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आज हमारे लिए ऐतिहासिक दिन था क्योंकि हम दार्जिलिंग हिमालयन रेल या ट्वाय ट्रेन का सफर करने वाले थे जिसके लिए हमने लगभग 15 दिन पूर्व ही टिकट बुक कर रखा था। चूँकि हमारी ट्रेन का टाइम 9.40 पर था अतः उसके पहले हमने दार्जिलिंग के कुछ लोकल साइटसीन का प्लान बनाया जिसके लिए हमने कल बुकिंग की थी। इसके अनुसार आज सुबह का प्लान था– 3 प्वाइंट टूर। इसमें सम्मिलित थे– टाइगर हिल पर सूर्योदय,बतासिया लूप तथा घूम मोनेस्ट्री। टाइगर हिल पर सूर्योदय देखने के लिए आवश्यक था कि वहाँ लगभग 5 बजे तक पहुँच जाया जाय।
इसलिए सुबह उठने का टाइम 4 बजे का निर्धारित था। इसके पहले ही होटल के एक लड़के ने सभी जाने वाले पयर्टकों का दरवाजा खटखटाना शुरू कर दिया। हम भी नित्यक्रिया से निवृत्त हुए और 4.30 बजे तक हम गाड़ी के अन्दर थे। शेयर्ड गाड़ी में बीच वाली सीट में हम पहले से आकर बैठ गये थे,इस डर से कि कहीं पीछे न बैठना पड़ जाय।
4.40 बजे गाड़ी टाइगर हिल के लिए रवाना हो गयी और गाड़ी के सड़क पर दौड़ते ही मालूम हो गया कि इस यात्रा में हम अकेले नहीं हैं। गाड़ियों की पूरी लाइन लगी थी। आज दार्जिलिंग में हमारी दूसरी सुबह थी। पिछली सुबह भी भोर में दरवाजा खटखटाने,लोगों का शोरगुल व गाड़ियों की तेज आवाजें काफी देर तक सुनाई देती रहीं थीं। मेरी नींद खराब हो गयी लेकिन मैं समझ नहीं पाया कि आखिर हो क्या रहा है। आज समझ में आया कि कल क्या हो रहा था। कभी–कभी समय गुजर जाने के बाद वास्तविकता का पता लग पाता है।
सवा पाँच बजे तक हम टाइगर हिल पर पहुँच चुके थे। पहाड़ी पर गाड़ियों की भारी भीड़ लग चुकी थी और पहाड़ी के किनारों पर आदमियों की। हमारे ड्राइवर ने निर्देश दे रखा था कि जैसे ही सूर्योदय हो आप लोग चले आना। लोग सूर्योदय देखने के लिए उत्सुक थे लेकिन मुझे आभास हो गया कि आज तकदीर साथ नहीं देने वाली थी। बादलों के साथ साथ धुंध भी छाई हुई थी। लगभग 5.35 तक सूर्योदय तो हुआ लेकिन क्षितिज से काफी ऊपर और धुंधला सा। कंचनजंघा भी नहीं दिखा। मैंने ड्राइवर से इस सम्बन्ध में पूछा तो उसका जवाब था कि कंचनजंघा बतासिया से दिखेगा। लगा कि उसके पास जवाब पहले से ही तैयार था।
मैं अपनी तकदीर और बादलों को कोस रहा था। इससे अच्छा सूर्योदय तो मेरे गाँव में ही होता है और मैंने उसकी फोटो भी खींच रखी है,मैंने ड्राइवर से यह बात कही। फिर भी यह दार्जिलिंग था। यह रोज का काम है। इसी तरह से रोज पर्यटक यहाँ आते हैं और धुंधले सूरज को देखकर चले जाते हैं। किसी–किसी के ही भाग्य में बर्फीले पहाड़ों के साथ सूर्योदय देखना लिखा होता है। कंचनजंघा इतनी आसानी से हर किसी को दर्शन नहीं देता। बहुत सारे लाेग पर्यटन के लिए साल में एक बार समय निकालकर परिवार के साथ आते हैं लेकिन ऐसी जगहों से निराश होकर चले जाते हैं। मेरा क्या है,साल भर घूमना है,कहीं न कहीं सूर्योदय देख ही लूँगा। लेकिन ट्रैवेल आपरेटरों के फिक्स ट्रैवेल प्लान की वजह से यह अंधी दौड़ चल रही है। इनके हिसाब से दार्जिलिंग का घूमना–फिरना केवल एक दिन का है– सुबह 3 प्वाइंट,दोपहर में 7 प्वाइंट और शाम को 2 प्वाइंट। बस हो गया दार्जिलिंग का टूर। मजबूरी यह है कि इन सारी जगहों पर पैदल नहीं पहुँचा जा सकता। आपकी इच्छा और एडवांस बुकिंग हो तो दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे की यात्रा भी कर लीजिए बस। दार्जिलिंग का टूर खतम। हम जल्दी से भागकर गाड़ी में घुसे लेकिन भयंकर जाम लग चुका था।
लगभग 6.15 बजे हम बतासिया लूप पहुँचे। यहाँ दार्जिलिंग हिमालयन रेल लूप बनाती हुई चक्कर लगाती है जो बहुत ही रोमांचक है। इस गोल चक्कर के बीच में देश के लिए अपनी जान कुर्बान करने वाले गोरखा सैनिकों की याद में एक वार मेमोरियल बना है और इसके चारों और बहुत ही सुन्दर पार्क बनाया गया है। इस वार मेमोरियल का निर्माण 1991 में किया गया। यहाँ की सबसे मजेदार बात यह लगी कि उन्हीं रेल की पटरियों पर ऊनी कपड़ों की छोटी–छोटी दुकानें सजी थीं जिनपर ट्वाय ट्रेन चलती है और यह दृश्य बहुत ही सुन्दर लग रहा था। इस स्थान पर प्रवेश के लिए 15 रूपये का टिकट लगता है। बतासिया से कंचनजंघा भी दिखाई देता है लेकिन उस दिन बादलों ने कुछ भी देखने नहीं दिया। 3 प्वाइंट टूर का एक ही निश्चित समय होने के कारण यहाॅं काफी भीड़ हो गयी थी और किसी एक स्थान का फोटो खींचने के लिए अपनी बारी का इंतजार करना पड़ रहा था।
बतासिया लूप के बाद हमारा अगला पड़ाव था– घूम मोनेस्ट्री। यह मैत्रेय बुद्ध की 15 फीट ऊँची प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध है। इसे शाक्य मोनेस्ट्री भी कहा जाता है। इसका निर्माण सन् 1875 ई0 में हुआ था। उल्लेखनीय है कि यह मोनेस्ट्री समुद्र तल से 8000 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। 3 प्वाइंट टूर में सम्मिलित होकर इस स्थान पर पहुँची भीड़ का काफी हिस्सा सम्भवतः असमंजस में था कि क्या देखें। मेरे जैसे घुमक्कड़ के लिए काफी कुछ था–भगवान बुद्ध की प्रतिमा,इसकी ऐतिहासिकता और सबसे बढ़कर इसके निर्माण में दिखती कलात्मकता। वास्तव में दार्जिलिंग जैसे स्थान पर कुछ देखने के लिए आस्था के तत्व को परे रखना पड़ेगा। घूम मोनेस्ट्री में भगवान बुद्ध के दर्शन करने एवं फोटो वगैरह खींचने के बाद हम लगभग 7.30 बजे तक अपने होटल पहुँच गये।
होटल पहुँचने के बाद का काम था– लड़के से गरम पानी मांगना,नहाना–धोना एवं फ्रेश होना। और इसके बाद हमारे टूर का सबसे रोमांचक हिस्सा आने वाला था अर्थात दार्जिलिंग हिमालयन रेल अथवा ट्वाय ट्रेन का सफर। कुछ नाश्ता–पानी करने के बाद हम 9 बजे तक दार्जिलिंग रेलवे स्टेशन पर हाजिर हो चुके थे। दार्जिलिंग रेलवे स्टेशन से आज की पहली ट्रेन या फिर जिसे जॉयराइड भी कहते हैं ,9.40 पर थी और इसी में एफ1 कोच में सीट नम्बर 27-28 पर हमारी बुकिंग थी।
जब हम पहुँचे तो यहाँ का नजारा बहुत ही दिलचस्प था। 50 से भी अधिक लोग स्टेशन परिसर में मौजूद थे जिनमें से कुछ यात्री भी थे और कुछ ऐसे भी थे जो केवल फोटो खींचने के लिए ही आए थे। कैमरे व मोबाइल कैमरों से दनादन भाप के इंजनों व दो बोगियों वाली टॉय ट्रेन के फोटो खींचे जा रहे थे। स्टेशन का स्टाफ यात्रा के लिए इंजन व बोगियों को तैयार करने में लगा था और इनके साथ ही फोटो खींचने वाले लोग इधर-उधर भाग-दौड़ मचाए हुए थे। सच में अपनी सलेटी वर्दी में कोयले की कालिख पोते इंजन का स्टाफ किसी सेलिब्रिटी सा महसूस कर रहा होगा। हम भी इसी भाग दौड़ में शामिल हो गए। वास्तव में बहुत मजा आ रहा था।
भाप के
इंजनों की सीटी
की विशेष प्रकार
की आवाज और
साथ ही छुक–छुक करते इंजन
को देखना और
वह भी इतने
पास से कि वास्तव
में विश्वास ही
नहीं हो रहा
था। मैंने बचपन
में कहीं छोटी
लाइन पर भाप
का कोई इंजन
देखा था लेकिन
इतने पास से
नहीं क्योंकि उसके
पास जाने में
रेलवे के नियम
कानूनों का डर
तो था ही
अपनी जान का भी डर था लेकिन इन इंजनों के
पास जाने में
ऐसा कोई डर
नहीं था। कोई इनके बिल्कुल पास खड़े होकर फोटो खिंचवा रहा था तो
कोई इन पर
हाथ रखकर। हमने
भी भिन्न–भिन्न
दिशाओं से इनकी फोटो खींची और मोबाइल
कैमरे से रिकॉर्डिंग
भी की।
हमारी ट्रेन 9.40 पर थी लेकिन फोटो खींचने के उत्साह में हम यह भूल गए कि हमारी ट्रेन छूट भी सकती है। दरअसल हुआ यह कि दार्जिलिंग का यह स्टेशन काफी छोटा सा है जिससे हम चकमा खा गये कि यहां से निकलती ट्रेन को हम देख नहीं पाएंगे। हम प्लेटफार्म नंबर एक पर खड़े थी जबकि हमारी ट्रेन प्लेटफार्म नंबर 3 से जाने वाली थी। एक समस्या और भी थी और वह ये कि ट्रेनों के छूटने के बारे में स्टेशन से हिन्दी,अंग्रेजी और बंगला भाषाओं में किये जा रहे एनाउंस को हम एनाउंस करने वाले व्यक्ति के बंगाली लहजे के कारण ठीक से समझ नहीं सके और यह नहीं जान पाए कि हमारी ट्रेन प्लेटफार्म नंबर 3 से जाने वाली है। अचानक मेरा ध्यान उधर गया तो ट्रेन सीटी दे रही थी और अब निकलने ही वाली थी। हम लोग दौड़कर ट्रेन में चढ़े।
वैसे यह ट्रेन इतनी ही स्पीड से चलती है कि इसमें चलते समय भी दौड़कर चढ़ा जा सकता है। जब हम बोगी के अंदर घुसे तो एक महिला कर्मचारी यात्रियों को सीट नंबर के हिसाब से बैठा रही थी। हमारे पहुँचने तक लगभग 90 प्रतिशत सीटें भर चुकी थीं। सीट पर बैठ कर हम किसी महाराजा की तरह महसूस कर रहे थे। दार्जिलिंग से ट्रेन रवाना होने से पहले कुछ मिनटों के लिए रेलवे के एक गाइड महोदय ट्रेन में चढ़े और ट्रेन के रास्ते और ठहरावों के बारे में जानकारी दी। साथ ही हर व्यक्ति को एक–एक बुकलेट भी प्रदान की गयी जिसमें दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे के इतिहास और विशेषताओं के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी गई थी।
ठीक 9:40 पर ट्रेन छुक-छुक की आवाज निकालते और सीटी देते हुए चल पड़ी। हमारा मन बल्लियों उछल रहा था। मैं खिड़की के पास ही बैठा हुआ था और मोबाइल व कैमरे को खिड़की से बाहर निकाल कर दनादन फोटो खींच रहा था लेकिन कुछ ही मिनट बाद महसूस हुआ कि इंजन से पानी की फुहारें व कोयले के महीन कण मेरे कपड़ों पर आ रहे हैं। फिर भी ट्वाय ट्रेन में यात्रा करने के उत्साह के आगे यह परेशानी कुछ भी नहीं थी। ट्रेन के साथ-साथ सड़क पर दौड़ती चार पहिया गाड़ियों को देखकर मन में रोमांच हो रहा था।
रवाना होने के 20 मिनट पश्चात यह ट्रेन बतासिया लूप पहुंच गई। बतासिया लूप वह जगह है जहां ट्रेन 360 अंश के कोण पर घूम जाती है और एक पुल के माध्यम से अपनी ही लाइन को क्राॅस कर जाती है। दरअसल इस स्थान पर रूट के अत्यधिक ढलान को कम करने के लिए ऐसा घुमाव बनाया गया था। बतासिया लूप पर ट्रेन 140 फीट की ऊँचाई चढ़ जाती है। आरंभ में दिए गए निर्देशों के अनुसार बतासिया लूप पर ट्रेन को 10 मिनट रुकना था इसलिए सारे यात्री ट्रेन की बोगियों से उतर पड़े और फिर धड़ाधड़ फोटोग्राफी होने लगी। जैसा कि मैं पहले भी उल्लेख कर चुका हूं, सुबह के समय 3 प्वाइंट टूर के दौरान भी हम आज सुबह बतासिया लूप पर आए थे तो उस समय ट्रेन की पटरियों पर ऊनी कपड़ों की दुकानें सजी थी। इन दुकानों को अब समेट लिया गया था और अब इनपर यह खिलौना गाड़ी खड़ी थी। हमने भी कुछ फोटोग्राफ खींचे और तब तक खींचते रहे जब तक की ट्रेन की सीटी नहीं बज गई।
10:10 पर ट्रेन बतासिया लूप से रवाना हो गई और लगभग 20 मिनट बाद 10:30 पर घूम स्टेशन पहुंच गई। हमें बताया गया था कि ट्रेन यहां आधे घंटे रुकेगी। यहां हमें घूम संग्रहालय देखना था। वैसे तो घूम संग्रहालय में प्रवेश के लिए टिकट लगता है लेकिन ट्रेन यात्रियों के लिए यह निःशुल्क था। घूम संग्रहालय में दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे के इतिहास से संबंधित तमाम वस्तुओं एवं उपकरणों को प्रदर्शित किया गया है। घूम स्टेशन की समुद्र तल से ऊंचाई 7407 फीट है और यह किसी समय दुनिया का सर्वाधिक ऊंचाई पर स्थित रेलवे स्टेशन था। यह आज भी भारत का सर्वाधिक ऊँचाई पर स्थित रेलवे स्टेशन है। घूम स्टेशन पर स्थित रेलवे के काउण्टर से हमने 5 रूपये कप वाली चाय पी और दार्जिलिंग में यह पहली जगह थी जहाँ चाय हमें केवल 5 रूपये में मिली अन्यथा पूरे दार्जिलिंग में चाय का रेट 10 रूपये ही है।
घूम में ट्रेन का इंजन आगे से काटकर फिर पीछे की ओर लगा दिया गया और आधे घण्टे रूकने के बाद ट्रेन वापस हो गयी। फिर उसी पुराने रास्ते पर अर्थात बतासिया होते हुए यह दार्जिलिंग की ओर चल पड़ी। इसे 11.40 पर दार्जिलिंग पहुँचना था लेकिन उसके पहले हमें एक और छोटा सा सीन देखने को मिला और वह था दार्जिलिंग हिमालयन रेल का एक्सीडेंट। हुआ यूँ कि रेलवे लाइन की बगल में सड़क पर सामने की ओर से आ रही एक पिक–अप गाड़ी, जो सम्भवतः आर्मी की ड्यूटी पर जा रही थी, का ड्राइवर अपनी जल्दबाजी और लापरवाही में ट्रेन से टकरा गया और ट्रेन का इंजन पिक–अप को कुछ दूर घसीटता हुआ चला गया। दोनों एक दूसरे में फँस गये। ट्रेन का सारा स्टाफ पिक–अप के ड्राइवर से किच–किच करने में लग गया और ट्रेन के सारे यात्री यह तमाशा देखने के लिए बाहर निकल आये। 15 मिनट की मशक्कत के बाद पिक–अप को ट्रेन के इंजन से अलग किया गया और तब हमारी ऐतिहासिक ट्रेन,लगभग 10 मिनट की देरी से दार्जिलिंग रेलवे स्टेशन पहुँची। इस छोटे से एक्सीडेंट की वजह से इस ऐतिहासिक ट्रेन की हमारी यात्रा और भी ऐतिहासिक हो गयी। लगभग 12 बजे यहाँ पहुँचने के बाद हम खाना खाने के लिए रेस्टोरेण्ट की ओर गये और वहाँ से वापस होकर 1 बजे तक अपने होटल आ गये।
दार्जिलिंग हिमालयन रेल या फिर इतिहास की रेल या फिर सपनों की रेल या फिर और कुछ। इसमें यात्रा करने में जेब तो बहुत ढीली होती है लेकिन यात्रा करने के बाद महसूस होता है कि सब वसूल हो गया। यात्रा के दौरान उपलब्ध करायी गयी बुकलेट के अनुसार सन 1828 के आस–पास इस स्थान में अंग्रेजों की रूचि के कारण मानव बसाव शुरू हुआ। उस समय यहाँ आब्जर्वेटरी हिल पर स्थित एक मोनेस्ट्री अस्तित्व में थी जिसके चारों ओर 20 की संख्या में झोंपड़ियां बसी हुईं थीं। उस समय दार्जिलिंग की कुल आबादी 100 के आस पास थी। सन 1839 में दार्जिलिंग कस्बे को बसाने तथा हिल कार्ट रोड के माध्यम से सिलीगुड़ी,पंखाबाड़ी,कर्सियांग तथा दार्जिलिंग को जोड़ने की योजना आरम्भ हुई। सन 1878 में ईस्टर्न बंगाल रेलवे के एक एजेंट फ्रेंकलिन प्रीस्टेज ने दार्जिलिंग की पहाड़ियों एवं मैदानी क्षेत्रों को जोड़ने वाली रेल लिंक की उपयोगिता का पूर्वानुमान लगाया। उसकी योजना मुख्य रूप से आर्थिक विचारों से प्रभावित थी क्योंकि सिलीगुड़ी के मैदानी क्षेत्रों से दार्जिलिंग तक आवश्यक वस्तुओं के परिवहन की लागत बहुत अधिक थी। उसके विचारों ने तब मूर्त रूप लिया जब 23 अगस्त 1880 को सिलीगुड़ी से कर्सियांग के बीच दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे की शुरूआत हुई। बाद में 1915 में सिलीगुड़ी से किशनगंज और तीस्ता घाटी तक इसका विस्तार किया गया। दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे का परिचालन 20 अक्टूबर 1948 तक इसके स्वतंत्र भारत की सरकार के प्राधिकार में आने तक होता रहा। 5 दिसम्बर 1999 को यूनेस्को ने इसे विश्व विरासत स्थल का दर्जा प्रदान किया।
हमारे होटल के ट्रैवेल एजेण्ट ने बताया था कि 2 बजे हमको राॅक गार्डन जाना है इसलिए हमने कुछ देर आराम किया और 2 बजे तक होटल के गेट पर आ गये लेकिन गाड़ी आयी 2.30 पर और 2.40 पर हम रॉक गार्डन के लिए रवाना हो गये। दार्जिलिंग से घूम के रास्ते अर्थात हिल कार्ट रोड पर चलते हुए घूम से कुछ पहले हमारी गाड़ी दाहिनी तरफ घूम गयी और इतनी तेजी से घाटी में नीचे उतरने लगी कि साँसें रूक गयीं। बिल्कुल सीधी ढलान और इतने तीव्र मोड़ कि मन में भगवान को याद करने लगे। लेकिन कुछ ही देर बाद बहुत ही सुन्दर दृश्य सामने था। हम घाटी में थे और चारों तरफ हरी–भरी पहाड़ी ढलानें दिखाई दे रहीं थी जिन पर कहीं जंगल तो कहीं चाय की बागानें थीं।
3.10 तक हम रॉक गार्डन पहँच गये। राॅक गार्डन का नाम चुन्नू समर फाल्स भी है। इसमें प्रवेश के लिए 10 रूपये का टिकट लगता है। यहाँ एक प्राकृतिक झरना है जिसके आस–पास का दृश्य बहुत ही सुन्दर है। इसे काँट–छाँटकर और सजाकर इतना आकर्षक स्वरूप प्रदान किया गया है कि वहाँ से वापस आने का मन नहीं करता। फुर्सत के पल बिताने के लिए यह स्थान कुछ लोगों के लिए पिकनिक स्पॉट भी है तो साथ ही ऐसे लोगों के शोरगुल के बावजूद एक प्रकृति प्रेमी व्यक्ति के लिए यह घाटी के चारों तरफ फैली पहाड़ियों और उन पर फैली हरियाली को शान्तिपूर्वक निहारने का उपयुक्त स्थान भी।
हम भी लगभग डेढ़ घण्टे तक इस मनोरम स्थान पर घूमते रहे। थकान के बावजूद भी बैठने की इच्छा नहीं कर रही थी। मन यही कर रहा था कि थोड़ा सा और घूम लें। लेकिन ड्राइवर का आदेश था इसलिए 4.40 पर वापस हो लिए। 10 मिनट की चढ़ाई चढ़ने के बाद ड्राइवर ने गाड़ी दूसरी तरफ मोड़ लिया। यह एक दूसरी घाटी थी और अब हम आरेंज वैली टी एस्टेट नाम के एक चाय बागान में पहुँच चुके थे। जहाँ तक निगाह जा रही थी, गहरे हरे रंग के पत्तों से लदे चाय के पौधे ज्यामितीय आकृतियों का रूप लिए पहाड़ी ढलानों पर फैले हुए थे। हमारी गाड़ी में सवार कुछ नवयुगल चाय बागान के काफी अन्दर तक जाकर फोटो खींचने में मशगूल हो गये। लगभग आधे घण्टे समय बिताने के बाद हमारी गाड़ी यहाँ से वापस होटल के लिए निकल पड़ी। 5.30 तक हम होटल पहुँच गये। सुबह टाइगर हिल पर सूर्योदय देखने के लिए हम आज काफी जल्दी जग गये थे और दिन भर घूमते रहे, इसलिए काफी थक गये थे। जल्दी से रेस्टोरेण्ट में जाकर खाना खाया और सो गये।
अगला भाग ः कलिम्पोंग
इसलिए सुबह उठने का टाइम 4 बजे का निर्धारित था। इसके पहले ही होटल के एक लड़के ने सभी जाने वाले पयर्टकों का दरवाजा खटखटाना शुरू कर दिया। हम भी नित्यक्रिया से निवृत्त हुए और 4.30 बजे तक हम गाड़ी के अन्दर थे। शेयर्ड गाड़ी में बीच वाली सीट में हम पहले से आकर बैठ गये थे,इस डर से कि कहीं पीछे न बैठना पड़ जाय।
4.40 बजे गाड़ी टाइगर हिल के लिए रवाना हो गयी और गाड़ी के सड़क पर दौड़ते ही मालूम हो गया कि इस यात्रा में हम अकेले नहीं हैं। गाड़ियों की पूरी लाइन लगी थी। आज दार्जिलिंग में हमारी दूसरी सुबह थी। पिछली सुबह भी भोर में दरवाजा खटखटाने,लोगों का शोरगुल व गाड़ियों की तेज आवाजें काफी देर तक सुनाई देती रहीं थीं। मेरी नींद खराब हो गयी लेकिन मैं समझ नहीं पाया कि आखिर हो क्या रहा है। आज समझ में आया कि कल क्या हो रहा था। कभी–कभी समय गुजर जाने के बाद वास्तविकता का पता लग पाता है।
सवा पाँच बजे तक हम टाइगर हिल पर पहुँच चुके थे। पहाड़ी पर गाड़ियों की भारी भीड़ लग चुकी थी और पहाड़ी के किनारों पर आदमियों की। हमारे ड्राइवर ने निर्देश दे रखा था कि जैसे ही सूर्योदय हो आप लोग चले आना। लोग सूर्योदय देखने के लिए उत्सुक थे लेकिन मुझे आभास हो गया कि आज तकदीर साथ नहीं देने वाली थी। बादलों के साथ साथ धुंध भी छाई हुई थी। लगभग 5.35 तक सूर्योदय तो हुआ लेकिन क्षितिज से काफी ऊपर और धुंधला सा। कंचनजंघा भी नहीं दिखा। मैंने ड्राइवर से इस सम्बन्ध में पूछा तो उसका जवाब था कि कंचनजंघा बतासिया से दिखेगा। लगा कि उसके पास जवाब पहले से ही तैयार था।
मैं अपनी तकदीर और बादलों को कोस रहा था। इससे अच्छा सूर्योदय तो मेरे गाँव में ही होता है और मैंने उसकी फोटो भी खींच रखी है,मैंने ड्राइवर से यह बात कही। फिर भी यह दार्जिलिंग था। यह रोज का काम है। इसी तरह से रोज पर्यटक यहाँ आते हैं और धुंधले सूरज को देखकर चले जाते हैं। किसी–किसी के ही भाग्य में बर्फीले पहाड़ों के साथ सूर्योदय देखना लिखा होता है। कंचनजंघा इतनी आसानी से हर किसी को दर्शन नहीं देता। बहुत सारे लाेग पर्यटन के लिए साल में एक बार समय निकालकर परिवार के साथ आते हैं लेकिन ऐसी जगहों से निराश होकर चले जाते हैं। मेरा क्या है,साल भर घूमना है,कहीं न कहीं सूर्योदय देख ही लूँगा। लेकिन ट्रैवेल आपरेटरों के फिक्स ट्रैवेल प्लान की वजह से यह अंधी दौड़ चल रही है। इनके हिसाब से दार्जिलिंग का घूमना–फिरना केवल एक दिन का है– सुबह 3 प्वाइंट,दोपहर में 7 प्वाइंट और शाम को 2 प्वाइंट। बस हो गया दार्जिलिंग का टूर। मजबूरी यह है कि इन सारी जगहों पर पैदल नहीं पहुँचा जा सकता। आपकी इच्छा और एडवांस बुकिंग हो तो दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे की यात्रा भी कर लीजिए बस। दार्जिलिंग का टूर खतम। हम जल्दी से भागकर गाड़ी में घुसे लेकिन भयंकर जाम लग चुका था।
लगभग 6.15 बजे हम बतासिया लूप पहुँचे। यहाँ दार्जिलिंग हिमालयन रेल लूप बनाती हुई चक्कर लगाती है जो बहुत ही रोमांचक है। इस गोल चक्कर के बीच में देश के लिए अपनी जान कुर्बान करने वाले गोरखा सैनिकों की याद में एक वार मेमोरियल बना है और इसके चारों और बहुत ही सुन्दर पार्क बनाया गया है। इस वार मेमोरियल का निर्माण 1991 में किया गया। यहाँ की सबसे मजेदार बात यह लगी कि उन्हीं रेल की पटरियों पर ऊनी कपड़ों की छोटी–छोटी दुकानें सजी थीं जिनपर ट्वाय ट्रेन चलती है और यह दृश्य बहुत ही सुन्दर लग रहा था। इस स्थान पर प्रवेश के लिए 15 रूपये का टिकट लगता है। बतासिया से कंचनजंघा भी दिखाई देता है लेकिन उस दिन बादलों ने कुछ भी देखने नहीं दिया। 3 प्वाइंट टूर का एक ही निश्चित समय होने के कारण यहाॅं काफी भीड़ हो गयी थी और किसी एक स्थान का फोटो खींचने के लिए अपनी बारी का इंतजार करना पड़ रहा था।
होटल पहुँचने के बाद का काम था– लड़के से गरम पानी मांगना,नहाना–धोना एवं फ्रेश होना। और इसके बाद हमारे टूर का सबसे रोमांचक हिस्सा आने वाला था अर्थात दार्जिलिंग हिमालयन रेल अथवा ट्वाय ट्रेन का सफर। कुछ नाश्ता–पानी करने के बाद हम 9 बजे तक दार्जिलिंग रेलवे स्टेशन पर हाजिर हो चुके थे। दार्जिलिंग रेलवे स्टेशन से आज की पहली ट्रेन या फिर जिसे जॉयराइड भी कहते हैं ,9.40 पर थी और इसी में एफ1 कोच में सीट नम्बर 27-28 पर हमारी बुकिंग थी।
जब हम पहुँचे तो यहाँ का नजारा बहुत ही दिलचस्प था। 50 से भी अधिक लोग स्टेशन परिसर में मौजूद थे जिनमें से कुछ यात्री भी थे और कुछ ऐसे भी थे जो केवल फोटो खींचने के लिए ही आए थे। कैमरे व मोबाइल कैमरों से दनादन भाप के इंजनों व दो बोगियों वाली टॉय ट्रेन के फोटो खींचे जा रहे थे। स्टेशन का स्टाफ यात्रा के लिए इंजन व बोगियों को तैयार करने में लगा था और इनके साथ ही फोटो खींचने वाले लोग इधर-उधर भाग-दौड़ मचाए हुए थे। सच में अपनी सलेटी वर्दी में कोयले की कालिख पोते इंजन का स्टाफ किसी सेलिब्रिटी सा महसूस कर रहा होगा। हम भी इसी भाग दौड़ में शामिल हो गए। वास्तव में बहुत मजा आ रहा था।
हमारी ट्रेन 9.40 पर थी लेकिन फोटो खींचने के उत्साह में हम यह भूल गए कि हमारी ट्रेन छूट भी सकती है। दरअसल हुआ यह कि दार्जिलिंग का यह स्टेशन काफी छोटा सा है जिससे हम चकमा खा गये कि यहां से निकलती ट्रेन को हम देख नहीं पाएंगे। हम प्लेटफार्म नंबर एक पर खड़े थी जबकि हमारी ट्रेन प्लेटफार्म नंबर 3 से जाने वाली थी। एक समस्या और भी थी और वह ये कि ट्रेनों के छूटने के बारे में स्टेशन से हिन्दी,अंग्रेजी और बंगला भाषाओं में किये जा रहे एनाउंस को हम एनाउंस करने वाले व्यक्ति के बंगाली लहजे के कारण ठीक से समझ नहीं सके और यह नहीं जान पाए कि हमारी ट्रेन प्लेटफार्म नंबर 3 से जाने वाली है। अचानक मेरा ध्यान उधर गया तो ट्रेन सीटी दे रही थी और अब निकलने ही वाली थी। हम लोग दौड़कर ट्रेन में चढ़े।
वैसे यह ट्रेन इतनी ही स्पीड से चलती है कि इसमें चलते समय भी दौड़कर चढ़ा जा सकता है। जब हम बोगी के अंदर घुसे तो एक महिला कर्मचारी यात्रियों को सीट नंबर के हिसाब से बैठा रही थी। हमारे पहुँचने तक लगभग 90 प्रतिशत सीटें भर चुकी थीं। सीट पर बैठ कर हम किसी महाराजा की तरह महसूस कर रहे थे। दार्जिलिंग से ट्रेन रवाना होने से पहले कुछ मिनटों के लिए रेलवे के एक गाइड महोदय ट्रेन में चढ़े और ट्रेन के रास्ते और ठहरावों के बारे में जानकारी दी। साथ ही हर व्यक्ति को एक–एक बुकलेट भी प्रदान की गयी जिसमें दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे के इतिहास और विशेषताओं के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी गई थी।
ठीक 9:40 पर ट्रेन छुक-छुक की आवाज निकालते और सीटी देते हुए चल पड़ी। हमारा मन बल्लियों उछल रहा था। मैं खिड़की के पास ही बैठा हुआ था और मोबाइल व कैमरे को खिड़की से बाहर निकाल कर दनादन फोटो खींच रहा था लेकिन कुछ ही मिनट बाद महसूस हुआ कि इंजन से पानी की फुहारें व कोयले के महीन कण मेरे कपड़ों पर आ रहे हैं। फिर भी ट्वाय ट्रेन में यात्रा करने के उत्साह के आगे यह परेशानी कुछ भी नहीं थी। ट्रेन के साथ-साथ सड़क पर दौड़ती चार पहिया गाड़ियों को देखकर मन में रोमांच हो रहा था।
रवाना होने के 20 मिनट पश्चात यह ट्रेन बतासिया लूप पहुंच गई। बतासिया लूप वह जगह है जहां ट्रेन 360 अंश के कोण पर घूम जाती है और एक पुल के माध्यम से अपनी ही लाइन को क्राॅस कर जाती है। दरअसल इस स्थान पर रूट के अत्यधिक ढलान को कम करने के लिए ऐसा घुमाव बनाया गया था। बतासिया लूप पर ट्रेन 140 फीट की ऊँचाई चढ़ जाती है। आरंभ में दिए गए निर्देशों के अनुसार बतासिया लूप पर ट्रेन को 10 मिनट रुकना था इसलिए सारे यात्री ट्रेन की बोगियों से उतर पड़े और फिर धड़ाधड़ फोटोग्राफी होने लगी। जैसा कि मैं पहले भी उल्लेख कर चुका हूं, सुबह के समय 3 प्वाइंट टूर के दौरान भी हम आज सुबह बतासिया लूप पर आए थे तो उस समय ट्रेन की पटरियों पर ऊनी कपड़ों की दुकानें सजी थी। इन दुकानों को अब समेट लिया गया था और अब इनपर यह खिलौना गाड़ी खड़ी थी। हमने भी कुछ फोटोग्राफ खींचे और तब तक खींचते रहे जब तक की ट्रेन की सीटी नहीं बज गई।
10:10 पर ट्रेन बतासिया लूप से रवाना हो गई और लगभग 20 मिनट बाद 10:30 पर घूम स्टेशन पहुंच गई। हमें बताया गया था कि ट्रेन यहां आधे घंटे रुकेगी। यहां हमें घूम संग्रहालय देखना था। वैसे तो घूम संग्रहालय में प्रवेश के लिए टिकट लगता है लेकिन ट्रेन यात्रियों के लिए यह निःशुल्क था। घूम संग्रहालय में दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे के इतिहास से संबंधित तमाम वस्तुओं एवं उपकरणों को प्रदर्शित किया गया है। घूम स्टेशन की समुद्र तल से ऊंचाई 7407 फीट है और यह किसी समय दुनिया का सर्वाधिक ऊंचाई पर स्थित रेलवे स्टेशन था। यह आज भी भारत का सर्वाधिक ऊँचाई पर स्थित रेलवे स्टेशन है। घूम स्टेशन पर स्थित रेलवे के काउण्टर से हमने 5 रूपये कप वाली चाय पी और दार्जिलिंग में यह पहली जगह थी जहाँ चाय हमें केवल 5 रूपये में मिली अन्यथा पूरे दार्जिलिंग में चाय का रेट 10 रूपये ही है।
घूम में ट्रेन का इंजन आगे से काटकर फिर पीछे की ओर लगा दिया गया और आधे घण्टे रूकने के बाद ट्रेन वापस हो गयी। फिर उसी पुराने रास्ते पर अर्थात बतासिया होते हुए यह दार्जिलिंग की ओर चल पड़ी। इसे 11.40 पर दार्जिलिंग पहुँचना था लेकिन उसके पहले हमें एक और छोटा सा सीन देखने को मिला और वह था दार्जिलिंग हिमालयन रेल का एक्सीडेंट। हुआ यूँ कि रेलवे लाइन की बगल में सड़क पर सामने की ओर से आ रही एक पिक–अप गाड़ी, जो सम्भवतः आर्मी की ड्यूटी पर जा रही थी, का ड्राइवर अपनी जल्दबाजी और लापरवाही में ट्रेन से टकरा गया और ट्रेन का इंजन पिक–अप को कुछ दूर घसीटता हुआ चला गया। दोनों एक दूसरे में फँस गये। ट्रेन का सारा स्टाफ पिक–अप के ड्राइवर से किच–किच करने में लग गया और ट्रेन के सारे यात्री यह तमाशा देखने के लिए बाहर निकल आये। 15 मिनट की मशक्कत के बाद पिक–अप को ट्रेन के इंजन से अलग किया गया और तब हमारी ऐतिहासिक ट्रेन,लगभग 10 मिनट की देरी से दार्जिलिंग रेलवे स्टेशन पहुँची। इस छोटे से एक्सीडेंट की वजह से इस ऐतिहासिक ट्रेन की हमारी यात्रा और भी ऐतिहासिक हो गयी। लगभग 12 बजे यहाँ पहुँचने के बाद हम खाना खाने के लिए रेस्टोरेण्ट की ओर गये और वहाँ से वापस होकर 1 बजे तक अपने होटल आ गये।
दार्जिलिंग हिमालयन रेल या फिर इतिहास की रेल या फिर सपनों की रेल या फिर और कुछ। इसमें यात्रा करने में जेब तो बहुत ढीली होती है लेकिन यात्रा करने के बाद महसूस होता है कि सब वसूल हो गया। यात्रा के दौरान उपलब्ध करायी गयी बुकलेट के अनुसार सन 1828 के आस–पास इस स्थान में अंग्रेजों की रूचि के कारण मानव बसाव शुरू हुआ। उस समय यहाँ आब्जर्वेटरी हिल पर स्थित एक मोनेस्ट्री अस्तित्व में थी जिसके चारों ओर 20 की संख्या में झोंपड़ियां बसी हुईं थीं। उस समय दार्जिलिंग की कुल आबादी 100 के आस पास थी। सन 1839 में दार्जिलिंग कस्बे को बसाने तथा हिल कार्ट रोड के माध्यम से सिलीगुड़ी,पंखाबाड़ी,कर्सियांग तथा दार्जिलिंग को जोड़ने की योजना आरम्भ हुई। सन 1878 में ईस्टर्न बंगाल रेलवे के एक एजेंट फ्रेंकलिन प्रीस्टेज ने दार्जिलिंग की पहाड़ियों एवं मैदानी क्षेत्रों को जोड़ने वाली रेल लिंक की उपयोगिता का पूर्वानुमान लगाया। उसकी योजना मुख्य रूप से आर्थिक विचारों से प्रभावित थी क्योंकि सिलीगुड़ी के मैदानी क्षेत्रों से दार्जिलिंग तक आवश्यक वस्तुओं के परिवहन की लागत बहुत अधिक थी। उसके विचारों ने तब मूर्त रूप लिया जब 23 अगस्त 1880 को सिलीगुड़ी से कर्सियांग के बीच दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे की शुरूआत हुई। बाद में 1915 में सिलीगुड़ी से किशनगंज और तीस्ता घाटी तक इसका विस्तार किया गया। दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे का परिचालन 20 अक्टूबर 1948 तक इसके स्वतंत्र भारत की सरकार के प्राधिकार में आने तक होता रहा। 5 दिसम्बर 1999 को यूनेस्को ने इसे विश्व विरासत स्थल का दर्जा प्रदान किया।
हमारे होटल के ट्रैवेल एजेण्ट ने बताया था कि 2 बजे हमको राॅक गार्डन जाना है इसलिए हमने कुछ देर आराम किया और 2 बजे तक होटल के गेट पर आ गये लेकिन गाड़ी आयी 2.30 पर और 2.40 पर हम रॉक गार्डन के लिए रवाना हो गये। दार्जिलिंग से घूम के रास्ते अर्थात हिल कार्ट रोड पर चलते हुए घूम से कुछ पहले हमारी गाड़ी दाहिनी तरफ घूम गयी और इतनी तेजी से घाटी में नीचे उतरने लगी कि साँसें रूक गयीं। बिल्कुल सीधी ढलान और इतने तीव्र मोड़ कि मन में भगवान को याद करने लगे। लेकिन कुछ ही देर बाद बहुत ही सुन्दर दृश्य सामने था। हम घाटी में थे और चारों तरफ हरी–भरी पहाड़ी ढलानें दिखाई दे रहीं थी जिन पर कहीं जंगल तो कहीं चाय की बागानें थीं।
3.10 तक हम रॉक गार्डन पहँच गये। राॅक गार्डन का नाम चुन्नू समर फाल्स भी है। इसमें प्रवेश के लिए 10 रूपये का टिकट लगता है। यहाँ एक प्राकृतिक झरना है जिसके आस–पास का दृश्य बहुत ही सुन्दर है। इसे काँट–छाँटकर और सजाकर इतना आकर्षक स्वरूप प्रदान किया गया है कि वहाँ से वापस आने का मन नहीं करता। फुर्सत के पल बिताने के लिए यह स्थान कुछ लोगों के लिए पिकनिक स्पॉट भी है तो साथ ही ऐसे लोगों के शोरगुल के बावजूद एक प्रकृति प्रेमी व्यक्ति के लिए यह घाटी के चारों तरफ फैली पहाड़ियों और उन पर फैली हरियाली को शान्तिपूर्वक निहारने का उपयुक्त स्थान भी।
हम भी लगभग डेढ़ घण्टे तक इस मनोरम स्थान पर घूमते रहे। थकान के बावजूद भी बैठने की इच्छा नहीं कर रही थी। मन यही कर रहा था कि थोड़ा सा और घूम लें। लेकिन ड्राइवर का आदेश था इसलिए 4.40 पर वापस हो लिए। 10 मिनट की चढ़ाई चढ़ने के बाद ड्राइवर ने गाड़ी दूसरी तरफ मोड़ लिया। यह एक दूसरी घाटी थी और अब हम आरेंज वैली टी एस्टेट नाम के एक चाय बागान में पहुँच चुके थे। जहाँ तक निगाह जा रही थी, गहरे हरे रंग के पत्तों से लदे चाय के पौधे ज्यामितीय आकृतियों का रूप लिए पहाड़ी ढलानों पर फैले हुए थे। हमारी गाड़ी में सवार कुछ नवयुगल चाय बागान के काफी अन्दर तक जाकर फोटो खींचने में मशगूल हो गये। लगभग आधे घण्टे समय बिताने के बाद हमारी गाड़ी यहाँ से वापस होटल के लिए निकल पड़ी। 5.30 तक हम होटल पहुँच गये। सुबह टाइगर हिल पर सूर्योदय देखने के लिए हम आज काफी जल्दी जग गये थे और दिन भर घूमते रहे, इसलिए काफी थक गये थे। जल्दी से रेस्टोरेण्ट में जाकर खाना खाया और सो गये।
टाइगर हिल पर जमा गाड़ियों की भीड़ |
टाइगर हिल पर धुँधला सूर्योदय |
बतासिय लूप पर वार मेमोरियल |
बतासिया लूप पर रेल की पटरियों पर सजी ऊनी कपड़ों की दुकानें |
घूम मोनेस्ट्री |
घूम मोनेस्ट्री में लगे ध्वज |
मोनेस्ट्री का सौन्दर्य |
घूम मोनेस्ट्री में बुद्ध प्रतिमा |
दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे का लोको शेड |
बतासिया लूप पर ट्रेन |
घूम रेलवे स्टेशन पर |
भारत का सर्वाधिक ऊॅंचाई वाला रेलवे स्टेशन |
विश्व विरासत का दर्जा |
हमारी ट्रेन का एक्सीडेंट |
रॉक गार्डन |
राॅक गार्डन में झरना |
आरेंज वैली टी गार्डेन |
अगला भाग ः कलिम्पोंग
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
bahut hi khubsuat vivarn, khubsurat chitra, yaha ki haryali ki tarah hum dono ke dil me bhi hariyali cha gayi(hum dono means main aur meri patni) dono milkar padh rahe the blog ko aur photo dekh rahe the)
ReplyDeleteधन्यवाद,साथ मिलकर एक बार घूम भी आइए।
ReplyDeleteGive me your number bcoz I have to go next month my no.9554591429
Deleteधन्यवाद जी ब्लॉग पाR आने के लिए
Delete9793466657
धन्यवाद ब्रजेश भाई बढ़िया यात्रा करवाई टॉय ट्रेन की
ReplyDeleteचाय के बागान देखने का बहुत मन है...बहुत सुन्दर वर्णन किया आपने!
ReplyDeleteमैं भी अपनी यात्रा पर ब्लॉग लिखता हूँ। >> www.mainmusafir.com (मैं मुसाफिर डॉट कॉम)
धन्यवाद भाई
Deleteaaj phir dubara padh liya , bhai jee, lagta hai aap hame bhi darjeeling bhej kar hi rahege
ReplyDeleteचले जाइए मजा आ जाएगा
Deleteमजा आगया पढ़ कर। टॉय ट्रेन का मजा ही अलग होता है। कालका से शिमला तक की यात्रा मैं भी किया । अद्भुत अनुभव रहा
ReplyDeleteप्रियवर पांडेय जी, प्रणाम। दार्जिलिंग टॉय ट्रेन में जॉय राइड कराने और एक्सीडेंट दिखाने के लिये हार्दिक आभार। टाइगर हिल के बारे में मेरे भी यही विचार बने! टैक्सियों द्वारा लगाया जाने वाला इतना भयंकर ट्रेफिक जाम बहुत समय बरबाद करता है और उसके बाद भी न तो कंचनजंघा का नज़ारा देखने को मिलता है और न ही सूर्योदय। अक्सर बादल छाये ही रहते हैं। हो सकता है, लॉक डाउन में दार्जिलिंग की आबोहवा में चमत्कारिक परिवर्तन आ गया हो। मुझे दार्जिलिंग में सिर्फ वाहन ही वाहन नज़र आये। हमारे पास हिमालयन रेल में सफ़र का समय भी नहीं रहा जिसके लिये मैं अपने रिश्तेदारों से नाराज़ रहा जिन्होंने सारे कार्यक्रम की रूप रेखा तैयार की थी। हां, बतासिया लूप अवश्य मुख्य आकर्षण रहा।
ReplyDeleteआपका लेखन बहुत मनोरंजक होता है और बहुत कुछ ज्ञान की बातें भी मिल जाती हैं। सो फुल पैसा वसूल पोस्ट होती हैं। बतासिया लूप और टाइगर हिल के बारे में मैने भी यहां पर लिखा है - https://indiatraveltales.in/darjeeling-tigerhill-batasia-loop/
सादर प्रणाम सुशांत जी। कुछ व्यस्त होने के कारण आपका कमेंट देर से देख सका। वास्तव में बहुत सारी जगहों पर ट्रैवेल एजेण्टों की वजह से कई समस्याएं पैदा होती हैं। वजह ये है कि इन्होंने पहाड़ों के सुंदर दृश्यों का व्यापार बना रखा है। मजबूरी ये होती है कि कहीं दूर से आने वाले व्यक्ति को इनके चंगुल में फँसना ही पड़ता है। मेरा भी अनुभव कुछ कुछ आपके जैसा ही रहा। दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे में यात्रा करने का आनन्द ही कुछ और है। ये और बात है कि इसमें जेब बहुत ही ढीली होती है। ब्लॉग पर आने के लिए ढेर सारा प्यार भरा धन्यवाद। मैं भी आपके ब्लॉग पर आज रात पहुँच रहा हूँ।
DeleteDear Brajesh ji,
ReplyDeleteAapne bahut achhe tarike se apani yatra to varnan kiya hai.aapne jo bhi pitures post kari hai wo bhi bahut sunder hai.
Bahut bahut Dhanayawad
बहुत बहुत धन्यवाद ब्लॉग पर आने के लिए। आगे भी आकर प्रोत्साहन करते रहिए।
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