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2 बजे हम दौलताबाद किले पहुँचे। दौलताबाद अपने इतिहास,महत्व और विशेषताआें की वजह से कम और मुहम्मद तुगलक के अदूरदर्शी फैसलों की वजह से अधिक जाना जाता है। दौलताबाद का किला औरंगाबाद से एलोरा जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 52 के किनारे स्थित है। मुख्य सड़क छोड़कर किले की ओर बढ़ने पर बायें हाथ टिकट काउण्टर है।किले का प्रवेश शुल्क 15 रूपये है यानी अजंता या एलोरा का आधा। वैसे प्रवेश शुल्क कम या अधिक होने से इसके महत्व में कोई अंतर नहीं आता। इसके बाद दाहिनी तरफ मुड़कर आगे बढ़ने पर बायें हाथ किले का मुख्य प्रवेश द्वार है। मुख्य द्वार से प्रवेश करने पर एक लम्बा पथरीला रास्ता मिलता है।
इस सीधे रास्ते से आगे बढ़ने पर दोनों तरफ किले की कई प्रसिद्ध इमारतें दिखती हैं और अंत में फिर से कई दरवाजों को पार करने के बाद किले की मुख्य इमारत सामने दिखती है। दौलताबाद का किला पर्यटकों के लिए सुबह से शाम तक खुला रहता है।
10वीं से 13वीं शताब्दी में मध्य भारत में स्यूना यादव नामक वंश के राजाओं ने अपना शासन स्थापित किया। इसी वंश के राजा भिल्लम पंचम ने 1192 में देवताओं के पहाड़ या देवगिरि में अपनी राजधानी स्थापित की एवं यहाँ एक अभेद्य दुर्ग का निर्माण कराया। भिल्लम पंचम ने अपने समकालीन हाेयसल,परमार एवं कल्याणी के चालुक्य शासकों पर विजय प्राप्त की। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि इस किले का निर्माण कार्य एलोरा में राष्ट्रकूट राजाओं द्वारा कराये जा रहे गुफा निर्माण कार्याें के साथ ही हुआ। देवगिरि का यह दुर्ग इतना प्रसिद्ध हुआ कि दक्षिण भारत में यह सत्ता केन्द्र का प्रतीक बन गया। बाद में मुगल शासकों ने जब इधर अपना अभियान किया तो सर्वप्रथम यह दुर्ग ही उनका निशाना बना। खिलजी वंश ने देवगिरि पर कई हमलों के बाद सफलता पायी। 1309 में अचानक हुए हमले में यादव शासक कृष्ण देव के पुत्र रामचन्द्र को पराजय का मुँह देखना पड़ा। अपने इस हमले के परिणामस्वरूप अलाउद्दीन खिलजी अपार सम्पत्ति लूटकर दिल्ली ले गया। 1312 में मलिक काफूर ने देवगिरि पर आक्रमण कर रामचंद्र के पुत्र शंकरदेव को अपदस्थ कर मार डाला और हरपालदेव को शासक नियुक्त किया जिसने कालांतर में स्वयं को स्वतंत्र शासक घोष्िात कर लिया।
1325 में जब मुहम्मद तुगलक दिल्ली का सुल्तान बना तो उसने प्रशासनिक सुविधा के लिए अपनी राजधानी दिल्ली से देवगिरि ले जाने का फैसला किया और देवगिरि का नाम बदलकर दौलताबाद (धन या दौलत से भरा हुआ) रखा। यानी देवताओं का पहाड़ अब दौलत से आबाद हो गया। वैसे नाम परिवर्तन के उदाहरणों से हमारा इतिहास भरा पड़ा है। इसकी वजहें चाहे जो भी रही हों। उस समय और आज के जमाने में अंतर केवल इतना है कि उस समय नाम बदलने पर आज की तरह राजनीति संभवतः नहीं होती थी। 1328 में मुहम्मद तुगलक अपनी राजधानी दौलताबाद ले गया लेकिन उसका यह फैसला गलत साबित हुआ। यह गलत फैसला भी भीषण रूप से ऐतिहासिक हो गया। बाद में दक्षिण में मुहम्मद तुगलक की पकड़ कमजाेर होने पर दौलताबाद पर बहमनी शासकों का कब्जा हो गया। 1499 में बहमनी सल्तनत भी पाँच टुकड़ों में बँट गयी जिसमें दौलताबाद अहमदनगर की निजामशाही सल्तनत के अंतर्गत शामिल हो गया। इस काल में औरंगाबाद खड़की नामक एक गाँव था जहाँ से कई दिशाओं में सड़कें निकलती थीं। आज औरंगाबाद एक बड़ा शहर बन गया है जबकि दौलताबाद एक छोटा कस्बा ही रह गया है। कालान्तर में अहमदनगर के निजाम ने इस स्थान के सामरिक महत्व को देखते हुए मलिक अंबर को यहाँ का सूबेदार नियुक्त किया। 1626 में मलिक अंबर के निधन के बाद उसके पुत्र फतेहखान को इसकी जिम्मेदारी दी गयी जिसने खड़की का नाम बदलकर फतेहनगर रखा। 1633 में चार माह के घेरे के बाद दौलताबाद का किला मुगल शासकों के अधीन हो गया। इस समय औरंगजेब दक्कन का वाइसराय था। अौरंगजेब ने फतेहनगर को अपनी राजधानी बनाया। दक्षिण के हाकिम के रूप में आैरंगजेब ने दक्षिण भारत में मुगल सल्तनत के विस्तार में सफलता पायी। बाद में आैरंगजेब ने ही फतेहनगर का नाम औरंगाबाद रखा। मुगलों के बाद यह किला कुछ समय के लिए मराठों के अधीन रहा। 1724 में यहाँ हैदराबाद के निजाम का अधिकार हो गया।
दौलताबाद का यह किला 200 मीटर ऊँची एक शंक्वाकार पहाड़ी पर स्थित है। सम्पूर्ण किला परिसर का क्षेत्रफल लगभग 95 हेक्टेयर है। अपनी अवस्थिति एवं सुरक्षात्मक तकनीकों के कारण यह अजेय किले के रूप में जाना जाता रहा है। किले का भीतरी भाग बुर्जाें से युक्त तिहरी दीवारों– कालाकोट,महाकोट तथा आम्बेरकोट से घिरा हुआ है। अम्बेरकोट नामक दीवार सबसे बाहरी दीवार है जो काफी विस्तृत क्षेत्र को घेरती थी और इसका काफी कुछ हिस्सा नष्ट भी हो चुका है। वर्तमान में किले का मुख्य प्रवेश द्वार महाकोट नामक दीवार में ही स्थित है और यहाँ से गुजरने वाला राजमार्ग महाकोट के बगल से ही गुजरता है। किले के बाहर सूखी और पानी से भरी हुई खाइयां बनायी गयी हैं। महाकोट वाले प्रवेश द्वार से प्रवेश करने पर एक परिसर में छोटे–छोटे कक्षों में तोपें रखी हुईं हैं। ये कक्ष संभवतः पहरेदारों के थे जिनमें अब तोपों को रख दिया गया है।
किले के अंदर कई महत्वपूर्ण इमारतें हैं। किले के अंदर जाने वाले मुख्य रास्ते के बायीं तरफ भारत माता मंदिर एक विशाल परिसर में स्थित है। यह पहले संभवतः कोई जैन मंदिर था। मुख्य द्वार से अंदर प्रवेश करने पर एक बड़े आंगन के तीन तरफ इसमें गैलरियां थीं जिनमें दायीं व बायीं ओर की गैलरियां वर्तमान में अस्तित्व में नहीं हैं जबकि इनके स्तंभों के कुछ हिस्से अभी भी खड़े हैं। सामने की तरफ वाला हिस्सा एक विशाल बरामदे या कक्ष की तरह है जिसकी छत 150 स्तंभों पर टिकी हुई है। इन स्तंभों पर सुंदर नक्काशी की गयी है। इस कक्ष की पिछली दीवार पर भारत माता की मूर्ति स्थापित की गयी है जो संभवतः आधुनिक समय की है। अपने इतिहास में यह परिसर एक मंदिर के रूप में या फिर स्तंभाें पर की गयी कारीगरी के लिए प्रसिद्ध रहा होगा लेकिन वर्तमान में लैला–मजनुओं के लिए काफी मुफीद जगह है।
भारत माता मंदिर की विपरीत दिशा में अर्थात रास्ते के दायीं तरफ चांद मीनार स्थित है। इस मीनार का निर्माण अहमदशाह दि्वतीय बहमनी द्वारा सन 1447 में किया गया था। यह मीनार 70 मीटर ऊँची है जबकि जमीन पर इसकी परिधि 21 मीटर है। इस मीनार के ऊपरी भाग तक जाने के लिए एक चक्करदार सीढ़ी बनी हुई है। इस मीनार का सुंदर दृश्य किले के लगभग सभी भागों से दिखायी पड़ता है। वर्तमान में चाँद मीनार के कुछ छज्जों पर मधुमक्खियों के बड़े–बड़े छत्ते भी बने हुए हैं जो यहाँ आने वाले पर्यटकों पर अलाउद्दीन खिलजी की सेना की तरह कभी भी कहर ढा सकती हैं। चाँद मीनार के पास ही हाथी हौज है। हाथी हौज एक वर्गाकार आकृति का तालाब है जिसमें जमीन के नीचे से पानी के प्रवेश और निकास की व्यवस्था की गयी है। इस तालाब का उपयोग संभवतः सैनिक उद्देश्यों से किया जाता था।
2 बजे हम दौलताबाद किले पहुँचे। दौलताबाद अपने इतिहास,महत्व और विशेषताआें की वजह से कम और मुहम्मद तुगलक के अदूरदर्शी फैसलों की वजह से अधिक जाना जाता है। दौलताबाद का किला औरंगाबाद से एलोरा जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 52 के किनारे स्थित है। मुख्य सड़क छोड़कर किले की ओर बढ़ने पर बायें हाथ टिकट काउण्टर है।किले का प्रवेश शुल्क 15 रूपये है यानी अजंता या एलोरा का आधा। वैसे प्रवेश शुल्क कम या अधिक होने से इसके महत्व में कोई अंतर नहीं आता। इसके बाद दाहिनी तरफ मुड़कर आगे बढ़ने पर बायें हाथ किले का मुख्य प्रवेश द्वार है। मुख्य द्वार से प्रवेश करने पर एक लम्बा पथरीला रास्ता मिलता है।
इस सीधे रास्ते से आगे बढ़ने पर दोनों तरफ किले की कई प्रसिद्ध इमारतें दिखती हैं और अंत में फिर से कई दरवाजों को पार करने के बाद किले की मुख्य इमारत सामने दिखती है। दौलताबाद का किला पर्यटकों के लिए सुबह से शाम तक खुला रहता है।
10वीं से 13वीं शताब्दी में मध्य भारत में स्यूना यादव नामक वंश के राजाओं ने अपना शासन स्थापित किया। इसी वंश के राजा भिल्लम पंचम ने 1192 में देवताओं के पहाड़ या देवगिरि में अपनी राजधानी स्थापित की एवं यहाँ एक अभेद्य दुर्ग का निर्माण कराया। भिल्लम पंचम ने अपने समकालीन हाेयसल,परमार एवं कल्याणी के चालुक्य शासकों पर विजय प्राप्त की। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि इस किले का निर्माण कार्य एलोरा में राष्ट्रकूट राजाओं द्वारा कराये जा रहे गुफा निर्माण कार्याें के साथ ही हुआ। देवगिरि का यह दुर्ग इतना प्रसिद्ध हुआ कि दक्षिण भारत में यह सत्ता केन्द्र का प्रतीक बन गया। बाद में मुगल शासकों ने जब इधर अपना अभियान किया तो सर्वप्रथम यह दुर्ग ही उनका निशाना बना। खिलजी वंश ने देवगिरि पर कई हमलों के बाद सफलता पायी। 1309 में अचानक हुए हमले में यादव शासक कृष्ण देव के पुत्र रामचन्द्र को पराजय का मुँह देखना पड़ा। अपने इस हमले के परिणामस्वरूप अलाउद्दीन खिलजी अपार सम्पत्ति लूटकर दिल्ली ले गया। 1312 में मलिक काफूर ने देवगिरि पर आक्रमण कर रामचंद्र के पुत्र शंकरदेव को अपदस्थ कर मार डाला और हरपालदेव को शासक नियुक्त किया जिसने कालांतर में स्वयं को स्वतंत्र शासक घोष्िात कर लिया।
1325 में जब मुहम्मद तुगलक दिल्ली का सुल्तान बना तो उसने प्रशासनिक सुविधा के लिए अपनी राजधानी दिल्ली से देवगिरि ले जाने का फैसला किया और देवगिरि का नाम बदलकर दौलताबाद (धन या दौलत से भरा हुआ) रखा। यानी देवताओं का पहाड़ अब दौलत से आबाद हो गया। वैसे नाम परिवर्तन के उदाहरणों से हमारा इतिहास भरा पड़ा है। इसकी वजहें चाहे जो भी रही हों। उस समय और आज के जमाने में अंतर केवल इतना है कि उस समय नाम बदलने पर आज की तरह राजनीति संभवतः नहीं होती थी। 1328 में मुहम्मद तुगलक अपनी राजधानी दौलताबाद ले गया लेकिन उसका यह फैसला गलत साबित हुआ। यह गलत फैसला भी भीषण रूप से ऐतिहासिक हो गया। बाद में दक्षिण में मुहम्मद तुगलक की पकड़ कमजाेर होने पर दौलताबाद पर बहमनी शासकों का कब्जा हो गया। 1499 में बहमनी सल्तनत भी पाँच टुकड़ों में बँट गयी जिसमें दौलताबाद अहमदनगर की निजामशाही सल्तनत के अंतर्गत शामिल हो गया। इस काल में औरंगाबाद खड़की नामक एक गाँव था जहाँ से कई दिशाओं में सड़कें निकलती थीं। आज औरंगाबाद एक बड़ा शहर बन गया है जबकि दौलताबाद एक छोटा कस्बा ही रह गया है। कालान्तर में अहमदनगर के निजाम ने इस स्थान के सामरिक महत्व को देखते हुए मलिक अंबर को यहाँ का सूबेदार नियुक्त किया। 1626 में मलिक अंबर के निधन के बाद उसके पुत्र फतेहखान को इसकी जिम्मेदारी दी गयी जिसने खड़की का नाम बदलकर फतेहनगर रखा। 1633 में चार माह के घेरे के बाद दौलताबाद का किला मुगल शासकों के अधीन हो गया। इस समय औरंगजेब दक्कन का वाइसराय था। अौरंगजेब ने फतेहनगर को अपनी राजधानी बनाया। दक्षिण के हाकिम के रूप में आैरंगजेब ने दक्षिण भारत में मुगल सल्तनत के विस्तार में सफलता पायी। बाद में आैरंगजेब ने ही फतेहनगर का नाम औरंगाबाद रखा। मुगलों के बाद यह किला कुछ समय के लिए मराठों के अधीन रहा। 1724 में यहाँ हैदराबाद के निजाम का अधिकार हो गया।
दौलताबाद का यह किला 200 मीटर ऊँची एक शंक्वाकार पहाड़ी पर स्थित है। सम्पूर्ण किला परिसर का क्षेत्रफल लगभग 95 हेक्टेयर है। अपनी अवस्थिति एवं सुरक्षात्मक तकनीकों के कारण यह अजेय किले के रूप में जाना जाता रहा है। किले का भीतरी भाग बुर्जाें से युक्त तिहरी दीवारों– कालाकोट,महाकोट तथा आम्बेरकोट से घिरा हुआ है। अम्बेरकोट नामक दीवार सबसे बाहरी दीवार है जो काफी विस्तृत क्षेत्र को घेरती थी और इसका काफी कुछ हिस्सा नष्ट भी हो चुका है। वर्तमान में किले का मुख्य प्रवेश द्वार महाकोट नामक दीवार में ही स्थित है और यहाँ से गुजरने वाला राजमार्ग महाकोट के बगल से ही गुजरता है। किले के बाहर सूखी और पानी से भरी हुई खाइयां बनायी गयी हैं। महाकोट वाले प्रवेश द्वार से प्रवेश करने पर एक परिसर में छोटे–छोटे कक्षों में तोपें रखी हुईं हैं। ये कक्ष संभवतः पहरेदारों के थे जिनमें अब तोपों को रख दिया गया है।
किले के अंदर कई महत्वपूर्ण इमारतें हैं। किले के अंदर जाने वाले मुख्य रास्ते के बायीं तरफ भारत माता मंदिर एक विशाल परिसर में स्थित है। यह पहले संभवतः कोई जैन मंदिर था। मुख्य द्वार से अंदर प्रवेश करने पर एक बड़े आंगन के तीन तरफ इसमें गैलरियां थीं जिनमें दायीं व बायीं ओर की गैलरियां वर्तमान में अस्तित्व में नहीं हैं जबकि इनके स्तंभों के कुछ हिस्से अभी भी खड़े हैं। सामने की तरफ वाला हिस्सा एक विशाल बरामदे या कक्ष की तरह है जिसकी छत 150 स्तंभों पर टिकी हुई है। इन स्तंभों पर सुंदर नक्काशी की गयी है। इस कक्ष की पिछली दीवार पर भारत माता की मूर्ति स्थापित की गयी है जो संभवतः आधुनिक समय की है। अपने इतिहास में यह परिसर एक मंदिर के रूप में या फिर स्तंभाें पर की गयी कारीगरी के लिए प्रसिद्ध रहा होगा लेकिन वर्तमान में लैला–मजनुओं के लिए काफी मुफीद जगह है।
भारत माता मंदिर की विपरीत दिशा में अर्थात रास्ते के दायीं तरफ चांद मीनार स्थित है। इस मीनार का निर्माण अहमदशाह दि्वतीय बहमनी द्वारा सन 1447 में किया गया था। यह मीनार 70 मीटर ऊँची है जबकि जमीन पर इसकी परिधि 21 मीटर है। इस मीनार के ऊपरी भाग तक जाने के लिए एक चक्करदार सीढ़ी बनी हुई है। इस मीनार का सुंदर दृश्य किले के लगभग सभी भागों से दिखायी पड़ता है। वर्तमान में चाँद मीनार के कुछ छज्जों पर मधुमक्खियों के बड़े–बड़े छत्ते भी बने हुए हैं जो यहाँ आने वाले पर्यटकों पर अलाउद्दीन खिलजी की सेना की तरह कभी भी कहर ढा सकती हैं। चाँद मीनार के पास ही हाथी हौज है। हाथी हौज एक वर्गाकार आकृति का तालाब है जिसमें जमीन के नीचे से पानी के प्रवेश और निकास की व्यवस्था की गयी है। इस तालाब का उपयोग संभवतः सैनिक उद्देश्यों से किया जाता था।
इन सबको पार करने के बाद कालाकोट की दीवार और और उसका दरवाजा सामने था। दरवाजे से पहले दायीं तरफ एक इमारत है जो सुंदर कारीगरी किये हुए स्तंभों पर टिकी है। यह इमारत संभवतः किसी मंदिर का अवशेष है। बायीं तरफ पीने के पानी की व्यवस्था है जहाँ भीड़ लगी हुई थी। भीड़ में कुछ जागरूक लोग भी थे क्योंकि जब पीने के पानी से मैंने मुँह धोना शुरू किया तो एक महोदय ने मुझे टोक दिया।
किले के ऊपरी भाग तक पहुँचने का रास्ता "अंधेरी" से होकर जाता है। अंधेरी के अंदर सुरंगें बनी हुई हैं जो चक्करदार रूप में तेजी से उठकर ऊपर पहुँचती हैं। इनमें सीढ़ियों के सहारे जाया जा सकता है। सुरंगों के दरवाजे पर चमगादड़ों की तीखी गंध आ रही थी। इन सीढ़ीदार सुरंगों में घुप्प अंधेरा है और प्रकाश के अभाव में इनमें आना–जाना काफी कठिन है। किले में घूमने आये हुए काफी लोग अंधेरे और चमगादड़ों के डर से इनमें प्रवेश नहीं कर रहे थे। युद्धकाल में इन सुरंगों का उपयोग दुश्मन को चकमा देने के लिए किया जाता था। कहा जाता है इन अंधेरी सुरंगों पर विजय प्राप्त किये जाने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। एकबारगी तो हम भी अंधेरी की दो–चार सीढ़ियां चढ़ने के बाद बाहर निकल आये लेकिन जब वहाँ मौजूद कर्मचारी ने हिम्मत बढ़ाई तो हमने भी मोबाइल की टार्च जलायी और ऊपर बढ़ चले। सुरंग के ऊपरी भाग में रोशनी के लिए बल्ब लगाये गये हैं। अंधेरी से निकलने के बाद किले के ऊपरी भाग तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं लेकिन बहुत ही तीखी चढ़ाई है। दो मिनट में ही साँसें उखड़ जा रही थीं और पाँच मिनट में तो पसीना भी निकलना शुरू हो गया।
किले के ऊपरी भाग में बारादरी नाम से प्रसिद्ध एक सुंदर इमारत बनी हुई है। इस इमारत का निर्माण मुगल शासक शाहजहाँ के विश्राम के लिए सन 1636 में किया गया था। इस इमारत में 13 कमरे हैं। सेल्फी बहादुरों के लिए यहाँ काफी अवसर हैं। यहाँ तक पहुँच जाने के बाद चढ़ाई समाप्त हो चुकी थी। वापस जाने के लिए अब उतरना ही शेष था।
सब कुछ घूमने–घामने के बाद किले से बाहर निकलने में 4.30 बज गये। किले के अंदर की चढ़ाई–उतराई के कारण जोर की भूख लगी थी। किले के आस–पास मुख्य सड़क के किनारे बहुत सारे रेस्टोरेण्ट उग आये हैं। देखने में तो बहुत अच्छे लगते हैं लेकिन काफी महँगे हैं। ऐसे ही एक रेस्टोरण्ट में हमने 50 रूपये वाले गोभी परांठे का आर्डर दिया। मन में सकपका रहे थे कि पचास रूपये का परांठा– पता नहीं कैसा होगा। लेकिन जब विशालकाय परांठा सामने आया तो मन को कुछ संतोष मिला। बाहर से देखने में तो ठीक लग रहा था लेकिन अंदर का तो अब पता चलेगा। गोभी के परांठे का मतलब हमारी नजर में फूलगोभी का भरवां परांठा होता है। अब पत्तागोभी का भी परांठा बन सकता है,यह बात दिमाग में नहीं थी। वैसे पत्तागोभी का भी यह परांठा ठीक–ठाक ही था।
रेस्टोरेण्ट में बैठकर परांठे खाने के साथ साथ मेरी नजर सड़क पर भी थी जिससे कि कोई बस भी दिखे लेकिन कोई बस दिखी नहीं। रेस्टोरेण्ट से बाहर निकलकर हम औरंगाबाद के लिए बस का इंतजार करने लगे। आधे घण्टे गुजर गये मगर कोई बस नहीं गुजरी। एक बस गुजरी भी तो रूकी नहीं। कुछ स्थानीय लोगों ने सलाह दी कि बस के यहां रूकने की गारण्टी नहीं है। लोगों ने कहा कि आप यहाँ से दौलताबाद बस स्टाप चले जाइए और वहाँ से ऑटो या टैक्सी पकड़ लीजिए। अब हम ठहरे यूपी के आदमी। बस को कहीं भी हाथ देकर रोक लेने की आदत है। लेकिन लोगों की सलाह मानकर हम बस स्टाप पर चले गये। कुछ देर और इंतजार करने के बाद भी बस का अता–पता नहीं लगा। अभी यहाँ से औरंगाबाद 15 किमी दूर है तो ऑटो वाले 30 रूपये किराया माँग रहे थे। एक भले आदमी ने टैक्सी की ओर इशारा किया तो हम टैक्सी की ओर भागे। टैक्सीवाले से कई बातें एडवांस में तय की मसलन किराया– 20 रूपये,औरंगाबाद में उतरने की जगह– सेन्ट्रल बस स्टेशन,बैठने की सीट– आगे वाली। तब जाकर टैक्सी में सवार हुए नहीं तो ऑटो तो पकड़ना ही था। अपने कमरे पहुँचने में हमें 6.30 बज गये तो अब भोजन के अलावा अौर कहीं जाने का विकल्प नहीं था। फिर क्या था। रात में लॉज के पास ही सरदार जी के छोटे से रेस्टोरेण्ट में 50 रूपये प्लेट वाली राइस प्लेट की दावत हुई।
अगला भाग ः औरंगाबाद की सड़कों पर
किले के प्रवेश द्वार के दरवाजे में लगी कीलें |
चांद मीनार |
भारत माता मंदिर का प्रांगण |
भारत माता मंदिर परिसर का प्रवेश द्वार |
भारत माता |
भारत माता मंदिर के स्तम्भ |
चांद मीनार |
कालाकोट दरवाजे के दायीं तरफ स्थित स्तंभों पर टिक एक इमारत |
मेंढा तोप के आस–पास लगी भीड़ |
चांद मीनार के बगल से गुजरता रास्ता |
बारादरी |
बारादरी के कमरे |
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
7. औरंगाबाद की सड़कों पर
बहुत महत्वपूर्ण जानकारी भाईसाहब
ReplyDeleteधन्यवाद भाई ब्लॉग पर आने के लिए
Deletehistory ,geography added flavour.. nice..
ReplyDeleteThanks
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