Friday, September 30, 2016

मानसून की दुल्हन

पंचों
मानसून की दुल्हन के जाने का समय आ गया है। अपने घर से कहीं भी दूसरी जगह जाना थोड़ा बुरा तो लगता ही है सो विदाई के गम में बिचारी इस वक्त आंसू बहा रही  है– झरझर झरझर। फिर भी जाना तो पड़ेगा ही क्योंकि हमारी गीता मइया ने बहुत पहले ही कह रखा है कि जो आया है उसको जाना भी पड़ेगा। जिस समय यह मायके आयी थी,बड़ी ही खुराफात दिखाई।  क्या–क्या नहीं किया– फसलों को बरबाद करने से लेकर घर गिराने तक। किसी के खेतों को बहा ले गयी तो किसी के घर में ही घुस गयी। लेकिन अब तो इसका मन भी ठण्डा हो गया है क्योंकि सारी अपनी वाली तो इसने कर ली। अब ससुराल जो जाना है। अब समय बदल गया है क्योंकि समय तो सबका बदलता है। इसकी जुल्फों के लहराने से चलती हवा इसके आंसुओं की ठण्डक लेकर आ रही है।  इसके रोने की आवाज में जो तड़प है वो मन में हौल पैदा करती  है। जब यह पलकें झपकाती है तो वो बिजली चमकती है कि किसी निर्जीव में भी जान आ जाय।
लेकिन पंचोंǃ अपन को भी यह छोटी सी बात तब समझ में आयी जब इस मानसून की इस प्यारी दुल्हन ने अपने ऊपर भी कृपा कर दी। ना भाइयों,कोई ऐसा वैसा मतलब मत निकालना क्योंकि हुआ ये था कि अपन एक दिन बाइक पर बगैर रेनकोट के इस दुल्हन की सवारी के बीच में आ गये और एकाध घंटे तक फंसे रहे। फिर क्या था,इसके झमाझम आंसुओं ने वो धुलाई की,वो धुलाई की कि शरीर ही नहीं मन का भी सारा मैल धुल गया। बिचारे डाक्टर को भी समझना पड़ा कि ये मानसून की दुल्हन बड़ी ही प्यारी है और वो भी जब इसके जाने का समय हो। बस वक्त–वक्त की बात है। किसको कब समझ आ जाय।
सो पंचोंǃ कम से कम इन दिनों तो इससे बचकर ही रहना,आगे देखा जायेगा।
राम राम पंचोंǃ

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