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Friday, July 15, 2016

भविष्य

मैं सपने बुनता हूं
स्वर्णिम भविष्य के।
टूटते हैं रोज फिर भी
मेरी जिजीविषा अनन्त है।
पहले दूसरों से सुनता था
अब खुद भी कहता हूं–
‘‘कुछ करके दिखाउंगा,
कुछ बन के दिखाउंगा।‘‘
उजले कागजों को स्याह कर डालता हूं,
बाप की कमाई से सपनों का पेट पालता हूं,
क्योंकि मैं एक शिक्षित बेरोजगार हूं,
हर लक्ष्‍य के लिए संघर्ष करने को तैयार हूं।


इस बीच भावनाएं घेरती हैं–
एक सुन्दर सी होगी
मेरी जीवन संगिनी।
सारी दुनिया से अलग
सारे सुख आसमां के
दूंगा मैं उसको।
वो मुझे देगी–‘बाहों का हार‘
मैं उसे दूंगा–‘प्राणों का प्यार‘


बात आगे बढ़ती है–
हम दोनों का प्यार
होगा साकार
एक नन्हें से चांद के रूप में।
रूप में वो होगा
कृष्ण का अवतार
बल में वो जायेगा
हनुमान से भी पार
ज्ञान में मिलेगा
उसे सरस्वती का प्यार
चांद की गति से
बढ़ेगा वो आगे
होगा वो मुझसे भी दो कदम आगे।


एक अनचाहा प्रश्न उठता है–
कौन सी सीमा
बनायी है मैंने
तोड़ेगा जिसको वह।
कौन सी है सीमा
दो कदम पीछे
रह गया मैं जिससे।
सोचता हूं–
‘‘मैं लाखों में एक नहीं‘‘
जैसा कि सोचा था
मेरे जन्मदाता ने
मैं लाखों की तरह एक था।
शायद वह लाखों में एक हो जाये
या फिर मेरी तरह, बुनता रह जाये
‘‘सपने– स्वर्णिम भविष्य के‘‘

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