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समुद्र स्नान में 10.30 बज गये थे। वापस लौटे तो कमरे पर नहा–धोकर फ्रेश होने में 12 बज गये। अब चिन्ता थी पुरी के स्थानीय भ्रमण के लिए साधन खोजने की। चक्रतीर्थ रोड पर जगह–जगह आटो वाले खड़े–खड़े सवारियों का इन्तजार करते मिल रहे थे। कइयों से बात की तो पुरी के साधनों एवं उनके रेट का पता चला। पुरी में कहीं से भी कहीं जाने के लिए आटो मिल जायेंगे। इतना ही नहीं,जो दूरियां बसें एवं अन्य चारपहिया वाहन तय करते हैं,उनके लिए भी आटो उपलब्ध हैं। छोटे चारपहिया वाहनों का सिस्टम यहां बहुत कम है। सड़कें अच्छी हैं इसलिए आटो में भी कहीं जाने में कोई दिक्कत नहीं है।
शहर के अन्दर लोकल दूरियों के लिए रिजर्व आटो रिक्शा का,50 रूपये से कम किराया सम्भवतः नहीं है। यह 70,80 या 100 रूपये से भी अधिक हो सकता है। मानव चालित रिक्शे भी उपलब्ध हैं जिनका रेट भी आटो रिक्शा वालों के लगभग बराबर है। पुरी के स्थानीय मन्दिरों का दर्शन कराने के लिए रिजर्व आटो रिक्शा का रेट 350 रूपये है। मोलभाव किया तो 300 में बात पक्की हो गयी और लगभग 1 बजे हम आटो रिक्शा में सवार हो गये। सबसे पहले पहुंचे पुरी के प्रसिद्ध गुण्डीचा मन्दिर जो बस स्टैण्ड के पास है। गुण्डीचा,जगन्नाथ मन्दिर का निर्माण करवाने वाले राजा इन्द्रद्युम्न की रानी का नाम था। आषाढ़ शुक्ल पक्ष की दि्वतीया तिथि को आरम्भ होने वाली पुरी की प्रसिद्ध रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ अपने बड़े भाई बलभद्र एवं बहन सुभद्रा के साथ इसी गुण्डीचा मन्दिर में आते हैं और त्रयाेदशी तिथि तक यहीं रहते हैं। गुण्डीचा मन्दिर बलुआ पत्थर का बना है और इसकी दीवारों और मूर्तियों की बनावट मनमोहक है। परन्तु मन्दिर के अन्दर पण्डों की लूट बहुत ही भयानक है। हम तो कहीं नहीं लुटे लेकिन अगर कोई धर्मभीरू व्यक्ति हो तो ये उसे कंगाल बना देंगे।
जगन्नाथ मन्दिर के आस–पास की गलियों में रहने और खाने के सस्ते विकल्प उपलब्ध हैं। महंगे चाहिए तो समुद्री बीच पर आसानी से मिल जायेंगे। हम उत्तर भारतीय,खाने के सस्ते विकल्पों के लिए ठेला संस्कृति के अभ्यस्त हैं। लेकिन पुरी में पुलिस ने इन ठेले वालों को भगा दिया है और इनकी जगह पर इन ठेले वालों ने साइकिल को अपना लिया है। ऐसे ही एक ठेले वाले ने हमें बड़े ही निर्विकार भाव से पुलिस की ज्यादती की कहानी हमें बतायी।
गुण्डीचा मन्दिर के बाद आटोवाला हमें एक और छोटे से मन्दिर में ले गया। इस मन्दिर में स्थानीय लोगों की भारी भीड़ थी जो विविध प्रकार के पूजा–अनुष्ठान करने–कराने में व्यस्त थे। बाहर से आने वाला कोई भी दर्शनार्थी इस मन्दिर में नहीं दिख रहा था। इस मन्दिर में देवनागरी लिपि में कुछ भी लिखा हुआ नहीं मिला,यहां तक कि मन्दिर का नाम भी केवल उड़िया भाषा में ही लिखा था। इस मन्दिर के पश्चात हम कुलदानन्द ब्रह्मचारी आश्रम में पहुंचे लेकिन इसका गेट ही बन्द था और पूछने पर पता चला कि यह शाम को खुलेगा। ऐसा नहीं कि ऑटो वाले को यह बात पहले से पता नहीं रही होगी। फिर हम आगे बढ़ गये। इसके पश्चात थोड़ी ही दूर बाद नरेन्द्र टैंक है। यह टैंक या तालाब 15वीं सदी में बनाया गया था। इसके बीच में एक छोटा सा द्वीप है जिसपर एक मन्दिर स्थित है। मन्दिर में प्रवेश हेतु टिकट भी लेना पड़ता है।
अगला पड़ाव था लोकनाथ मन्दिर। यहां कैमरा प्रतिबन्धित था। कैमरे पर प्रतिबन्ध लगने पर मुझे बहुत दुःख होता है। मुझे मन्दिरों से बहुुत लगाव नहीं है लेकिन प्राचीन मन्दिरों की शिल्पकला और ऐतिहासिकता मुझे उनकी तरफ खींच लाती है। खैर,कैमरा जमा करके मन्दिर के अन्दर गया और परिक्रमा करके लौट आया। संगीता ने अन्दर जाकर दर्शन किया। लोकनाथ मन्दिर के पास एक पेड़ में आग लग गई थी जिसमें से बहुत तेज लपटें निकल रहीं थीं। स्थानीय लोग उसे देखने के लिए भीड़ लगाये हुए थे।
आटाे में चलते,चाय और पानी पीते लगभग 2.30 घण्टे में हमारी यह यात्रा पूरी होने वाली थी। हमारी इस लघु आटो यात्रा का अन्तिम पड़ाव था श्री जगन्नाथ मन्दिर। दूर से ही इसे देखकर मन कह उठा–
"भव्य और विशाल।"
इसे "श्री मन्दिर" भी कहा जाता है और यह वास्तव में श्री मन्दिर है। आज के श्री मन्दिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में गंग वंश के राजा अनंगभीमदेव के द्वारा कराया गया था। 800 साल पुराना यह मन्दिर कलिंग स्थापत्य और शिल्पकला का अप्रतिम उदाहरण है। यह मन्दिर चारों तरफ से ऊँची दीवारों से घिरा हुआ है जिनमें प्रवेश के लिए चारों तरफ द्वार बने हुए हैं। जगन्नाथ धाम भारत के चार पवित्र धामों में से एक है। इस धाम की मेरी यह दूसरी यात्रा थी। इन चार धामों के बारे में यह कहा जाता है कि बद्रीनाथ भगवान की समाधि का स्थान,रामेश्वर नहाने का स्थान,द्वारका सोने का स्थान तथा जगन्नाथ पुरी खाने का स्थान है। जगन्नाथ मन्दिर में भी कैमरा प्रतिबन्धित है लेकिन चारदीवारी के बाहर से मन्दिर के ऊपरी भागों का फोटो खींचा जा सकता है।
जगन्नाथ मन्दिर के धार्मिक महत्व ने इसे भीड़–भाड़ वाली जगह एवं पण्डे–पुजारियों के लिए कमाई का जरिया बना दिया है। अगर मन्दिर के इस धार्मिक पक्ष को अलग कर ऐतिहासिक,पुरातात्विक एवं शिल्प की दृष्टि से इसे देखा जाय तो यह आंखों में चकाचौंध पैदा कर देता है। भुवनेश्वर का लिंगराज मन्दिर भी इस दृष्टि से मुझे बहुत सुन्दर लगा क्योंकि यह धार्मिक भीड़ वहां इतनी अधिक नहीं थी।
मन्दिर के अन्दर के अन्य भवन भी शिल्पकला के बेजोड़ नमूने हैं। लेकिन पण्डों–पुजारियों की इमरजेन्सी चारों तरफ है। थोड़ा सा भी जाल में फंसे तो गये काम से। पाकेट ढीला होना ही है। पुजारियों के साथ साथ कहीं–कहीं लंगूरों का आतंक भी है। मन्दिर के अन्दर भगवान जगन्नाथ से सम्बन्धित एक म्यूजियम भी है जिसमें 5 रूपये के टिकट पर प्रवेश लिया जा सकता है। मन्दिर के अन्दर प्रसाद वितरण की कई तरह की व्यवस्थाएं हैं। मन्दिर के ट्रस्ट की तरफ से दिये जाने वाले आधिकारिक प्रसाद का रेट ऐसा है कि उसे खरीदना सबके बस की बात नहीं है। न्यूनतम 300 रूपये से लेकर 10–15 हजार या उससे भी ऊपर। इसके अलावा मन्दिर के अन्दर पण्डों द्वारा भी प्रसाद बेचा जाता है और मन्दिर के बाहर ठेले वाले दुकानदारों द्वारा भी,जो काफी सस्ता होता है।
बहुत ही उम्दा..... अब तो कही जाने से पहले ये ब्लॉग घूम लेना सही रहेगा... गाइड है पूरी
ReplyDeleteधन्यवाद भाईजान। इसी तरह पढ़ते रहिए और प्रोत्साहन करते रहिए। कुछ कमी वगैरह हो तो उसको भी सुधारते रहिए। आभारी रहूँगा।
Deleteएक एक जानकारी का समावेश है...बहुत बढ़िया...इसको पढ़ने के बाद कुछ और पूछने की जरूरत ही नही है भाई
ReplyDeleteधन्यवाद प्रतीक जी। मेरी मेहनत सार्थक हो गयी।
Deleteशानदार पोस्ट ।पिछले साल की यफें ताजा हो गयी ।
ReplyDeletehttp://nareshsehgal.blogspot.in/?m=1
बहुत बहुत धन्यवाद जी।
Deleteबहुत ही शानदार व्रतांत लिखा ह् , मेरी भी बहुत इच्छा ह् यहाँ जाने की पिछले साल मार्च में टिकट भी बन गई थी मग्र्र क्रोना की वजह से ट्रेन कंसील हो गई,
ReplyDeleteभाई जी वहाँ पर रोज झंडा बदला जाता ह् और जो उतरता ह् वो बाजार में बिकता ह् वो कहा मिलेगा कुछ जानकारी हो तो बताये