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28 मई की शाम को थके होने के कारण अगले दिन के लिए हम कोई प्रोग्राम तय नहीं कर पाये। अभी हमारे पास चार दिन थे क्योंकि हमारा वापसी का रिजर्वेशन 1 जून को था और घूमने के स्थान भी दिमाग में कई थे–हरिद्वार,ऋषिकेश,मंसा देवी–चण्डी देवी मंदिर,राजाजी नेशनल पार्क वगैरह–वगैरह। अगला दिन रविवार था,अतः भीड़–भाड़ वाली बात भी दिमाग में थी क्योंकि शनिवार और रविवार किसी भी पर्यटन स्थल के लिए वीकेण्ड मनाने का दिन होता है। 28 मई की शाम को हरिद्वार के एक रेस्टोरेण्ट में खाना खाने के बाद मैंने सबको वापस कमरे पर भेज दिया और स्वयं आइसक्रीम पैक कराने लगा। इसी बीच भयंकर आँधी–तूफान का दौर शुरू हुआ जिसमें मैं घिर गया और घण्टे भर बाद ही कमरे पहुंच सका। इस आंधी–पानी का असर अगले दिन देखने को मिला। बिजली व्यवस्था ध्वस्त हो गयी।
28 मई की शाम को थके होने के कारण अगले दिन के लिए हम कोई प्रोग्राम तय नहीं कर पाये। अभी हमारे पास चार दिन थे क्योंकि हमारा वापसी का रिजर्वेशन 1 जून को था और घूमने के स्थान भी दिमाग में कई थे–हरिद्वार,ऋषिकेश,मंसा देवी–चण्डी देवी मंदिर,राजाजी नेशनल पार्क वगैरह–वगैरह। अगला दिन रविवार था,अतः भीड़–भाड़ वाली बात भी दिमाग में थी क्योंकि शनिवार और रविवार किसी भी पर्यटन स्थल के लिए वीकेण्ड मनाने का दिन होता है। 28 मई की शाम को हरिद्वार के एक रेस्टोरेण्ट में खाना खाने के बाद मैंने सबको वापस कमरे पर भेज दिया और स्वयं आइसक्रीम पैक कराने लगा। इसी बीच भयंकर आँधी–तूफान का दौर शुरू हुआ जिसमें मैं घिर गया और घण्टे भर बाद ही कमरे पहुंच सका। इस आंधी–पानी का असर अगले दिन देखने को मिला। बिजली व्यवस्था ध्वस्त हो गयी।
29 मई को सुबह पानी ही नहीं आया। किसी तरह नित्यक्रिया संपन्न हुई। नहाने का तो सवाल ही नहीं था। वैसे माँ गंगा की नगरी हरिद्वार में नहाने के लिए पानी की क्या कमी। सो होटल के पीछे लगभग 500 मीटर की दूरी पर रास्ता पता करते हुए हम सभी गणेश घाट पहुंच गये तथा गंगा स्नान किया। यहां भीड़–भाड़ बिल्कुल भी नहीं थी।
खाना खाने के बाद मंसा देवी–चण्डी देवी उड़नखटोला से दर्शन के लिए चल दिए। सुबह देर हो चुकी थी। भयंकर भीड़ थी। लेकिन मंसा देवी–चण्डी देवी उड़नखटोला का संयुक्त टिकट लेने के लिए अलग काउण्टर है तथा वह खाली रहता है क्योंकि अधिकांश लोग सिंगल टिकट लेते हैं। अतः हम जल्दी से टिकट लेकर अंदर घुसे।
मंसा देवी से चण्डी देवी के लिए बसें भी उसी टिकट पर चलती हैं पर शायद भीड़ की वजह से उस दिन वह भी बन्द थीं। एक घण्टे में हमारा नम्बर आया और हम ऊपर पहुंचे। लेकिन भीड़ के धक्के देखकर हिम्मत जवाब दे गयी क्योंकि बच्चे भीड़ में दबने लगे। मजबूरन हम बिना दर्शन किये ही वापस हो गये। मंसा देवी में यह हमारा दूसरा दिन था जबकि हम ऊपर पहुंच कर भी दर्शन नहीं कर पाये।
अब नीचे आकर हम टेम्पो की खोज में पड़े। चण्डी देवी के लिए किराया 20 रूपये सवारी है पर विक्रम टेम्पो वाले रिजर्व की बात कर रहे थे। फार्मूला ये है कि वे 10 सवारी बैठाते हैं अन्यथा रिजर्व में पूरे का किराया मांगते हैं। खैर तीन लोग और मिल गये और हम चण्डी देवी पहुंचे। यहां भी 45 मिनट इंतजार करना पड़ा परन्तु ऊपर भीड़ नहीं थी। दर्शन तो आराम से हुए पर वापसी के लिए कुछ देर लाइन में लगना पड़ा। यहां नीचे आटो वालों की लाइन लगी थी और रिजर्व की बात न होकर केवल 20 रूपये सवारी की बात थी। आटो से हम हर की पैड़ी के उस पार उतरे,फिर टहलते हुए इस पार आये और पुनः रिक्शे से होटल पहुंचे। कुल मिलाकर हरिद्वार में पहाड़ियों पर स्थित इन दोनों मन्दिरों में जाने के लिए सर्वोत्तम साधन पैदल चढ़ाई है।
30 मई के दिन हमने हरिद्वार–ऋषिकेश घूमने के लिए 200 रूपये प्रति व्यक्ति की दर से बस में तीन सीटें बुक कीं। बाद में समझ में आया कि हरिद्वार और ऋषिकेश घूमने के लिए इस तरह की कोई बुकिंग करना बिल्कुल मूर्खता है। थोड़ी सी झंझट उठाते हुए इसे अपने बल पर घूमा जा सकता है। ट्रैवल एजेण्ट ने अपनी लिस्ट में 14 प्वाइंट घुमाने की बात कही थी लेकिन उसकी बस 7 प्वाइंट भी नहीं पहुँच सकी। कनखल पहुँचकर,एक ही स्थान पर दक्ष प्रजापति मन्दिर, आनन्दमयी मन्दिर और रूद्राक्ष का पेड़ मिलाकर उसके तीन प्वाइंट पूरे हो गये। ऋषिकेश में धक्के खाते हुए दो जगह टैक्सी ढूंढ़नी पड़ी क्योंकि बस हर जगह नहीं जाती। भागदौड़ करते हुए राम झूला, लक्ष्मण झूला व स्वर्गाश्रम देखने की औपचारिकता पूरी हो गयी। इस बीच हमने ऋषिकेश में कुछ अपनी बुद्धि लगायी और बस वाले का साथ छोड़कर कुछ देर अपनी मर्जी घूमते रहे। साथ ही "चोटीवाला" रेस्टोरेन्ट में खाना भी खाया। लौटते समय मुनि की रेती बस स्टैण्ड के पास गंगा किनारे कुछ देर सीढ़ियों पर बैठे रहे और फिर बस पकड़ लिये। यह भ्रमण यदि आटो या कार बुक कर के किया जाय तो बहुत ही अच्छा रहेगा।
31 मई को हमारा कार्यक्रम राजाजी नेशनल पार्क का था जहां जंगल सफारी के लिए हमने 3500 रूपये में एक एजेण्ट के माध्यम से खुली जीप बुक की। एजेण्ट ने भ्रमण का समय तीन घण्टे का बताया था लेकिन ड्राइवर 2.30 घण्टे में ही हमें वापस लेकर आ गया। दरअसल वे सबको इसी समय के अन्दर लाते हैं। उनका समय ही यही है। जंगल में सम्भवतः 35–40 किमी की दूरी तय करते होंगे। जंगल सफारी का समय सुबह 6–9 बजे तथा शाम को 3–6 बजे का है। ट्रैवल एजेण्ट ने सुबह हमको आटो से ले जाकर चीला गेट तक छोड़ा तथा वहां से सफारी वाली गाड़ी हमें ले गई। सुबह हम जंगल में 6.15 तक प्रवेश कर गये तथा 8.45 तक बाहर निकल गये।
जंगल के बड़े जानवरों ने हमसे दूरी बनाये रखी। सर्वाधिक संख्या में मोर दिखे। हां जंगल में घूमने का आनन्द जरूर आया। आदमियों के जंगल से तो रोज ही हम रूबरू होते हैं इसलिए असली जंगल में घूमने का मजा ही कुछ और है। रास्ते में (जंगल में ही) एक दूसरी गाड़ी के ड्राइवर ने बताया कि 15–20 मिनट पहले आने पर हाथी दिखे होते। मेरी समझ से थोड़ा सुबह निकलना ठीक रहता पर उससे भी बढ़िया शाम की पाली में रहता। जंगल की सरकारी गाड़ी ने हमें जहां से उठाया था वहीं छोड़ दिया। वहां से हम पैदल टहलते हुए हर की पैड़ी तक आये और वहां से रिक्शे से हाेटल तक।
1 जून को हमारा कोई कार्यक्रम नहीं था। अतः हम नदी किनारे टहलने निकल पड़े। हर की पैड़ी तक इक्के से गये और वहां से नदी के उस पार दूसरे किनारे पर। वहां टहलते, खाते–पीते, आराम करते दोपहर हो गई और उस किनारे से पैदल टहलते हुए वापस चले आये। दूसरे किनारे (शहर के अपोजिट) पर भीड़–भाड़ कम थी, इसलिए घूमने में सहूलियत थी, अच्छा भी लग रहा था। उसी किनारे पर बैठकर चुपचाप काफी देर तक नदी को देखते रहे मानो गंगा ने किसी चुम्बकीय आकर्षण में बांध लिया हो। होटल में आकर हमने आराम किया और एक दिन का एक्स्ट्रा किराया देकर होटल में ही शाम तक रूके रहे। क्योंकि हमारी ट्रेन रात में 10.05 बजे थी।
स्टेशन हमारे होटल से केवल 5 मिनट की पैदल दूरी पर था। ट्रेन समय से आयी लेकिन हमें काफी परेशानी झेलनी पड़ी। वजह यह थी कि दून एक्सप्रेस में स्लीपर की पांच बोगियां हरिद्वार में ही इंजन की तरफ से जुड़ती हैं और हमारी सीट इन्हीं में से एक बोगी में थी। बोगियां जुड़ने की बात न मालूम होने के कारण हम प्लेटफार्म का पूरा चक्कर लगा गये और अन्ततः हमारी बोगी वहीं लगी जहां हम पहले से ही खड़े थे।
खैर,ट्रेन समय से चली। अगले दिन 2 जून को इसे शाम 3.55 बजे वाराणसी पहुंचना था लेकिन यह काफी लेट होने लगी और शाहगंज स्टेशन पर 1.15 बजे की बजाय 3.05 बजे पहुंची। संयोग से दूसरे प्लेटफार्म पर बलिया जाने वाली पैसेंजर ट्रेन खड़ी थी जिसका शाहगंज से चलने का समय 3.20 है। अतः वहां से हमने इसे पकड़ लिया जो हमारे स्टेशन रसड़ा अपने निर्धारित समय 7.30 बजे की बजाय 8.10 बजे पहुुंची और वहां से रिजर्व साधन से हम अपने घर पहुंच गये।
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. हरिद्वार–यात्रा का आरम्भ
2. यमुनोत्री
3. गंगोत्री
4. हरिद्वार और आस–पास
खाना खाने के बाद मंसा देवी–चण्डी देवी उड़नखटोला से दर्शन के लिए चल दिए। सुबह देर हो चुकी थी। भयंकर भीड़ थी। लेकिन मंसा देवी–चण्डी देवी उड़नखटोला का संयुक्त टिकट लेने के लिए अलग काउण्टर है तथा वह खाली रहता है क्योंकि अधिकांश लोग सिंगल टिकट लेते हैं। अतः हम जल्दी से टिकट लेकर अंदर घुसे।
मंसा देवी से चण्डी देवी के लिए बसें भी उसी टिकट पर चलती हैं पर शायद भीड़ की वजह से उस दिन वह भी बन्द थीं। एक घण्टे में हमारा नम्बर आया और हम ऊपर पहुंचे। लेकिन भीड़ के धक्के देखकर हिम्मत जवाब दे गयी क्योंकि बच्चे भीड़ में दबने लगे। मजबूरन हम बिना दर्शन किये ही वापस हो गये। मंसा देवी में यह हमारा दूसरा दिन था जबकि हम ऊपर पहुंच कर भी दर्शन नहीं कर पाये।
अब नीचे आकर हम टेम्पो की खोज में पड़े। चण्डी देवी के लिए किराया 20 रूपये सवारी है पर विक्रम टेम्पो वाले रिजर्व की बात कर रहे थे। फार्मूला ये है कि वे 10 सवारी बैठाते हैं अन्यथा रिजर्व में पूरे का किराया मांगते हैं। खैर तीन लोग और मिल गये और हम चण्डी देवी पहुंचे। यहां भी 45 मिनट इंतजार करना पड़ा परन्तु ऊपर भीड़ नहीं थी। दर्शन तो आराम से हुए पर वापसी के लिए कुछ देर लाइन में लगना पड़ा। यहां नीचे आटो वालों की लाइन लगी थी और रिजर्व की बात न होकर केवल 20 रूपये सवारी की बात थी। आटो से हम हर की पैड़ी के उस पार उतरे,फिर टहलते हुए इस पार आये और पुनः रिक्शे से होटल पहुंचे। कुल मिलाकर हरिद्वार में पहाड़ियों पर स्थित इन दोनों मन्दिरों में जाने के लिए सर्वोत्तम साधन पैदल चढ़ाई है।
30 मई के दिन हमने हरिद्वार–ऋषिकेश घूमने के लिए 200 रूपये प्रति व्यक्ति की दर से बस में तीन सीटें बुक कीं। बाद में समझ में आया कि हरिद्वार और ऋषिकेश घूमने के लिए इस तरह की कोई बुकिंग करना बिल्कुल मूर्खता है। थोड़ी सी झंझट उठाते हुए इसे अपने बल पर घूमा जा सकता है। ट्रैवल एजेण्ट ने अपनी लिस्ट में 14 प्वाइंट घुमाने की बात कही थी लेकिन उसकी बस 7 प्वाइंट भी नहीं पहुँच सकी। कनखल पहुँचकर,एक ही स्थान पर दक्ष प्रजापति मन्दिर, आनन्दमयी मन्दिर और रूद्राक्ष का पेड़ मिलाकर उसके तीन प्वाइंट पूरे हो गये। ऋषिकेश में धक्के खाते हुए दो जगह टैक्सी ढूंढ़नी पड़ी क्योंकि बस हर जगह नहीं जाती। भागदौड़ करते हुए राम झूला, लक्ष्मण झूला व स्वर्गाश्रम देखने की औपचारिकता पूरी हो गयी। इस बीच हमने ऋषिकेश में कुछ अपनी बुद्धि लगायी और बस वाले का साथ छोड़कर कुछ देर अपनी मर्जी घूमते रहे। साथ ही "चोटीवाला" रेस्टोरेन्ट में खाना भी खाया। लौटते समय मुनि की रेती बस स्टैण्ड के पास गंगा किनारे कुछ देर सीढ़ियों पर बैठे रहे और फिर बस पकड़ लिये। यह भ्रमण यदि आटो या कार बुक कर के किया जाय तो बहुत ही अच्छा रहेगा।
31 मई को हमारा कार्यक्रम राजाजी नेशनल पार्क का था जहां जंगल सफारी के लिए हमने 3500 रूपये में एक एजेण्ट के माध्यम से खुली जीप बुक की। एजेण्ट ने भ्रमण का समय तीन घण्टे का बताया था लेकिन ड्राइवर 2.30 घण्टे में ही हमें वापस लेकर आ गया। दरअसल वे सबको इसी समय के अन्दर लाते हैं। उनका समय ही यही है। जंगल में सम्भवतः 35–40 किमी की दूरी तय करते होंगे। जंगल सफारी का समय सुबह 6–9 बजे तथा शाम को 3–6 बजे का है। ट्रैवल एजेण्ट ने सुबह हमको आटो से ले जाकर चीला गेट तक छोड़ा तथा वहां से सफारी वाली गाड़ी हमें ले गई। सुबह हम जंगल में 6.15 तक प्रवेश कर गये तथा 8.45 तक बाहर निकल गये।
जंगल के बड़े जानवरों ने हमसे दूरी बनाये रखी। सर्वाधिक संख्या में मोर दिखे। हां जंगल में घूमने का आनन्द जरूर आया। आदमियों के जंगल से तो रोज ही हम रूबरू होते हैं इसलिए असली जंगल में घूमने का मजा ही कुछ और है। रास्ते में (जंगल में ही) एक दूसरी गाड़ी के ड्राइवर ने बताया कि 15–20 मिनट पहले आने पर हाथी दिखे होते। मेरी समझ से थोड़ा सुबह निकलना ठीक रहता पर उससे भी बढ़िया शाम की पाली में रहता। जंगल की सरकारी गाड़ी ने हमें जहां से उठाया था वहीं छोड़ दिया। वहां से हम पैदल टहलते हुए हर की पैड़ी तक आये और वहां से रिक्शे से हाेटल तक।
1 जून को हमारा कोई कार्यक्रम नहीं था। अतः हम नदी किनारे टहलने निकल पड़े। हर की पैड़ी तक इक्के से गये और वहां से नदी के उस पार दूसरे किनारे पर। वहां टहलते, खाते–पीते, आराम करते दोपहर हो गई और उस किनारे से पैदल टहलते हुए वापस चले आये। दूसरे किनारे (शहर के अपोजिट) पर भीड़–भाड़ कम थी, इसलिए घूमने में सहूलियत थी, अच्छा भी लग रहा था। उसी किनारे पर बैठकर चुपचाप काफी देर तक नदी को देखते रहे मानो गंगा ने किसी चुम्बकीय आकर्षण में बांध लिया हो। होटल में आकर हमने आराम किया और एक दिन का एक्स्ट्रा किराया देकर होटल में ही शाम तक रूके रहे। क्योंकि हमारी ट्रेन रात में 10.05 बजे थी।
स्टेशन हमारे होटल से केवल 5 मिनट की पैदल दूरी पर था। ट्रेन समय से आयी लेकिन हमें काफी परेशानी झेलनी पड़ी। वजह यह थी कि दून एक्सप्रेस में स्लीपर की पांच बोगियां हरिद्वार में ही इंजन की तरफ से जुड़ती हैं और हमारी सीट इन्हीं में से एक बोगी में थी। बोगियां जुड़ने की बात न मालूम होने के कारण हम प्लेटफार्म का पूरा चक्कर लगा गये और अन्ततः हमारी बोगी वहीं लगी जहां हम पहले से ही खड़े थे।
खैर,ट्रेन समय से चली। अगले दिन 2 जून को इसे शाम 3.55 बजे वाराणसी पहुंचना था लेकिन यह काफी लेट होने लगी और शाहगंज स्टेशन पर 1.15 बजे की बजाय 3.05 बजे पहुंची। संयोग से दूसरे प्लेटफार्म पर बलिया जाने वाली पैसेंजर ट्रेन खड़ी थी जिसका शाहगंज से चलने का समय 3.20 है। अतः वहां से हमने इसे पकड़ लिया जो हमारे स्टेशन रसड़ा अपने निर्धारित समय 7.30 बजे की बजाय 8.10 बजे पहुुंची और वहां से रिजर्व साधन से हम अपने घर पहुंच गये।
मंसा देवी मन्दिर में |
मंसा देवी मन्दिर से नीचे का विहंगम दृश्य |
दूर से दिखता मंसा देवी मन्दिर |
चण्डी देवी मन्दिर में |
क्या रोमांचक दृश्य है |
कनखल में दक्ष प्रजापति मन्दिर |
कनखल के दक्ष प्रजापति मन्दिर के पास का एक दृश्य जिसने मन को विचलित कर दिया |
ऋषिकेश में लक्ष्मण झूला पुल |
लक्ष्मण झूला पुल से नदी का दृश्य |
त्र्यम्बकेश्वर मन्दिर,ऋषिकेश |
दूर से रामझूला पुल |
ऋषिकेश में गंगा किनारे |
राजाजी नेशनल पार्क में |
बाघ के पंजों के निशान |
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. हरिद्वार–यात्रा का आरम्भ
2. यमुनोत्री
3. गंगोत्री
4. हरिद्वार और आस–पास
बृजेश भाई परिवार के साथ यात्रा करने में आनंद तो आता है लेकिन खर्चा और जिम्मेदारियां बहुत बढ़ जाती हैं और यदि किसी की तबीयत खराब हो गई तो और मुसीबत हो जाती है
ReplyDeleteहाँ जी। मेरे साथ ऐसा हो चुका है। फिर भी अपने तो अपने हैं। जो आनंद अपनों के साथ आता है वो और कहाँ मिलेगा।
Deleteयह लेख मन, शरीर, और आत्मा के लिए एक सच्चा भोजन है। आपके शब्दों का प्रभाव दिल और दिमाग को छू गया। यह भी पढ़ें हरिद्वार में घूमने की जगह
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