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और अब गुफा संख्या 16 का कैलाश मंदिर–
अगला भाग ः देवगिरि उर्फ दौलताबाद
गुफा संख्या 29 घूम लेने के बाद अब हमें गुफा संख्या 30-34 में जाना था। इसके लिए हमें पुनः तिराहे तक वापस आकर सड़क पकड़नी पड़ती। मैंने वहाँ तैनात सुरक्षा गार्ड से पूछा तो उसने शार्टकट बता दिया। चट्टानों और झाड़ियों के बीच से होकर जाने वाली पगडण्डी पर हम चलते बने। बसें भी दूर से दिख रही थीं। ऊँचे–नीचे रास्ते पर चलते हुए संगीता कुढ़ रही थी और साथ ही मुझे कोस भी रही थी। दूर पक्की सड़क पर चलती बसों को देखकर यह कुढ़न और भी बढ़ जा रही थी। वैसे यह दूरी आधा किमी से अधिक नहीं है। जल्दी ही हम भी अपनी मंजिल तक पहुँच गये। अर्थात गुफा संख्या 30-34 में।
गुफा संख्या 30-34 जैन धर्म से सम्बन्धित हैं। ये गुफाएं हिंदू धर्म की अंतिम गुफा अर्थात गुफा संख्या 29 से लगभग एक किमी दूरी पर हैं जिसे हम शार्टकट रास्ते से पैदल तय करके पहुँचे थे। जैन धर्म के भी दो संप्रदाय हैं–दिगम्बर तथा श्वेताम्बर। दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी भगवान महावीर के उपदेशों का कठोरता से पालन करते हैं तथा नग्न रहते हैं जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी श्वेत वस्त्र धारण करते हैं। एलोरा की जैन गुफाएं दिगम्बर सम्प्रदाय से संबन्धित हैं। इन गुफाआें में जैन तीर्थंकरों के साथ साथ हिंदू देवी–देवताओं की मूर्तियां भी अंकित की गयी हैं। गुफा संख्या 30 में दूर से देखने पर बिल्कुल कैलाश मंदिर जैसी प्रतिकृति दिखायी पड़ती है। वैसे इसमें मूर्तियां जैन तीर्थंकरों की ही मिलती हैं। गुफा संख्या 31 में महावीर,पार्श्वनाथ और गोमतेश्वर की मूर्तियां अंकित हैं।
गुफा संख्या 32 तीन मंजिली है तथा काफी बड़ी है। इस गुफा का निर्माण 10वीं-11वीं शताब्दी में हुआ था। इसकी दूसरी मंजिल पर स्थित मातंग की प्रतिमा को भ्रमवश इंद्र समझ लिये जाने के कारण इसे इंद्र सभा कहा जाने लगा। गुफा के खुले प्रांगण में स्थित एकाश्मक हाथी तथा एकाश्मक मानस्तंभ जैन धर्म की कीर्ति के प्रतीक हैं। गुुफा में पार्श्वनाथ,गोमतेश्वर,मातंग तथा सिद्धिका की मूर्तियां अंकित हैं। प्रांगण के मध्य में मण्डप स्थित है जिसमें भगवान महावीर की सर्वतोभद्र प्रतिमा स्थापित है। मण्डप में चारों तरफ प्रवेश द्वार हैं।
गुफा संख्या 33 दुमंजिली है। इसका निर्माण 10वीं-11वीं शताब्दी में हुआ था। यह गुफा जगन्नाथ सभा के नाम से जानी जाती है। गुफा की दोनों मंजिलों पर बरामदे,स्तम्भों पर आधारित सभामण्डप तथा गर्भगृह बनाये गये हैं। ऊपर की मंजिल के गर्भगृह में महावीर,मातंगा और सिद्धिका की मूर्तियां बनी हैं। गुफा संख्या 34 में महावीर और अन्य तीर्थंकरों की मूर्तियां हैं।
सारी गुफाओं में घूम लेने के बाद अब हमें गुफा संख्या 16 में बने कैलाश मंदिर जाना था क्योंकि अधिक भीड़ के चलते हम उसे छोड़ आये थे। संगीता को पैदल चलने की इच्छा नहीं थी तो बस का सहारा लिया गया और अगले दो–तीन मिनट में हम टिकट काउण्टर के पास स्िथत बस स्टैण्ड पहुँच गये। लगभग एक किमी की दूरी है। एक बात समझ में नहीं आयी और वो ये कि बस में टिकट नहीं बन रही थी। अजंता में तो बस में चढ़ने के पहले ही किराया जमा हाे जा रहा था। यह भी संभव है कि पर्यटन विभाग यह निःशुल्क सेवा दे रहा हो। लेकिन जब अजंता में टिकट है तो यहाँ क्यों नहीं। संदेह मिटाने के लिए हम पाँच मिनट के लिए बस स्टैण्ड पर खड़े हो गये तो पता चला कि यहाँ भी बस में चढ़ने के पहले ही टिकट बनायी जा रही है। अंतर केवल इतना है कि यहाँ दोनों तरफ की टिकट एक ही साथ बनायी जा रही है। किराया है 21 रूपये। इसका मतलब ये कि जो टिकट ले कर बस से गया है वह वापसी भी उसी टिकट पर कर लेगा। हम तो पैदल गये थे सो हमारे पास टिकट थी ही नहीं। वापसी में हम बस में चढ़ गये। हमसे किसी ने टिकट माँगी नहीं इसलिए हम बच गये,नहीं तो पकड़े गये होते।
बस स्टैण्ड से गुफा संख्या 16 या कैलाश मंदिर 100 मीटर के आस–पास है। 11.30 बज रहे थे। जल्दी ही हम वहाँ पहुँच गये। भीड़ सुबह की तुलना में कुछ बढ़ ही गयी थी। हमने अंदर प्रवेश किया तो पैर रखने की भी जगह नहीं थी। हम औरंगाबाद आये ही थे भीड़ वाले समय पर। लगातार छुटि्टयां जो पड़ रही थीं। अपनी किस्मत को कोसते हुए हम भी भीड़ में शामिल हो गये।
एलोरा की गुफा संख्या 16 या कैलाश मंदिर दक्षिण भारतीय शिल्पकला का अप्रतिम उदाहरण है। इसे देखते हुए न तो आँखें हट रही थीं न ही मन संतुष्ट हो रहा था। उस समय में,जबकि आज के जमाने की तरह न तो संसाधन उपलब्ध थे और न ही आधुनिक यंत्रों का आविष्कार हुआ था,एक ही चट्टान को काटकर बनाया गया यह शिल्प अविश्वसनीय सच का नमूना पेश करता है। हम इस बात की कल्पना ही कर सकते हैं कि उस महान शिल्पी ने किस तरह इस निर्मिति की योजना तैयार की होगी और किस तरह इसे मूर्त रूप दिया होगा। वास्तव में मानव मस्तिष्क की असीमित क्षमता का भान ऐसे ही रचनात्मक कार्याें को देखकर होता है।
कैलाश मंदिर का निर्माण राष्ट्रकूट वंश के दो शासकों दंतिदुर्ग (735-757 ई0) तथा कृष्ण प्रथम (757-773 ई0) द्वारा कराया गया। किंवदंती है कि इस मंदिर का निर्माण 10 पीढ़ियों द्वारा 200 वर्षों में किया गया। यह एक एकाश्मक निर्माण है जिसमें पहाड़ को ऊपर से नीचे तथा बाहर से अंदर से की ओर काटकर मंदिर के रूप में परिवर्तित किया गया। वैसे मुख्य भवन के निर्माण के बाद इसके अलंकरण का कार्य अन्य राष्ट्रकूट राजाओं की देखरेख में भी जारी रहा। कैलाश मंदिर शिव निवास के रूप में भी जाना जाता है। इस मंदिर का भवन दुमंजिला है जिसकी लंबार्इ 276 फुट,चौड़ाई 154 फुट तथा ऊँचाई 95 फुट है। मंदिर के वास्तुशिल्प का संबंध दक्षिण भारतीय निर्माण शैली से है। पट्टडकल का विरूपाक्ष मंदिर भी इसी शैली में बना है। कैलाश मंदिर में प्रवेश द्वार,नंदी मण्डप,गर्भगृह,गलियारा,बरामदे तथा अन्य गौण मंदिर भी बनाये गये हैं। मुख्य मंदिर एक चबूतरे पर स्थापित है। इस चबूतरे के चारों ओर हाथी व सिंह की आकृतियां इस प्रकार बनी हैं जिन्हें देखकर प्रतीत होता है कि इन्हीं के ऊपर मुख्य मंदिर टिका हुआ है। मण्डप की छत सोलह स्तम्भों पर टिकी है जो चार–चार के समूहों में बने हैं। मंदिर के तीन ओर गलियारा या प्रदक्षिणापथ है। गलियारे के बाद स्तंभों पर आधारित कोठरियाँ या बरामदे बने हैं। नंदीमण्डप मुख्य मंदिर के सामने बनाया गया है। मंदिर के प्रवेश द्वार के दोनों ओर पत्थरों को काटकर हाथियों की मूर्तियां तथा इनके पास स्तंभ बनाये गये हैं।
मंदिर की दीवारों पर अनेक देवी–देवताओं की मूर्तियों का अंकन किया गया है। इनमें दक्षिण की ओर रावण द्वारा शीश चढ़ाने,शिव–पार्वती,सर्पधारी शिव,शिव पार्वती वार्तालाप,कुबेर,रावण द्वारा कैलाश पर्वत उठाने तथा बाणधारी शिव इत्यादि की मूर्तियां अंकित की गयी हैं। पश्चिम की ओर शिव–पार्वती विवाह,अंधकासुरवध,त्रिपुरासुरवध,लकुलेश शिव,गंगाधर शिव,हरिहर,विष्णु,शिव,ब्रह्मा,शिव नृत्य इत्यादि की मूर्तियां अंकित हैं। उत्तर तरफ अर्द्धनारीश्वर,शिव,रावण द्वारा लिंग उठाने का प्रयास,नरसिंह अवतार,शेषयायी नारायण,गाेवर्धनधारी कृष्ण,वामन अवतार,गरूड़ारूढ़ विष्णु,वाराह मर्दन,कालिय मर्दन,विष्णु,अन्नपूर्णा आदि की मूर्तियां हैं। कैलाश मंदिर में दीवारों पर चित्र भी बनाये गये थे जिनमें से अधिकांश वर्तमान में मिट चुके हैं। सुंदर चित्रकारी के कारण ही कैलाश मंदिर को रंगमहल भी कहा जाता है।
कुल मिलाकर कैलाश मंदिर दक्षिण भारतीय शिल्पकला का अद्भुत उदाहरण है। इसकी निर्माण प्रक्रिया के बारे में सोचने पर आश्चर्य होता है कि छेनी और हथौड़े की सहायता से कैसे इस गुरूतर कार्य को पूर्ण किया गया होगा। एक अनुमान के अनुसार इसके निर्माण के लिए सर्वप्रथम इसको इसकी मूल चट्टान से अलग किया गया तथा 40 हजार टन भार के पत्थरों को उनके स्थान से हटाया गया होगा और उसके बाद मंदिर निर्माण का कार्य किया गया होगा।
कैलाश मंदिर का निर्माण राष्ट्रकूट वंश के दो शासकों दंतिदुर्ग (735-757 ई0) तथा कृष्ण प्रथम (757-773 ई0) द्वारा कराया गया। किंवदंती है कि इस मंदिर का निर्माण 10 पीढ़ियों द्वारा 200 वर्षों में किया गया। यह एक एकाश्मक निर्माण है जिसमें पहाड़ को ऊपर से नीचे तथा बाहर से अंदर से की ओर काटकर मंदिर के रूप में परिवर्तित किया गया। वैसे मुख्य भवन के निर्माण के बाद इसके अलंकरण का कार्य अन्य राष्ट्रकूट राजाओं की देखरेख में भी जारी रहा। कैलाश मंदिर शिव निवास के रूप में भी जाना जाता है। इस मंदिर का भवन दुमंजिला है जिसकी लंबार्इ 276 फुट,चौड़ाई 154 फुट तथा ऊँचाई 95 फुट है। मंदिर के वास्तुशिल्प का संबंध दक्षिण भारतीय निर्माण शैली से है। पट्टडकल का विरूपाक्ष मंदिर भी इसी शैली में बना है। कैलाश मंदिर में प्रवेश द्वार,नंदी मण्डप,गर्भगृह,गलियारा,बरामदे तथा अन्य गौण मंदिर भी बनाये गये हैं। मुख्य मंदिर एक चबूतरे पर स्थापित है। इस चबूतरे के चारों ओर हाथी व सिंह की आकृतियां इस प्रकार बनी हैं जिन्हें देखकर प्रतीत होता है कि इन्हीं के ऊपर मुख्य मंदिर टिका हुआ है। मण्डप की छत सोलह स्तम्भों पर टिकी है जो चार–चार के समूहों में बने हैं। मंदिर के तीन ओर गलियारा या प्रदक्षिणापथ है। गलियारे के बाद स्तंभों पर आधारित कोठरियाँ या बरामदे बने हैं। नंदीमण्डप मुख्य मंदिर के सामने बनाया गया है। मंदिर के प्रवेश द्वार के दोनों ओर पत्थरों को काटकर हाथियों की मूर्तियां तथा इनके पास स्तंभ बनाये गये हैं।
मंदिर की दीवारों पर अनेक देवी–देवताओं की मूर्तियों का अंकन किया गया है। इनमें दक्षिण की ओर रावण द्वारा शीश चढ़ाने,शिव–पार्वती,सर्पधारी शिव,शिव पार्वती वार्तालाप,कुबेर,रावण द्वारा कैलाश पर्वत उठाने तथा बाणधारी शिव इत्यादि की मूर्तियां अंकित की गयी हैं। पश्चिम की ओर शिव–पार्वती विवाह,अंधकासुरवध,त्रिपुरासुरवध,लकुलेश शिव,गंगाधर शिव,हरिहर,विष्णु,शिव,ब्रह्मा,शिव नृत्य इत्यादि की मूर्तियां अंकित हैं। उत्तर तरफ अर्द्धनारीश्वर,शिव,रावण द्वारा लिंग उठाने का प्रयास,नरसिंह अवतार,शेषयायी नारायण,गाेवर्धनधारी कृष्ण,वामन अवतार,गरूड़ारूढ़ विष्णु,वाराह मर्दन,कालिय मर्दन,विष्णु,अन्नपूर्णा आदि की मूर्तियां हैं। कैलाश मंदिर में दीवारों पर चित्र भी बनाये गये थे जिनमें से अधिकांश वर्तमान में मिट चुके हैं। सुंदर चित्रकारी के कारण ही कैलाश मंदिर को रंगमहल भी कहा जाता है।
कुल मिलाकर कैलाश मंदिर दक्षिण भारतीय शिल्पकला का अद्भुत उदाहरण है। इसकी निर्माण प्रक्रिया के बारे में सोचने पर आश्चर्य होता है कि छेनी और हथौड़े की सहायता से कैसे इस गुरूतर कार्य को पूर्ण किया गया होगा। एक अनुमान के अनुसार इसके निर्माण के लिए सर्वप्रथम इसको इसकी मूल चट्टान से अलग किया गया तथा 40 हजार टन भार के पत्थरों को उनके स्थान से हटाया गया होगा और उसके बाद मंदिर निर्माण का कार्य किया गया होगा।
एलोरा में कैलाश मंदिर हमारी अंतिम मंजिल थी। इसके बाद हम एलोरा परिसर से बाहर निकले। टिकट काउण्टर पर टिकट लेने के बाद हम तो बिना रूके अंदर दाखिल हो गये थे लेकिन इस समय तो सैकड़ों की लाइन लग गयी थी। हम बहुत भाग्यशाली थे। एलोरा से बाहर निकलते हुए मैं बार–बार मुड़–मुड़ कर कैलाश मंदिर की ओर देख रहा था। इच्छा हो रही थी कि वापस लौटकर एक बार फिर से देख लूँ। लेकिन प्रवेश द्वार पर लगी भारी भीड़ की वजह से अब यह संभव नहीं था।
अब हमारी अगली मंजिल थी घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिग। यह मंदिर चालीसगाँव जाने वाली मुख्य सड़क पर एलोरा से लगभग 1 किमी दूर स्थित है। अभी हम पैदल ही वहाँ के लिए निकलने की सोच ही रहे थे कि एक ऑटो वाले को हम पर दया आ गयी। किराया केवल 10 रूपये था तो हमने उसकी दया स्वीकार कर ली। कुछ ही मिनटों में हम घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग पहुँच गये। आटो से उतरकर दो मिनट के भीतर ही हम मंदिर के मुख्य द्वार तक पहुँच गये। अंदर की तरफ बढ़े तो वहाँ तैनात खाकी वर्दी वाले ने भगा दिया। बोला कि लाइन से आओ। वास्तव में लाइन लगी थी। हम भी लाइन के बगल से होते हुए उसके पीछे की ओर चल पड़े। ठीक उसी तरह से जैसे कोई साहसी पर्वतारोही नदी के किनारे–किनारे चलते हुए उसके उद्गम की ओर जा रहा हो। अब किसी बहादुर व्यक्ति से अपनी तुलना करके कुछ देर के लिए स्वयं के बहादुर होने की खुशी को तो महसूस किया ही जा सकता है। क्या बुराई हैǃ लेकिन यह क्याǃ लाइन तो द्रौपदी की साड़ी हो गयी थी। इसका अंत कहीं दिख ही नहीं रहा था। हार मानकर हमने दरवाजे से ही भगवान शिव को प्रणाम किया। क्योंकि अगर ऐसा नहीं करते तो हमारा सारा कार्यक्रम गड़बड़ा जाता। समय की कमी थी।
घृष्णेश्वर मंदिर का निर्माण राजा कृष्ण देव राय ने 10वीं शताब्दी में कराया था। यह मंदिर लाल बलुआ पत्थर से बना है। बाद में इंदौर की रानी अहिल्याबाई होल्कर ने 18वीं शताब्दी में सम्पूर्ण मंदिर का जीर्णाेद्धार कराया। घृष्णेश्वर मंदिर के शीर्ष की बनावट अद्भुत है। इसके शीर्ष पर बारीक कारीगरी की गयी है। घृष्णेश्वर मंदिर तंजावुर के वृहदेश्वर मंदिर की प्रतिकृति जैसा दिखता है। घृष्णेश्वर को घुश्मेश्वर भी कहा जाता है। इस नाम की उत्पत्ति के बारे में भी एक किंवदंती है। कहते हैं कि देव नामक पर्वत पर सुधर्मा नामक एक धर्मपारायण ब्राह्मण अपनी पत्नी सुदेहा के साथ रहता था। कोई संतान न होने के कारण सुदेहा काफी दुखी रहती थी। अंततः सुदेहा की बात मानकर सुधर्मा ने सुदेहा की पत्नी घुश्मा से विवाह कर लिया। सभी प्रेम से रहने लगे। समय आने पर घुश्मा को पुत्र प्राप्ति हुई। घुश्मा भगवान शिव की परम भक्त थी और एक तालाब के किनारे नित्य पार्थिव शिवपूजन करती थी। कुछ समय बाद सुदेहा के मन में अपनी बहन के प्रति ईर्ष्या उत्पन्न हो गयी और एक दिन उसने उसके पुत्र की हत्या कर उसी तालाब में फेंक दिया। घुश्मा दुख से व्याकुल हो उठी पर उसने नित्य की पूजा नहीं छोड़ी। पार्थिव विसर्जन करने जब वह तालाब के किनारे पहुँची तो उसका बालक वहाँ जीवित खड़ा मिला। भगवान शिव ने प्रकट होकर सारा भेद उसे बता दिया लेकिन घुश्मा ने अपनी बहन को क्षमा कर दिया। साथ ही घुश्मा ने शिवजी से वहीं निवास करने की प्रार्थना की। घुश्मा की प्रार्थना स्वीकार कर भगवान शिव घुश्मेश्वर शिवलिंग के रूप में वहीं स्थित हो गये। घुश्मेश्वर बारहवाँ ज्योतिर्लिंग है।
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। उज्जयिन्यां महाकालमोंकारे परमेश्वरम्।।
केदारं हिमवत्पृष्ठे डाकिन्यां भीमशंकरम्। वाराणस्यां च विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।।
वैद्यनाथं चिताभूमौ नागेशं दारूकावने। सेतुबन्धे च रामेशं घुश्मेशं तु शिवालये।।
द्वादशैतानि नामानि प्रातरूत्थाय यः पठेत्। सर्वपापैर्विनिर्मुक्तः सर्वसिद्धिफलं लभेत्।।
सुबह से अबतक हम फलाहार पर ही जीवित थे। भोजन से मुलाकात नहीं हुई थी। मंदिर परिसर में कई छोटे–छाेटे ढाबे–रेस्टोरेण्ट दिख रहे थे तो हमने भी एक में आसन जमा लिया। पास में मंदिर है तो अधिक संभावना है कि सस्ते ही होंगे। क्योंकि धार्मिक स्थलों पर अधिकांशतः दर्शनार्थी ही आते हैं पर्यटक नहीं। यहाँ से हमारा आसन डोला तो फिर सड़क पर पहुँचा। किसी ने बताया था कि खुल्दाबाद में भद्रा मारूति नाम से हनुमान जी का एक बहुत ही सुन्दर मंदिर है। खुल्दाबाद में औरंगजेब का मकबरा भी है। खुल्दाबाद एलोरा से औरंगाबाद की तरफ मुख्य मार्ग पर लगभग 3 किमी की दूरी पर है। अब हम फिर से ऑटो की तलाश में पड़े। एक ऑटो वाला 15 रूपये सवारी के रेट पर चलने को तैयार हुआ। बिचारा भला आदमी था क्योंकि उसी किराये में उसने हमको भद्रा मारूति मंदिर तक छोड़ दिया। मंदिर की दूरी मुख्य मार्ग से लगभग 1 किमी है। इस मंदिर में हनुमान जी की लेटी हुई अवस्था में मूर्ति है जो भारत में अपनी तरह की तीन मूर्तियों में से एक है। इनमें से एक मूर्ति इलाहाबाद के दारागंज में गंगा नदी के किनारे है जबकि दूसरी लेटी हुई मूर्ति मध्य प्रदेश के छ्िंदवाड़ा के जामसांवली नामक स्थान पर है। इलाहाबाद की मूर्ति तो मैंने अपने विद्यार्थी जीवन में ही देखी थी और दूसरी आज यहाँ देख ली। तीसरी भी कभी देखने का प्रयास करूॅंगा। भद्रा मारूति का सम्पूर्ण मंदिर मार्बल से बना हुआ है तथा मंदिर परिसर में मंदिर के आस–पास और भी निर्माण कार्य जारी हैं।
खुल्दाबाद में औरंगजेब का मकबरा भी हम देखना चाह रहे थे जो भद्रा मारूति मंदिर से लगभग डेढ़–दो किमी की दूरी पर स्थित है। मंदिर के पास कोई आटो उपलब्ध नहीं था। अब तक डेढ़ बज चुके थे और अभी हमें दौलताबाद किले में जाना था। इसलिए हमने मकबरे जाने का विचार त्याग दिया। किसी तरह एक ऑटो वाला मिला जो बड़ी मेहनत से 80 रूपये में दौलताबाद चलने को तैयार हुआ।
गुफा संख्या 30 में कैलाश मंदिर की प्रतिकृति |
गुफा संख्या 30 |
और अब गुफा संख्या 16 का कैलाश मंदिर–
गुफा संख्या 16 में कैलाश मंदिर |
घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर का ऊपरी भाग |
अब मंदिर है तो पास में एक मस्जिद तो होनी ही चाहिए |
भद्रा मारूति का शीर्ष |
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
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