठे–बैठे ही सब कुछ मिलने लगा। गाड़ी से लेकर होटल और रेस्टोरण्ट तक सब कुछ।
अहोभाग्यǃ
न्यू जलपाईगुड़ी से दार्जिलिंग तक शेयर्ड सूमो का किराया 130 रूपये,होटल का कमरा 1000 से लेकर 3000 तक। मैं चकरा गया। आखिर रेलवे स्टेशन से निकलते ही ये लोग इतनी जाेरदार मार्केटिंग क्यों कर रहे हैं। मैंने सबको इन्कार करते हुए रिक्शेवाले से बस स्टैण्ड चलने के लिए हाथ पैर जोड़े। रिक्शेवाला बेमन से चल पड़ा। लग रहा था उसे टनों का बोझ खींचना पड़ रहा हो। लेकिन 100 मीटर आगे जाकर रिक्शा फिर रूक गया। मैंने पूछा– "क्या हुआ।"
"यहाँ भी देख लीजिए।"
मेरे सिर से लेकर पैर तक आग लग गयी। मैंने रिक्शे से उतर कर अपना माल–असबाब उतारना शुरू कर दिया। रिक्शेवाले ने मेरे हाथ पकड़ लिए। आखिर उसे भी समझ आ गया कि यहाँ दाल नहीं गलनी। हार मानकर आगे बढ़ा। लगभग 1 किमी जाने के बाद एक टेम्पो स्टैण्ड पर उसने रिक्शा रोक दिया और बोला कि यहां से आपको आटो से जाना होगा क्योंकि स्टेशन अभी बहुत दूर है। एक अनजान जगह में हम हैरान–परेशान थे। झख मारकर टेम्पो वाले से बात की तो मालूम हुआ कि यहां से सिलीगुड़ी का किराया 20 रूपये लगेगा। मरता क्या न करता। रिक्शे वाले से थोड़ी किच–किच करने के बाद 10 रूपये उसको दिये और फिर टेम्पो में सवार हो गये। अब मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ। यही काम मुझे रेलवे स्टेशन से ही करना चाहिए था।
लगभग 20 मिनट में हम NBSTC या नार्थ बंगाल राज्य परिवहन निगम के बस स्टैण्ड पहुंच गये। यहां से दार्जिलिंग के लिए बसें जाती हैं लेकिन जिस समय हम वहां पहुंचे थे अर्थात दिन के डेढ़ बजे,उस समय के बाद वहां से कोई बस नहीं थी। बस स्टैण्ड के बाहर प्राइवेट ट्रैवेल एजेंसियों और उनकी बसों व सूमो गाड़ियों की भरमार थी। यहां हमें दार्जिलिंग जाने वाली गाड़ियों के बारे में पूछ–ताछ करते देख ट्रैवेल एजेंसी वाले यहां भी पीछे पड़ गये और गाड़ियों, होटल व रेस्टोरेण्ट के ऑफर यहां भी धड़ाधड़ मिलने लगे। किसी से बस या शेयर्ड गाड़ी के बारे में पूछो तो वह सीधे होटल व रेस्टोरेण्ट के बारे में बताने लगता। बड़ी मुश्किल से इनसे पिण्ड छुड़ाकर हम एक शेयर्ड सूमो में 130 रूपये में अपनी सीट बुक करा पाये। और इस सारी मगजमारी में 1 घण्टे लग गये। वास्तविकता यह थी कि दार्जिलिंग जाने के लिए शेयर्ड सूमो गाड़ी में सीट बुक कराने की कोई जरूरत नहीं थी। अगर आपको अपने डेस्टिनेशन का स्टैण्ड पता है तो सीधे वहीं पहुंचिए, ड्राइवर से बात करिए और गाड़ी में सवार हो जाइए। यहां का यही सिस्टम है।
वैसे भी किसी टूरिस्ट प्लेस के लिए प्री बुकिंग के बारे में मेरी धारणा यह है कि सारी बुकिंग पहले से ही करा लेने से हमारे हाथ बंध जाते हैं और हम पूरी तरह से ट्रैवेल एजेण्ट के ऊपर निर्भर हो जाते हैं। इसलिए बेहतर यही है कि सारी प्लानिंग खुद से की जाय और स्टेप बाई स्टेप अलग–अलग एजेण्टों का सहारा लिया जाय। यहां भी मैंने यही किया। स्थानीय जानकारी न होने की वजह से हमें दिक्कतों का सामना करना पड़ा। यहां के लिए सबसे अच्छा विकल्प यही है कि न्यूजलपाईगुड़ी से अगर शेयर्ड सूमो उपलब्ध होती है तो ठीक अन्यथा बीस रूपये आटो वाले को देकर "दार्जिलिंग वाले बस स्टैण्ड" चले जायें। यहां से किसी भी ट्रैवेल एजेंसी वाले के ऑफर को ठुकराते हुए केवल दार्जिलिंग जाने के लिए गाड़ी की बात करें अथवा दार्जिलिंग वाले स्टैण्ड पहुंचकर सीधे ड्राइवर से किराया तय कर गाड़ी में सीट ले लें। किराए भी यहां के पहले से ही तय हैं। दार्जिलिंग तक शेयर्ड टाटा सूमो का किराया सिलीगुड़ी से 130 तथा न्यू जलपाईगुड़ी से 150 है। न्यू जलपाईगुड़ी रेलवे स्टेशन से सिलीगुड़ी बस स्टेशन का ऑटो का किराया 20 रूपये है।
सारी दौड़–धूप के बाद हमने एक ट्रैवेल एजेण्ट से एक शेयर्ड सूमो में 130 रूपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से बीच वाली सीट पर दो सीटें बुक कर लीं। सूमो का सिटिंग प्लान यह है कि आगे 2, बीच में 4 तथा पीछे 4 अर्थात ड्राइवर के अलावा कुल 10 लोग बैठते हैं। हमारे उत्तर प्रदेश में पीछे की सीटों पर कोई बैठना नहीं चाहता लेकिन यहां ऐसी कोई बात कम से कम मुझे तो नहीं महसूस हुई। हो सकता है यहां भी कुछ लोग ऐसा सोचते हों। वैसे सड़कें पूरी तरह ठीक हों तो पीछे बैठने में भी कोई विशेष दिक्कत नहीं। हाँ,पहाड़ी सड़कों पर उल्टी करने की पूरी छूट है।
सीट बुक कराने के पश्चात हम भी जल्दी से गाड़ी के पास पहुँचे और सीट पर सवार हो गये क्योंकि हमें अब खड़े होने की इच्छा नहीं रह गयी थी। थोड़ी ही देर बाद 2.35 बजे हमारी गाड़ी दार्जिलिंग के लिए रवाना हो गयी। अभी भी इसकी पीछे की चार सीटें खाली ही थीं। यात्रा का तनाव काफी कुछ कम हो गया था। यात्रा की पहली बाधा थी ट्रेन की भीड़,दूसरी बाधा थी न्यू जलपाईगुड़ी से दार्जिलिंग के लिए गाड़ी पकड़ना जो हमने दूर कर ली थी और तीसरी बाधा थी दार्जिलिंग पहुँचकर कमरे की तलाश करना,तो वह भी किसी तरह हो ही जायेगा क्योंकि यात्रा करते–करते अब तक इतना ढंग तो आ ही गया है। कल शाम को घर से निकलने के बाद आज अब तक हम यात्रा में ही थे और इस वजह से नहाने–धोने का अवसर नहीं मिला था। गर्मी और उमस की वजह से शरीर भारी महसूस हो रहा था लेकिन एक ही चीज सबसे भारी पड़ रही थी और वह थी– यात्रा का उत्साह।
सिलीगुड़ी से दार्जिलिंग की दूरी लगभग 65 किमी है। वैसे तो सिलीगुड़ी को दार्जिलिंग से जोड़ने वाला मार्ग राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 110 है लेकिन यह पूरा रास्ता हिल कार्ट रोड के नाम से जाना जाता है। सिलीगुड़ी से कुछ किलोमीटर दूर जाते ही समतल खेतों में चाय के पौधे दिखाई पड़े तो मैं आश्चर्य में पड़ गया। इसमें स्प्रिंकलर के द्वारा सिंचाई भी की जा रही थी। किताबों में तो मैंने यही पढ़ रखा था कि चाय की खेती के लिए ढलान वाली जमीन उपयुक्त होती है। एक घण्टे चलने के बाद पहाड़ी लक्षण दिखने आरम्भ हो गये। सड़क घुमावदार होने लगी और अब यात्रा का आनन्द आना शुरू हो गया। ऊॅंचाई तेजी से बढ़ने लगी और मौसम में भी कुछ–कुछ बदलाव आना शुरू हो गया।सड़क के किनारे नैरो–गेज वाली रेलवे लाइन भी दिखी जिसपर पहले दार्जिलिंग से न्यू जलपाईगुड़ी तक खिलौना रेल चलती थी।
इन सबके बावजूद रास्ते का वास्तविक रोमांच अभी दिखना बाकी था। सिलीगुड़ी से लगभग 36 किमी दूर स्थित है– कर्सियांग। कर्सियांग की समुद्रतल से ऊँचाई है 4864 फीट। वैसे तो कर्सियांग के काफी पहले से ही देवदार के जंगल व तीव्र पहाड़ी मोड़ दिखने शुरू हो गये थे लेकिन कर्सियांग तक मौसम पूरी तरह पहाड़ी हो चुका था। यहां पहाड़ी सौन्दर्य अपने शबाब पर था। देवदार के ऊँचे पेड़ों को चूमते बादल मौसम को काफी रोमांटिक बना रहे थे। माहौल में नमी और ठंड नशे की तरह घुल रहे थे। हम इस बात को भूल गये कि हम दार्जिलिंग जा रहे हैं।
होटल की बालकनी से मोशन पैनोरमा द्वारा लिया गया चित्र |
शाम के लगभग 5.30 बजे अर्थात सिलीगुड़ी से चलने के तीन घंटे बाद हम दार्जिलिंग रेलवे स्टेशन के पास पहुंच गये। कुछ लोग उतरे। ड्राइवर ने हमसे हमारी मंजिल पूछी। हमने सीधे–सीधे बता दिया कि सारा दार्जिलिंग ही हमारी मंजिल है। हम घूमने आये हैं और हमें कमरा खोजना है। ड्राइवर ने बताया कि आप यहीं उतर जाइए और कोई दलाल पकड़ लीजिए। हम उतरने लगे। हमें दलाल की इच्छा तो नहीं थी लेकिन पता नहीं कहां से एक दलाल हमारे गले पड़ ही गया। किसी तरह उससे पिण्ड छुड़ाया और पास ही में 660 रूपये में एक कमरा बुक कर लिया। यहां एक बात ध्यान देने लायक है कि दार्जिलिंग में हर बजट के कमरे मिलना थोड़ा कठिन काम है। हमारा यह काम 6 बजे तक फाइनल हो गया और हम अब अपने दार्जिलिंग भ्रमण का प्लान बनाने के लिए पूरी तरह निश्चिन्त थे।
दार्जिलिंग पहुँच जाने के बाद नहाने की आवश्यकता ही समाप्त हो चुकी थी। मौसम काफी ठण्डा था। तो जल्दी से मुँह–हाथ धाेकर चाय की तलाश में बाहर निकले क्योंकि हमें ठण्ड महसूस हो रही थी। होटल के गेट के सामने ही,दार्जिलिंग रेलवे स्टेशन के पास 10 रूपये की चाय मिल गयी। अपने पूरे दार्जिलिंग प्रवास के दौरान हम यहीं चाय पीते रहे। यहां चाय बेचने वाले एक बुजुर्ग दम्पति थे जिनसे हमारी जान–पहचान भी हो गयी। इसके अतिरिक्त होटल मैनेजर के कुछ दिशानिर्देश भी हमें याद हो गये। सबसे महत्वपूर्ण था कि आठ बजते–बजते यहां सारी दुकानें बन्द होने लगती हैं अतः उसके पहले ही खाना वगैरह खा लीजिए। होटल के बाथरूम में गीजर नहीं है अतः सुबह सात बजे नहाने के लिए दो लोगों हेतु एक बाल्टी गरम पानी मिलेगा। पीने का गरम पानी हर कमरे में उपलब्ध कराया जायेगा। इन सेवाओं के लिए अलग से कोई चार्ज नहीं है। इसके अतिरिक्त चाय–नाश्ते और भोजन की व्यवस्था भी उपलब्ध है। सुबह नाश्ते में ब्रेड, उबला अण्डा और जलेबी मिलेगी। भोजन आपके आर्डर के अनुसार मिलेगा।
दार्जिलिंग में पानी की भारी किल्लत है। यहां पानी का कोई अपना स्रोत नहीं है। अगल–बगल स्थित किसी झरने वगैरह का पानी मानवनिर्मित सीमेण्टेड टंकियों में इकट्ठा किया जाता है और इसे ही टैंकरों में भरकर शहर में सप्लाई किया जाता है। वैसे तो मौसम ठण्डा होने की वजह से नहाने के लिए बहुत अधिक पानी की आवश्यकता नहीं है फिर भी दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए पानी की आपूर्ति की यह व्यवस्था बहुत महंगी है। हो सकता है किन्हीं होटलों में गीजर भी लगे हों लेकिन वे बहुत महंगे होंगे। इस हिसाब से हमारे होटल की व्यवस्था ठीक ही लगी।
हमारा होटल दार्जिलिंग रेलवे स्टेशन के बिल्कुल पास ही था और होटल की बालकनी से इसका सुन्दर दृश्य दिखाई दे रहा था अतः काफी देर तक हम इसे खड़े–खड़े निहारते रहे। चाय पीने और दो–चार फोटो खींचने में 7 बज गये और भोजन की विकराल समस्या अब हमारे सामने थी। विकराल इसलिए कि इस ठण्डे प्रदेश में मांसाहार सर्वप्रचलित है क्योंकि इस पथरीले क्षेत्र में कौन धान–गेहूॅं की खेती करेगाǃ हम ठहरे साग–पात चरने वाले प्राणी। अगल–बगल के सारे रेस्टोरेण्ट में वेज–नानवेज दोनों की व्यवस्था थी। हमारे होटल मैनेजर ने अपनी व्यवस्था पहले ही बता दी थी। हमने अपनी समस्या उसी के सामने रखी तो उसने हमें "अग्रवाल किचेन" में जाने की सलाह दी और रास्ता भी बताया। यह रेस्टोरेण्ट हमारे होटल से 5 मिनट की पैदल दूरी पर स्थित था। पूछते–पूछते हम अग्रवाल किचेन पहुँच गये। यहाँ मेनू सामने आया तो समझ आ गया कि पाकेट भी ढीली होनी तय है। कम्प्लीट थाली 150 रूपये में थी जिसमें आइटम हमारे यूपी की थाली से कम ही थे फिर भी खाना तो पड़ेगा ही। आज का पूरा दिन फलाहार पर ही बीता था इसलिए थाली मँगाई और जल्दी–जल्दी चट कर गये। रात के आठ बज चुके थे इसलिए वापस होटल लौटे और बिस्तर पर पड़ गये। मौसम को देखते हुए बिस्तर पर एक रजाई के साथ साथ कम्बल भी उपलब्ध था और उसकी आवश्यकता भी थी।
होटल की बालकनी से लिए गये दार्जिलिंग रेलवे स्टेशन,कुछ दूरी पर दिखते एक मन्दिर तथा दार्जिलिंग शहर के कुछ फोटो–
अगला भाग ः मिरिक–प्रकृति की गोद में
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
सीधी सरल भाषा में दार्जीलिंग की सैर बहुत अच्छी शुरू हुई है
ReplyDeleteधन्यवाद भाई
Deleteसुन्दर वृतांत. दलाल कई बार परेशान कर देते हैं लेकिन फिर अगर जगह बिलकुल अनजान हो और दाम वाजिब लगें तो इन्हें अजमाने में कोई दिक्कत नहीं है. वैसे ये पर्यटकों के ताड़ने में माहिर होते हैं. आप उतरे नहीं कि वो आपके सामने जिन की तरह आ जायेंगे. आखिरी का फोटो ज्यादा बड़ा हो गया है.
ReplyDeleteधन्यवाद भाई। फोटो जानबूझकर बड़ा किया है,मुझे अच्छा लगा।
Deleteओके। स्क्रीन पे पूरा नहीं आ रहा था इसलिए मैंने कहा। :-)
Deleteआपकी पोस्ट पढ़कर दिल बिलकुल बाग़ बाग़ हो गया। बिलकुल सरल शब्दों में न कोई बनावट न कोई दिखावा। और ये पोस्ट मेरे बहुत काम आएगी, एक साल बाद जब मैं 2018 में दार्जीलिंग और सिक्किम जाउगा और एक बात लगे हाथ उस होटल का नाम भी बता दे जिसमे आप ठहरे थे
ReplyDeleteहोटल कैलाश,बिल्कुल दार्जिलिंग रेलवे स्टेशन के पास है। होटल में सुविधाएं बहुत हाई क्लास की नहीं हैं लेकिन ठीक हैं।
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ReplyDeleteहोटल बजट में मिल गया पर उसकी कमी रात्रिभोज ने पूरी कर दी..यात्रा की बढ़िया शुरुआत....
ReplyDeleteहां वो तो है
DeleteMaza a gya padh ke
ReplyDeleteधन्यवाद जी।
Deleteभैया जलपाईगुड़ी से दार्जिलिंग तक ट्रेन की सुविधा नहीं है क्या???
ReplyDeleteपहले थी अब नही है।
Deleteसरल सुंदर दार्जिलिंग यात्रा कथा
ReplyDeleteधन्यवाद आशुतोष जी।
Deleteयात्रा का वृतांत चित्रण करने का तरीका आपका बहुत अच्छा है दार्जिलिंग किस मौसम में जाया जाए उचित सलाह दें
ReplyDeleteब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद। दार्जिलिंग किसी भी मौसम में जाया जा सकता है। लेकिन जाड़े में अत्यधिक ठण्ड पड़ती है। बर्फबारी भी होती है। मार्च से अक्टूबर तक का मौसम सुहावना होता है और इसी समय सर्वाधिक पर्यटक यहाँ आते हैं। वैसे बारिश में लैंडस्लाइड की घटनाएं भी होती हैं तो इस समय जाने से बचें।
Deleteभाई साब आपको ह्रदय से धन्यवाद. आपने बड़े अच्छे तरीके से वर्णन किया. अब हम भी घास चरने वाले प्राणी हैं . इसलिए कृपया अग्रवाल होटल का पता बता दीजिये.
ReplyDeleteआपके द्वारा लिखी लेख से दार्जिलिंग घूमने वाले लोगों को बहुत मदद मिलेगी
ReplyDeleteजी धन्यवाद
DeleteBahut badiya sir..ham bhi 20 feb ko ja rahe h aapke anusar us waqt mosam kesa rahne wala h🙏
ReplyDeleteइस समय काफी ठण्ड रहेगी।
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