एक दिन
मैंने बनाई,
एक खूबसूरत पेंटिंग
मन के विस्तीर्ण कैनवस पर।
जिसमें खिला था–
सुनहरा सवेरा,
महाकवि माघ के प्रभात को लज्जित करता हुआ।
झील से मिलते धरती और आकाश,
बुझती युगों–युगों की प्यास।
गिरि–शिखरों के कोने से झांकता सूरज।