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23 जून को हमें गुलमर्ग की तरफ जाना था। दरअसल ड्राइवर ने श्रीनगर से बाहर जाने के लिए हमारे सामने दो प्रस्ताव रखे थे– सोनमर्ग या गुलमर्ग। बर्फ पर उछलने–कूदने के लिए ये दोनों ही विकल्प ठीक थे। हमने गुलमर्ग को चुना। क्योंकि हम भी अपने तरीके से पता लगाने की कोशिश कर रहे थे कि अधिक बर्फ कहाँ मिलेगी। हमारे झुण्ड के 18 लोगों में से 2 की तबीयत कुछ नासाज हो गयी थी। कश्मीर आ कर किसी के साथ ऐसा कुछ हो तो बुरा तो लगता ही है। इस वजह वे से होटल में ही रूक गये। जिससे बस में जो एडजस्ट करने वाली समस्या थी,वह समाप्त हो गयी। श्रीनगर से तंगमर्ग होते हुए गुलमर्ग की दूरी 50 किमी है।
कश्मीर में फूलों की घाटी के नाम से जाना जाने वाला यह सुन्दर पर्वतीय स्थल हरे–भरे मैदानों के साथ साथ गोल्फ का सर्वश्रेष्ठ मैदान भी है। कहा जाता है कि इसका नाम शिव की पत्नी गौरी के नाम पर था। सन् 1581 में यूसुफशाह द्वारा इसका नाम बदलकर गुलमर्ग कर दिया गया।
श्रीनगर शहर से बाहर निकलते हुए स्थानीय निवासियों के रहन–सहन का दर्शन हुआ। वैसे तो श्रीनगर शहर में रहते हुए कई बार इच्छा हुई कि थोड़ा पैदल चलकर घूमा जाय लेकिन मन में कश्मीर के नाम की जो इमेज बनी हुई है,उसने पैदल घूमने के लिए बाहर नहीं निकलने दिया। बस में बैठे–बैठे कई जगह झेलम नदी व डल झील दिखाई पड़ी लेकिन यह समझ में नहीं आया कि इनमें से कौन सी डल झील है,कौन सी झेलम नदी है और कौन सी इनमें से निकाली गयी नहर है।
बर्फ से बचने के लिए बनाई गयी मकानों की छतों की ढलवां संरचना बड़ी ही सुन्दर लग रही थी। साथ ही जगह जगह बने सुरक्षाबलों के बंकरों को देखकर लग रहा था कि हम किसी दूसरे ही देश में आ गये हों। श्रीनगर से आगे बढ़ने पर रास्ते में देवदार के घने जंगलों तथा उनके बीच में बलखाती सड़क का नजारा बड़ा ही अद्भुत लग रहा था।
हिमालय के पहाड़ी ढलानों और ऊंचे पहाड़ों के बीच स्थित छोटी व संकरी घाटियों में स्थित छोटे छोटे मैदान जाड़ों में बर्फ से ढक जाते हैं। बसंत ऋतु में जब बर्फ पिघल जाती है तो इन ढलानों और मैदानों पर हरी–भरी घासों का एक कालीन सा बिछ जाता है। इन घास के मैदानों को कश्मीर में मर्ग तथा उत्तराखण्ड में बुग्याल तथा पयार कहते हैं। गुलमर्ग ऐसी ही एक जगह है। सोनमर्ग भी ऐसा ही घासों का एक मैदान है। गुलमर्ग के पहाड़ों के नीचे हरा भरा गोल्फ कोर्स है जो जाड़ों में बर्फ से ढक जाता है। आज हम इसी की यात्रा पर जा रहे थे।
गुलमर्ग में चाय–नाश्ते व कश्मीरी कपडों की कुछ छोटी–छोटी दुकानें हैं जो सम्भवतः पर्यटन के मौसम में ही खुलती होंगी। गुलमर्ग से ऊपर बर्फीली चोटियों तक जाने के लिए रोपवे, खच्चर व पैदल ट्रेक उपलब्ध है। रोपवे के दो प्वाइंट हैं। सबसे नीचे वाले बेस से चलकर प्वाइंट एक पर पहुंचते हैं तथा वहां से चलकर प्वाइंट दो पर पहुंचते हैं। प्वाइंट दो पूरी तरह बर्फ से ढकी ढलानों पर स्थित है। हालांकि प्वाइंट एक से आगे पैदल चलकर भी बर्फ पर पहुंचा जा सकता है। घोड़ेवाले नीचे से चलकर इसी जगह पर यात्रियों को पहुंचाते हैं। हमने पैदल मार्ग अपनाया।
रोपवे के आरंभिक बेस स्टेशन पर भीड़ लगी थी। लोगबाग गर्म कपड़े किराये पर ले रहे थे। लंबी लाइन लग चुकी थी। रोपवे का किराया एक प्वांइट का 600 रूपये तथा दूसरे का 800 रूपये है। घोडे वाले 300–500 या उससे भी अधिक मांगते हैं तथा रोपवे के प्वाइंट एक से कुछ ऊपर ले जाकर यात्रियों को बर्फ का दर्शन करा लाते हैं। रोपवे का दूसरा प्वाइंट जहां ले जाता है वहां तक वे नहीं जाते। रोपवे व घोड़े से जाने वाले यात्री रोपवे के टिकट और गर्म कपड़े किराये लेने की मगजमारी में व्यस्त थे। अपना काफिला तो इतना खर्च करने वाला था नहीं। इसलिए पैदल ट्रेकिंग का प्लान बना। पैदल ट्रेकिंग का एक फायदा यह भी रहा कि हमें गर्म कपड़ों की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। पैदल चलते रहे और शरीर में गर्मी आती रही। एक और फायदा यह भी हुआ कि झुण्ड के 3-4 सदस्य थकान की वजह से नीचे ही रह गये और ऊपर चढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा सके। ट्रेकिंग शुरू तो कर दी गयी पर कुल दूरी और रास्ते का अंदाजा बिल्कुल भी नहीं था। लक्ष्य के रूप में दूर से बर्फ दिखायी दे रही थी। अतः हम घोड़ों वाले रास्ते पर चलते रहे। हमारे बिल्कुल ऊपर से रोपवे भी जा रहा था। दृश्य बहुत सुन्दर था। रास्ते भर फोटो खींचते रहे।
रोपवे का प्वाइंट एक जहां स्थित है वहां चाय–नाश्ते की कुछ दुकानें हैं। यहीं रूककर हमने नाश्ता किया। कुछ लोगों ने 50 रूपये वाला आलू पराठा खाया पर मैंने और एक साथी ने शाही दावत उड़ायी और 150 वाला कश्मीरी हलवा खाया। पानी की बोतल 40 रूपये की थी। इतनी महंगाई बेवजह भी नहीं थी। टेन्ट लगाकर बनायी गयी 3–4 अस्थायी दुकानें थीं जहां नीचे से सामान पहुंचाना भी बहुत मेहनत वाला काम है। इसलिए नीचे से इतने ऊपर आने में 20 रूपये की बोतल 40 की हो जाती है तो क्या बुरा है। वैसे भी महँगाई ऊँचाई के साथ बढ़ती जाती है।
रूकते चलते 3.30 घण्टे बाद हम बरफ पर पहुंचे। पहले कभी इतने नजदीक से इतनी बरफ नहीं देखी थी इसलिए लगा कि जीवन धन्य हो गया। 1 घण्टे से कुछ अधिक ही बर्फ पर बन्दरों की तरह खूब उछलते–कूदते एवं फिसलते–गिरते रहे। खूब फोटो भी खींचे गये। इसके बाद वापस हो लिए। रास्ते में घोड़े व रोपवे से होकर ऊपर जाने वाले लोग मिलते रहे। कई पैदल जाने वाले लोग भी मिले जो रास्ते की कठिन चढ़ाई के कारण हौसला खोते जा रहे थे। हमने उन्हें ढाढ़स बधाया। अचानक तभी लाउड स्पीकरों से मौसम खराब होने व वापस लौटने की चेतावनी दी जाने लगी। पीछे मुड़कर देखा तो दृश्य वास्तव में बहुत भयानक था। बादलों का रूप–रंग देख कर लगा रहा था जैसे जल–प्रलय आने वाली हो। घोड़ों और रोपवे से जाने वाले लोग अभी आधे रास्ते भी नहीं पहुँच सके थे। लेकिन हम बहुत ही भाग्यशाली थे जो बर्फ के मजे लेकर बिना किसी समस्या के वापस लौट रहे थे। बादलों को देखकर डर हमें भी लग रहा था। वैसे बादलों ने हमारे ऊपर दया दिखायी और हमें बचाते हुए नीचे जाकर बरस गये। और ये बात भी हमें तब पता चली जब नीचे उतरते हुए आगे चलकर हमें रास्ते में कीचड़ मिलने लगा।
ढलान पर वापस लौटते हुए कुछ और लोग मिले जो अभी ऊपर चढ़ाई पर जा रहे थे और हमसे रास्ता पूछ रहे थे। हमने उन्हें रास्ता बताया मानो अब हम तो एवरेस्ट फतह करके आ रहे हों।
बस ड्राइवर ने सबेरे ही यह फरमान जारी कर दिया था कि शाम को 5 बजे गुलमर्ग से श्रीनगर के लिए रवाना होना है लेकिन हम कुछ पहले आ गये थे। इसलिए कुछ अतिरिक्त समय शाल वगैरह खरीदने में बिताया। जो लोग ऊपर नहीं गये थे वे घास पर गधों की तरह लोट रहे थे। हल्का–फुल्का नाश्ता करने के बाद हम श्रीनगर के लिए वापस हो लिए।
24 जून को हमें वापस जम्मू लौटना था। श्रीनगर जाते समय रास्ते में रूकने व जाम वगैरह के कारण लगभग 15 घण्टे लग गये थे, अतः हम सतर्क थे और भोर में 4 बजे ही निकलने का कार्यक्रम बना लिया था परन्तु बस चलने में 5.30 बज गये। लेकिन वापस लौटने में कम समय लगा और लगभग 4 बजे शाम तक हम लोग जम्मू पहुंच गये। चूकिं हमारी बोर्डिंग पठानकोट से थी अतः हमने डीएमयू ट्रेन पकड़ी जो पठानकोट छोटी लाइन वाले स्टेशन चली गयी। वहां से हमें पुनः पठानकोट कैण्ट अथवा चक्की बैंक आना पड़ा। स्टेशन पहुंच कर कुछ देर आराम किया गया। फिर खाना खाने के लिए कुछ मित्र पुनः पैदल पठानकोट गये। रात में 12.30 बजे अमरनाथ एक्सप्रेस मिली जिसमें हमारा रिजर्वेशन था। यह अगले दिन अर्थात 25 जून को रात में 10.30 गोरखपुर पहुंची।
23 जून को हमें गुलमर्ग की तरफ जाना था। दरअसल ड्राइवर ने श्रीनगर से बाहर जाने के लिए हमारे सामने दो प्रस्ताव रखे थे– सोनमर्ग या गुलमर्ग। बर्फ पर उछलने–कूदने के लिए ये दोनों ही विकल्प ठीक थे। हमने गुलमर्ग को चुना। क्योंकि हम भी अपने तरीके से पता लगाने की कोशिश कर रहे थे कि अधिक बर्फ कहाँ मिलेगी। हमारे झुण्ड के 18 लोगों में से 2 की तबीयत कुछ नासाज हो गयी थी। कश्मीर आ कर किसी के साथ ऐसा कुछ हो तो बुरा तो लगता ही है। इस वजह वे से होटल में ही रूक गये। जिससे बस में जो एडजस्ट करने वाली समस्या थी,वह समाप्त हो गयी। श्रीनगर से तंगमर्ग होते हुए गुलमर्ग की दूरी 50 किमी है।
कश्मीर में फूलों की घाटी के नाम से जाना जाने वाला यह सुन्दर पर्वतीय स्थल हरे–भरे मैदानों के साथ साथ गोल्फ का सर्वश्रेष्ठ मैदान भी है। कहा जाता है कि इसका नाम शिव की पत्नी गौरी के नाम पर था। सन् 1581 में यूसुफशाह द्वारा इसका नाम बदलकर गुलमर्ग कर दिया गया।
श्रीनगर शहर से बाहर निकलते हुए स्थानीय निवासियों के रहन–सहन का दर्शन हुआ। वैसे तो श्रीनगर शहर में रहते हुए कई बार इच्छा हुई कि थोड़ा पैदल चलकर घूमा जाय लेकिन मन में कश्मीर के नाम की जो इमेज बनी हुई है,उसने पैदल घूमने के लिए बाहर नहीं निकलने दिया। बस में बैठे–बैठे कई जगह झेलम नदी व डल झील दिखाई पड़ी लेकिन यह समझ में नहीं आया कि इनमें से कौन सी डल झील है,कौन सी झेलम नदी है और कौन सी इनमें से निकाली गयी नहर है।
बर्फ से बचने के लिए बनाई गयी मकानों की छतों की ढलवां संरचना बड़ी ही सुन्दर लग रही थी। साथ ही जगह जगह बने सुरक्षाबलों के बंकरों को देखकर लग रहा था कि हम किसी दूसरे ही देश में आ गये हों। श्रीनगर से आगे बढ़ने पर रास्ते में देवदार के घने जंगलों तथा उनके बीच में बलखाती सड़क का नजारा बड़ा ही अद्भुत लग रहा था।
हिमालय के पहाड़ी ढलानों और ऊंचे पहाड़ों के बीच स्थित छोटी व संकरी घाटियों में स्थित छोटे छोटे मैदान जाड़ों में बर्फ से ढक जाते हैं। बसंत ऋतु में जब बर्फ पिघल जाती है तो इन ढलानों और मैदानों पर हरी–भरी घासों का एक कालीन सा बिछ जाता है। इन घास के मैदानों को कश्मीर में मर्ग तथा उत्तराखण्ड में बुग्याल तथा पयार कहते हैं। गुलमर्ग ऐसी ही एक जगह है। सोनमर्ग भी ऐसा ही घासों का एक मैदान है। गुलमर्ग के पहाड़ों के नीचे हरा भरा गोल्फ कोर्स है जो जाड़ों में बर्फ से ढक जाता है। आज हम इसी की यात्रा पर जा रहे थे।
गुलमर्ग में चाय–नाश्ते व कश्मीरी कपडों की कुछ छोटी–छोटी दुकानें हैं जो सम्भवतः पर्यटन के मौसम में ही खुलती होंगी। गुलमर्ग से ऊपर बर्फीली चोटियों तक जाने के लिए रोपवे, खच्चर व पैदल ट्रेक उपलब्ध है। रोपवे के दो प्वाइंट हैं। सबसे नीचे वाले बेस से चलकर प्वाइंट एक पर पहुंचते हैं तथा वहां से चलकर प्वाइंट दो पर पहुंचते हैं। प्वाइंट दो पूरी तरह बर्फ से ढकी ढलानों पर स्थित है। हालांकि प्वाइंट एक से आगे पैदल चलकर भी बर्फ पर पहुंचा जा सकता है। घोड़ेवाले नीचे से चलकर इसी जगह पर यात्रियों को पहुंचाते हैं। हमने पैदल मार्ग अपनाया।
रोपवे के आरंभिक बेस स्टेशन पर भीड़ लगी थी। लोगबाग गर्म कपड़े किराये पर ले रहे थे। लंबी लाइन लग चुकी थी। रोपवे का किराया एक प्वांइट का 600 रूपये तथा दूसरे का 800 रूपये है। घोडे वाले 300–500 या उससे भी अधिक मांगते हैं तथा रोपवे के प्वाइंट एक से कुछ ऊपर ले जाकर यात्रियों को बर्फ का दर्शन करा लाते हैं। रोपवे का दूसरा प्वाइंट जहां ले जाता है वहां तक वे नहीं जाते। रोपवे व घोड़े से जाने वाले यात्री रोपवे के टिकट और गर्म कपड़े किराये लेने की मगजमारी में व्यस्त थे। अपना काफिला तो इतना खर्च करने वाला था नहीं। इसलिए पैदल ट्रेकिंग का प्लान बना। पैदल ट्रेकिंग का एक फायदा यह भी रहा कि हमें गर्म कपड़ों की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। पैदल चलते रहे और शरीर में गर्मी आती रही। एक और फायदा यह भी हुआ कि झुण्ड के 3-4 सदस्य थकान की वजह से नीचे ही रह गये और ऊपर चढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा सके। ट्रेकिंग शुरू तो कर दी गयी पर कुल दूरी और रास्ते का अंदाजा बिल्कुल भी नहीं था। लक्ष्य के रूप में दूर से बर्फ दिखायी दे रही थी। अतः हम घोड़ों वाले रास्ते पर चलते रहे। हमारे बिल्कुल ऊपर से रोपवे भी जा रहा था। दृश्य बहुत सुन्दर था। रास्ते भर फोटो खींचते रहे।
रोपवे का प्वाइंट एक जहां स्थित है वहां चाय–नाश्ते की कुछ दुकानें हैं। यहीं रूककर हमने नाश्ता किया। कुछ लोगों ने 50 रूपये वाला आलू पराठा खाया पर मैंने और एक साथी ने शाही दावत उड़ायी और 150 वाला कश्मीरी हलवा खाया। पानी की बोतल 40 रूपये की थी। इतनी महंगाई बेवजह भी नहीं थी। टेन्ट लगाकर बनायी गयी 3–4 अस्थायी दुकानें थीं जहां नीचे से सामान पहुंचाना भी बहुत मेहनत वाला काम है। इसलिए नीचे से इतने ऊपर आने में 20 रूपये की बोतल 40 की हो जाती है तो क्या बुरा है। वैसे भी महँगाई ऊँचाई के साथ बढ़ती जाती है।
रूकते चलते 3.30 घण्टे बाद हम बरफ पर पहुंचे। पहले कभी इतने नजदीक से इतनी बरफ नहीं देखी थी इसलिए लगा कि जीवन धन्य हो गया। 1 घण्टे से कुछ अधिक ही बर्फ पर बन्दरों की तरह खूब उछलते–कूदते एवं फिसलते–गिरते रहे। खूब फोटो भी खींचे गये। इसके बाद वापस हो लिए। रास्ते में घोड़े व रोपवे से होकर ऊपर जाने वाले लोग मिलते रहे। कई पैदल जाने वाले लोग भी मिले जो रास्ते की कठिन चढ़ाई के कारण हौसला खोते जा रहे थे। हमने उन्हें ढाढ़स बधाया। अचानक तभी लाउड स्पीकरों से मौसम खराब होने व वापस लौटने की चेतावनी दी जाने लगी। पीछे मुड़कर देखा तो दृश्य वास्तव में बहुत भयानक था। बादलों का रूप–रंग देख कर लगा रहा था जैसे जल–प्रलय आने वाली हो। घोड़ों और रोपवे से जाने वाले लोग अभी आधे रास्ते भी नहीं पहुँच सके थे। लेकिन हम बहुत ही भाग्यशाली थे जो बर्फ के मजे लेकर बिना किसी समस्या के वापस लौट रहे थे। बादलों को देखकर डर हमें भी लग रहा था। वैसे बादलों ने हमारे ऊपर दया दिखायी और हमें बचाते हुए नीचे जाकर बरस गये। और ये बात भी हमें तब पता चली जब नीचे उतरते हुए आगे चलकर हमें रास्ते में कीचड़ मिलने लगा।
ढलान पर वापस लौटते हुए कुछ और लोग मिले जो अभी ऊपर चढ़ाई पर जा रहे थे और हमसे रास्ता पूछ रहे थे। हमने उन्हें रास्ता बताया मानो अब हम तो एवरेस्ट फतह करके आ रहे हों।
बस ड्राइवर ने सबेरे ही यह फरमान जारी कर दिया था कि शाम को 5 बजे गुलमर्ग से श्रीनगर के लिए रवाना होना है लेकिन हम कुछ पहले आ गये थे। इसलिए कुछ अतिरिक्त समय शाल वगैरह खरीदने में बिताया। जो लोग ऊपर नहीं गये थे वे घास पर गधों की तरह लोट रहे थे। हल्का–फुल्का नाश्ता करने के बाद हम श्रीनगर के लिए वापस हो लिए।
24 जून को हमें वापस जम्मू लौटना था। श्रीनगर जाते समय रास्ते में रूकने व जाम वगैरह के कारण लगभग 15 घण्टे लग गये थे, अतः हम सतर्क थे और भोर में 4 बजे ही निकलने का कार्यक्रम बना लिया था परन्तु बस चलने में 5.30 बज गये। लेकिन वापस लौटने में कम समय लगा और लगभग 4 बजे शाम तक हम लोग जम्मू पहुंच गये। चूकिं हमारी बोर्डिंग पठानकोट से थी अतः हमने डीएमयू ट्रेन पकड़ी जो पठानकोट छोटी लाइन वाले स्टेशन चली गयी। वहां से हमें पुनः पठानकोट कैण्ट अथवा चक्की बैंक आना पड़ा। स्टेशन पहुंच कर कुछ देर आराम किया गया। फिर खाना खाने के लिए कुछ मित्र पुनः पैदल पठानकोट गये। रात में 12.30 बजे अमरनाथ एक्सप्रेस मिली जिसमें हमारा रिजर्वेशन था। यह अगले दिन अर्थात 25 जून को रात में 10.30 गोरखपुर पहुंची।
गुलमर्ग के रास्ते में देवदार के जंगल |
गुलमर्ग में रेट सम्बन्धी सूचना बोर्ड |
गुलमर्ग की ढलानों से बर्फीली चोटियों का दृश्य |
गुलमर्ग के पैदल ट्रेक की तरफ जाती सड़क |
ढलान पर बनी छत पर पहुंचना कोई कठिन काम नहीं है |
हमारे ग्रुप के पर्वतारोहियों द्वारा चढ़ाई की शुरूआत |
रास्ते में आराम |
चढ़ाई की ओर जाता रोपवे |
झरने का पानी पीने की कोशिश की तो ठण्ड से गला सुन्न हो गया |
हरे–भरे ढलानों का नजारा जहां बादलों की धुन्ध छाई रहती है |
ऊपर कुछ ठण्ड लग रही थी |
रोपवे के दूसरे बेस के पास टेण्ट के बने हुए अस्थाई ढाबे |
बादलों के साये में देवदार |
ये लीजिए आप भी गुलमर्ग की ढलानों पर कुछ व्यंजनों का स्वाद ले लीजिए |
मस्ती में |
शकील भाई घोड़ेवाले जो घोड़े किराये पर देने के लिए पीछे पड़ गये थे |
इन पत्थरों को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने करीने से इन्हें बिछाया हो |
बरफ पर मस्ती |
बरफ से निकलता झरना |
इसे देखकर ऐसा लग रहा था जैसे रेगिस्तान में जाता कोई कारवां हो |
दूर से दिखता रोपवे का दूसरा बेस |
भेड़ चरवाहों के बच्चे |
भेड़ की सवारी |
जून के महीने में सेब के फल |
फेरीवालों से जैकेट खरीदा गया |
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
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