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माण्डव से धार के लिए बस रवाना हुई तो मैं माण्डव की वादियों में खो गया। माण्डव मुझे कुछ वैसे स्थानों में से एक लगा जहाँ चले जाने के बाद वापस लौटने का मन नहीं करता। लेकिन यह तो यात्रा का एक पड़ाव था। और यात्रा तो अनवरत–अविराम चलती रहती है। इस अनन्त यात्रा का एक छोटा सा हिस्सा अभी गुजरा था– कुछ ऐसी यादों को लिए हुए जो बार–बार दोहराए जाने की जिद करती हैं। लेकिन ऐसी यादों के साथ जीने की तो आदत पड़ चुकी है। तो फिर ऐसी ही मनोदशा में मैं बस में बैठा खिड़की से बाहर के संसार को आँखों के रास्ते आत्मसात करने की कोशिश करते हुए इतिहास प्रसिद्ध धारा नगरी की ओर बढ़ा चला जा रहा था।
माण्डव से धार के लिए बस रवाना हुई तो मैं माण्डव की वादियों में खो गया। माण्डव मुझे कुछ वैसे स्थानों में से एक लगा जहाँ चले जाने के बाद वापस लौटने का मन नहीं करता। लेकिन यह तो यात्रा का एक पड़ाव था। और यात्रा तो अनवरत–अविराम चलती रहती है। इस अनन्त यात्रा का एक छोटा सा हिस्सा अभी गुजरा था– कुछ ऐसी यादों को लिए हुए जो बार–बार दोहराए जाने की जिद करती हैं। लेकिन ऐसी यादों के साथ जीने की तो आदत पड़ चुकी है। तो फिर ऐसी ही मनोदशा में मैं बस में बैठा खिड़की से बाहर के संसार को आँखों के रास्ते आत्मसात करने की कोशिश करते हुए इतिहास प्रसिद्ध धारा नगरी की ओर बढ़ा चला जा रहा था।
दूरी 36 किमी। किराया 35 रूपये। इस दूरी का लगभग एक तिहाई हिस्सा पहाड़ी है। या फिर माण्डव की ऊँचाई से नीचे की ओर उतराई है। तो फिर पहाड़ी रास्ते का भी कुछ आनन्द आता है।
विन्ध्य की गोद में बसे माण्डव के पहाड़– अधिकांशतः साँवले। कुछ–कुछ लाल भी। सूखे मौसम में अपने साँवले बदन को हरियाली विहीन पेड़ों की भूरी चादर से छ्पिाने की असफल कोशिश करते ये पहाड़ काफी उदासी में डूबे हुए लग रहे थे। इनमें सादगी है। अकड़ नहीं है। किताबों में पढ़ा है कि ये पहाड़ काफी प्राचीन हैं। बुजुर्ग हैं। जीवन की सांध्य वेला में हैं। इन्होंने भी नदियों की धार को झेला है। हवाओं के वेग को सहा है। लेकिन अब शायद और नहीं सहा जाता। हर कोई इनकी छाती चीरने को आतुर है। और तो और हवा के सहारे पर उड़ने वाले क्षुद्र बादल भी इनकी झुकी कमर के चलते इन्हें आँखें दिखाकर हिमालय की गोद में चले जाते हैं। इनका दर्द जवानी के मद में चूर हिमालय क्या जाने। हिमालय अभी युवा है। तनकर सीधा खड़ा है।हिमालय की ऊँचाई उसे शीतलता प्रदान करती है। नदियों को यौवन देती है। बदले में नदियां उसे जीवन का सार तत्व जल देती हैं। यह जल हिमालय को हरियाली देता है। और इस हरियाली से सजा हिमालय किसी नई नवेली दुल्हन सा सजा सँवरा अभी यौवन के अभिमान में है।
अचानक मनुष्यों और गाँवों का जंगल दिखने लगा तो मेरे पहाड़ चिन्तन में बाधा पड़ी। मैं पहाड़लोक से मैदानलोग में आ गिरा। मुझे याद आया कि मैं बस में बैठा धारा नगरी जा रहा हूँ। कहते हैं कि राजा बैरसिंह ने यहाँ पर अपनी तलवार की धार का परीक्षण किया था और इस शक्ति परीक्षण के आधार पर उस नगर का नाम धारा नगरी पड़ गया। कालान्तर में यह नाम धार नगरी के नाम से जाना जाने लगा। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं प्राचीन समय में यहाँ तलवारों पर धार चढ़ाई जाती थी और इस वजह से इस स्थान का नाम धारा नगरी पड़ गया।
धारा नगरी का अस्तित्व अत्यन्त प्राचीन काल से रहा है। एक लम्बे समय तक धारा नगरी मालवा पर शासन करने वाले परमार शासकों की राजधानी के रूप में विख्यात रही है। 9वीं शताब्दी से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक मालवा पर परमार वंश के राजाओं का शासन रहा। परमार शासकों में राजा भोज सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक रहे। भोज ने 1010 से 1055 तक शासन किया। भोज ने ही धारा नगरी की स्थापना की तथा अपनी राजधानी उज्जैन से धार स्थानान्तरित कर दी। परमार शासकों के समय में माण्डव तथा धार मालवा के प्रमुख केन्द्र के रूप में थे। 1305 में अलाउद्दीन खिलजी ने धार पर अधिकार कर लिया। इसके बाद 1401 तक मालवा दिल्ली के नियंत्रण में रहा। 1401 में दिलावर खां गौरी ने मालवा की शासन सत्ता सँभाली। इसके साथ ही उसने स्वतंत्र मालवा राज्य की स्थापना की तथा अपनी राजधानी धार से माण्डव ले गया। होशंगशाह इसी का उत्तराधिकारी था जिसका मकबरा माण्डू में बना हुआ है। 1531 तक माण्डव के सुल्तान मालवा पर शासन करते रहे। इसके बाद अफगान शासक शेरशाह सूरी ने माण्डव पर अधिकार कर लिया और शुजात खां को शासक बनाया। शुजात खां का उत्तराधिकारी बाज बहादुर था। इसी बाज बहादुर और रानी रूपमती की प्रेम कथाएं माण्डव में काफी चर्चित रहीं। अकबर के शासन काल के दौरान मुगल सेना ने माण्डव पर अधिकार कर लिया। मुगलों के बाद मालवा मराठा शासकों के अधिकार में आ गया। बाद में जब पेशवा बाजीराव ने सम्पूर्ण मालवा का होल्कर,सिंधिया और पंवार सरदारों में विभाजन किया तो धार का क्षेत्र आनन्द राव पंवार को दे दिया गया। 1818 केे तृतीय आंग्ल–मराठा युद्ध के बाद धार का क्षेत्र अंग्रेजों के हाथ में चला गया। बाद में 1860 में पंवार वंश के नाबालिग उत्तराधिकारी आनन्द राव पंवार तृतीय को अंग्रेजों द्वारा यहाँ का राजा घोषित कर दिया गया और एक रियासत के रूप में धार का शासन भारत की स्वतंत्रता तक चलता रहा।
11.45 बजे माण्डव से चलकर मेरी बस 1.15 बजे धार पहुँची। बस से उतरकर पहले समोसे वाले के यहाँ पेट की आग बुझायी। बाहर तो सूर्यदेव आग बरसा ही रहे थे जो बुझने वाली नहीं थी। बस स्टैण्ड के सामने सड़क के दूसरी तरफ कई लॉज हैं। लेकिन अधिकांश का एक ही फिक्स फार्मूला है– नीचे दुकान ऊपर मकान। और मकान के कमरे चाहे जिस उद्देश्य से बनाए गए हों,आज लॉजिंग के काम आ रहे हैं। मुझे भी राजा भोज की धार नगरी में एक रात बिताने के लिए एक कमरे की जरूरत थी तो मैं भी एक–दो एेसे ही मकानों की ओर बढ़ा। एक दो बड़े होटल भी दिख रहे थे लेकिन उधर का रूख करने की यहाँ कोई गुंजाइश नहीं थी। एक बड़ी मकान के निचले भाग में दुकान चला रहे एक महोदय से बात हुई तो बिचारे कमरा दिखाने के लिए ऊपर ले गए। पाँच बड़े–बड़े कमरों में तीन–तीन,चार–चार बेड लगे हुए थे। अटैच्ड बाथरूम किसी में नहीं था। महोदय ने बताया कि किसी भी लॉज में जाएंगे तो ऐसा ही मिलेगा। वैसे मुझे भी इस तथ्य पर रिसर्च नहीं करनी थी तो ऐसा ही एक कमरा 150 रूपए में बुक कर लिया। शर्त यह लगी कि बेड चाहे कितने ही लगे हों,कमरा सिर्फ मेरा ही रहेगा। दूसरा कोई इसमें नहीं इन्ट्री करेगा। अब तो मजे ही मजे थे। चार बेड वाले कमरे में रात को हर बेड पर दो–दो घण्टे सोने को मिलेगा।
वैसे इन कमरों की एक और सच्चाई से वाकिफ होना अभी बाकी था। कमरे में सामान रखने के बाद जब मैं टायलेट में गया और नल खोला तो पानी से आ रही तीव्र गंध से आमना–सामना हुआ। मैं अभी इससे एडजस्ट करने की कोशिश ही कर रहा था कि नल के नीचे रखी बाल्टी पानी के साथ साथ तेज बदबूदार झाग से भर उठी। अब मैं कुछ और सच्चाई जान लेना चाह रहा था। टायलेट से कुछ हटकर बने बाथरूम में पहुँचा कि जरा इसके पानी की भी जाँच कर ली जाय तो मेरा संदेह ठीक निकला। नहाने के लिए भी वही पानी आ रहा था। अब मैं भागते हुए दो मंजिल नीचे लॉज मैनेजर–कम–दुकानदार के पास पहुँचा और और अपनी व्यथा–कथा सुनाई। साथ ही पीने के पानी की भी माँग की। लॉज मैनेजर ने भी अपनी व्यथा–कथा सुनाई और शहर में पानी की कमी का रोना रोया। साथ ही जानकारी दी कि ठण्डा पानी बस स्टैण्ड के सामने पुलिस बूथ के पास लगे नल से मिल जाएगा। मैंने सोचा कि चलो यह भी एड्जस्ट कर लेते हैं। सिर्फ एक रात की ही तो बात है। कौन सी यहाँ गृहस्थी बसानी है। मुझे तो मतलब सिर्फ धार के किले और राजा भोज की भोजशाला से है।
2.30 बज रहे थे और धूप अपनी चरम सीमा पर थी। मैंने कुछ देर आराम कर लेना ही बेहतर समझा। एक घण्टे बाद बाहर निकला। लॉज मैनेजर से भोजशाला का रास्ता पूछा और चल पड़ा। लगभग एक किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद भोजशाला के गेट पर पहुँचा तो वहाँ तैनात सुरक्षाकर्मी से पता चला कि आज तो शुक्रवार है और आज का दिन भोजशाला केवल नमाजियों के लिए आरक्षित है। मैं बैरंग बस स्टैण्ड की ओर वापस लौटा और धार किले की ओर चल पड़ा। बस स्टैण्ड से किले की भी दूरी लगभग एक किलोमीटर है। किले का गेट सदाबहार भाव से खुला हुआ था। गेट के अन्दर एक स्थान पर रामचरितमानस का पाठ चल रहा था और पास ही मैदान में बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। अन्दर पहुॅंचा तो संग्रहालय का बोर्ड दिखा लेकिन सम्भवतः शुक्रवार होने की वजह से यह भी बन्द था। अब मैंने दाहिनी ओर घूमकर किले की चारदीवारी के साथ साथ बनी पगडण्डी पकड़ ली और किले की परिक्रमा करते हुए चल पड़ा। किले के पूर्वी भाग में कुछ आवासीय भवन दिख रहे थे जो सम्भवतः किले या संग्रहालय के कर्मचारियों के उपयोग में होंगे। किले की चारदीवारी से पूरा धार शहर दिखता है। किले के उत्तरी भाग में कुछ प्राचीन इमारतों के खण्डहर दिख रहे थे जहाँ एक जोड़ा लैला–मजनू का भी दिख रहा था। इन खण्डहरों के आस–पास पुरातत्व विभाग के कुछ बोर्ड लगे हुए हैं लेकिन इन पर लिखा हुआ सब कुछ मिट चुका है। सामान्य से दिखते इन खण्डहरों के बारे में यहाँ कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। पास में ही मोटरसाइकिल पर स्टंट करने वाले कुछ लड़के भी पहुँचे हुए थे जो भाँति–भाँति की मुद्राओं में फोटोग्राफी का कार्य कर रहे थे। लैला–मजनू भी इनकी हरकतों से काफी परेशान दिख रहे थे। मुझे किसी से कोर्इ परेशानी नहीं थी। साथ ही मुझसे भी किसी को कोई परेशानी नहीं होनी थी। लगभग दो–ढाई घण्टे तक किले में किसी प्रेतात्मा की तरह बेवजह भटकने के बाद मैं वापस लौटा।
7.30 बजे एक भोजनशाला की तलाश की। उसमें मैं अकेला ग्राहक था। रिसेप्शनिस्ट से लेकर वेटर तक भी एक ही आदमी दिख रहा था। थाली का रेट पूछा तो पता चला– 70 रूपये। लेकिन जब थाली के आइटमों के बारे में पूछा तो सामने वाले ने मुझे ऐसे देखा मानो मैंने कोई बहुत बड़ा रहस्य पूछ लिया हो। मैंने आर्डर दे दिया। वैसे 70 रूपए थाली का खाना बहुत ही अच्छा था।
31 मार्च
आज मुझे वापस घर के लिए ट्रेन पकड़नी थी लेकिन उससे पहले भोजशाला देखनी थी। सुबह जल्दी उठकर और नित्यकर्म से निवृत होकर मैं भोजशाला के लिए निकल पड़ा। रास्ता मैं कल का ही देख चुका था। और आज सुबह जब भोजशाला पहुँचा तो मेरे अलावा भोजशाला का कोई भी दर्शक नहीं था। मैंने एक रूपये में टिकट लिया अौर सुरक्षाकर्मियों से गपशप करते हुए भोजशाला में प्रवेश किया। भोजशाला एक सुंदर इमारत है। इसमें स्तम्भों पर आधारित बरामदे बनाए गए हैं। इसके स्तम्भों पर की गयी कारीगरी दर्शनीय है। सन 1034 में परमार शासक राजा भोज ने धार में सरस्वती सदन की स्थापना की। आरम्भ में यह भवन एक विश्वविद्यालय के रूप में था। इसी भवन में वाग्देवी के रूप में सरस्वती की स्थापना की गयी। वर्तमान में इसे ही भोजशाला कहा जाता है। बाद में किसी मुस्लिम शासक ने इसके कुछ हिस्सों को तोड़कर इसे मस्जिद का रूप देने का प्रयास किया। इतिहासकारों के अनुसार सन 1875 में हुई खुदाई के दौरान यहाँ से वाग्देवी की प्रतिमा प्राप्त हुई। सन 1909 में धार रियासत द्वारा भोजशाला को संरक्षित स्मारक घोषित किया गया। 1935 में धार रियासत द्वारा ही भोजशाला परिसर में शुक्रवार के दिन जुमे की नमाज पढ़ने की अनुमति दी गयी। इन बे–सिर पैर के आदेशों की वजह से एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर विवादित बना दी गयी और जहाँ इसका पुरातात्विक महत्व होना चाहिए था वहीं धार्मिक विवादों ने इसे अपने कब्जे में ले लिया। सुबह की पीली धूप में भोजशाला के पर्याप्त फोटो खींचने के बाद मैं वापस लौट पड़ा।
9.30 बजे मुझे धार से इंदौर के लिए बस मिल गयी और 10.15 बजे मैं इंदौर पहुँच गया। इंदौर में दो बस स्टैण्ड हैं। संयोग से धार से इंदौर जाने वाली मेरी बस पहुँची एक स्टैण्ड पर और मुझे उज्जैन के लिए बस मिली दूसरे बस स्टैण्ड से। इस प्रक्रिया में आटो वालों के फेर में पड़ने और बेवकूफ बनने में काफी समय लगा और मैं 12.30 बजे इंदौर से चलकर लगभग दो बजे उज्जैन पहुँच सका। यहाँ भी मैं बस स्टैण्ड में ऑटो वालों के हत्थे चढ़ने से बाल–बाल बचा क्योंकि मेरे भाग्य से सिटी बस मिल गयी। सिटी बस की यात्रा भी काफी मीठी रही क्योंकि बस स्टैण्ड से रेलवे स्टेशन का किराया 9 रूपए है और कण्डक्टर एक रूपए लौटाने की बजाय टाफी दे रहा था। मेरी ट्रेन इंदौर–राजेन्द्रनगर पटना एक्सप्रेस 3.45 बजे थी तो मेरे पास काफी समय था। उज्जैन रेलवे स्टेशन के सामने एक अच्छे रेस्टोरेण्ट में मैंने भरपेट खाना खाया,रात के लिए खाना पैक कराया और ट्रेन पकड़ने के लिए रेलवे स्टेशन पहुँच गया।
भोजशाला के बाहर बनी कुछ इमारतें–
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. असीरगढ़–रहस्यमय किला
2. बुरहानपुर–यहाँ कुछ खो गया है
3. ओंकारेश्वर–शिव सा सुंदर
4. महेश्वर
5. माण्डू–सिटी ऑफ जाॅय (पहला भाग)
6. माण्डू–सिटी ऑफ जाॅय (दूसरा भाग)
7. धार–तलवार की धार पर
विन्ध्य की गोद में बसे माण्डव के पहाड़– अधिकांशतः साँवले। कुछ–कुछ लाल भी। सूखे मौसम में अपने साँवले बदन को हरियाली विहीन पेड़ों की भूरी चादर से छ्पिाने की असफल कोशिश करते ये पहाड़ काफी उदासी में डूबे हुए लग रहे थे। इनमें सादगी है। अकड़ नहीं है। किताबों में पढ़ा है कि ये पहाड़ काफी प्राचीन हैं। बुजुर्ग हैं। जीवन की सांध्य वेला में हैं। इन्होंने भी नदियों की धार को झेला है। हवाओं के वेग को सहा है। लेकिन अब शायद और नहीं सहा जाता। हर कोई इनकी छाती चीरने को आतुर है। और तो और हवा के सहारे पर उड़ने वाले क्षुद्र बादल भी इनकी झुकी कमर के चलते इन्हें आँखें दिखाकर हिमालय की गोद में चले जाते हैं। इनका दर्द जवानी के मद में चूर हिमालय क्या जाने। हिमालय अभी युवा है। तनकर सीधा खड़ा है।हिमालय की ऊँचाई उसे शीतलता प्रदान करती है। नदियों को यौवन देती है। बदले में नदियां उसे जीवन का सार तत्व जल देती हैं। यह जल हिमालय को हरियाली देता है। और इस हरियाली से सजा हिमालय किसी नई नवेली दुल्हन सा सजा सँवरा अभी यौवन के अभिमान में है।
अचानक मनुष्यों और गाँवों का जंगल दिखने लगा तो मेरे पहाड़ चिन्तन में बाधा पड़ी। मैं पहाड़लोक से मैदानलोग में आ गिरा। मुझे याद आया कि मैं बस में बैठा धारा नगरी जा रहा हूँ। कहते हैं कि राजा बैरसिंह ने यहाँ पर अपनी तलवार की धार का परीक्षण किया था और इस शक्ति परीक्षण के आधार पर उस नगर का नाम धारा नगरी पड़ गया। कालान्तर में यह नाम धार नगरी के नाम से जाना जाने लगा। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं प्राचीन समय में यहाँ तलवारों पर धार चढ़ाई जाती थी और इस वजह से इस स्थान का नाम धारा नगरी पड़ गया।
धारा नगरी का अस्तित्व अत्यन्त प्राचीन काल से रहा है। एक लम्बे समय तक धारा नगरी मालवा पर शासन करने वाले परमार शासकों की राजधानी के रूप में विख्यात रही है। 9वीं शताब्दी से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक मालवा पर परमार वंश के राजाओं का शासन रहा। परमार शासकों में राजा भोज सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक रहे। भोज ने 1010 से 1055 तक शासन किया। भोज ने ही धारा नगरी की स्थापना की तथा अपनी राजधानी उज्जैन से धार स्थानान्तरित कर दी। परमार शासकों के समय में माण्डव तथा धार मालवा के प्रमुख केन्द्र के रूप में थे। 1305 में अलाउद्दीन खिलजी ने धार पर अधिकार कर लिया। इसके बाद 1401 तक मालवा दिल्ली के नियंत्रण में रहा। 1401 में दिलावर खां गौरी ने मालवा की शासन सत्ता सँभाली। इसके साथ ही उसने स्वतंत्र मालवा राज्य की स्थापना की तथा अपनी राजधानी धार से माण्डव ले गया। होशंगशाह इसी का उत्तराधिकारी था जिसका मकबरा माण्डू में बना हुआ है। 1531 तक माण्डव के सुल्तान मालवा पर शासन करते रहे। इसके बाद अफगान शासक शेरशाह सूरी ने माण्डव पर अधिकार कर लिया और शुजात खां को शासक बनाया। शुजात खां का उत्तराधिकारी बाज बहादुर था। इसी बाज बहादुर और रानी रूपमती की प्रेम कथाएं माण्डव में काफी चर्चित रहीं। अकबर के शासन काल के दौरान मुगल सेना ने माण्डव पर अधिकार कर लिया। मुगलों के बाद मालवा मराठा शासकों के अधिकार में आ गया। बाद में जब पेशवा बाजीराव ने सम्पूर्ण मालवा का होल्कर,सिंधिया और पंवार सरदारों में विभाजन किया तो धार का क्षेत्र आनन्द राव पंवार को दे दिया गया। 1818 केे तृतीय आंग्ल–मराठा युद्ध के बाद धार का क्षेत्र अंग्रेजों के हाथ में चला गया। बाद में 1860 में पंवार वंश के नाबालिग उत्तराधिकारी आनन्द राव पंवार तृतीय को अंग्रेजों द्वारा यहाँ का राजा घोषित कर दिया गया और एक रियासत के रूप में धार का शासन भारत की स्वतंत्रता तक चलता रहा।
11.45 बजे माण्डव से चलकर मेरी बस 1.15 बजे धार पहुँची। बस से उतरकर पहले समोसे वाले के यहाँ पेट की आग बुझायी। बाहर तो सूर्यदेव आग बरसा ही रहे थे जो बुझने वाली नहीं थी। बस स्टैण्ड के सामने सड़क के दूसरी तरफ कई लॉज हैं। लेकिन अधिकांश का एक ही फिक्स फार्मूला है– नीचे दुकान ऊपर मकान। और मकान के कमरे चाहे जिस उद्देश्य से बनाए गए हों,आज लॉजिंग के काम आ रहे हैं। मुझे भी राजा भोज की धार नगरी में एक रात बिताने के लिए एक कमरे की जरूरत थी तो मैं भी एक–दो एेसे ही मकानों की ओर बढ़ा। एक दो बड़े होटल भी दिख रहे थे लेकिन उधर का रूख करने की यहाँ कोई गुंजाइश नहीं थी। एक बड़ी मकान के निचले भाग में दुकान चला रहे एक महोदय से बात हुई तो बिचारे कमरा दिखाने के लिए ऊपर ले गए। पाँच बड़े–बड़े कमरों में तीन–तीन,चार–चार बेड लगे हुए थे। अटैच्ड बाथरूम किसी में नहीं था। महोदय ने बताया कि किसी भी लॉज में जाएंगे तो ऐसा ही मिलेगा। वैसे मुझे भी इस तथ्य पर रिसर्च नहीं करनी थी तो ऐसा ही एक कमरा 150 रूपए में बुक कर लिया। शर्त यह लगी कि बेड चाहे कितने ही लगे हों,कमरा सिर्फ मेरा ही रहेगा। दूसरा कोई इसमें नहीं इन्ट्री करेगा। अब तो मजे ही मजे थे। चार बेड वाले कमरे में रात को हर बेड पर दो–दो घण्टे सोने को मिलेगा।
वैसे इन कमरों की एक और सच्चाई से वाकिफ होना अभी बाकी था। कमरे में सामान रखने के बाद जब मैं टायलेट में गया और नल खोला तो पानी से आ रही तीव्र गंध से आमना–सामना हुआ। मैं अभी इससे एडजस्ट करने की कोशिश ही कर रहा था कि नल के नीचे रखी बाल्टी पानी के साथ साथ तेज बदबूदार झाग से भर उठी। अब मैं कुछ और सच्चाई जान लेना चाह रहा था। टायलेट से कुछ हटकर बने बाथरूम में पहुँचा कि जरा इसके पानी की भी जाँच कर ली जाय तो मेरा संदेह ठीक निकला। नहाने के लिए भी वही पानी आ रहा था। अब मैं भागते हुए दो मंजिल नीचे लॉज मैनेजर–कम–दुकानदार के पास पहुँचा और और अपनी व्यथा–कथा सुनाई। साथ ही पीने के पानी की भी माँग की। लॉज मैनेजर ने भी अपनी व्यथा–कथा सुनाई और शहर में पानी की कमी का रोना रोया। साथ ही जानकारी दी कि ठण्डा पानी बस स्टैण्ड के सामने पुलिस बूथ के पास लगे नल से मिल जाएगा। मैंने सोचा कि चलो यह भी एड्जस्ट कर लेते हैं। सिर्फ एक रात की ही तो बात है। कौन सी यहाँ गृहस्थी बसानी है। मुझे तो मतलब सिर्फ धार के किले और राजा भोज की भोजशाला से है।
2.30 बज रहे थे और धूप अपनी चरम सीमा पर थी। मैंने कुछ देर आराम कर लेना ही बेहतर समझा। एक घण्टे बाद बाहर निकला। लॉज मैनेजर से भोजशाला का रास्ता पूछा और चल पड़ा। लगभग एक किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद भोजशाला के गेट पर पहुँचा तो वहाँ तैनात सुरक्षाकर्मी से पता चला कि आज तो शुक्रवार है और आज का दिन भोजशाला केवल नमाजियों के लिए आरक्षित है। मैं बैरंग बस स्टैण्ड की ओर वापस लौटा और धार किले की ओर चल पड़ा। बस स्टैण्ड से किले की भी दूरी लगभग एक किलोमीटर है। किले का गेट सदाबहार भाव से खुला हुआ था। गेट के अन्दर एक स्थान पर रामचरितमानस का पाठ चल रहा था और पास ही मैदान में बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। अन्दर पहुॅंचा तो संग्रहालय का बोर्ड दिखा लेकिन सम्भवतः शुक्रवार होने की वजह से यह भी बन्द था। अब मैंने दाहिनी ओर घूमकर किले की चारदीवारी के साथ साथ बनी पगडण्डी पकड़ ली और किले की परिक्रमा करते हुए चल पड़ा। किले के पूर्वी भाग में कुछ आवासीय भवन दिख रहे थे जो सम्भवतः किले या संग्रहालय के कर्मचारियों के उपयोग में होंगे। किले की चारदीवारी से पूरा धार शहर दिखता है। किले के उत्तरी भाग में कुछ प्राचीन इमारतों के खण्डहर दिख रहे थे जहाँ एक जोड़ा लैला–मजनू का भी दिख रहा था। इन खण्डहरों के आस–पास पुरातत्व विभाग के कुछ बोर्ड लगे हुए हैं लेकिन इन पर लिखा हुआ सब कुछ मिट चुका है। सामान्य से दिखते इन खण्डहरों के बारे में यहाँ कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। पास में ही मोटरसाइकिल पर स्टंट करने वाले कुछ लड़के भी पहुँचे हुए थे जो भाँति–भाँति की मुद्राओं में फोटोग्राफी का कार्य कर रहे थे। लैला–मजनू भी इनकी हरकतों से काफी परेशान दिख रहे थे। मुझे किसी से कोर्इ परेशानी नहीं थी। साथ ही मुझसे भी किसी को कोई परेशानी नहीं होनी थी। लगभग दो–ढाई घण्टे तक किले में किसी प्रेतात्मा की तरह बेवजह भटकने के बाद मैं वापस लौटा।
7.30 बजे एक भोजनशाला की तलाश की। उसमें मैं अकेला ग्राहक था। रिसेप्शनिस्ट से लेकर वेटर तक भी एक ही आदमी दिख रहा था। थाली का रेट पूछा तो पता चला– 70 रूपये। लेकिन जब थाली के आइटमों के बारे में पूछा तो सामने वाले ने मुझे ऐसे देखा मानो मैंने कोई बहुत बड़ा रहस्य पूछ लिया हो। मैंने आर्डर दे दिया। वैसे 70 रूपए थाली का खाना बहुत ही अच्छा था।
31 मार्च
आज मुझे वापस घर के लिए ट्रेन पकड़नी थी लेकिन उससे पहले भोजशाला देखनी थी। सुबह जल्दी उठकर और नित्यकर्म से निवृत होकर मैं भोजशाला के लिए निकल पड़ा। रास्ता मैं कल का ही देख चुका था। और आज सुबह जब भोजशाला पहुँचा तो मेरे अलावा भोजशाला का कोई भी दर्शक नहीं था। मैंने एक रूपये में टिकट लिया अौर सुरक्षाकर्मियों से गपशप करते हुए भोजशाला में प्रवेश किया। भोजशाला एक सुंदर इमारत है। इसमें स्तम्भों पर आधारित बरामदे बनाए गए हैं। इसके स्तम्भों पर की गयी कारीगरी दर्शनीय है। सन 1034 में परमार शासक राजा भोज ने धार में सरस्वती सदन की स्थापना की। आरम्भ में यह भवन एक विश्वविद्यालय के रूप में था। इसी भवन में वाग्देवी के रूप में सरस्वती की स्थापना की गयी। वर्तमान में इसे ही भोजशाला कहा जाता है। बाद में किसी मुस्लिम शासक ने इसके कुछ हिस्सों को तोड़कर इसे मस्जिद का रूप देने का प्रयास किया। इतिहासकारों के अनुसार सन 1875 में हुई खुदाई के दौरान यहाँ से वाग्देवी की प्रतिमा प्राप्त हुई। सन 1909 में धार रियासत द्वारा भोजशाला को संरक्षित स्मारक घोषित किया गया। 1935 में धार रियासत द्वारा ही भोजशाला परिसर में शुक्रवार के दिन जुमे की नमाज पढ़ने की अनुमति दी गयी। इन बे–सिर पैर के आदेशों की वजह से एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर विवादित बना दी गयी और जहाँ इसका पुरातात्विक महत्व होना चाहिए था वहीं धार्मिक विवादों ने इसे अपने कब्जे में ले लिया। सुबह की पीली धूप में भोजशाला के पर्याप्त फोटो खींचने के बाद मैं वापस लौट पड़ा।
9.30 बजे मुझे धार से इंदौर के लिए बस मिल गयी और 10.15 बजे मैं इंदौर पहुँच गया। इंदौर में दो बस स्टैण्ड हैं। संयोग से धार से इंदौर जाने वाली मेरी बस पहुँची एक स्टैण्ड पर और मुझे उज्जैन के लिए बस मिली दूसरे बस स्टैण्ड से। इस प्रक्रिया में आटो वालों के फेर में पड़ने और बेवकूफ बनने में काफी समय लगा और मैं 12.30 बजे इंदौर से चलकर लगभग दो बजे उज्जैन पहुँच सका। यहाँ भी मैं बस स्टैण्ड में ऑटो वालों के हत्थे चढ़ने से बाल–बाल बचा क्योंकि मेरे भाग्य से सिटी बस मिल गयी। सिटी बस की यात्रा भी काफी मीठी रही क्योंकि बस स्टैण्ड से रेलवे स्टेशन का किराया 9 रूपए है और कण्डक्टर एक रूपए लौटाने की बजाय टाफी दे रहा था। मेरी ट्रेन इंदौर–राजेन्द्रनगर पटना एक्सप्रेस 3.45 बजे थी तो मेरे पास काफी समय था। उज्जैन रेलवे स्टेशन के सामने एक अच्छे रेस्टोरेण्ट में मैंने भरपेट खाना खाया,रात के लिए खाना पैक कराया और ट्रेन पकड़ने के लिए रेलवे स्टेशन पहुँच गया।
धार किले का मुख्य द्वार |
किले की चारदीवारी |
किले में बने म्यूजियम की छत |
किले की प्राचीर पर लहराता तिरंगा |
किले की दीवार के साथ साथ बनी पगडंडी |
किले में बना एक भवन |
किले में से दूर दिखती पवनचक्कियां |
धार की प्रसिद्ध भोजशाला |
भोजशाला में बने स्तम्भ |
भाेजशाला की छत में की गई कारीगरी |
भोजशाला को तोड़कर संभवतः यही भाग बाद में जोड़ा गया |
भोजशाला में बनी जालियां |
भोजशाला का प्रवेश द्वार |
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. असीरगढ़–रहस्यमय किला
2. बुरहानपुर–यहाँ कुछ खो गया है
3. ओंकारेश्वर–शिव सा सुंदर
4. महेश्वर
5. माण्डू–सिटी ऑफ जाॅय (पहला भाग)
6. माण्डू–सिटी ऑफ जाॅय (दूसरा भाग)
7. धार–तलवार की धार पर
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ReplyDeleteबहुत ही शानदार यात्रा
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद हरि गोविन्द जी ब्लॉग पर आकर प्रोत्साहन देने के लिए।
DeleteAmazing n real delivery
ReplyDeleteThanks Sir
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